GP:प्रवचनसार - गाथा 32 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
अब, इसप्रकार (व्यवहार से) आत्मा की पदार्थों के साथ एक दूसरे में प्रवृत्ति होने पर भी, (निश्चय से) वह पर का ग्रहण -त्याग किये बिना तथा पररूप परिणमित हुए बिना सबको देखता-जानता है इसलिये उसे (पदार्थों के साथ) अत्यन्त भिन्नता है ऐसा बतलाते हैं :-
यह आत्मा, स्वभाव से ही परद्रव्य के ग्रहण-त्याग का तथा पर-द्रव्यरूप से परिणमित होने का (उसके) अभाव होने से, स्व-तत्त्वभूत केवल-ज्ञानरूप से परिणमित होकर निष्कंप निकलने वाली ज्योति-वाला उत्तम मणि जैसा होकर रहता हुआ,
- जिसके सर्व ओर से (सर्व आत्म-प्रदेशों से) दर्शन-ज्ञान शक्ति स्फुरित है ऐसा होता हुआ, १निःशेष-रूप से परिपूर्ण आत्मा को, आत्मा से, आत्मा में संचेतता-जानता-अनुभव करता है, अथवा
- एक-साथ ही सर्व पदार्थों के समूह का २साक्षात्कार करने के कारण ज्ञप्ति-परिवर्तन का अभाव होने से जिसके ३ग्रहण-त्यागरूप क्रिया विराम को प्राप्त हुई है ऐसा होता हुआ, पहले से ही समस्त ज्ञेयाकार-रूप परिणमित होने से फिर पररूप से -- ४आकारान्तर-रूप से नहीं परिणमित होता हुआ सर्व प्रकार से अशेष विश्व को, (मात्र) देखता-जानता है ।
१निःशेषरूप से = कुछ भी किंचित् मात्र शेष न रहे इस प्रकार से
२साक्षात्कार करना = प्रत्यक्ष जानना
३ज्ञप्ति-क्रिया का बदलते रहना = अर्थात् ज्ञान में एक ज्ञेय को ग्रहण करना और दूसरे को छोड़ना सो ग्रहण-त्याग है; इस प्रकार का ग्रहण-त्याग वह क्रिया है, ऐसी क्रिया का केवली-भगवान के अभाव हुआ है
४आकारान्तर = अन्य आकार