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विशुद्ध

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सर्वार्थसिद्धि/2/49/198/4 विशुद्धकार्यत्वाद्विशुद्धव्यपदेशः। विशुद्धस्य पुण्यकर्मणः अशबलस्य निरवद्यस्य कार्यत्वाद्विशुद्धमित्युच्यते तंतूनां कार्पासव्यपदेशवत्। = विशुद्धकर्म का कार्य होने से आहारक शरीर को विशुद्ध कहा है। तात्पर्य यह है कि चित्र विचित्र न होकर निर्दोष हो, ऐसे विशुद्ध पुण्यकर्म का कार्य होने से आहारक शरीर को भी विशुद्ध कहते हैं (यहाँ कार्य में कारण का उपचार है । जैसे तंतुओं में कपास का उपचार करके तंतुओं को भी कपास कहते हैं। ( राजवार्तिक/2/49/2/152/26 )।


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