GP:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 101 - समय-व्याख्या - हिंदी
From जैनकोष
यह, काल को द्रव्य-पने के विधान का और अस्ति-काय-पने के निषेध का कथन है (अर्थात काल को द्रव्यपना है किन्तु अस्तिकायपना नहीं है ऐसा यहाँ कहा है)
जिस प्रकार वास्तव में जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, और आकाश को द्रव्य के समस्त लक्षणों का सद्भाव होने से वे 'द्रव्य' संज्ञा को प्राप्त करते हैं, उसी प्रकार काल भी (उसे द्रव्य के समस्त लक्षणों का सद्भाव होने से) 'द्रव्य' संज्ञा को प्राप्त करता है । इस प्रकार छह द्रव्य हैं । किन्तु जिस प्रकार जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश को १द्वि-आदि प्रदेश जिसका लक्षण है ऐसा अस्ति-काय-पना है, उस प्रकार कालाणुओं को, यद्यपि उनकी संख्या लोकाकाश के प्रदेशों जितनी (असंख्य) है तथापि, एक प्रदेशीपने के कारण अस्ति-काय-पना नहीं है । और ऐसा होने से ही (अर्थात काल अस्ति-काय न होने से ही) यहाँ पंचास्तिकाय के प्रकरण में मुख्य रूप से काल का कथन नहीं किया गया है, (परन्तु) जीव-पुद्गलों के परिणाम द्वारा जो ज्ञात होती है / मापी जाती है ऐसी उसकी पर्याय होने से तथा जीव-पुद्गलों के परिणाम की अन्यथा अनुपपत्ति द्वारा जिसका अनुमान होता है, ऐसा वह द्रव्य होने से उसे यहाँ २अन्तर्भूत किया गया है ॥१०१॥
इस प्रकार काल द्रव्य का व्याख्यान समाप्त हुआ ।
१द्वि-आदि = दो या अधिक, दो से लेकर अनन्त तक।
२अन्तर्भूत करना = भीतर समा लेना, समाविष्ट करना, समावेश करना (इस 'पंचास्तिकाय संग्रह' नामक शास्त्र में काल का मुख्य रूप से वर्णन नहीं है, पाँच अस्तिकायों का मुख्य रूप से वर्णन है । वहाँ जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय के परिणामों का वर्णन करते हुए, उन परिणामों द्वारा जिसके परिणाम ज्ञात होते हैं- मापे जाते हैं उस पदार्थ का / काल का तथा उन परिणामों की अन्यथा अनुपपत्ति द्वारा जिसका अनुमान होता है उस पदार्थ का / काल का गौण रूप से वर्णन करना उचित है- ऐसा मानकर यहाँ पंचास्तिकाय प्रकरण में गौण रूप से काल के वर्णन का समावेश किया गया है। )