वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 4-26
From जैनकोष
विजयादिषु द्विचरमा: ।। 4-26 ।।
विजयादिक विमानवासी देवों की द्विभवावतारिता―विजय आदिक द्विचरम अर्थात दो भवावतारी होते हैं । इस सूत्र में दो पद हैं । प्रथम पद तो अधिकरण बताने वाला है अर्थात दो भवावतारी जीव कहाँ होते हैं उसका उत्तर है विजय आदिक में । यहाँ आदि शब्द कहने से प्रकार अर्थ आता है याने विजय की तरह ही जो और स्थान हैं वे विजय आदिक में आते हैं । विजय विमानवासी देव कैसे हैं यहाँ कौन उत्पन्न होता है? सम्यग्दृष्टि होकर और निर्ग्रंथ होकर ही यहाँ मनुष्यों की उत्पत्ति होती है । अर्थात विजय आदिक विमानों में वे मनुष्य उत्पन्न होते हैं जो सम्यग्दृष्टि और निर्ग्रंथ हैं अर्थात भावलिंगी मुनि ही इन अनुत्तर विमानों में उत्पन्न होते हैं । तो ऐसे ही वैजयंत जयंत, अपराजित विमान हैं । अनुदिश विमानों में भी उत्पन्न होने वाले देवों की भी प्राय: यही विशेषता है । यहाँ अनुत्तर विमानों में 4 विमान लिये गये हैं―विजय, वैजयंत, जयंत और अपराजित । यहाँ सर्वार्थ सिद्धि को ग्रहण नहीं किया, क्योंकि सर्वार्थसिद्धि के देव एक भवावतारी होते हैं । यहाँ सर्व अर्थ सिद्ध हो गये ऐसा अन्वर्थ नाम ही है । सर्वार्थसिद्धि के देव लौकांतिक देवों की तरह एक मनुष्य भव पाकर मोक्ष चले जायेंगे । एक भवावतारी का अर्थ है कि अगला भव मनुष्य भव पाकर उस ही भव से मोक्ष चले जायेंगे, और द्विचरम का अर्थ है दो मनुष्य भव धारण कर मोक्ष चले जायेंगे । जैसे विजयादि विमान का कोई देव मरण करके मनुष्य बना । वहाँ पुन: साधना करके फिर देव हुआ । फिर उसके बाद मनुष्य हुआ । उस मनुष्य भव से मोक्ष चला जायेगा । यदि सामान्य भवों की दृष्टि से देखें तो तीन भव होते हैं, बीच में जो देव भव मिला उसको भी शामिल करने से तीन भव बन जाते हैं । मगर यहाँ मनुष्य भव की अपेक्षा ही वर्णन किया जा रहा है कि ये देव जगहों से ज्यादा दो भवावतारी होते हैं ।
चरम भवावतारिता के प्रसंग में कुछ ज्ञातव्य तथ्य―वस्तुत: तो चरमपना तो एक ही भव में हो सकता है जिस भय से मोक्ष जाते हैं, पर उसके पहले मनुष्य भव आया तो वह चरम की प्रत्यासत्ति होने से अर्थात् उसके पूर्व निकट का होने से उसे भी उपचार से चरमपना कह देते हैं मगर उसका अर्थ है अंतिम के पास वाला भव । अब यहाँ दूसरे पद का अर्थ हुआ, दो चरम मनुष्य भव जिसके हों वे द्विचरम कहलाते हैं । अब यहाँ कुछ जिज्ञासा बन सकती है कि लौकांतिक देव तो एक भवावतारी है, सर्वार्थसिद्धि के देव भी एक भवावतारी हैं । विजय आदिक वासी देव दो भवावतारी हैं । तो सौधर्म आदिक देवों में क्या व्यवस्था है? समाधान यह है कि एक चरम याने एक भवावतारी जैसे लौकांतिक और सर्वार्थसिद्धि हैं इसी प्रकार सौधर्म आदिक स्वर्गों के दक्षिणेंद्र और इनकी पट्टरानियाँ लोकपाल आदिक के एक चरमपना कहा गया है । इसके अतिरिक्त जो अन्य देव हैं उनमें नियम नहीं है । एक चरम भी कोई हो सकता और दो चार छह आदिक अनेक भव वाले भी हो सकते । और कितने ही ऐसे होते हैं कि मोक्ष जायेंगे ही नहीं, क्योंकि अभव्यजीव और मिथ्यादृष्टि जीव भी नवग्रैवेयक तक उत्पन्न हो लेते हैं । इस प्रकार वैमानिका इस सूत्र से प्रारंभ करके इस सूत्र तक 11 सूत्रों के द्वारा वैमानिक देवों का निरूपण किया गया है ।