GP:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 40 - समय-व्याख्या - हिंदी
From जैनकोष
यह, ज्ञानोपयोग के भेदों के नाम और स्वरूप का कथन है ।
वहां,
- आभिनिबोधिक-ज्ञान,
- श्रुत-ज्ञान,
- अवधि-ज्ञान,
- मन:पर्यय-ज्ञान,
- केवलज्ञान,
- कुमति-ज्ञान,
- कुश्रुत-ज्ञान और
- विभंग-ज्ञान
(अब उनके स्वरूप का कथन किया जाता है :-) आत्मा वास्तव में अनंत, सर्व आत्म-प्रदेशों में व्यापक, विशुद्ध ज्ञान-सामान्य-स्वरूप है । वह (आत्मा) वास्तव में अनादि ज्ञानावरण-कर्म से आच्छादित प्रदेशवाला वर्तता हुआ,
- उस प्रकार के (अर्थात् मतिज्ञान के) आवरण के क्षयोपशम से और इन्द्रिय-मन के अवलम्बन से मूर्त-अमूर्त द्रव्य का विकल-रूप से विशेषत: अवबोधन करता है वह आभिनिबोधिक है,
- उस प्रकार (श्रुत-ज्ञान) के आवरण के क्षयोपशम से और मन के अवलम्बन से मूर्त-अमूर्त द्रव्य का विकल-रूप से विशेषत: अवबोधन करता है वह श्रुत-ज्ञान है,
- उस प्रकार के आवरण के क्षयोपशम से ही मूर्त-द्रव्य का विकल-रूप से विशेषत: अवबोधन करता है वह अवधिज्ञान है,
- उस प्रकार के आवरण के क्षयोपशम से ही पर-मनोगत (दूसरों के मन के साथ सम्बन्ध-वाले) मूर्त-द्रव्य का विकल-रूप से विशेषत: अवबोधन करता है वह मन:पर्यय-ज्ञान है,
- समस्त आवरण के अत्यन्त क्षय से, केवल ही (आत्मा अकेला ही), मूर्त-अमूर्त द्रव्य का सकल-रूप से विशेषत: अवबोधन करता है वह स्वाभाविक केवलज्ञान है,
- मिथ्यादर्शन के उदय के साथ का आभिनिबोधिक-ज्ञान ही कुमति-ज्ञान है,
- मिथ्यादर्शन के उदय के साथ का श्रुत-ज्ञान ही कुश्रुत-ज्ञान है,
- मिथ्यादर्शन के उदय के साथ का अवधि-ज्ञान ही विभंग-ज्ञान है
इस प्रकार मतिज्ञानादि आठ ज्ञानोपयोगों का व्याख्यान किया गया ॥४०॥