GP:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 150 - समय-व्याख्या - हिंदी
From जैनकोष
यह, द्रव्य मोक्ष के हेतुभूत ऐसी परम निर्जरा के कारण-भूत ध्यान का कथन है ।
इस प्रकार वास्तव में इस (पूर्वोक्त) भाव-मुक्त (भावमोक्ष वाले) भगवान केवली को, कि जिन्हें स्वरूप तृप्तपने के कारण १कर्म-विपाकृत सुख-दुख-रूप विक्रिया अटक गयी है उन्हें, आवरण के प्रक्षीणपने के कारण, अनन्त ज्ञानदर्शन से सम्पूर्ण शुद्ध-ज्ञान-चेतना-मय-पने के कारण तथा अतीन्द्रियपने के कारण जो अन्य-द्रव्य के संयोग रहित है और शुद्ध स्वरूप में अविचलित चैतन्य वृत्तिरूप होने के कारण जो कथंचित 'ध्यान' नाम के योग्य है ऐसा आत्मा का स्वरूप (आत्मा की निज दशा) पूर्व-संचित कर्मों की शक्ति को २शातन अथवा उनका ३पतन देखकर निर्जरा के हेतु-रूप से वर्णन किया जाता है ॥१५०॥
१केवली-भगवान निर्विकार-परमानन्द-स्वरूप स्वात्मोत्पन्न सुख से तृप्त हैं इसलिये कर्म का विपाक जिसमें निमित्त-भूत होता है ऐसी सांसारिक सुख-दुःखरूप (हर्ष-विषाद-रूप) विक्रिया उन्हें विराम को प्राप्त हुई है ।
२शातन= पतला होना, हीन होना, क्षीण होना ।
३पतन= नाश, गलन, खिर जाना।