वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 128
From जैनकोष
जो खलु संसारत्थो जीवो तत्तो दु होदि परिणामो ।
परिणामादो कम्मं कम्मादो होदि गदिसु गदी ।।128।।
गदिमधिगदस्स देहो देहादो इंदियाणि जायंते ।
तेहिं दु विसयग्गहणं तत्तो रागो व दोसो वा ।।129।।
जायदि जीवस्सेवं भावो संसारचक्कवालम्मि ।
इदि जिणवरेहिं भणिदो अणादिणिधणो सणिधणो वा ।।130।।
सप्त पदार्थों का उपोद्धात―जीव पदार्थ और अजीव पदार्थ का वर्णन करने के पश्चात् अब आस्रव, बंध, सम्वर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य, पाप, इन 7 पदार्थों का वर्णन किया जायगा । अब वे 7 पदार्थ, वे 7 परिणमन कैसे उत्पन्न हुए हैं, उनका क्या स्वरूप है, इन सब बातों का वर्णन करने से पहिले जो एक उपोद्घात करना आवश्यक है उस उपोद्घात के लिए इसमें जीव और पुद्गलकर्म इनके चक्र का इन तीन गाथावों में वर्णन किया है ।
संसारी जीव से परिणाम, कर्म और गतिगमन का सकारण उद्गमन―इस संसारीजीव के अनादिबंधन के उपलब्ध में वशीभूत होने से स्निग्ध परिणाम होता। मोह रागद्वेष का स्रोतभूत अज्ञान परिणाम से मिला हुआ जो कुछ अध्यवसान भाव है उसे स्निग्ध भाव कहते हैं और स्निग्धता में द्वेष भी आ जाता है । मोह रागद्वेष में जो इस जीव का अवसान होता है उसे अध्यवसान भाव कहते हैं । अध्यवसान भाव मोह रागद्वेष से अलग नहीं है, फिर भी मोहरागद्वेष का लक्षण जुदा-जुदा है और उन सबमें एक सादृश्य बनाने वाला बंध का कारणभूत जो एक अज्ञानमय परिणाम है उसे अध्यवसान परिणाम कहते हैं । इसको कुछ और मोटे रूप से खुलासा समझना हो तो यों समझिये―अध्यवसान में 2 शब्द हैं―अधि और अवसान अथवा अवसाय । जो अधिक हो, अपने स्वरूप में न हो उस अधिक का भी निश्चय बना लेना, यह मैं हूँ, यह मेरा है, इस प्रकार का लगाव रखना इसका नाम है अध्यवसान परिणाम । इस संसारी जीव के यह अध्यवसान परिणाम होता है और उस परिणाम से फिर पुद्गल परिणामात्मक कर्म का बंधन होता है, और उन कर्मों से फिर गतियों में गमन होता है ।
गतिगमन से देह, इंद्रिय, विषयग्रहण व रागद्वेष का पूर्वकारणक उद्भवन―यहाँ तक इतनी बात कही गई है । यह है लो संसारो जीव । इससे उठा अध्यवसान परिणाम । उस परिणाम से हुआ पुद्गल कर्म का बंध और उस पुद्गल कर्म के बंध से उदयकाल में हुआ नरकादिक गतियों में गमन । इसके पश्चात् फिर इतनी बात और समझना कि गतियों में गमन हुआ, उससे मिला देह, और देह से हुई इंद्रियाँ, और इंद्रियों से हुआ विषयों का ग्रहण और विषयों के ग्रहण से फिर हुआ रागद्वेष ।
पुन: पुन: चंक्रमण―अब वही चक्कर फिर लगावो । उस रागद्वेष से हुआ कर्मबंध, कर्मबंध से हुआ कर्मों के उदय काल में गतियों में गमन, गतियों के गमन से मिला देह, देह से हुई इंद्रियाँ, इंद्रियों से किया विषयों का उपभोग, उससे हुए रागद्वेष । इस प्रकार से यह चक्र इस जीव का अनादिकाल से चल रहा है । यह एक विशिष्ट संयोग परिणाम से हुए निमित्तनैमित्तिक भाव का वर्णन करने वाला उपोद्घात इसलिए करना पड़ा है कि यह बताये बिना पुण्य, पाप, आस्रव आदिक पदार्थों की उत्पत्ति विदित नहीं हो सकती । क्योंकि यदि यह चक्र न हो, जीव और अजीव का परस्पर में निमित्तनैमित्तिक संबंध न हो तो मोक्ष का उपाय करने की आवश्यकता भी क्या?
पदार्थ के पारिणामित्व व अपरिणामित्व के एकांत में अनिष्ट प्रसंग―प्रथम तो यही बतावो कि अभी मूल में जो दो पदार्थ कहे गए हैं जीव और अजीव ये पदार्थ परिणामी हैं या अपरिणामी हैं? यदि इन्हें परिणामी मानते हो यह परिणमनशील हैं तो यह परस्पर निमित्त पाकर परिणमन कर रहे हैं या स्वतंत्र होकर निमित्त बिना संयोग बिना केवल अपने आप में परिणमन कर रहे हैं । यदि धर्मादिक द्रव्यों की तरह परउपाधि के बिना अपने आप में ही विषम परिणमन करते हैं तो फिर 7 पदार्थ कुछ नहीं रहे और फिर यह इंद्रजाल यह मायाजाल फिर कुछ नहीं रहा । व्यवस्था क्लेश ये सब कुछ न रहने चाहिएँ । परस्पर एक दूसरे का उपाधि संबंध पाकर यह परिणमा करता है तो जीव और पुद्गल के संयोग परिणमनरूप कुछ बात हुई तो उस ही के आधार पर यह 7 पदार्थों की व्यवस्था बनेगी । यदि अपरिणामी ही मान लो तब दो पदार्थ जुदे-जुदे शुद्ध रह गये, फिर पुण्य पाप आदिक घटेंगे ही नहीं । तो बंध मोक्ष का अभाव होगा ।
कथंचित परिणामित्व में व्यवस्था―यह जीव और अजीव पदार्थ अटपट परिणामी नहीं होता । ऐसा भी नहीं है कि जीव और पुद्गल मिल करके परिणामी बन जाये तो जीव और पुद्गल की संयोग रूप कुछ एक चीज बन गई । वहाँ न जीव में कुछ रहा, न अजीव में कुछ रहा, ऐसा एकांत परिणामी भी नहीं है और एकांत से अपरिणामी भी नहीं है। कथंचित् परिणामी है और कथंचित् अपरिणामी है। दूसरे के परिणमन को ग्रहण नहीं करता, यों तो अपरिणामी है और अपने आपमें परिणमन करता रहता है यों यह परिणामी है। परिणामी का अर्थ है परिणमन करने वाला। अपरिणामी का अर्थ है कुछ भी परिणमन न करने वाला। यों कथंचित् इसे परिणामी मानने पर ही आस्रव बंध आदिक पदार्थों की व्यवस्था बनती है, फिर भी मूल पदार्थ तो ये दो ही रहे―जीव और अजीव।
सप्त पदार्थों में हेयत्व और उपादेयत्व का निर्णय―इन 7 पदार्थों में हेय और उपादेय का निर्णय करना ही इसकी जानकारी का प्रयोजन है। पुण्य और पाप ये दोनों एक संसाररूप हैं इस कारण दोनों ही हेयतत्त्व हैं। उनमें से किसी स्थिति में पुण्यपाप उपादेय है और पापभाव सर्वथा हेय है। कुछ ऊँची भूमिका में पहुंचने पर इस जीव के कर्तव्य में फिर दोनों के ही दोनों भाव हेय तत्त्व हो जाते हैं। आस्रव और बंध ये दोनों हेय तत्त्व हैं। आस्रव का अर्थ है कर्मों का आना और बंध का अर्थ है उन कर्मों की स्थिति पड़ जाना। ये दोनों ही हेयतत्त्व हैं, संवर और निर्जरा ये उपादेय तत्त्व हैं, कर्मों का निरोध हो जाना सो सम्वर है और पूर्वबद्ध कर्मों का छोड़ना सो निर्जरा है। इस प्रकार सम्वर और निर्जरा ये जीव के परमकल्याण के कारणभूत हैं, अतएव उपादेय तत्त्व हैं। और मोक्ष तो सर्वप्रकार उपादेय तत्त्व है, वह तो समस्त मोक्षमार्ग के पुरुषार्थ का अंतिम फल है।
संवरभाव का महत्त्व―एक विशेष बात यह भी समझिये कि मोक्ष हो जाने पर पुण्य नहीं रहता, पाप नहीं रहता, आस्रव नहीं है, बंध नहीं है और निर्जरा भी नहीं रहती, किंतु सम्वर सदाकाल बना रहता है। सम्वरभाव मायने शुद्धोपयोग भाव। जिस भाव के कारण कर्म न आयें उसका नाम सम्वर है। क्या सिद्ध भगवान में इस सम्वर का अभाव है? यदि अभाव है तो अर्थ यह है कि कर्म आने लगे। इस कारण यह सम्वर तत्त्व कितना सारभूत और उपादेय है, जो सदा रहता है, शुद्धोपयोग होने के बाद भी रहता है। हाँ इस दृष्टि से देखो कि कर्म आने की गुंजाइश थी, ऐसी योग्यता वाले जीव के और कर्म न आ सकें उसका नाम सम्वर है तो ऐसे सीमित लक्षण में देखने पर सम्वर न भी माना जाय, पर सम्वर का मूल से काम यह है कि कर्म न आने देना। शुद्धोपयोग का दृढ़ दुर्ग पाकर यह आत्मा सर्वप्रकार की शंकावों से रहित रहता है। यों इन सात पदार्थों में हेयतत्त्व और उपादेयतत्त्व समझना।
हेयतत्त्व―अब सामान्यतया यों निरखिये कि दु:ख हेयतत्त्व है। संसार का कोई भी जीव दु:ख नहीं चाहता है। उसका कारण है संसार। दु:ख क्यों मिलता है? यह संसरण चल रहा है। यह संसारभाव है, इसके कारण दु:ख प्राप्त होता है। संसार का कारण है आस्रव और बंध पदार्थ, और आस्रव और बंध इन दोनों का कारण है मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र। यह तो हुई हेय व्यवस्था । जैसे कहते हैं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग: । ऐसे ही कह लीजिए―मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्राणि संसारमार्ग: । संसार के कारण ये मिथ्यादर्शन मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र हैं । तब हम शीघ्र दृष्टि डालें कि मेरा हेय क्या है? तो यों कह लीजिए कि अपने आत्मस्वरूप को छोड़कर अन्य परभावों में पर में आत्मा की प्रतीति करना यह भाव हेय है और इस ही पद्धति से पर का ज्ञान करते रहना यह हेय है और पर को सुख का हेतु मानकर उसमें रमण करना यह हेय है अर्थात् मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र ये हेय हैं ।
उपादेय तत्त्व―उपादेय तत्त्व को निरखिये―सुख उपादेय तत्त्व है । तुम्हें क्या चाहिए? उत्तर मिलेगा सुख, शांति । प्रत्येक जीव सुख चाहता है, और जितने भी यह प्रयत्न करता है वह सब सुख पाने के लिए ही करता है । चाहे कभी इसकी समझ में यह भी आये कि प्राण दे देने से सुख मिलेगा तो वहाँ प्राण भी दे देता है । प्राणघात कर देना भी अपने सुख के लिए समझा है । मरण कर के भी यह सुख चाहता है । समस्त प्रवृत्तियों का प्रयोजन इसका सुख प्राप्त करता है । तब उपादेय तत्त्व हुआ सुख । उसका कारण है मोक्ष । मोक्ष का कारण है सम्वर और निर्जरा । सम्वर निर्जरा के कारण हैं सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र । आत्मा का जैसा अपने सत्व के कारण सहज स्वरूप है अमूर्त स्वयं ज्ञान-ज्योतिर्मय जैसा इसका स्वरूप है उस स्वरूप रूप अपनी प्रतीति करना, ऐसा ही ज्ञान करना और इस ही रूप रमण करना यह है उपादेयतत्त्व । इस प्रकार दो मूल पदार्थ हैं―जीव और अजीव, और उनके संयोग से उत्पन्न हुए अथवा उनके प्रसंग से उत्पन्न हुए ये 7 पदार्थ हैं । यों मोक्षमार्ग के प्रयोजनभूत श्रद्धान करने योग्य 9 पदार्थ बताये गए हैं ।
भावनाओं में एकत्वभावना की तरह तत्त्वों में संवरतत्त्व की प्रमुखता―जैसे बारह भावनाओं में एकत्वभावना का बड़ा प्रमुख स्थान है और उस एकत्वभावना का बहुत कुछ अंत:मर्म चलता रहता है । कभी माना दुनिया के इन परिवारों से जुदा होने के लिए―मैं तो अकेला हूँ, मेरा यहाँ कोई साथी नहीं है, फिर इस देह से भी जुदा समझने के लिए माना कि मैं तो यह एक अकेला हूँ, यह देह भी मेरा नहीं । फिर अंत: जो विकल्प पिंड बना हुआ है उसमें भी इन विकल्पों से अपने को जुदा करने के लिए माना कि मैं तो एक अकेला हूँ, इन विकल्पोंरूप भी मैं नहीं हूँ । फिर अपने आप में जो ज्ञान धारायें बहती हैं, ज्ञानपरिणमन चलता है वह चूँकि अनित्य है, क्षणिक है, पर्यायरूप हैं, वहाँ भी जुदा शाश्वत अपने स्वरूप को समझने के लिए माना जाता है कि मैं केवल शुद्ध ज्ञानशक्ति मात्र हूँ । इस एकत्वभावना का बहुत अंत: विस्तार है, उपयोग है । ऐसे ही जानिये―इन 9 पदार्थों में सम्वर की बड़ी प्रमुखता है ।
संवरभाव की अनंतता―सम्वर दो प्रकार के होते हैं―एक जीव सम्वर और एक अजीव सम्वर । जीव सम्वर नाम है शुद्धोपयोग का । रागद्वेषरहित शुद्ध चैतन्य की अवस्था बनाये रहना इसका नाम है शुद्धोपयोग । यही है साक्षात् जीव सम्वर, जिस विशुद्ध स्थिति के कारण कर्मरूप परिणमन नहीं होता उस जीव के साथ कर्मबंध नहीं होता । कर्मों को रोकने वाला परिणाम है तो जीव का यह शुद्धोपयोग है । इसी का नाम सम्वर भाव है । इस शुद्धोपयोग का, इस सम्वरभाव का यदि कदाचित् विनाश हो जाय तो इसका अर्थ है अशुद्धोपयोग बन गया और अशुद्ध उपयोग बना तो कर्म बंधन होने लगा । इन सिद्ध भगवान का सदा के लिए कर्मों का आना बंद हुआ है या कुछ समय के लिए कर्मों का आना बंद हुआ है? सदा के लिए कर्मों का आना बंद है तो समझना चाहिए कि कर्मों को न आने देने में समर्थ जो एक संवर परिणाम है, शुद्धोपयोग है वह सदाकाल रहता है ।
नव पदार्थों में मूल आधार―नव पदार्थों में हम आपको उपादेयभूत संवर, निर्जरा और मोक्ष ये तीन पदार्थ कहे गए हैं । अब ये 7 पदार्थ किसके आधार से निकले हैं? उस बीजभूत पदार्थ पर दृष्टि दे तो यही तो विदित होगा कि ये जीव और अजीव (पुद्गल) इनके संयोग परिणाम से बने हैं, सो इन 7 पदार्थों के ये दो मूल कारण हैं । यदि आस्रव, बंध न होते तो संवर निर्जरा की क्या जरूरत थी? इस दृष्टि से जीव और पुद्गल के वियोग होने पर भी जो संवर और निर्जरा तत्त्व की बात कही गई है उसका भी संबंध जीव और पुद्गल के संयोग पर आधारित है ।
संसारचक्र―इस तरह इन तीन गाथाओं में यह बताया है कि यह जो संसारी जीव है उससे हुए परिणाम, परिणामों से हुआ नवीन कर्मबंध, उन कर्मो के उदय से हुआ गतियों में गमन, गतियों में प्राप्त होने पर हुआ देह, देह से हुई इंद्रियाँ, इंद्रियों से हुआ विषयों का उपभोग, विषयोपभोग से हुए रागद्वेष, इस प्रकार संसारचक्र में पड़े हुए इस जीव का परिभ्रमण हो रहा है यह संसार चक्र जाल अनादिनिधन है अथवा किसी जीव के अनादि सन्निघन है । किसी का यह चक्र समाप्त भी हो जाता है और किसी का यह चक्र समाप्त भी नहीं होता । अभव्यजीवों के या दूरातिदूर भव्य जीवों के यह संसारचक्र समाप्त नहीं होता है । निकटभव्य जीवों का, यह संसारचक्र समाप्त हो जाता है ।
स्वभाव और औपाधिकता―यद्यपि शुद्धनय से देखा जाय तो यह जीव विशुद्धज्ञानदर्शन स्वभाव वाला है, फिर भी व्यवहार से अनादि कर्मबंध के वश होने से इसमें आत्मा को किसी न किसी रूप में संवेदन करने रूप अशुद्ध परिणाम होता है । उस परिणाम से कर्मबंध हुआ जो कि आत्मा के ज्ञानादिक गुणो का आवरण करने में निमित्त है । फिर उन कर्मोदय से चारों गतियों में गमन हुआ । ये चारों गतियाँ आत्मा की शुद्धस्थिति से, शुद्धगति से, सिद्धगति से अथवा आत्मा की उपलब्धि से अत्यंत विलक्षण हैं, विभिन्न हैं । ऐसा 4 गतियों में गमन हुआ और फिर उन गतियों में गमन होने से इसे देह मिला ।
निर्बंधता व सबंधता―देखो भैया कहाँ तो यह जीव शरीररहित स्वरूप वाला था, एक चिदानंद शुद्ध ज्ञायकस्वभावी था और कहाँ उस स्थिति से अत्यंत विपरीत यह देह प्राप्त हुई । इस जड़ पौद्गलिक शरीर के बंधन में बंध गया । अब इस देह से इसे इंद्रियां उत्पन्न हुई । आत्मा का तो स्वरूप अतींद्रिय है, अमूर्त है, परमात्मतत्त्वरूप है और ये ज्ञान के साधन और सुख के साधनभूत ये इंद्रियाँ जड़ पौद्गलिक हुई हैं । कितना विरुद्ध ये इंद्रियाँ हैं । ये इंद्रियाँ भी इसमें उत्पन्न हुईं, फिर उन इंद्रियों से इसने पंचेंद्रिय के विषयसुखों में परिणमन किया । कहाँ तो आत्मा का एक सहज आनंदस्वभाव है, एक शुद्ध आत्मतत्त्व के ध्यान से जो एक झलक आती है उस परम आनंद का स्वरूप इस जीव का है और उस स्वरूप से कितना अत्यंत विपरीत यह विषयों का उपभोगरूप इसे सुखपरिणमन मिला है? उस सुखपरिणमन से इसके रागद्वेष होने लगते हैं । रागद्वेष जीव का स्वभाव नहीं है । रागद्वेषरहित अनंत ज्ञानादिक गुणों का धाम यह आत्मतत्व है । यह अपने आप में सहजज्ञान और आनंद का भोक्ता रहे ऐसा इसका स्वरूप है । लेकिन ये रागद्वेष इस जीव के इस प्रकार चक्रवाल में उत्पन्न हुए हैं । अब रागद्वेष हुए, सो वही का वही चक्रवाल फिर लगा लीजिए । जैसे रहट की घड़ियां ऊपर से नीचे, नीचे से ऊपर आती रहती हैं, उनका काम चक्कर लगाना है इसी प्रकार से यह सब चक्र ऐसा विलक्षण चक्र है कि सबके सब एक साथ घूम रहे हैं ।
पदार्थों के अपरिहृतस्वभावता पर दृष्टि―इस अशुद्ध आत्मा के अशुद्ध वर्णन को सुनकर, इस अशुद्ध प्रक्रिया को जानकर हमें यह साहस बनाना चाहिए कि इतना होने पर भी कोई भी पदार्थ अपने सहजस्वरूप का परित्याग नहीं करता है । यह वस्तु का स्वरूप है । कितना भी संयोग कितनी भी गड़बड़ियाँ हो जाने पर भी प्रत्येक वस्तु अपने रूप ही रहा करती है । तो इतनी विशेष अशुद्धता में भी हम अपने अंत:विराजमान शुद्ध ज्ञायकस्वरूप की भावना बनायें और रागादिक विकल्पों का परिहार करें । सर्व से भिन्न एक इस शुद्ध चित्स्वभाव पर अपनी दृष्टि लायें, यही प्रयत्न मोक्षमार्ग का बीजभूत है ।