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वर्णीजी-प्रवचन

रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 37

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अष्टगुणपुष्टि तुष्टा: दृष्टिविशिष्टा: प्रकृष्टशोभाजुष्टा: ।

अमराप्सरसां परिषदि, चिरंरमंते जिनेंद्रभक्ता: स्वगैं ।।37।।

जिनेंद्रभक्त सम्यग्दृष्टि जीवों का देवभव में ऐश्वर्य―जिनेंद्र के भक्त सम्यग्दृष्टि जब स्वर्ग में उत्पन्न होते है और ऐसे जिनेंद्र भक्त जीव देवांगनाओं की परिषद में चिरकाल तक रमण करते हैं । यद्यपि यह कोई सम्यक्त्व का खास गुण नहीं है, प्रभाव नहीं है कि सांसारिक सुख मिले, मगर सम्यक्त्व के होते संते जो अवशिष्ट रागादिक भाव रहते है उनका प्रभाव है यह । यों समझिये कि जैसे किसी बड़े मिनिस्टर या आफीसर के साथ कोई क्लर्क हो तो उस क्लर्क का भी बड़ा महत्व है और लोग उससे भी मिलने का प्रयत्न करते है और उसके द्वारा वे कुछ अपना काम सिद्ध करना चाहते हैं, अथवा जैसे बड़े जज का क्लर्क । तो जैसे बड़े नेताओं के साथ, राज्याधिकारियों के साथ रहने वाले सेवक का भी इतना प्रभाव होता है ऐसे ही सम्यग्दर्शन के साथ रहने वाले पुण्यभाव का भी बड़ा प्रभाव है । यद्यपि पुण्यबंध मिथ्यादृष्टि भी करता है और सम्यग्दृष्टि भी करता है पर मिथ्यादृष्टियों का पुण्य निरतिशय होता है और सम्यग्दृष्टियों का पुण्य सातिशय होता है । जैन शासन में हम आप लोग अपना जीवन बिता रहे हैं । तौ इतनी दृढ़ता और निश्चितता तो होनी चाहिए कि मेरा जीवन सम्यक्त्वलाभ के लिए है और यथोचित चारित्रपालन के लिए है । बाकी सारे दंदफंद सब मेरे लिए बेकार है । उनसे मेरे आत्मा की कुछ सिद्धि नहीं होती । व्यर्थ के विकल्प होते, अन्य जीवों पर आसक्ति, व्यामोह ये सब थोथे ऊल जलूल तथा अटपट चेष्टायें है । यह ही तो एक पौरुष करना है कि मेरा जीवन सम्यक्त्वलाभ के लिए रहे । मोही जीवों को अपने परिजन ही सर्वस्व दिखते है, धर्म या धर्मात्माजनों के प्रति उनको अनुराग नहीं जगता, पर जो ज्ञानी पुरुष है उनके धर्म और धर्मात्मावों पर अनुराग होता है, परिजनों पर उनके अंत: अनुराग नहीं होता, केवल एक गुजारे का साधन होने से परिजनों से उस प्रकार की प्रीति भर है । ऐसी जिनेंद्रभक्त ज्ञानी जीव की वृत्ति होती है ।

ज्ञानी देवों की अणिमा ऋद्धि―ज्ञानी जीव 8 गुणों की पुष्टि से पुष्ट रहते है । देवों में 8 गुण ऋद्धि वाले उनके जन्मत: होते है । (1) पहिला गुण है अणिमा, विक्रिया से अपने शरीर को कितना ही छोटा बना लें । छोटा बनाकर भी उनका वजन थोड़ा हो, ऐसी बात नहीं है । छोटा भी शरीर हो और बड़ा वजन हो जाय यह तो देवों में एक नैसर्गिक ऋद्धि है । श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्नकुमार जो कि कितने ही वर्ष बाद अपने घर आये, उनको जन्म से ही कोई देवता हर ले गया था और प्रद्युम्न दूसरे राजा के यहाँ रहे, वहाँ अनेक विद्यायें प्राप्त कीं । जब वे अपने घर आये तो बड़े पुरुष यों ही सीधे सादे अपने घर आ जायें यह बात तो उनसे नहीं बनती, उनका कोई ढंग होना चाहिए । तो उन्होंने अपनी विद्या का प्रताप फैलाना शुरु किया, और जब वे राजद्वार के निकट पहुंचे तो अपना एक बहुत बड़ा शरीर धारण कर के लेट गए । उनको उठाने के लिए बड़े-बड़े बलवान आये पर कोई उठा न सके । बाद में छोटा शरीर बनाकर लेट गए फिर भी कोई लोग उसे उठा न सके । उस समय उनका बड़ा यश फैला और यह तथ्य प्रकट हुआ कि यह प्रद्युम्नकुमार हैं । इसका एक बड़ा कथानक है । जब मनुष्यों में ऐसी बात देखने को मिलती तब फिर देवताओं की तो बात ही क्या है? उनमें तो ऋद्धियां स्वभावत: होती हैं । देखिये आज हम आप मनुष्य हैं । देवताओं की बात सुनकर चित्त में यह बात आती है कि मेरा भी जन्म देवगति में हो । जहाँ हजारों वर्ष तक भूख नहीं लगती और कभी भूख लगे तो उनके कंठ से अमृत झड़ जाता है । उनका है वैक्रियक शरीर, हम आप लोगों का है औदारिक शरीर । कभी हम आप भी विश्राम से बैठे हों तो थूक का गुट का कंठ में उतर जाता है, उस समय बड़ा आनंद मालूम होता है । उन देवों के हजारों वर्ष बाद कंठ से अमृत झड़ जाता, जिसकी जितनी आयु है उस अनुरूप सीमायें हैं, कंठ से अमृत झड़ जाता है और उनकी क्षुधा शांत हो जाती है । वैक्रियक शरीर होने से रोग का भी काम नहीं, पसीने का भी काम नहीं ऐसा सुनकर आता होगा चित्त में कि ऐसा ही देह मुझे मिले तो अच्छा है, लेकिन जिसको जो देह मिला है उस काल में उसके लिए वह न कुछ की तरह रहता है । और मिले हुए को लोग कुछ अधिक संतोषप्रद महत्व नहीं देते । जैसे यहाँ जिसको जितना धन मिला है उसके चित्त में यही बात रहती है कि मेरे को तो बहुत कम धन मिला है । ऐसा कोई नहीं मिलता जो यह मानता हो कि मेरे पास तो आवश्यकता से अधिक धन है । ऐसे ही उन देवों को भी वैक्रियक शरीर मिला है, देवांगनायें मिली हैं, 8 प्रकार की ऋद्धियां मिली हैं फिर भी उन्हें संतोष नहीं होता । और लोभ कषाय तो देवों के मनुष्यों से अधिक बतायी गई है । तो जहाँ लोभ और तृष्णा आ गई वहाँ सुख सब खतम हो जाता है । हम लोग ऐसा सोचते हैं कि देवताओं को बड़ा सुख होता होगा मगर देवता लोग तृष्णावश दूसरों की ऋद्धियों को देखकर अपने में कम जानकर भीतर दाहअग्नि से जलते रहते है । खैर यह तो है एक मोक्षमार्ग की दृष्टि से बात मगर लौकिक प्रसंगों में स्वर्ग में उत्पन्न होना और ऐसी बड़ी ऋद्धि वाले देव होना एक बड़ी बात मानी गई है । यह पुण्य का फल बताया जा रहा है । वैसे जो सम्यग्दृष्टि देव होते है वे संतुष्ट रहते है । उनके संतोष का कारण है ज्ञानबल । तो उन देवों की पहली ऋद्धि है अणिमा । अपने शरीर को अत्यंत छोटा बना देना ।

ज्ञानी देवों की महिमा ऋद्धि―कैसा वह वैक्रियक शरीर है कि वह आपको आँखों से दिख भी सकता और नहीं भी दिख सकता । शरीर देखने में बड़ा हो पर कहीं भींट के छोटे छिद्र में से निकल जाय । यों न जाने क्या-क्या उनकी ऋद्धियाँ हैं । यही तो संपन्नता है । तो वैक्रियक देव अपनी अणिमा ऋद्धि के कारण अपने में एक सुख का अनुभव करते हैं । जिसमें कलायें अधिक होती वह अपनी कलावों से शांति और सुख तो अनुभवता ही है । देवताओं में एक महिमा ऋद्धि है बड़प्पन, बड़ा देह बना लेना । कहीं इतना बड़ा देह बना लें कि आपकी निगाह पूरे देह में न पहुंच सके । कहीं आपको आंखें घुमानी पड़ें या गर्दन घुमानी पड़े । इतना बड़ा तो आकार हो शरीर का फिर भी कहीं दिखाई न पड़े । तो ये कलायें है ना, ये सब बातें बड़े पुण्य प्रताप से प्राप्त होती है । भले ही सम्यग्दृष्टि जीव उन कलावों का आदर नहीं रखते, ये तो सांसारिक बातें है । इनसे आत्मा का उद्धार नहीं है मगर है तो पुण्य का फल । सम्यग्दृष्टि जीव कभी दु:खी नहीं रह सकता । चाहे किसी भी स्थिति में हो, स्वर्गों में हो तो वहां भी उसको क्षोभ अधिक नहीं है । भला आप थोड़ा विचार तो कीजिए, यहाँ जो बड़े आचार्य हो गए―कुंदकुंदाचार्य, समंतभद्राचार्य, धरसेनाचार्य, पुष्पदंत, भूतबलि, अकलंक देव आदिक बड़े-बड़े दिग्गज आचार्य हुए जिन्होंने बड़े-बड़े राजपाट ऐश आराम छोड़ा, विरक्त हुए, मुनि हुए उनके उपकार का बदला हम आप नहीं चुका सकते । हमारे पास कोई ऐसी कला नहीं कि हम उनके उपकार का बदला चुका सकें, जिन्होंने जिनवाणी का इतना उद्धार किया, युक्ति और आम्नाय के अनुसार जिन्होंने वह तत्त्व दिखाया जिससे स्वपर का भेदविज्ञान जगे, मोह दूर हो, अपने आपके स्वरूप की सुध मिले, उनके उपकार का बदला कोई किसी प्रकार चुका सकता है क्या? यदि उनके उपकार को कोई न माने तो वह तो एक बड़ा पाप करता है कृतघ्न है संसार में रुलने वाला है । हम अपने पूर्वाचार्यों का किसी भी उपाय से बदला नहीं चुका सकते । हां तो वे ऋषिजन जो कि इतना विरक्त थे और ज्ञानध्यान में जो इतना अधिक रत रहे वे इस समय हम आपके बीच नहीं है फिर भी अंदाज तो होता है कि वे इस समय स्वर्ग में होंगे । अब स्वर्ग में जाकर 8वें स्वर्ग से ऊपर तो जा नहीं सकते इस पंचम काल में, इतना ऊंचा संहनन नहीं है कि इससे ऊपर के स्वर्गो में उत्पन्न हो सके, तो वे उन स्वर्गो में अब क्या कर रहे होंगे, इसका अंदाज तो करो । अरे वे बड़ी-बड़ी देवांगनाओं के बीच बैठकर बड़ा गान तान सुन रहे होंगे, बीच-बीच अपना सिर भी हिला रहे होंगे, राग रागनी के अनेक प्रसंगों के बीच रह रहे होंगे । आखिर अब वे खोटे भव तो धारण कर न सकेंगे, पशु, पक्षी या दीन दरिद्र भिखारी मनुष्य बनें ऐसी बातें तो अब नहीं बनती तो उनको कैसा भव मिला करता है? यह भव बताया जाता है कि मनुष्य हो तो मनुष्यों में उत्तम देव में हो तो देवों में भी महान् ऋद्धि वाले देव बनेंगे ।

ज्ञानीदेवों की लघिमा व गरिमा ऋद्धि―एक ऋद्धि है लघिमा । शरीर को अत्यंत हल्का बना लेना । शरीर चाहे कितना ही बड़ा हो पर उसे कहीं कोई फूल की तरह उठाकर अंगुली पर धर ले । जैसे यहाँ आप हाथ पैर हिलाये यह कुछ करने में आपको अधिक श्रम नहीं करना पड़ता, ऐसे ही देवों को इसमें कोई चेष्टा नहीं करनी पड़ती, भाव किये कि उसके अनुरूप विक्रिया हो गई । हर एक की विचित्र-विचित्र बातें हैं । गाय की पीठ पर मक्खी बैठ जाय तो गाय को पूंछ से भी मक्खी भगाने की जरूरत नहीं पड़ती, यो ही खाल हिल जातीं है । हम आप लोग तो ऐसा न कर पायेंगे । सब जीवों की एक विचित्र-2 बात है । कर्मोदय से स्वयं हो जाता है । देवताओं को अपने शरीर की ऋद्धि विकसित करना हो तो उनको कोई चेष्टा नहीं करनी होती । इच्छा भर की कि बस परिणमन भी वैसा ही चल उठा । यह ऋद्धि उन देवों को प्राप्त है जिनकी धर्म में रुचि है । एक ऋद्धि है गरिमा । कहो शरीर को अत्यंत छोटा बना लें फिर भी इतना वजनदार कि उसे कोई योद्धा भी तिल भर न हटा सके । ऐसी ऋद्धि भी जिनेंद्र देव के भक्त के प्रकट होती है ।

ज्ञानी देवों की प्राप्ति और प्राकाम्य ऋद्धि―एक ऋद्धि है प्राप्ति । इसके फल में चाहे कितनी

ही दूर वस्तु हो पर वहीं बैठे-2 उस चीज की प्राप्ति हो जाती है । एक ऋद्धि है प्राकाम्य, इसकी वजह से जैसा सुंदर रूप चाहे वैसा बना लें । ऋद्धि के संबंध में एक दृष्टांत आया है कि कोई एक सेठ था, वह विद्याधर था उसको यह ऋद्धि प्राप्त थी । उसने अष्टाह्निका के दिनों में अपनी सेठानी से कहा कि हम तो नंदीश्वर द्वीप की वंदना करने जायेंगे । तो सेठानी ने कहा कि वहाँ तुम नहीं जा सकते ।... क्यों? इसलिए कि मानुषोत्तर पर्वत से आगे मनुष्यों की गति नहीं है । ढाईद्वीप जिसे कहते, मानुषोत्तर पर्वत से इधर ढाईद्वीप कहलाता, एक जंबूद्वीप, उसे घेरकर लवण समुद्र, फिर उसे घेरकर धातकी खंड, उसे घेरकर कालोदधि इसे घेरकर पुष्करद्वीप इस द्वीप के ठीक बीचों बीच मानुषोत्तर पर्वत है, उसके आगे मनुष्यों की गति नहीं है । यह सब सेठानी ने समझाया पर सेठ ने न माना । आखिर उसके पास विद्या तो थी ही, चल दिया अपने विमान में बैठकर । जैसे ही मानुषोत्तर पर्वत की सीमा आयी उसके विमान में ऐसी गहरी टक्कर लगी कि उसका विमान उलट गया और सेठ का वहीं देहांत हो गया । चूंकि उस समय उसके शुभ भाव थे, जिनेंद्रदेव की भक्ति में प्रेम था इसलिए वह मरकर देव हुआ, और अंतर्मुहूर्त में ही जवान बनकर अवधिज्ञान से पूर्वभव की सब बात विचारकर एकदम उसका भाव हुआ कि नंदीश्वर द्वीप वंदना करना चाहिए । अब देव होने पर तो वह जा ही सकता था । सो उसने नंदीश्वर द्वीप की वंदना किया और वंदना करने के बाद उसके मन में एक कौतूहल आया कि मैं अपने पूर्वभव की सेठानी से जाकर बता दूं कि मैं नंदीश्वर द्वीप की वंदना करके आ गया । सो वह झट उस सेठ का रूप रखकर सेठानी के पास पहुंचा । (देखिये यह सब काम कोई डेढ़ घंटे के अंदर ही हो गया) हां तो सेठानी ने उसे सेठ ही समझा पर जब वह बोला कि हम आ गए नंदीश्वर द्वीप की वंदना करके तो वहाँ सेठानी ने उत्तर दिया कि आप झूठ कहते । यदि आप मनुष्य हैं तब तो आपकी नंदीश्वर जाने की बात झूठ है और यदि आपकी बात सच है तो आप मनुष्य नहीं हैं । आप तो देव है । तो वहाँ उस सेठ ने अपना असलीरूप प्रकट किया और सारा हाल बताया कि मैं मानुषोत्तर पर्वत में विमान टकरा जाने से मर गया, मरकर देव हुआ तब नंदीश्वर द्वीप की वंदना कर सका । धन्य है तुम्हारे दृढ़ श्रद्धान को । तो बात यहाँ यह कह रहे थे कि प्राकाम्य ऋद्धि के प्रताप से जैसा चाहे वैसा रूप रख ले, यह तो देवताओं में एक स्वाभाविक बात है । एक ऋद्धि होती है ।

ज्ञानी देवों की ईशित्व व वशित्व ऋद्धि एवं महती विभूति―ईशित्वऋद्धि―इस ऋद्धि के प्रताप से महान ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है । एक होती है वशित्वऋद्धि―इस ऋद्धि के प्रताप से जिस चाहे को अपने वश में कर लिया जाता है । इस वशित्वऋद्धि के कारण देव अपनी देवांगनाओं में यथेष्ट रमण करते है । यह सब महिमा है सम्यग्दर्शन की । वे देव सम्यग्दर्शन से विशिष्ट हैं उनकी बड़ी उत्कृष्ट शोभा है उनके इंद्रतुल्य वैभव हैं । न भी इंद्र हो सकें तो भी सामानिक, लोकपाल आदिक ये भी बड़े वैभव वाले देव कहलाते है । सामानिक देव ऐसे रहते जैसे यहाँ किसी बड़े परिवार का कोई बड़ा बुजुर्ग आदमी । हुक्म चलेगा सब इंद्र का इंद्र पर किसी का हुक्म नहीं चलता । सामानिक देवों में इंद्र का जैसा सारा वैभव पाया जाता है, पर सब पर उनका हुक्म नहीं चलता । इंद्रादिक के वैभव ये सब बातें सामानिक देवों में पायी जाती है । केवल हुक्म नहीं रहता । इंद्र बने, सामानिक बने, त्रायस्त्रिंश बने । शायद ये त्रायस्त्रिंश 33 ही होते होंगे तभी इनका नाम त्रायस्त्रिंश पड़ा । कोरम भी देखो, 11 का बन गया तिगुना, बाहरी प्राकृतिक घटना । त्रायस्त्रिंश वे धर्मक्रियावों में संविधान, मंत्रणा देने में कुशल, बड़ी ऋद्धि वाले देव है । लोकपाल भी बड़े वैभव वाले होते हैं, ये मनुष्यभव धारण करके मोक्ष जाते है लोकपाल की इतनी महिमा है । लोकपाल का अर्थ है―जैसे यहाँ का कोतवाल । लोकपाल का बड़ा पवित्र भाव है पर यहाँ के कोतवाल का भाव पवित्र होता या नहीं होता, आप लोग ज्यादह समझते होंगे । अरे लोकपाल तो नगर के पिता की तरह होता है । कोतवाल को नगरवासियों के प्रति बड़ा पवित्रभाव रखना चाहिए । जैसे घर का कोई बुजुर्ग, बच्चों का पिता बच्चों पर बड़ा पवित्रभाव रखता हैं ऐसा ही भाव नगर के कोतवाल को नगरवासियों के प्रति रखना चाहिए । कोतवाल को बड़ा न्यायप्रिय होना चाहिए, पर वह तो अन्याय करने पर भी उतारू रहता है । खैर मनुष्य चाहे कैसा ही करें पर देवों में जो लोकपाल देव होते वे बड़े न्यायप्रिय होते । तो जिनेंद्रभक्त सम्यग्दृष्टि जीव ऐसे-ऐसे पुण्यवान होते कि जिनके समान ऋद्धि वैभव, यश अन्य असंख्याते देवों में नहीं होता ।

देवों की गणना व आयु―देखिये देवों की संख्या मनुष्य और नारकियों से भी अधिक है । तिर्यंचों की संख्या के बाद दूसरा नंबर आता है देवों का । देवों की बहुत अधिक संख्या है । अभी ये जो तारे दिखते है उनकी ही गिनती करना अशक्य है । ये तारे तो असंख्यात द्वीप समुद्रों के ऊपर रह रहे है, एकएक तारा के विमान में अनेकों देवी देवता रहते हैं । यह तो एक ज्योतिषी देवों की बात है भवनवासी आदि फिर अन्य देव फिर वैमानिक देव । 16 स्वर्ग 9 ग्रैवेयक, 8 अनुदिश, 5 अनुत्तर यों देवों की संख्या बहुत अधिक है, वे बहुत बड़ी-बड़ी ऋद्धि समृद्धि वाले है । ऐसे वैभव, ऋद्धि आभरण इस जिनेंद्रभक्त सम्यग्दृष्टि जीव को प्राप्त होते है । इनकी आयु सागरों पर्यंत की होती है । 10 सागर 20 सागर और सागर भी कितना? जिसकी हद हम नहीं मान पाते हैं, है जरूर हद जिसको बताया है कि मान लो कोई दो हजार कोश का लंबा चौड़ा, गहरा गड्ढा हो । उसमें उत्तरकुरु भोग भूमि के बच्चे मेढ़े के बारीक रोम के टुकड़े इतने छोटे-छोटे उसमें ठसाठस भरे जायें कि जिनका दूसरा टुकड़ा कैंची आदिक से न किया जा सके । फिर उन टुकड़ों को प्रत्येक 100 वर्ष में एक टुकड़ा निकालें तो जितने काल में वे सब रोमखंड निकल सकें उतने काल का नाम है व्यवहारपल्य । उससे असंख्यातगुना होता है उद्धारपल्य उससे अनगिनते गुणा होता है अद्धापल्य और एक करोड़, अद्धापल्य का एक करोड़ अद्धापल्य में गुणा करने से जितना आये उसे कहते है एक कोड़ाकोड़ी अद्धापल्य ऐसे 10 कोड़ाकोड़ी अद्धापल्य का एक सागर होता है । ऐसे 10-20 आदि सागर पर्यंतवे देव अप्सराओं के परिषद में यथेष्ट प्रसन्न रहता करते हैं । यह बतलाया जा रहा है एक पुण्य का फल, ऐसा पाकर क्या करना चाहिए, यह उन सम्यग्दृष्टि देवों की अलग बात है, पर जो मिला है वह पुण्य का फल है । ऐसा पुण्य जिनेंद्रभक्त सम्यग्दृष्टि जीव प्राप्त किया करते हैं ।


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