GP:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 69 - समय-व्याख्या - हिंदी
From जैनकोष
यह, कर्म-वियुक्त-पने की मुख्यता से प्रभुत्व का व्याख्यान है ।
जब यही आत्मा जिनाज्ञा द्वारा मार्ग को प्राप्त करके, उपशांत-क्षीण-मोह-पने के कारण (दर्शन-मोह के उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम के कारण) जिसे विपरीत अभिनिवेश नष्ट हो जाने से समग्ज्ञान-ज्योति प्रगट हुई है, ऐसा वर्तता हुआ, कर्तृत्व और भोक्तृत्व के अधिकार को समाप्त करके सम्यक-रूप से प्रगट प्रभुत्व-शक्ति-वान होता हुआ ज्ञान का ही अनुसरण करनेवाले मार्ग में विचरता है (प्रवर्तता है, परिणामित होता है, आचरण करता है), तब वह विशुद्ध आत्म-तत्त्व की उपलब्धि-रूप अपवर्ग-नगर को (मोक्ष-पुर को) प्राप्त करता है ।
(इस प्रकार जीव के कर्म-रहित-पने की मुख्यता-पूर्वक प्रभुत्व का व्याख्यान किया गया ।) ॥६९॥