वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 138
From जैनकोष
इति नियमितदिंग्भागे प्रवर्तते यस्ततो वहिस्तस्याः ।
सकलासयमविरहाद᳭भवत्यहिंसाव्रतं पूर्णम् ।।138꠰।
दिग्व्रतथारी के नियमित क्षेत्र से बाहर अहिंसाव्रत की त्रियोग से परिपूर्णता―जो दिग्व्रत में इस प्रकार की मर्यादा करते उन्हें चाहिये कि मर्यादा के बाहर के सभी प्रकार के असंयमों को त्याग दें । आप समझलें कि कम से कम मर्यादा के बाहर की अपेक्षा से उस मर्यादा में पूर्ण अहिंसाव्रत होता है । जैसे किसी ने 500 मील का नियम लिया तो अब उतनी दूरी से बाहर का उसका किसी भी प्रकार का संबंध न रहेगा । अब उतनी दुरी से बाहर का वह पूरा संयमी हो गया? जैसे किसी ने 6 माह को ही रात्रिभोजन का त्यागकर दिया तो समझिये कि उसका 3 माह का उपवास हो गया । साथ ही बड़े विवेक का उपवास समझिये । रात्रि के भोजन में बड़ा दोष है । इसी तरह यह भी समझिये कि जैसे दिग्व्रत का नियम रहता है तो दिग्व्रत की मर्यादा के बाहर के लिये तो वह एक तरह से संयमी है, पूरा अहिंसक है । इसलिए दिग्व्रत का धारण करना श्रावक को आवश्यक है । इसमें कोई दिक्कत भी नहीं । एक मन को शांत रखना पड़ेगा । जहाँ तक की मर्यादा की जाती है उसके बाहर के जो त्रस जीव होंगे, स्थावर जीव होगे उनका घात तो इसके द्वारा होता नहीं इस कारण वह महाव्रती हो गया, इस कारण यह व्रत धारण करना श्रावकों के लिए अत्यंत आवश्यक है ।