GP:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 156 - समय-व्याख्या - हिंदी
From जैनकोष
यह, स्व-चारित्र में प्रवर्तन करने वाले के स्वरूप का कथन है ।
जो (जीव) वास्तव में १निरुपराग उपयोग वाला होने के कारण सर्व-संग-मुक्त वर्तता हुआ, पर-द्रव्य से २व्यावृत्त उपयोग वाला होने के कारण ३अनन्यमनवाला वर्तता हुआ, आत्माको ज्ञानदर्शनरूप स्वभाव द्वारा नियतरूप से अर्थात् अवस्थितरूपस से जानता-देखता है, वह जीव वास्तव में स्वचारित्र आचरता है; क्योंकि वास्तव में ४दृशिज्ञप्तिस्वरूप पुरुष में (आत्मा में) तन्मात्ररूप से वर्तना सो स्व-चारित्र है ॥१५६॥
१निरुपराग =उपराग रहित; निर्मल; अविकारी; शुद्ध (निरुपराग उपयोगवाला जीव समस्त बाह्य-अभ्यंतर संग से शून्य है तथापि नि:संग परमात्मा की भावना द्वारा उत्पन्न सुन्दर आनन्दस्यन्दी परमानन्द-स्वरूप सु्ख-सु्धारस के आस्वाद से, पूर्ण-कलश की भाँति, सर्व आत्म-प्रदेश में भरपूर होता है ।)
२आवृत्त = विमुख हुआ; पृथक हुआ; निवृत्त हुआ. निवृत्त; भित्र ।
३अनन्यमनवाला= जिसकी परिणति अन्य प्रति नहीं जाती ऐसा । ( मन=चित्त; परिणति; भाव)
४दृशि = दर्शन क्रिया, सामान्य अवलोकन ।