वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 10
From जैनकोष
दव्वं सल्लक्खणयं उप्पादव्वयधुवत्तसंजुत्तं।
गुणपज्जयासयं वा जं तं भण्णंति सव्वण्हू।।10।।
द्रव्य की सल्लाक्षणिकता―द्रव्य क्या होता है, वस्तु कैसी होती है, पदार्थ कितने-कितने हुआ करते हैं? इस बात की समझ पर कल्याण की निर्भरता है, पदार्थ का सही स्वरूप जाने बिना न मोह हटेगा और न आत्मा में रमण हो सकता है । तो इस गाथा में द्रव्य का स्वरूप बताया जा रहा है, द्रव्य सत् लक्षण वाला है, सन्मात्र है। द्रव्य सन्मात्र है, यह भी कथन सही है। द्रव्य सत् लक्षण वाला है, यह भी कथन सही है। सन्मात्र कहने में अभेददृष्टि है, सत् लक्षण कहने में भेददृष्टि है। यह द्रव्य है, इसका लक्षण सत् है। इस लक्षण के कहने से क्षणिक एकांत का निराकरण हो जाता है, असत् की उत्पत्ति का निराकरण हो जाता है। जो सत् है उसही में अवस्थायें होती हैं। न असत् उत्पन्न होता, न असत् में अवस्थायें होतीं। हाँ पर्यायदृष्टि से चूँकि जो पर्याय उत्पन्न हुई है वह पहले न थी, इस कारण असत् की उत्पत्ति कही जा सकती है, मगर वह पदार्थ ही बिल्कुल न था और एकदम असत् का उत्पाद हुआ यह है क्षणिक एकांत का सिद्धांत और इतना ही नहीं, उत्पन्न हुआ और दूसरे समय में असत् हो गया, सत् केवल एक समय का माना जाता है क्षणिक सिद्धांत में । यदि द्रव्य सत् लक्षण वाला नहीं है, किंतु एकदम असत् का ही उत्पाद हो, ऐसा क्षणिक एकांत माना जाय तो न मोक्षमार्ग बनेगा, न दु:खों से छूटने का उपाय बनेगा, धर्म का लोप ही हो जायगा, धर्मपालन का फिर कोई अर्थ न रहेगा। धर्म करने वाला कौन? एक समय को तो आत्मा रहा, कदाचित् उसने धर्म किया तो वह तो धर्म करके मिट गया, असत् हो गया। अब दूसरा उसका फल पायगा। तो क्या यह कोई पदार्थ के स्वरूप की निशानी है? द्रव्य सत् है, अनादि से सत् है, अनंतकाल तक सत् होगा। यों द्रव्य सत् लक्षण वाला है।
द्रव्य की उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तता―द्रव्य सत् लक्षण वाला है, इतने से कोई न समझे तो दूसरा लक्षण कहा जा रहा है कि द्रव्य उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त है। जो है उसमें नियम से अगली अवस्थायें होती हैं, पहली अवस्थायें विलीन होती हैं और दोनों अवस्थावों का, समस्त अवस्थाओं का आधारभूत वस्तु ध्रुव रहा करता है। उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य होना पदार्थ में स्वाभाविक है, किसी उपाधि के कारण नहीं है, उपाधि के कारण विशेष उत्पाद विशेष व्यय, ये तो बनेंगे मगर उत्पाद मात्र, व्यय मात्र, द्रव्यमात्र ये वस्तु के स्वाभाविक धर्म हैं। चूँकि वस्तु है अतएव नियम से उत्पादव्ययध्रौव्य होगा ही। इस लक्षण के कहने पर नित्य एकांत का परिहार हो जाता है। जो लोग मानते हैं कि पदार्थ नित्य ही है, उसमें परिणमन ही नहीं होता तो प्रथम तो यह बात बनती ही नहीं, क्योंकि परिणाम बिना, पर्याय बिना, व्यक्ति बिना हम उस द्रव्य को समझे क्या? कोई भी पदार्थ अवस्था शून्य नहीं होता है तो उसकी अवस्थायें हैं कोई और अवस्था है तो उसमें अनित्यता आयी। नित्य होकर भी अनित्य है, अनित्य होकर भी नित्य है। ऐसा नित्यानित्यात्मक पदार्थ होता, यह बात उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक लक्षण के समझने से एकदम स्पष्ट होती है। उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य होते किसके हैं? उसही पदार्थ का, उसही के स्वरूप का विरोध न रखकर उसही स्वरूप में, उसही द्रव्य में क्रम से होने वाले जो परिणाम हैं, अवस्थायें हैं उन अवस्थाओं में पूर्वभाव का विनाश होता है, उत्तर भाव का उत्पाद होता। किंतु अपनी जाति का त्याग नहीं होता। यों उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त पदार्थ है। पदार्थ अपनी पर्याय में ही उत्पन्न हो पाता, अन्य द्रव्य की पर्याय में नहीं। पदार्थ अपनी ही पर्याय का विनाश करता, दूसरे की पर्याय का विनाश नहीं करता। पदार्थ अपने आपके स्वरूप में ही सदा रहता है, दूसरे पदार्थ के स्वरूप में नहीं रहता। यह बात भी उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त के परिचय से ज्ञात हो जाती है। द्रव्य का सही लक्षण जानने पर मोह ध्वस्त होता है। वह इसी तरह तो हुआ। जब उसका उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य उसके ही स्वरूप में है, उसके ही प्रदेशों में है अन्य का अन्य के प्रदेशों में है तो एक पदार्थ का दूसरे पदार्थ से नाता क्या रहा? जब यह बात स्पष्ट विदित हो रही तो उसके मोह तो न रहेगा। यह हो नहीं सकता कि पदार्थ के इस सत्यस्वरूप का सही परिचय हो जाय निर्णय हो जाय और मोह रहे। भले ही परिस्थितियाँ राग करने को बाध्य करें, राग और द्वेष चलते हों, पर स्वरूप निर्णय के बाद मोह तो नहीं रह सकता। मोह नाम किसका है? स्वरूप का अनिर्णय, निज और पर में भेद का अज्ञान रहना। सो जहाँ वास्तविक ज्ञान हुआ वहाँ यह अज्ञान नहीं ठहरता। मोह तो रहता नहीं और मोह न रहना एक बहुत मौलिक पवित्रता है, जो आगे की पवित्रताओं का बीज है और इस प्रकार की समझ बनाने में कष्ट क्या होता है? आनंद ही मिलता है। सही बात जान लिया। मोह न रहेगा तो झंझट न रहेगा। तो पदार्थ का लक्षण दूसरा यह बताया है कि वह उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य से संयुक्त है।
द्रव्य की गुणपर्यायाश्रयता―तीसरा लक्षण है द्रव्य गुण-पर्याय का आश्रय है अथवा कहो―गुणपर्यायवान है या यों कहो कि गुण पर्यायमय है। जैसे दूसरा लक्षण कहा था उत्पादव्ययध्रौव्य, तो उत्पादव्यय के लक्षण द्वारा तो पर्याय समझा गया और ध्रौव्य लक्षण द्वारा गुण समझा गया। ये लक्षण परस्पर व्यंजक-व्यंजक भाव को धारण करते हैं। जैसे कभी कोई बात कहता है―कोई बात समझने में कठिन पड़ गई तो मायने, याने, अर्थात् कहकर जैसे स्पष्टीकरण किया जाता है, ऐसे ही इन तीन लक्षणों में द्रव्य के स्वरूप का स्पष्टीकरण करें और साथ ही इसमें तथ्य है, द्रव्य, गुण, पर्याय का आश्रय है याने द्रव्य में अनादिअनंत शाश्वत रहने वाली शक्तियाँ हैं। वह तो गुण है, और उन शक्तियों का अथवा प्रदेशों का जो एक व्यक्तरूप बनता है, आकार, परिणमन बनता है वह सब पर्याय है। द्रव्य से गुण-पर्याय यह अलग चीज नहीं है, किंतु एकद्रव्य का ही व्यक्तरूप है, द्रव्य गुण-पर्याय वाला है, ऐसा कहने से उस एकांत का निराकरण होता है, जो गुण और पर्यायों को भिन्न मानते हैं। मीमांसक सिद्धांत में 6 पदार्थ माने गए हैं―(1) द्रव्य, (2) गुण, (3) कर्म, (4) सामान्य, (5) विशेष और (6) समवाय। और इतना ही तक नहीं, एक 7वाँ माना है अभाव। 6 पदार्थ तो भावात्मक हैं और एक पदार्थ अभावात्मक है, ऐसे 7 पदार्थ हैं, पर 7 कहाँ? वह तो एक ही है। यों पदार्थ 6 या 7 नहीं, किंतु पदार्थ तो एकद्रव्य शब्द से कहा गया मात्र है। गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय―यह तो द्रव्य में खोजी गई चीजों का परिचय है, मगर आज इस कलयुग में इस पवित्र जैनशासन की जो प्रभावना विशेष नहीं है, लोगों में इसकी विशेष ख्याति नहीं है तो उसके मुख्य कारण तीन बताये हैं समंतभद्राचार्य ने। एक तो कलिकाल, लोगों का पतन की ओर प्रकृत्या झुकाव रहता है, व्रत संयम से घबराते हैं, बनना चाहते हैं ऊँचे। तो व्रत संयम के दोष बखाने बिना इस आशा की पूर्ति कैसे हो सकती है? और साथ ही जब जैनशासन के प्रति श्रद्धा नहीं रहती और बड़प्पन चाहते हैं तो और-और भी ऐब बस जाते हैं। एक तो जैनशासन की महिमा न बढ़ने का कारण है कलिकाल। दूसरा कारण है वक्ताओं को नयों का परिचय, निर्णय, श्रद्धान नहीं है, जो बात अनायास या किसी प्रकार एक बार समझ में आयी उसका एकांत हो जाता है।
अपूर्व किसी एक तत्त्वकिरण के मिलने पर भावुकता का अतिशय होने पर विडंबना―एकांत की भावुकता में कितनी विडंबनायें होती हैं, उसका सिर्फ एक उदाहरण ही देख लीजिए। सिद्धांत तो यह है कि जिससे कोई इन्कार नहीं हो सकता। एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का त्रिकाल कर्ता नहीं है। एक द्रव्य दूसरे द्रव्य से अत्यंत भिन्न है। तो हाँ किसी को एकदम एक द्रव्य दूसरे का कर्ता नहीं, एक द्रव्य दूसरे से भिन्न है यह जंचा और यह भावुकता से जंचा। सो निमित्त-नैमित्तिक योग जिसका फल यह सब संसार है, उसके भी निराकरण का प्रयत्न किया। निमित्त कुछ चीज ही नहीं। पदार्थ में बात होती है, निमित्त खड़ा हो जाता है। खैर, सिद्धांत तो ठीक था मूल में कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का परिणमन करने वाला नहीं है याने एक द्रव्य दूसरे द्रव्य के परिणमनरूप से नहीं परिणमता। पर यह बात जैनशासन की सही बात एक बात अनोखी दृष्टि में आयी तो उससे इतनी प्रसन्नता बढ़ी कि भावुकता में बढ़कर निमित्त नैमित्तिकयोग का भी निराकरण किया, और इतने से भी संतोष न हो सका तो यों कहने में आ गया―देखो द्रव्य में गुण अनंत हैं ना। तो वे सभी गुण सत् हैं, भिन्न-भिन्न हैं, एक गुण दूसरे गुण पर कुछ नहीं करता। एक का दूसरा गुण कुछ नहीं है, और इसी प्रकार अनंत पर्यायें हैं, वे सब पर्यायें स्वतंत्र हैं, स्वतंत्र सत् हैं, पर्यायों का गुण कुछ नहीं, द्रव्य कुछ नहीं। द्रव्य का गुण कुछ नहीं, पर्याय कुछ नहीं, सब स्वतंत्र सत् हैं, भावुकता में कह तो डाला, मगर यह ख्याल गुल हो गया कि जो सत् होता है उसमें ये दो बातें मुख्यतया होती हैं, उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त होना और गुणपर्यायमय होना। उन अनंत गुणों में से कौनसा गुण उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त है, क्यों नहीं है कि गुण सत् है नहीं, पर्याय सत् है नही। वस्तु सत् है। ये गुणपर्याय में भिन्न-भिन्न सत् नहीं हैं। हाँ जो सत् है उसी को गुण को कह लो, वह ध्रुव है और उसही सत् को पर्याय कह लीजिये, पर्याय को कह लीजिए उत्पादव्यय, पर द्रव्य सत् है, गुण सत् है, पर्याय सत् है, यह बात जैनशासन में कहीं भी, न, मिलेगा। हाँ यह तो आया कि एक सत् द्रव्य है, सत् ही गुण है, सत् ही पर्याय है, ये शब्द तो आते हैं याने जो एक वस्तु सत् है उसी को अन्वय दृष्टि से देखें तो द्रव्य है, अन्वय शक्ति से देखें तो गुण है, व्यतिरेक दृष्टि से देखें तो पर्याय है। तो अज्ञानवश या छलवश कहो शब्द का परिवर्तन बन गया कि बात तो यों है कि सत् द्रव्य है, सत् गुण है, सत् पर्याय है। अब उस पहले कहे गए सत् शब्द को बाद में रखना, द्रव्य सत् है, गुण सत् है,पर्याय सत् है, कितनी विडंबना बढ़ी, कितना अंतर आया, जैनशासन के विरुद्ध हो गया। ऐसा तो मीमांसकों ने कहा―द्रव्य सत् है, गुण सत् है, कर्म सत् है, हाँ बात ठीक समझना चाहिए। वस्तु गुणपर्यायमय है। कुछ लोग वस्तु को नित्य ही मानते, कुछ लोग वस्तु को अनित्य ही मानते, कुछ लोग नित्यअनित्य दोनों मानते तो हैं, पर निरपेक्ष रूप से मानते हैं। जैसे कारणपरमाणु नित्य है, कार्यपरमाणु अनित्य है, तो ऐसे इन एकांतों का निराकरण द्रव्य के इन लक्षणों से हो जाता है।
द्रव्य के ही सत् होने व गुणपर्याय के सत् न होने का कारण―द्रव्य है, साथ में यह भी जानें। जरा विस्तार बना लीजिए। जो वस्तु होती है उसमें ये 6 बातें पायी जायेगी। क्या? उसमें साधारण गुण होते हैं। जो भी पदार्थ है उसमें साधारण गुण होते हैं। साधारण गुण मायने अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, अगुरुलघुत्व, प्रदेशवत्त्व और प्रमेयत्व, याने ये छहों गुण प्रत्येक द्रव्य में पाये ही जाते हैं। जहाँ ये 6 गुण नहीं वह पदार्थ नहीं। जो भी चीज है वह 6 साधारण गुणों से युक्त है, पहली बात। दूसरी बात―जो भी द्रव्य है वह असाधारण गुण वाला है। असाधारण गुण उसे कहते हैं कि जो किसी खास द्रव्य में ही गुण हो, अन्य द्रव्य में न हो। जैसे चैतन्य जीव में ही है, पुद्गल आदिक में नहीं, मूर्तत्व पुद्गल में है अन्य में नहीं। तो जो भी है उसमें असाधारण गुण अवश्य होता। तीसरी बात―जो भी पदार्थ है वह उत्पाद व्यय ध्रौव्यात्मक होता है याने क्षण-क्षण में नई-नई अवस्थायें बनायें, पुरानी अवस्थायें विलीन करें और स्वयं मूलतत्त्व को सदा शाश्वत रखें। चौथी बात―जो पदार्थ है उसका आकार अवश्य होता। चाहे एक प्रदेशरूप हो, चाहे बहु प्रदेशरूप हो। 5वीं बात―जो भी चीज है वह उसके अलावा अन्य सबसे भिन्न प्रदेश रखेगी। जो भी कुछ हो, एक जीव है, जो भी है वह अन्य सबसे भिन्न प्रदेश वाला होगा। आप जीव हैं, अन्य सब जीवों से आपके प्रदेश भिन्न हैं, पुद्गल आदिक से भिन्न हैं, इसे कहते हैं प्रविभक्त प्रदेश, ऐसी ये बातें गुणों में तो घटित नहीं होती, क्योंकि गुण पदार्थ नहीं। गुण तो पदार्थ का व्यवहारनय से समझा गया अंश है। गुणों में 6 साधारण गुण हैं। ज्ञान गुण हो, दर्शन गुण हो, कोई गुण हो, क्या उन गुणों में असाधारण गुण रहते हैं? वे स्वयं ही गुण हैं, गुण में गुण नहीं रहते। गुणों का कोई आकार होता है क्या? या गुणपर्याय से और द्रव्य से भिन्न प्रदेश रखता है क्या? जब एक यह भ्रम बन गया कि द्रव्य सत् है, गुण सत् है, पर्याय सत् है तो पर्याय के प्रदेश जुदे होने चाहिएँ, द्रव्य के गुण जुदे हो, पर ऐसा तो नहीं है। फिर ये सब स्वतंत्र सत् कैसे हो सकते हैं? स्वतंत्र सत् तो द्रव्य-द्रव्य ही है, और वह द्रव्य गुणपर्यायात्मक है, उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक है, ऐसे इन तीन लक्षणों से द्रव्य की पहिचान होती है। इनमें से एक भी लक्षण कहो तो वही अन्य दो लक्षणों की सूचना दे देता है। ये परस्पर विरुद्ध लक्षण नहीं हैं, किंतु एक दूसरे के पूरक हैं। ऐसे द्रव्य के लक्षण के परिचय में यह स्पष्ट हो जाता कि प्रत्येक द्रव्य जो कि अपने गुणपर्याय में ही है वह प्रत्येक द्रव्य मेरे से अत्यंत भिन्न है कोई संबंध नहीं, कुछ उपग्रह नहीं। सिद्ध भगवंत, अरहंत भगवंत किनका नाम है? आत्मा सबसे निराला है, ऐसा निराला हो जाना कर्म, शरीर, विकार सबसे ही भगवंतपना है। अपने ही द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव में निरंतर लीन हो जाने का ही नाम तो भगवान है, वह मेरे स्वरूप में है, उसकी जानकारी नहीं है तब तक अज्ञान है, मोह है, पर को यह जीव अपनाता है, यों दुःखी होता है। तो पदार्थ के स्वरूप का परिचय करना यह एक समस्त धर्मपालन का एक मूल सोपान है, पहली सीढ़ी है, उसी का इस गाथा में वर्णन किया।