GP:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 35 - समय-व्याख्या - हिंदी
From जैनकोष
यह, सिद्ध को कार्य-कारण-भाव होने का निरास है (सिद्ध-भगवान को कार्यपना और कारणपना होने का निराकरण / खण्डन है) ।
जिस प्रकार संसारी जीव कारण-भूत ऐसी भाव-कर्म-रूप आत्म-परिणाम-सन्तति और द्रव्य-कर्म-रूप पुद्गल-परिणाम-सन्तति द्वारा उन-उन देव-मनुष्य-तिर्यंच-नारक के रूप में कार्य-भूत-रूप से उत्पन्न होता है, उसी प्रकार सिद्ध-रूप से भी उत्पन्न होता है -- ऐसा नहीं है; (और) सिद्ध वास्तव में, दोनों कर्मों का क्षय होने पर, स्वयं (सिद्ध-रूप से) उत्पन्न होते हुए अन्य किसी कारण से (भाव-कर्म से या द्रव्य-कर्म से) उत्पन्न नहीं होते ।
पुनश्च, जिस प्रकार वही संसारी (जीव) कारण-भूत होकर कार्य-भूत ऐसी भाव-कर्म-रूप आत्म-परिणाम-सन्तति और द्रव्य-कर्म-रूप पुद्गल-परिणाम-सन्तति रचता हुआ कार्य-भूत ऐसे वे-वे देव-मनुष्य-तिर्यंच-नारक के रूप में अपने में उत्पन्न करता है, उसी प्रकार सिद्ध का रूप भी (अपने में) उत्पन्न करता है -- ऐसा नहीं है; (और) सिद्ध वास्तव में, दोनों कर्मों का क्षय होने पर, स्वयं अपने को (सिद्ध-रूप से) उत्पन्न करते हुए अन्य कुछ भी (भाव-द्रव-कर्म-स्वरूप अथवा देवादि-स्वरूप कार्य) उत्पन्न नहीं करते ॥३५॥