वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 603
From जैनकोष
अचिंत्यकामभोगींद्रविषयव्यापारमूर्छितम्।
वीक्ष्य विश्वं विवेकाय यतंते योगिन: परं।।
कामाग्नि की ज्वाला का दुष्परिणाम- कामरूपी निर्दय अग्नि प्रथम तो जीवों के हृदय में प्रज्ज्वलित होती है। और जब यह कामाग्नि वृद्धि को प्राप्त होती है तो शरीर के अंगोपांगों को भस्म कर देती है अर्थात् सूखा देती है। चिंता चिता से भी बढ़कर दु:खदायी है। किसी भी ओर की चिंता हो, धन वैभव की, इष्ट वियोग की, अनिष्ट संयोग की किसी भी प्रकार का शोक हो उस चिंता में मनुष्य का शरीर घुल जाता है और फिर यह बेहूदी चिंता है कामविषयक चिंता, जिसका न कोई आधार है, न रूपक है, न वास्तविकता है। केवल एक हृदय में विकल्प उठ बैठा तो उस वेदना से पीड़ित होकर यह जीव अपने शरीर को सुखा डालता है।
निष्काम कर्मयोग का ब्रह्मचर्य के साधन में सहयोग- कामी पुरुष का जीवन बेकार है। निष्काम होने के लिए कर्तव्यशील होने की बहुत जरूरत है। निष्काम कर्मयोग यह ब्रह्मचर्य की साधना में बहुत सहायक उपाय है। क्या? बिना विषयसाधनालक्ष्य के जीवों का उपकार, कर्तव्य का पालन, उन कर्तव्यों से अपने लिए चाहें मत। चाहें तो इतना ही चाहें कि हे भगवन् ! स्वप्न में भी मुझमें विकार भाव न जगे। अपने आपको निर्मल पवित्र बना सकना यह बहुत ऊँचा कार्य है। कुछ भी परिस्थिति आये, दरिद्रता है तो क्या है, वह कुछ विपत्ति है क्या? पदार्थ है, नहीं रहा यहाँ, किसी में निकट रहा। जिसके निकट वैभव है वह वैभव से वैभववान नहीं हो गया, वह तो अब भी अकेला है, अपने स्वरूपमात्र है। और, जिसके निकट वैभव नहीं है उसका गया क्या आत्मा से? आत्मा में गुण कम हो गए क्या? कौनसी व्यथा आ गई? पर मोह में एक दृष्टि ऐसी बन जाती। ये जगत के मोही जन मुझे लोग भला कहें, बस इतने मात्र के काल्पनिक सुख के लिए जो कि असार है, असार ही नहीं विपत्तियों का कारण है इतने मात्र सुख के लिए इतने श्रम और विकल्प करते हैं मोहीजन। उनमें तत्त्व कुछ नहीं है। धर्मकार्य करें तो आत्मउद्धार के लक्ष्य से ही करें। पारमार्थिक ब्रह्मचर्य की साधना के लिए ये सब धर्मकर्तव्य है- शील से रहना, उपवास करना, दर्शन करना, स्वाध्याय करना आदि।
ब्रह्मचर्य का सहयोगी विवेक- इंद्रिय के समस्त विषयों में से कामविषय इतनी विकट विपत्ति है कि जिससे कह सकते कि इसका जीवन बेकार है। उस भावना को बदलकर एक शुद्ध आत्मतत्त्व के निरखने में लगना, उसमें उपयोग जमा रहे, इसकी वृत्ति में यत्न होना चाहिए। रही गृहस्थावस्था में आजीविका की बात, उसके संबंध में यह विश्वास बनायें कि परिवार में जितने भी लोग हैं सबके साथ कर्म का उदय लगा है। जैसे हम है कर्मसहित वैसे ही घर के सब लोग हैं कर्मसहित। सभी अपने-अपने कर्मों से सुखी दु:खी होते हैं। उनका उदय अच्छा होगा तो हम या अन्य कोई उनसे पालन पोषण में निमित्त बनेंगे। मैं किसी का पालन पोषण नहीं करता, मैं तो केवल अपने आपमें अपने विकल्प करता हूँ। ऐसी प्रतीति बनायें और धर्मकार्यों को मुख्य मानें और वह भी बनता है ब्रह्मचर्य की भावना सहित। सो ब्रह्मचर्यव्रत को अधिकाधिक निर्दोष बनाने का प्रयत्न करें।