वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 70
From जैनकोष
अंगनादिमहापाशैरतिगाढं नियंत्रिता:।
पनत्यंधमहाकूपे भवाख्ये भविनोऽध्वगा:।।70।।
अज्ञानांधों की वृत्ति― इस संसार में निरंतर परिभ्रमण करने वाले ये प्राणी स्त्री आदिक के महान् पापों से अर्थात् बड़े-बड़े रस्सों से बड़े दृढ़ बंधे हुए होकर नियंत्रित होकर अंधमहाकूप में गिरते हैं। जैसे अंधे पुरुष मार्ग में चलते-चलते कूप में गिर पडते हैं इसी प्रकार ये आँखों वाले प्राणी भीतर से ज्ञाननेत्र के बुझने से अंधे हुए प्राणियों के समान इस संसाररूपी कुएँ में गिरते हैं। क्या ढंग हो रहा है? मनमाने विचार बनाये, वैभव का संचय किया, विषयों की प्रीति हुई, अपने स्वरूप की सुध खोई और इस संसार में जन्म-मरण के चक्र चलाते रहे, यही है इनकी चर्या।
मोहियों की चर्या― कोर्इ पूछे कि आजकल तुम किस चर्या से चल रहे हो? क्या प्रोग्राम है क्या आपका कार्यक्रम है? तो जिस प्रोग्राम से आप चल रहे हो उसे बता दोगे। जिस किसी भी पदार्थ को अपना इष्ट अथवा अनिष्ट मानकर राग में हम अंधे बनते हैं और द्वेष में हम जले जाते हैं। सुनो भाई यह अपना प्रोग्राम बतला रहे हैं, हम किस प्रोग्राम में चलते हैं यह प्रोग्राम कहा जा रहा है और अपने इस कुटुंब के प्रोग्राम में चलकर कर्मबंध करते हैं और उसके उदयकाल में फिर कष्ट बढ़ाते हैं, और ऐसा करते हुये हम क्या कर रहे हैं, इसका कुछ पता भी है आप लोगों को। होना तो चाहिये पता। क्योंकि हम आप सबका एक प्रोग्राम है। इस मामले में हम आप सब एक संगठन बनाये हुये हैं, क्या करते हैं? जन्मते मरते हैं, रागद्वेष करते हैं, विषय उपभोग करते हैं, बहुत बड़ा प्रोग्राम है। यह बात चल रही है संसारी जीवों की। ये संसारी प्राणी अन्य प्राणियों की तरह ज्ञान के अंधे बन-बनकर संसाररूपी कुवे में पतन किया करते हैं। अंधा चलेगा, उसे क्या पता कि आगे क्या है? कुवां मिला, उस ही में गिर पड़। इसी तरह अज्ञान के अंधे पुरुष, इन्हें क्या पता कि आगे क्या होगा, भविष्य में क्या होगा? बस आगे जन्म-मरण की वेदना के कुएँ में गिर जाते हैं।