GP:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 64 - समय-व्याख्या - हिंदी
From जैनकोष
अन्य द्वारा किये गए बिना कर्म की उत्पत्ति किस प्रकार होती है, उसका यह कथन है ।
आत्मा वास्तव में संसार-अवस्था में परिणामिक चैतन्य-स्वभाव को छोड़े बिना ही अनादि बंधन द्वारा बद्ध होने से अनादि मोह-राग-द्वेष द्वारा १स्निग्ध ऐसे अविशुद्ध भावों-रूप से ही विवर्तन को प्राप्त होता है (परिणमित होता है) । वह (सन्सारस्थ आत्मा) वास्तव में जहां और जब मोह-रूप, राग-रूप या द्वेष-रूप ऐसे अपने भाव को करता है, वहां और उसी समय उसी भाव को निमित्त बनाकर पुद्गल अपने भावों से ही जीव के प्रदेशों में (विशिष्टता-पूर्वक) परस्पर अवगाह-रूप से प्रविष्ट हुए कर्म-भाव को प्राप्त होते हैं ॥६४॥
१स्निग्ध = चिकने; चिकनाई-वाले । (मोह-राग-द्वेष कर्म-बन्ध में निमित्त-भूत होने के कारण उन्हें स्निग्धता की उपमा दी जाती है । इसलिए, यहाँ अविशुद्ध भावों को 'मोह-राग-द्वेष द्वारा स्निग्ध' कहा है ।)