वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 885
From जैनकोष
प्रागेवालोक्य यत्नेन युगमात्रहितेऽक्षिण:।
प्रमादरहितस्यास्य समितीर्या प्रकीर्तिता।।
ईर्यासमिति में संयमन- ईर्या का अर्थ है चलना। परमार्थ में तो भाव यह लीजिये कि अपने आपके विशुद्ध आत्मतत्त्व में चलना सो ईर्या है और व्यवहार में यह अर्थ लीजिये कि देखकर जमीन पर गमन करना सो ईर्या है। व्यवहार चूंकि परमार्थ की याद दिलाता है और परमार्थ का साक्षात् विरोध कर दे ऐसा व्यवहार नहीं हुआ करता है, अतएव रास्ता चलने में भी आत्मा की याद कैसे बनायी जाती है और आत्मस्मरण सहित वह पथ गमन होता। इन सबका समन्वय देखना होगा। प्रथम तो मुनिजन अच्छे काम के लिए चलें तब ईर्यासमिति कहलायेगी। कोई पुरुष किसी दूसरे को मारने के लिए तो चले और चार हाथ आगे जमीन देखकर चले, चींटी न मर जाय, इस तरह बड़ा शोधकर जाय तो क्या उसे ईर्यासमिति कहते हैं? केवल एक ऊपरी पालन से ही धर्म तो नहीं लगता। कोई संत सिद्ध क्षेत्र में वंदना के लिए अथवा जिन प्रतिमा की वंदना के लिए या गुरु आचार्य तपस्वी जो अपने आप हैं, जिनसे अपने हित की दिशा मिल सकती है उन गुरुजनों की सेवा करने के लिए यदि गमन किया जा रहा हो तो उसके ईर्यासमिति होती है। कोई साधु मोहवश अपने गांव के लिए, परिजनों से मिलने के लिए या अन्य-अन्य किन्हीं कार्यों के लिए गमन करे तो उसके ईर्यासमिति का उद्देश्य न रहने से परमार्थ ईर्या का विरोध हो जाने से ईर्यासमिति नहीं होती है। जब संतजन सिद्ध क्षेत्र की वंदना के लिए चलते हैं तो उनका आत्मस्मरण भी साथ चलता रहता है। मैं अमुक सिद्ध क्षेत्र पर जाऊँगा जहाँ से असंख्यात मुनिराज सिद्ध हुए हैं। उन्होंने अपने आत्मस्वभाव का दर्शन करके अपने आपमें निर्विकल्प निस्तरंग भव्यता प्राप्त करके मुक्ति प्राप्त की है, मैं उस स्थान पर जाऊँगा जहाँ मैं ऐसे सिद्धि भगवंतों की स्वरूपपरिणति का स्मरण करूँगा, यह उसका भाव है, अथवा जिनमंदिर की वंदना के लिए जा रहा हूँ तो वहाँ भी उसका आत्मस्मरण ही प्रयोजन है। जिनबिंब के दर्शन करके ज्ञानी पुरुष सीधा अपना ध्यान उन प्रभु की ओर ले जाते हैं, जिनकी बिंब में स्थापना की है। कोई पुरुष अपने गुरु की फोटो लिए हुए हो तो उस फोटो का आदर जो करता है, उसे खूब सम्हालकर रखता है और कभी कभी अपने मस्तक के निकट भी ले जाता है तो क्या उस कागज का, उस स्याही का, उस पिंड का वह आदर करता है? देखने में तो ऐसा ही लग रहा है लेकिन जिसका फोटो है उसके गुणों का विशेष स्मरण हो रहा है। उस गुणस्मरण से प्रेरित होकर उस फोटो का भी आदर करता है। तो ऐसे जिनबिंब को निरखकर जिन तीर्थंकरों की स्थापना की है उनका चरित्र, तपश्चरण भी सब ध्यान में आ रहा है तो आत्मस्मरण होता है। सर्वपरिणतियाँ आत्मस्मरण में सफल होती हैं। धर्म के नाम पर कुछ भी किया जाय, यदि आत्मस्मरण नहीं होता, निज अंतस्तत्त्व की दृष्टि नहीं जगती तो वह विचित्र आनंद जो आत्मा में स्वभावत: मौजूद है, स्वरूप ही जो है उसकी झलक भी नहीं हो पाती। तो ईर्यासमिति का परमार्थ तो यह भाव है कि अपने आपके परमात्मतत्त्व में गमन करना और जब व्यवहारिक अर्थ है, परिणतिरूप अर्थ है- तो वहाँ इस ईर्यासमिति के स्वरूप में सबसे प्रथम यह नियंत्रण बताया है कि अच्छे कार्यों के लिए जाय तो ईर्यासमिति है। दूसरी बात- दिन में जब कि सूर्य की किरणों से रास्ता स्पष्ट दिखता हो, बहुत लोग जिसमें गमन करते हों ऐसे मार्ग में दयालुचित होकर जीवों की रक्षा करते हुए जो धीरे-धीरे गमन करे उस मुनि के ईर्यासमिति होती है। दूसरी बात यह बतायी गयी है कि दिन में चलना चाहिए। जब कि सूर्य की किरणों से स्पष्ट प्रकाश नजर आ रहा हो, कोई साधु सिद्धों की वंदना के लिए भी जाय किंतु चले रात्रि को जैसे कि शिखर जी की वंदना करने वाले लोग डेढ़ बजे रात्रि से ही चलते हैं तो साधु के लिए वह योग्य काम नहीं बताया है। वह साधु की ईर्यासमिति न मानी जायगी। तीसरी बात- ऐसे मार्ग से न चलना चाहिए जिस मार्ग से अनेक लोग चलते हों। कोई तीर्थवंदना के लिए भी जाय, दिन में भी जाय लेकिन अटपट मार्ग से जाय जिससे कोई जाता न हो, जो मार्ग प्रासुक नहीं हुआ है, गीला है, बफूड़ा है, जमीन पर बहुत से फूल हैं ऐसे मार्ग से जाय तो उसकी ईर्यासमिति न कहलायेगी। तो तीसरी बात यह है कि ऐसे मार्ग से गमन करना चाहिए जो मार्ग अनेक पुरुषों के द्वारा चला गया हो, प्रासुक हो गया हो। चार बातें हैं- चार हाथ आगे जमीन निरखकर चले तब वह ईर्यासमिति है, दिन में भी चले, अच्छे मार्ग के लिए भी चले, प्रासुक मार्ग से भी चले, पर सिर ऊँचा उठाकर चले, चार हाथ जमीन आगे निरखता हुआ न जाय तो इसके ईर्यासमिति नहीं होती है। 5 वीं बात यह लगा लें कि कोई खोटे भावों सहित जाये तो भी ईर्यासमिति नहीं होती है। जैसे कोई पुरुष गुरुवंदना के लिए भी जाय, दिन में जाय चाहे रात्रि में जाय, चार हाथ आगे जमीन देखकर जाय किंतु क्रोधपूर्वक जाय, अभिमानपूर्वक जाय या आफत सी पड़ गयी, जाना ही पड़ेगा नहीं तो लोग क्या कहेंगे, यों लाजवश जाय तो चूंकि किसी शुद्ध भावसहित गमन नहीं किया, अतएव वहाँ भी ईर्यासमिति नहीं हुई। इस तरह की प्रकृति वाले पुरुषों के प्राय: आत्मकल्याण की सिद्धि नहीं होती है। जो पुरुष आत्मकल्याण के इच्छुक हैं उन्हें एक इस आत्मतत्त्व की ही धुन लगी रहती है, सो जहाँ भी जायेंगे, इस आत्मतत्त्व की सिद्धि के लिए ही जायेंगे।