GP:प्रवचनसार - गाथा 207 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
अब, इन दोनों लिंगों को ग्रहणकर, पहले भावि-नैगमनय से कहे गए पंचाचार के स्वरूप को अब स्वीकार कर, उसके आधार से उपस्थित - स्वस्थ - स्वरूप-लीन होकर वह श्रमण होता है, ऐसा प्रसिद्ध करते हैं --
[आदय तं पि लिंगं] उन पहले (२१९ व २२० गाथा में) कहे गये दोनों लिंगों को भी ग्रहण कर । कैसे दोनों लिंगो को ग्रहणकर ? [दत्तं] यह क्रिया अध्याहार है (प्रकरणानुसार ले लेना चाहिये) अर्थात् दिये गये दोनों लिंगों को ग्रहणकर । किसके द्वारा दिये गये उनको ग्रहणकर ? [गुरुणा परमेण] दिव्यध्वनि के समय परमागम के उपदेशरूप से अरहन्त भट्टारक-भगवान द्वारा तथा दीक्षा के समय दीक्षा गुरु द्वारा दिये गये उन लिंगों को ग्रहणकर । लिंग ग्रहण करने के बाद [तं णमंसित्ता] उन गुरु को नमस्कार कर [सोच्चा] उसके बाद सुनकर । किसे सुनकर? [किरियं] क्रिया अर्थात वृहत्-प्रतिक्रमण को सुनकर । किससे सहित उसे सुनकर ? [सवदं] सव्रत-व्रतारोपण सहित व्रहत प्रतिक्रमणरूप क्रिया को सुनकर । [उवट्ठिदो] और उसके बाद उपस्थित-स्वस्थ-अपने में लीन होता हुआ [होदि सो समणो] वह पहले कहा हुआ तपोधन-मुनि, अब श्रमण होता है ।
यहाँ उसका विस्तार करते हैं -
- पहले (२१९- २२० वीं गाथा में) कहे गये दोनों लिंगों को, ग्रहण करने के बाद
- पहले (२१६ वीं) गाथा में कहे गये पंचाचार का आश्रय लेते हैं,
- तदुपरान्त अनन्तज्ञानादि गुण-स्मरणरूप भावनमस्कार द्वारा और वैसे ही उन गुणों के प्रतिपादक वचनरूप द्रव्य नमस्कार द्वारा, गुरु को नमस्कार करते हैं ।
- उसके बाद सम्पूर्ण शुभ-अशुभ परिणामों से निवृत्ति रूप अपने स्वरूप में निश्चल अवस्थानमयी, परम सामायिक व्रत पर आरोहण करते हैं (परम सामायिक व्रत को स्वीकार करते हैं) ।
- मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना द्वारा तीन-लोक और तीन-काल में भी, सम्पूर्ण शुभ-अशुभ कर्मों, से भिन्न अपने शुद्धात्मारूप परिणति लक्षण जो क्रिया, वह निश्चय से वृहत् प्रतिक्रमण कहलाती है; व्रतारोपण के बाद उसे सुनते हैं ।
- तत्पश्चात् निर्विकल्प-समाधि के बल से शरीर का त्यागकर- शरीर के प्रति मोह का त्याग कर, उपस्थित- स्वरूप लीन होते हैं ।
इसप्रकार दीक्षा के सम्मुख पुरुष के दीक्षा-विधान कथन की मुख्यता से पहले स्थल में सात गाथायें पूर्ण हुई ।