GP:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 103 - समय-व्याख्या - हिंदी
From जैनकोष
इस, दुःख से विमुक्त होने के क्रम का कथन है।
प्रथम, कोई जीव इस शास्त्र के अर्थभूत शुद्धचैतन्यस्वभाववाले (निज) आत्मा को जानता है, अतः (फ़िर) उसी के अनुसरण का उद्यम करता है, अतः उसे दृष्टिमोह का क्षय होता है, अतः स्वरूप के परिचय के कारण ज्ञानज्योति प्रगट होती है, अतः रागद्वेष प्रशमित होते हैं- निवृत्त होते हैं, अतः उत्तर और पूर्व (-पीछे का और पहले का) बन्ध विनष्ट होता है, अतः पुनः बन्ध होने के हेतुत्व का अभाव होने से स्वरूपस्थरूप से सदैव तपता है - प्रतापवन्त वर्तता है (अर्थात वह जीव सदैव स्वरूपस्थित रहकर परमानन्द ज्ञानादिरूप परिणमित है ) ॥१०३॥
इस प्रकार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री पंचास्तिकायसंग्रह शास्त्र की श्रीमद्अमृतचन्द्राचार्यदेवविरचित) समयव्याख्या नामक टीका में षड्द्रव्यपंचास्तिकायवर्णन नाम का प्रथम श्रुतस्कंध समाप्त हुआ।