वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 26
From जैनकोष
असच्छास्त्रप्रणेतार प्रज्ञालवमदोद्धता:।
संति केचिच्च भूपृष्ठे कवय: स्वान्यवंचका:।।26।।
स्वपरवंचकों द्वारा असत् शास्त्र का प्रणयन― जैसे लोकव्यवहार के कामों में विषयों के अभिलाषी पुरुष दंभी ठगिया बहुत से जीवन में मिला करते हैं ऐसे ही परमार्थपथ पर चलने वाले इस यात्री को ऐसे ठगिया भी मिला करते हैं जो खोटे शास्त्रों की रचना वाले हैं, जो थोड़ी बुद्धि पा लेने के कारण मद से उद्धत हो गये हैं ऐसे अपने आपको और दूसरों को ठगने वाले भी इस पृथ्वी की पीठ पर अनेक हैं। निष्पक्ष हो तो कुछ निर्णय किया जा सकता कि यह बात हित की है और यह बात अहित की है, जैसे सभी लोग यह निर्णय करने लगते हैं कि यह अन्याय है और यह अन्याय नहीं है। यह पाप है अथवा यह पाप नहीं है। कुत्ते तक तो इस बात को समझते हैं। कोई कुत्ता किसी के चौके से चोरी से दो चार रोटी लेकर भगे तो वह दूसरों की आँख छुपाकर पूँछ दबाकर कहीं एकांत में जाकर खाता है, दूसरे कुत्ते को देखकर वह कायरतापूर्वक भागता हे और किसी कुत्ते को आप स्वयं रोटी खिलायें तो वह प्रसन्न होकर, पूँछ हिलाकर खाता है। तो उन कुत्तों के भी यह बात बसी है कि यह चोरी का काम है यह पाप का काम हैं। कौन नहीं जानता कि यह हित की बात है और यह अहित की बात है? हाँ अज्ञान का उदय है, मिथ्यात्व का रंग चढ़ा है तो नहीं समझ सकते। इस पृथ्वीतल में थोड़ीसी बुद्धि पाकर मदोन्मत्त हुए खोटे शास्त्रों से रचने वाले अनेक कविजन हैं वे केवल अपने आत्मा का और भले जीवों का ठगने का ही काम करते हैं, खुद डूबते और दूसरों को भी डुबाते हैं।
देवशास्त्र गुरु के निर्णय की आवश्यकता― सर्वप्रथम धर्मपालन के लिये यह निर्णय होना जरूरी है कि सच्चे देव, सच्चे शास्त्र और सच्चे गुरु कौन कहलाते हैं? क्योंकि किसी भी कार्य में देव, शास्त्र, गुरु का सहारा लिये बिना सफलता नहीं मिलती है। कुछ भी कार्य ले लो। मानो किसी को संगीत सीखना हो तो उसकी दृष्टि में यह बात बनी हुई है कि मुझे ऐसा बनना है, तो दुनिया में जिसका भी नाम सुन रक्खा हो, चाहे कभी देखा हो या न देखा हो, बुद्धि में यह बात आती है कि मुझे ऐसा बनना है तो यह तो हुआ उस संगीत शिक्षार्थी का देव और देवों से तो व्यवहार निभता नहीं है, तब अपने ही ग्राम में, मोहल्ले में जो सिखाने वाले उस्ताद हैं उनसे यह सीखता है, वे हुए संगीतगुरु और जिन पुस्तकों में संगीत की विधि लिखी हुई है, मंद तेज बोलने के चिन्ह दिये हैं वे है संगीत के शास्त्र। संगीत सीखने वाला उस पुस्तक को भी देखता है और उसमें जैसा लिखा हैसा रे गा मा इत्यादि उसमें अंगुली धरता जाता है, फिर और कठिन से कठिन चिन्हों को क्रमश: सीखता जाता है। उन सीखने में जिन-जिन पुस्तकों का सहारा लिया जा रहा है वे हैं संगीत के शास्त्र। कौनसा काम ऐसा है जिसमें इन तीन के बिना सफलता मिली हो? न कहीं पुस्तक हों, तो जो वचन बोले जायें वे ही शास्त्र हुये। यदि धर्म के मार्ग में हम आगे बढ़ना चाहें तो धर्म के देव, धर्म के शास्त्र और धर्म के गुरु― इन तीन का कारण आवश्यक हो जाता हैं। तो यह निर्णय करना बहुत आवश्यक है कि सच्चे देव, सच्चे शास्त्र और सच्चे गुरु कैसे होंगे।
देवत्वनिर्णय― यह आत्मा मलिन कर्मबद्ध देह में फँसा हुआ , जन्म मरण के चक्र में पडा हुआ हितार्थी बनकर यह चाहता है कि इन सब बंधनों से मैं कैसे छूटूँ, मेरा यह काम करने को पडा है कि में इन उपाधियों के बंधन से कैसे छूटूँ, जब जो छूटा हुआ हो वह हमारा आदर्श बन जाता है, मुझे इस प्रकार छूटा हुआ बनना है, जो बंधनों से छूटा हुआ हो, निर्दोष हो और सर्वज्ञ, गुणसंपन्न हो यही हुआ हमारा देव। हमें नाम का पक्ष नहीं रखना है।24 तीर्थंकरों के नाम अथवा अन्य मोक्षगामियों के नाम हम व्यवहार में इस कारण लिया करते हैं कि जिस भव का नाम लोगों ने यह रक्खा हो उस भव में अवस्थित आत्मा ने अपना उद्धार किया, इतने मात्र संबंध के कारण नाम लेकर स्तवन किया जाता है, पर जो नाम है वह भगवान नहीं, जो भगवान है उसका नाम नहीं। एक चित्स्वरूप अखंड शुद्ध निर्दोष रागरहित ज्ञानप्रकाश ऐसा ज्ञानपुंज ही देव है उस पर दृष्टि देना है कि मुझे यों बनना है। जब तब हम यों नहीं बन सकेंगे तब तक हमारा उद्धार नहीं है, फिर उस देव से तो व्यवहार कभी चलता नहीं, जीवन की चर्या उस देव से हमारी निभती नहीं, तब हम क्या करें? जो आसपास निकट क्षेत्र में कहीं इस कार्य के सफल कुशल गुरु मिलें तो उनसे उनके संग में रहकर हम इस पथ के गमन की शिक्षा लें और उस पथ में चलने का यत्न करें।
गुरुत्वनिर्णय― जो निर्दोष होने के यत्न में लग रहे हैं वे गुरु हैं जो विषयों की आशा से रहित हैं, निरारंभ निर्ग्रंथ हैं और ज्ञानध्यान तपस्या से ही जिनका प्रयोजन है ऐसे तपस्वी दिगंबर साधु हमारे गुरु हैं। कभी ऐसे गुरु न मिलें तो ये जो निर्दोष प्रतिपादन करने वाले शास्त्र हैं इन शास्त्रों के पद-पद में वाक्य-वाक्य में गुरु बसे हुए हैं। दर्शक इन शास्त्रों के वचनों में गुरु का भी दर्शन कर रहा है। जिन आचार्यों ने शास्त्र बनाया उन गुरुवों का स्मरण रहता है और अपनी इच्छा के माफिक उनकी कुछ न कुछ शकल भी उपयोग में रखता है। चाहे उन आचार्यों की कभी फोटो भी न देखी हो। कुंदकुंदाचार्य आदिक देवों का जब नाम लेते हैं तो उनकी कुछ न कुछ मुद्रा भी हमारे सामने झलकती है, ऐसे ही समंतभद्र अकलंक इत्यादि जिनके भी चारित्र सुनते हैं उनकी मुद्रा का कुछ न कुछ स्मरण हो जाता है। तो इन शास्त्रों के अध्ययनकाल में हमें यों गुरु के भी दर्शन होते रहते हैं। और फिर जो भी मिलें बड़े गुरु, छोटे गुरु, सधर्मीजन, सम्यग्दृष्टिजन उनमें अपना संग बनायें।
सत् शास्त्र― शास्त्र वही है जिनमें वीतरागता की विधि लिखी हो, निष्पक्ष हो। देखो सर्वज्ञदेव के शासन में यह उपदेश आया है कि हे कल्याणार्थी जनो, यदि तुम अपना कल्याण चाहते हो तो अपने स्वरूप में मग्न होओ, उन्हें यह नहीं पड़ी थी कि भक्तों को उपदेश दे कि मेरी शरण आओ उनका तो उपदेश है कि तुम अपने स्वरूप को देखो और उसमें ही मग्न होओ ऐसी निरपेक्षता बतायी है। बस स्वरूपदृष्टि से ही स्वयं शुद्ध आनंद पा लोगे।
तत्त्वभक्ति में ही लाभ― मोह से बढ़कर कुछ विपदा नहीं है। और अज्ञानीजनों को यह मोह ही सस्ता लग रहा है। ज्ञान और वैराग्य की बात तो बड़ी ही कठिन लग रही है और मोह करने की बात सुगम लग रही है। निर्मोहता की बात मन में भी नहीं आती है। कदाचित् धर्म भी करें तो मोहप्राप्ति के लिये करेंगे, कल्याण तो निर्मोह होने में है। जब होनहार अच्छा हो तब करियेगा। सच्चे देव, सच्चे शास्त्र, सच्चे गुरु का निर्णय करके अपनी भावना में अपने ज्ञानपथ में उनकी उपासना करिये, प्रभुभक्ति से बहुत बड़ी सिद्धि होगी और कुटुंब भक्ति से , वैभव भक्ति से कुछ सिद्धि न होगी। यह वैभव भी प्रभुभक्ति से पाये हुए पुण्य का फल है। यों ही जीवों को जैसे चाहे अटपट ढंग से मिल जाता हो ऐसी बात नहीं है, हमारी दृष्टि ज्ञान की ओर जगे और उत्तम शास्त्रों के बनाने वाले गुरुवों के प्रति भक्ति जगे यह एक अपनी सावधानी का कर्तव्य है।