वर्णीजी-प्रवचन:शीलपाहुड - गाथा 27
From जैनकोष
आदेहि कम्मगंठी जा बद्धा विसयरागरागेहिं ।
तं छिंदति कयत्था तवसंजमसीलयगुणेण ।।27।।
(55) जीव के द्वारा कर्मग्रंथि लगाना―इस जीव ने विषयों के ढंग में रंगकर अपने आप ही कर्म की गांठ बांधी । कहीं ऐसा नहीं है कि कर्म या कोई दूसरा पदार्थ हम से जबरदस्ती विकार करा रहे हों । दूसरे पदार्थ तो निमित्तमात्र हैं । करता खुद है यह परिणमन अपना । सो निमित्त की भी बात सुनो―आजकल लोग आश्रयभूत को निमित्त कहकर उस वास्तविक निमित्त का और आरोपित निमित्त का एक दर्जा मानते हैं और इस कारण आज परस्पर विवाद अथवा भ्रम भी रहता है । उसका मतलब यह है कि जैसे हमने क्रोध किया किसी पुरुष पर तो जो भीतर क्रोध नाम का कर्म है वह तो है निमित्त और जिस पुरुष पर क्रोध आया वह है आश्रयभूत । आश्रयभूत कारण मजबूत कारण नहीं होता । अज्ञ को कभी ऐसा लगता है कि यह आदमी होने से क्रोध हो गया, न होता आदमी तो क्रोध रखा कहाँ पर? और पर में या भीतर ही अपने क्रोध से घुटता रहता । तो आश्रयभूत कारण में अविनाभाव नहीं होता कि उस कारण के होने पर क्रोध होता ही हो और उसके न होने पर क्रोध न होता हो । हाँ, क्रोध का उदय न हो तो क्रोध नहीं होता । तो निमित्त और आश्रयभूत में तो अंतर पड़ा ना? तो यह जीव कर्मविपाक का निमित्त पाकर विषय को आश्रयभूत कारण बनाकर कर्म की गांठ लगाता है ।
(56) निमित्त और आश्रयभूत कारण का अंतर समझने के लिए एक दृष्टांत―एक दृष्टांत प्रसिद्ध है कि कोई वेश्या गुजर गई, उसे लोग मरघट में लिए जा रहे थे, तो उसका जो परिचित यार था कामी पुरुष वह उसको देखकर यह सोचता है कि यह अगर कुछ दिन और जीवित रहती तो मुझे इससे बड़ी मौज मिलती और मुनि महाराज भी देख रहे थे, वे यह सोच रहे थे कि इसने इतना तो दुर्लभ मनुष्य जन्म पाया और विषयों में अकारथ खो दिया और वहाँ कुछ लड़ैया कुत्ते भी थे तो वे सोचते थे कि ये लोग इसे व्यर्थ ही जला रहे हैं, यदि इसे यों ही छोड़ जायें तो हमारे लिए दो-चार माह का भोजन हो जाये । अब देखो वह तो एक ही वेश्या मृतक है, और तीन जीवों के तीन तरह के भाव हुए । यदि वह वेश्या किसी के भाव का वास्तविक निमित्त होती तो सबके एक से भाव होने चाहिए थे, किंतु अलग-अलग भाव हुए तो वह वेश्या निमित्त कारण नहीं, किंतु आश्रयभूत कारण है । जिसके जैसा भाव है, वेश्या को उसने भाव के कथनानुसार एक सहारा बना लिया है । वास्तविक निमित्त तो तीनों जीवों के साथ तीन तरह के अलग-अलग कर्म हैं । जैसे कामी पुरुष के साथ वेद कषाय का उदय लगा है जिससे कामविकार का भाव बनता है तो उसने उसके अनुरूप आश्रय बना लिया । मुनि महाराज के चारित्रमोह की प्रकृतियों का क्षयोपशम है तो उनके वैराग्यरूप परिणाम है सो उन्होंने उसको अपने वैराग्य परिणाम का आश्रय बना लिया और कुत्ते को क्षुधावेदनीय का उदय है तो भूख में उसने उसके अनुरूप आश्रय बना लिया । तो इससे यह सिद्ध है कि आश्रयभूत कारण तो काल्पनिक कारण है, बाह्य कारण है, निमित्त नहीं है ।
(57) जीव के द्वारा कर्मग्रंथि का लगाना व स्वयं की परिणामशुद्धि द्वारा कर्मग्रंथि का खोलना―यह जीव जो बंधा रहता है, कर्म की गांठ से बंधता है तो उसमें निमित्त कारण तो पूर्वकृत कर्म का उदय है, मगर बंधा कौन? गांठ किसने लगायी? फंसा कौन रहा? यही जीव । सो यहाँ यह बतला रहे कि इसी जीव ने तो उस राग की, प्रीति की गांठ लगायी तो यह ही जीव उस गांठ को खोलना भी जानता है । जैसे किसी ने रस्सी में गांठ लगायी तो वह रस्सी की गांठ को खोलना भी जानता है कि किस तरह खोली जाती है । सुनार ने सोने चांदी में कोई टांका लगाया तो टांका भी गांठ है तो वह उसको खोलना भी जानता है कि इस जगह से खोला जाता है ऐसे ही यह जीव अपने में गांठ लगाता है तो यह उस गांठ को खोलना भी जानता है । गांठ लगती है विषयों के राग से और खुलती है ज्ञान और वैराग्य से । ज्ञान और वैराग्य ये दोनों शील पर आधारित हैं । आत्मा का शील है मात्र ज्ञाताद्रष्टा रहना, ज्ञानस्वभाव, जाननहार रहना । बस इसके आधार पर परिणाम विशुद्ध होते हैं, कर्म की गांठ छूट जाती हैं ।