GP:प्रवचनसार - गाथा 14 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
अब शुद्धोपयोग-परिणत आत्मा का स्वरूप कहते हैं :-
सूत्रों के अर्थ के ज्ञानबल से स्वद्रव्य और परद्रव्य के विभाग के १परिज्ञान में, श्रद्धान में, और विधान में (आचरण में) समर्थ होने से (स्वद्रव्य और परद्रव्य की भिन्नता का ज्ञान, श्रद्धान और आचरण होने से) जो श्रमण पदार्थों को और (उनके प्रतिपादक) सूत्रों को जिन्होंने भली-भाँति जान लिया है ऐसे हैं, समस्त छह जीव-निकाय के हनन के विकल्प से और पंचेन्द्रिय सम्बन्धी अभिलाषा के विकल्प से आत्मा को २व्यावृत्त करके आत्मा का शुद्धस्वरूप में संयमन करने से, और ३स्वरूप-विश्रान्त ४निस्तरंग ५चैतन्य-प्रतपन होने से जो संयम और तप-युक्त हैं, सकल मोहनीय के विपाक से भेद की भावना की उत्कृष्टता से (समस्त मोहनीय कर्म के उदय से भिन्नत्व की उत्कृष्ट भावना से) निर्विकार आत्म-स्वरूप को प्रगट किया होने से जो वीतराग हैं, और परमकला के अवलोकन के कारण साता वेदनीय तथा असाता वेदनीय के विपाक से उत्पन्न होनेवाले जो सुख-दुख उन सुख-दुख जनित परिणामों की विषमता का अनुभव नहीं होने से (परम सुख-रस में लीन, निर्विकार स्वसंवेदन रूप परमकला के अनुभव के कारण इष्टानिष्ट संयोगों में हर्ष-शोकादि विषय परिणामों का अनुभव न होने से) जो समसुखदुःख हैं, ऐसे श्रमण शुद्धोपयोगी कहलाते हैं ॥१४॥
१परिज्ञान = पूरा ज्ञान; ज्ञान
२व्यावृत्त करके = विमुख करके; रोककर; अलग करके
३स्वरूपविश्रान्त = स्वरूपमें स्थिर हुआ
४निस्तरंग = तरंग रहित; चंचलता रहित; विकल्प रहित; शांत
५प्रतपन होना = प्रतापवान होना, प्रकाशित होना, दैदीप्यमान होना