वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 500
From जैनकोष
अहिंसैव शिवं सूते दते च त्रिदिवश्रियं ।अहिंसैव हितं कुर्याद् व्यसनानि निरस्यति ॥500॥
कर्म बंधन रहित परिणति अहिंसा ― यह अहिंसा ही मुक्ति को प्रदान करती है । कर्म बँधें हैं यह तो संसार और कर्म छूट जायें यह है मुक्ति । कर्म बँधा करते हैं विकार भाव के कारण । विकार में मोह राग द्वेष ये तीन आ गए । यदि कर्मबंधन से मुक्त होना है तो मोह राग द्वेष इन विकारों को दूर करें । ये दूर हो जायें इस ही का नाम अहिंसा है । अहिंसा से ही मुक्ति प्राप्त होती है और यह अहिंसा स्वर्ग लक्ष्मी को प्रदान करती है । अहिंसा रहते हुए कुछ थोड़ी सी कमी रह जाय, कुछ राग द्वेष की वृत्तियाँ चलती रहें पर प्रधानता हो अहिंसा की तो ऐसे जीवन वाले आत्मा को स्वर्गादिक लक्ष्मी की प्राप्ति होती है । यह अहिंसा ही आत्मा का हित करती है । अहिंसा स्वयं हित है । कोई विकार तरंग न उठना, केवल ज्ञानप्रकाश का ही अनुभव रहना ऐसी जो उत्कृष्ट आत्मपरिणति है वह ही तो अहिंसा है, और यही आत्महित है । जिसमें कर्मबंध न हो, कोई आकुलता न हो वही तो आत्महित है । कर्मबंध और आकुलता विकारों से हिंसा ही हुआ करती है । तो अहिंसा ही आत्मा का हित करने वाली है ।
परोपकारी धर्म अहिंसा ― अहिंसा परिणाम से समस्त कष्ट और आपदायें नष्ट हो जाती हैं । कल्याणार्थी पुरुष को इतना उदार रहना चाहिए कि समस्त जीवों को अपने स्वरूप के समान लख सके । समस्त जीव मेरे ही स्वरूप की तरह चैतन्यस्वरूपी हैं, इनमें यह मेरा है यह पराया है ये बातें नहीं पड़ी हुई हैं । सभी जीव अत्यंत न्यारे हैं मुझसे । चाहे वे एक घर में उत्पन्न हुए हों, पर हैं वे सब भिन्न । और स्वभावदृष्टि से निरखने पर हैं सब अपनी ही तरह । जब कुछ जीवों को अपना मान लेते और अपने तन, मन, धन, वचन सब कुछ उनके ही लिए न्यौछावर कर देते हैं और जहाँ सब जीव अपने स्वरूप के समान नजर आयें और वास्तविकता का जहाँ परिचय हुआ वहाँ होती है परमार्थ उदारता । यह उदारता जो वर्तते हैं उनके कष्ट और आपदायें नहीं आतीं । जो सब जीवों को अपने समान समझते हैं उन पर फिर कौन आपत्ति डाले और पूर्वकृत कर्मों के उदयवश यदि कोई विपदा भी डालता है तो वह अहिंसक पुरुष दूसरे को शत्रु नहीं मानता है । उसके तो अंत: यह प्रकाश है कि मैं ज्ञानस्वरूप हूँ, मेरा ज्ञानरूप परिणमन होना मेरा कार्य है । बस इतना ही मुझमें मेरा वास्ता है, इसके अतिरिक्त अन्य कुछ हममें नहीं है ।
उदारता बिना अहिंसा नहीं ― तो वह पुरुष जो उदार है, अहिंसा धर्म का पालन करता है, सब जीवों को अपने समान समझता है उसे विपत्ति और कष्ट नहीं आते हैं । जिसका ऐसा अहिंसक जीवन हो वही आत्मा का उत्कृष्ट ध्यान कर सकता है और जो आत्मध्यान करता है उसको मुक्ति प्राप्त होती है, सर्व संकट दूर होते हैं, सर्वकल्याण प्राप्त होता है ।