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सूत्रपाहुड़ गाथा 21

From जैनकोष

(Redirected from सुत्रपाहुड़ गाथा 21)
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दुइयं च उत्त लिंगं उक्किट्ठं अवरसावयाणं च ।
भिक्खं भमेइ पत्ते समिदीभासेण मोणेण ॥२१॥
द्वितीयं चोक्तं लिङ्‍गं उत्कृष्टं अवरश्रावकाणां च ।
भिक्षां भ्रमति पात्रे समितिभाषया मौनेन ॥२१॥


आगे कहते हैं कि पूर्वोक्त एक भेष तो मुनि का कहा, अब दूसरा भेष उत्कृष्ट श्रावक का इसप्रकार कहा है -
अर्थ - द्वितीय लिंग अर्थात्‌ दूसरा भेष उत्कृष्ट श्रावक जो गृहस्थ नहीं है, इसप्रकार उत्कृष्ट श्रावक का कहा है, वह उत्कृष्ट श्रावक ग्यारहवीं प्रतिमा का धारक है, वह भ्रमण करके भिक्षा द्वारा भोजन करे और पत्ते अर्थात्‌ पात्र में भोजन करे तथा हाथ में करे और समितिरूप प्रवर्तता हुआ भाषासमितिरूप बोले अथवा मौन से रहे ।
भावार्थ - - एक तो मुनि का यथाजातरूप कहा और दूसरा यह उत्कृष्ट श्रावक का कहा वह ग्यारहवीं प्रतिमा का धारक उत्कृष्ट श्रावक है, वह एक वस्त्र तथा कोपीन मात्र धारण करता है और भिक्षा से भोजन करता है, पात्र में भी भोजन करता है और करपात्र में भी करता है, समितिरूप वचन भी कहता है अथवा मौन भी रखता है, इसप्रकार यह दूसरा भेष है ॥२१॥


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  • सुत्रपाहुड़
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