GP:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 162 - समय-व्याख्या - हिंदी
From जैनकोष
यहाँ, दर्शन-ज्ञान-चारित्र का कथंचित बन्ध-हेतुपना दर्शाया है और इस प्रकार जीव-स्वभाव में नियत चारित्र का साक्षात् मोक्ष-हेतुपना प्रकाशित किया है ।
यह दर्शन-ज्ञान-चारित्र यदि अल्प भी परसमयप्रवृत्ति के साथ मिलित हो तो, अग्नि के साथ मिलित घृत की भाँति (अर्थात् १उष्णतायुक्त घृत की भाँति), कथंचित् २विरुद्ध कार्य के कारणपने की व्याप्ति के कारण बन्ध कारण भी है । और जब वे (दर्शन-ज्ञान-चारित्र), समस्त परसमय-प्रवृत्ति से निवृत्ति-रूप ऐसी स्वसमय-प्रवृत्ति के साथ संयुक्त होते हैं तब, जिसे अग्नि के साथ का मिलितपना निवृत्त हुआ है ऐसे घृत की भाँति, विरुद्ध कार्य का कारणभाव निवृत्त हो गया होने से साक्षात मोक्ष का कारण ही है । इसलिये 'स्वसमय-प्रवृत्ति' नाम का जो जीव-स्वभाव में नियत चारित्र उसे साक्षात मोक्ष-मार्गपना घटित होता है ३ ॥१६२॥
१घृत स्वभाव से शीतलता के कारणभूत होने पर भी, यदि वह किंचित भी उष्णता से युक्त हो तो, उससे (कथंचित) जलते भी हैं; उसी प्रकार दर्शन-ज्ञान-चारित्र स्वभाव से मोक्ष के कारणभूत होने पर भी, यदि वे किंचित भी परसमयप्रवृति से युक्त हो तो, उनसे (कथंचित) बन्ध भी होता है ।
२परसमय-प्रवृत्ति-युक्त दर्शन-ज्ञान-चारित्र में कथंचित मोक्षरूप कार्य से विरुद्ध कार्य का कारणपना (अर्थात बन्ध-रूप- कार्य का कारणपना) व्याप्त है । ( शास्त्रों में कभी-कभी दर्शन-ज्ञान-चारित्र को भी यदि वे परसमय-प्रवृत्ति-युक्त हो तो, कथंचित बन्ध का कारण कहा जाता है; और कभी ज्ञानी को वर्तने वाले शुभभावों को भी कथंचित मोक्ष के परंपरा हेतु कहा जाता है । शास्त्रों में आने वाले ऐसे भिन्नभिन्न पद्धति के कथनों को सुलझाते हुए यह सारभूत वास्तविकता ध्यान में रखनी चाहिये कि - ज्ञानी को जब शुद्धाशुद्धरूप मिश्रपर्याय वर्तती है तब वह मिश्रपर्याय एकांत से संवर-निर्जरा-मोक्ष के कारणभूत नहीं होती, अथवा एकांत से आस्रव-बन्ध के कारणभूत नहीं होती, परन्तु उस मिश्रपर्याय का शुद्ध अंश संवर-निर्जरा-मोक्ष के कारणभूत होता है और अशुद्ध अंश आस्रव-बन्ध के कारणभूत होता है । )
३इस निरूपण के साथ तुलना करने के लिये श्री प्रवचनसार की ११ वीं गाथा और उसकी तत्त्वप्रदीपिका टीका देखिए ।