GP:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 19-20 - टीका हिंदी
From जैनकोष
सम्यग्दर्शन नि:शङ्कितादि आठ अङ्गों से युक्त हैं, उन आठ अङ्गों में से पहले नि:शङ्कित अङ्ग में अञ्जनचोर का दृष्टान्त निश्चित किया गया है। दूसरे नि:काङ्क्षित अङ्ग में अनन्तमती रानी, तीसरे निर्विचिकित्साअङ्ग में उद्दायनराजा, चौथे अमूढदृष्टिअङ्ग में रेवती रानी, पाँचवें उपगूहनअङ्ग में जिनेन्द्रभक्त सेठ, छठे स्थितीकरणअङ्ग में वारिषेण, सातवें वात्सल्यअङ्ग में विष्णुकुमारमुनि और आठवें प्रभावनाअङ्ग में वज्रकुमार मुनि प्रसिद्धि को प्राप्त हुए हैं।
अञ्जन चोर की कथा
धन्वन्तरि और विश्वलोमा पुण्यकर्म के प्रभाव से अमितप्रभ और विद्युत्प्रभ नाम के देव हुए और एक-दूसरे के धर्म की परीक्षा करने हेतु पृथिवीलोक पर आये। तदनन्तर उन्होंने यमदग्रि ऋषि को तप से विचलित किया। मगधदेश के राजगृह नगर में जिनदत्त नाम का सेठ उपवास का नियम लेकर कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी की रात्रि को श्मशान में कायोत्सर्ग से स्थित था। उसे देखकर अमितप्रभ देव ने विद्युत्प्रभ से कहा कि हमारे मुनि तो दूर रहें, इस गृहस्थ को ही तुम ध्यान से विचलित कर दो। तदनन्तर विद्युत्प्रभ देव ने उस पर अनेक प्रकार के उपसर्ग किये, फिर भी वह ध्यान से विचलित नहीं हुआ। तदनन्तर प्रात:काल अपनी माया को समेटकर विद्युत्प्रभ ने उसकी बहुत प्रशंसा की और उसे आकाशगामिनी विद्या दी। विद्या प्रदान करते समय उससे कहा कि तुम्हें यह विद्या सिद्ध हो चुकी है, दूसरे के लिए पञ्चनमस्कार मन्त्र की अर्चना और आराधना विधि से सिद्ध होगी। जिनदत्त के यहाँ सोमदत्त नाम का एक ब्रह्मचारी वटु रहता था, जो जिनदत्त के लिए फूल लाकर देता था। एक दिन उसने जिनदत्त सेठ से पूछा कि आप प्रात:काल ही उठकर कहाँ जाते हैं? सेठ ने कहा कि मैं अकृत्रिम चैत्यालयों की वन्दना भक्ति करने के लिए जाता हूँ। मुझे इस प्रकार से आकाशगामिनी विद्या का लाभ हुआ है, सेठ के ऐसा कहने पर सोमदत्त वटु ने कहा कि मुझे भी यह विद्या दो, जिससे मैं भी तुम्हारे साथ पुष्पादिक लेकर वन्दना भक्ति करूंगा। तदनन्तर सेठ ने उसके लिए विद्या सिद्ध करने की विधि बतलाई।
सोमदत्त वटु ने कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी की रात्रि को श्मसान में वटवृक्ष की पूर्व दिशा वाली शाखा पर एक सौ आठ रस्सियों का मूंज का एक सींका बांधा। उसके नीचे सब प्रकार के पैने शस्त्र ऊपर की ओर मुख कर रखे। पश्चात् गन्ध, पुष्प आदि लेकर सींके के बीच प्रविष्ट हो उसने बेला (दो दिन के उपवास) का नियम लिया। फिर पञ्चनमस्कार मन्त्र का उच्चारण कर छुरी से सींके की एक-एक रस्सी को काटने के लिए तैयार हुआ। परन्तु नीचे चमकते हुए शस्त्रों के समूह को देखकर वह डर गया तथा विचार करने लगा कि यदि सेठ के वचन असत्य हुए तो मरण हो जाएगा। इस प्रकार शंकित चित्त होकर वह सींके पर बार-बार चढऩे और उतरने लगा।
उसी समय, राजगृही नगरी में एक अञ्जनसुन्दरी नाम की वेश्या रहती थी। एक दिन उसने कनकप्रभ राजा की की कनका रानी का हार देखा। रात्रि को जब अञ्जन चोर उस वेश्या के यहाँ गया तब उसने कहा कि यदि तुम मुझे कनका रानी का हार लाकर दे सकते हो तो मेरे भत्र्ता बन सकते हो, अन्यथा नहीं। तदनन्तर अञ्जन चोर रात्रि में हार चुराकर आ रहा था कि हार के प्रकाश से वह जान लिया गया। अङ्गरक्षकों और कोटपाल ने उसे पकडऩा चाहा, परन्तु वह हार छोडक़र भाग गया। वटवृक्ष के नीचे सोमदत्त वटुक को देखकर उसने उससे सब समाचार पूछे तथा उससे मन्त्र लेकर वह सींके पर चढ़ गया। उसने नि:शंकित होकर उस विधि से एक ही बार में सींके की सब रस्सियाँ काट दीं। ज्यों ही वह शस्त्रों के ऊपर गिरने लगा त्यों ही विद्या सिद्ध हो गई। सिद्ध हुई विद्या ने उससे कहा कि मुझे आज्ञा दो। अञ्जन चोर ने कहा कि मुझे जिनदत्त सेठ के पास ले चलो। उस समय जिनदत्त सेठ सुदर्शन-मेरु के चैत्यालय में स्थित था। विद्या ने अञ्जन चोर को ले जाकर सेठ के आगे खड़ा कर दिया। अपना पिछला वृत्तान्त कहकर अञ्जन चोर ने सेठ से कहा कि आपके उपदेश से मुझे जिस प्रकार यह विद्या सिद्ध हुई है, उसी प्रकार परलोक की सिद्धि के लिए भी आप मुझे उपदेश दीजिए। तदनन्तर चारण ऋद्धिधारी मुनिराज के पास दीक्षा लेकर उसने कैलाश पर्वत पर तप किया और केवलज्ञान प्राप्त कर वहीं से मोक्ष प्राप्त किया।
अनन्तमती की कथा
अङ्गदेश की चम्पानगरी में राजा वसुवर्धन रहते थे। उनकी रानी का नाम लक्ष्मीमती था। प्रियदत्त नाम का सेठ था, उसकी स्त्री का नाम अङ्गवती था और दोनों के अनन्तमती नाम की एक पुत्री थी। एक बार नन्दीश्वर-अष्टाह्निका पर्व की अष्टमी के दिन सेठ ने धर्मकीर्ति आचार्य के पादमूल में आठ दिन तक का ब्रह्मचर्य व्रत लिया। सेठ ने क्रीडावश अनन्तमती को भी ब्रह्मचर्य व्रत दिला दिया।
अन्य समय जब अनन्तमती के विवाह का अवसर आया, तब उसने कहा कि पिताजी! आपने तो मुझे ब्रह्मचर्य व्रत दिलाया था, इसलिए विवाह से क्या प्रयोजन है? सेठ ने कहा- मैंने तो तुझे क्रीडावश ब्रह्मचर्य दिलाया था। अनन्तमती ने कहा कि व्रतरूप धर्म के विषय में क्रीड़ा क्या वस्तु है? सेठ ने कहा- पुत्रि! नन्दीश्वर पर्व के आठ दिन के लिए ही तुझे ब्रह्मचर्य व्रत दिलाया था, न कि सदा के लिए। अनन्तमती ने कहा कि पिताजी! भट्टारक महाराज ने तो वैसा नहीं कहा था। इस जन्म में मेरे विवाह करने का त्याग है। ऐसा कहकर वह समस्त कलाओं के विज्ञान की शिक्षा लेती हुई रहने लगी।
एक बार जब वह पूर्ण यौवनवती हो गई तब चैत्र मास में अपने घर के उद्यान में झूला झूल रही थी। उसी समय विजयार्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी में स्थित किन्नरपुर नगर में रहने वाला कुण्डलमण्डित नामक विद्याधरों का राजा अपनी सुकेशी नामक स्त्री के साथ आकाश में जा रहा था। उसने अनन्तमती को देखा। देखते ही वह विचार करने लगा कि इसके बिना जीवित रहने से क्या प्रयोजन है? ऐसा विचार कर वह अपनी स्त्री को तो घर छोड़ आया और शीघ्र ही आकर विलाप करती हुई अनन्तमती को हरण करके ले गया। जब वह आकाश में जा रहा था तब उसने अपनी स्त्री सुकेशी को वापस आते देखा। देखते ही वह भयभीत हो गया और उसने पर्णलघु विद्या देकर अनन्तमती को महाअटवी में छोड़ दिया। वहाँ उसे रोती देख भीम नाम भीलों का राजा अपनी वसतिका में ले गया और 'मैं तुम्हे प्रधान रानी का पद देता हूँ, तुम मुझे चाहो' ऐसा कहकर रात्रि के समय उसके न चाहने पर भी उपभोग करने को उद्यत हुआ। व्रत के माहात्म्य से वनदेवता ने भीलों के उस राजा की अच्छी पिटाई की। यह कोई देवी है, ऐसा समझकर भीलों का राजा डर गया और उसने वह अनन्तमती बहुत से बनिजारों के साथ ठहरे हुए पुष्पक नामक प्रमुख बनिजारे के लिए दे दी। प्रमुख बनिजारे ने लोभ दिखाकर विवाह करने की इच्छा की, परन्तु अनन्तमती ने उसे स्वीकृत नहीं किया। तदनन्तर वह बनिजारा उसे लाकर अयोध्या की कामसेना नाम की वेश्या को सौंप गया। कामसेना ने उसे वेश्या बनाना चाहा, पर वह किसी भी तरह वेश्या नहीं हुई। तदनन्तर उस वेश्या ने सिंहाराज नामक राजा के लिए वह अनन्तमती दिखाई और वह राजा रात्रि में उसे बलपूर्वक सेवन करने के लिए उद्यत हुआ, परन्तु उसके व्रत के माहात्म्य से नगरदेवता ने राजा पर उपवास किया, जिससे डरकर उसने उसे घर से निकाल दिया।
खेद के कारण अनन्तमती रोती हुई बैठी थी कि कमलश्री नाम की आर्यिका ने 'यह श्राविका है' ऐसा मानकर बड़े सम्मान के साथ उसे अपने पास रख लिख। तदनन्तर अनन्तमती का शोक भुलाने के लिए प्रियदत्त सेठ बहुत से लोगों के साथ वन्दनाभक्ति करता हुआ अयोध्या गया और अपने साले जिनदत्त सेठ के घर संध्या के समय पहुँचा। वहाँ उसने रात्रि के समय पुत्री के हरण का समाचार कहा। प्रात:काल होने पर सेठ प्रियदत्त तो वन्दना-भक्ति करने के लिए गये। इधर जिनदत्त सेठ की स्त्री ने अत्यन्त गौरवशाली पाहुने के निमित्त उत्तम भोजन बनाने और घर में चौक पूरने के लिए कमलश्री आर्यिका की श्राविका बुलाया। वह श्राविका सब काम करके अपनी वसतिका में चली गई। वन्दना-भक्ति करके जब प्रियदत्त सेठ वापिस आये, तब चौक देखकर उन्हें अनन्तमती का स्मरण हो आया। उनके हृदय पर गहरी चोट लगी। गद्गद वचनों से अश्रुपात करते हुए उन्होंने कहा कि जिसने यह चौक पूरा है, उसे मुझे दिखलाओ। तदनन्तर वह श्राविका बुलायी गई। पिता और पुत्री का मेल होने पर जिनदत्त सेठ ने बहुत भारी उत्सव किया। अनन्तमती ने कहा कि पिताजी! अब मुझे तप दिला दो। मैंने एक ही भव में संसार की विचित्रता देख ली है। तदनन्तर कमलश्री आर्यिका के पास दीक्षा लेकर उसने बहुत काल तप किया। अन्त में संन्यासपूर्वक मरण कर उसकी आत्मा सहस्रार स्वर्ग में देव हुई।
उद्दायन राजा की कथा
एक बार अपनी सभा में सम्यग्दर्शन के गुणों का वर्णन करते हुए सौधर्मेन्द्र ने वत्स देश के रौरकपुर नगर के राजा उद्दायन महाराज के निर्विचिकित्सित गुण की बहुत प्रशंसा की। उसकी परीक्षा करने के लिए एक वासव नाम का देव आया। उसने विक्रिया से एक ऐसे मुनि का रूप बनाया, जिसका शरीर उदुम्बर कुष्ठ से गलित हो रहा था। उस मुनि ने विधिपूर्वक खड़े होकर उसी राजा उद्दायन के हाथ से दिया हुआ समस्त आहार और जल माया से ग्रहण किया। पश्चात् अत्यन्त दुर्गन्धित वमन कर दिया। दुर्गन्ध के भय से परिवार के सब लोग भाग गये, परन्तु राजा उद्दायन अपनी रानी प्रभावती के साथ मुनि की परिचर्या करता रहा। मुनि ने उन दोनों पर भी वमन कर दिया। 'हाय! हाय! मेरे द्वारा विरुद्ध आहार दिया गया है, इस प्रकार अपनी निन्दा करते हुए राजा ने मुनि का प्रक्षालन किया। अन्त में, देव अपनी माया को समेटकर असली रूप में प्रकट हुआ और पहले का सब समाचार कहकर तथा राजा की प्रशंसा कर स्वर्ग चला गया। उद्दायन महाराज वर्धमान स्वामी के पादमूल में तप ग्रहण कर मोक्ष गये और रानी प्रभावती तप के प्रभाव से ब्रह्म स्वर्ग में देव हुई।
रेवती रानी की कथा
विजयार्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणिसम्बन्धी मेघकूट नगर का राजा चन्द्रप्रभ अपने चन्द्रशेखर पुत्र के लिए राज्य देकर, परोपकार तथा वन्दना भक्ति के लिए कुछ विद्याओं को धारण करता हुआ दक्षिण मथुरा गया और वहाँ गुप्ताचार्य के समीप क्षुल्लक हो गया। एक समय वह क्षुल्लक, वन्दना-भक्ति के लिए उत्तर मथुरा की ओर जाने लगा। जाते समय उसने गुप्ताचार्य से पूछा कि क्या किसी से कुछ कहना है? भगवान् गुप्ताचार्य ने कहा कि सुव्रतमुनि को वन्दना और वरुणराजा की महारानी के लिए आशीर्वाद कहना। क्षुल्लक ने तीन बार पूछा फिर भी उन्होंने इतना ही कहा। तदनन्तर क्षुल्लक ने कहा कि वहाँ ग्यारह अंग के धारक भव्यसेनाचार्य तथा अन्य धर्मात्मा लोग भी रहते हैं, उनका आप नाम भी नहीं लेते हैं। उसमें कुछ कारण अवश्य होगा, ऐसा विचार कर क्षुल्लक उत्तर मथुरा गया। वहाँ जाकर उसने सुव्रतमुनि के लिए भट्टारक की वन्दना कही। सुव्रतमुनि ने परम वात्सल्यभाव दिखलाया। उसे देखकर वह भव्यसेन की वसतिका में गया। क्षुल्लक के वहाँ पहुँचने पर भव्यसेन ने उससे सम्भाषण भी नहीं किया। भव्यसेन शौच के लिए बाहर जा रहे थे, सो क्षुल्लक उनका कमण्डलु लेकर उनके साथ बाह्यभूमि गया और विक्रिया से उसने आगे ऐसा मार्ग दिखाया जो कि हरे-हरे कोमल तृणों के अङ्कुरों से आच्छादित था। उस मार्ग को देखकर क्षुल्लक ने कहा भी कि आगम में ये सब जीव कहे गये हैं। भव्यसेन आगम पर अरुचि-अश्रद्धा दिखाते हुए तृणों पर चले गये। क्षुल्लक ने विक्रिया से कमण्डलु का पानी सुखा दिया। जब शुद्धि का समय आया, तब कमण्डलु में पानी नहीं है तथा कहीं कोई विक्रिया भी नहीं दिखाई देती है, यह देख वे आश्चर्य में पड़ गये। तदनन्तर उन्होंने स्वच्छ सरोवर में उत्तम मिट्टी से शुद्धि की। इन सब क्रियाओं से उन्हें मिथ्यादृष्टि जानकर क्षुल्लक ने भव्यसेन का अभव्यसेन नाम रख दिया ।
तदनन्तर दूसरे दिन क्षुल्लक ने पूर्व दिशा में पद्मासन पर स्थित चार मुखों सहित यज्ञोपवीत आदि से युक्त तथा देव और दानवों से वन्दित ब्रह्मा का रूप दिखाया। राजा तथा भव्यसेन आदि लोग वहाँ गये, परन्तु रेवती रानी लोगों से प्रेरित होने पर भी नहीं गयी। वह यही कहती रही कि यह ब्रह्म नाम का देव कौन है? इसी प्रकार दक्षिण दिशा में उसने गरुड़ के ऊपर आरूढ़, चार भुजाओं सहित तथा गदा शंख आदि के धारक नारायण का रूप दिखाया। पश्चिम दिशा में उसने बैल पर आरूढ़ तथा अर्धचन्द्रजटाजूट पार्वती और गणों से सहित शङ्कर का रूप दिखाया। उत्तर दिशा में उसने समवसरण के मध्य में आठ प्रातिहार्यों सहित सुरनर, विद्याधर और मुनियों के समूह से वन्द्यमान पर्यङ्कासन सहित तीर्थङ्कर देव का रूप दिखाया। वहाँ सब लोग गये, परन्तु रेवती रानी लोगों के द्वारा प्रेरणा की जाने पर भी नहीं गयी। वह यही कहती रही कि नारायण नौ होते हंै, रुद्र ग्यारह ही होते हैं और तीर्थङ्कर चौबीस ही होते हैं, ऐसा जिनागम में कहा गया है। और वे सब हो चुके हैं। यह तो कोई मायावी है। दूसरे दिन चर्या के समय उसने एक ऐसे क्षुल्लक का रूप बनाया, जिसका शरीर बीमारी से क्षीण हो गया था। रेवती रानी ने जब यह समाचार सुना, तब वह भक्तिपूर्वक उसे उठाकर ले गयी। उसका उपचार किया और पथ्य कराने के लिए उद्यत हुई। उस क्षुल्लक ने सब आहार कर दुर्गन्ध से युक्त वमन किया। रानी ने वमन को दूर कर कहा कि 'हाय मैंने प्रकृति के विरुद्ध अपथ्य आहार दिया।' रेवती रानी के उक्त वचन सुनकर क्षुल्लक ने सन्तोष से सब माया को संकोच कर उसे गुप्ताचार्य को परोक्ष वन्दना कराकर, उनका आशीर्वाद कहा और लोगों के बीच उसकी अमूढदृष्टिता की खूब प्रशंसा की। यह सब कर क्षुल्लक अपने स्थान पर चला गया। राजा वरुण शिवकीर्ति पुत्र के लिए राज्य देकर तथा तप ग्रहण कर माहेन्द्र स्वर्ग में देव हुआ तथा रेवती रानी भी तप कर ब्रह्म स्वर्ग में देव हुई।
जिनेन्द्रभक्त सेठ की कथा
सुराष्ट्र देश के पाटलिपुत्र नगर में राजा यशोधर रहता था। उसकी रानी का नाम सुसीमा था। उन दोनों के सुवीर नाम का पुत्र था। सुवीर सप्तव्यसनों से अभिभूत था तथा ऐसे ही चोर पुरुष उसकी सेवा करते थे। उसने कानों कान सुना कि पूर्व गौड देश की ताम्रलिप्त नगरी में जिनेन्द्रभक्त सेठ के सात खण्ड वाले महल के ऊपर अनेक रक्षकों से युक्त श्री पाश्र्वनाथ भगवान् की प्रतिमा पर जो छत्रत्रय लगा है, उस पर एक विशेष प्रकार की अमूल्य वैडूर्यमणि लगा हुआ है। लोभवश उस सुवीर ने अपने साथियों से पूछा कि क्या कोई उस मणि को लाने में समर्थ है? सूर्य नामक चोर ने गला फाडक़र कहा कि यह तो क्या है, मैं इन्द्र के मुकुट का मणि भी ला सकता हूँ। इतना कहकर वह कपट से क्षुल्लक बन गया और अत्यधिक कायक्लेश से ग्राम तथा नगरों में क्षोभ करता हुआ क्रम से ताम्रलिप्त नगरी पहुँच गया। प्रशंसा से क्षोभ को प्राप्त हुए जिनेन्द्रभक्त सेठ ने जब सुना तब वह जाकर दर्शन कर वन्दना कर तथा वार्तालाप कर उस क्षुल्लक को अपने घर ले आया। उसने पाश्र्वनाथ देव के उसे दर्शन कराये और माया से न चाहते हुए भी उसे मणि का रक्षक बनाकर वहीं रख लिया।
एक दिन क्षुल्लक से पूछकर सेठ समुद्रयात्रा के लिए चला और नगर से बाहर निकलकर ठहर गया। वह चोर क्षुल्लक घर के लोगों को सामान ले जाने में व्यग्र जानकर आधी रात के समय उस मणि को लेकर चलता बना। मणि के तेज से मार्ग में कोतवालों ने उसे देख लिया और पकडऩे के लिए उसका पीछा किया। कोतवालों से बचकर भागने में असमर्थ हुआ वह चोर क्षुल्लक सेठ की ही शरण में जाकर कहने लगा कि मेरी रक्षा करो, रक्षा करो। कोतवालों का कलकल शब्द सुनकर तथा पूर्वापर विचार कर सेठ ने जान लिया कि यह चोर है, परन्तु धर्म को उपहास से बचाने के लिए उसने कहा कि यह मेरे कहने से ही रत्न लाया है, आप लोगों ने अच्छा नहीं किया, जो इस महातपस्वी को चोर घोषित किया। तदनन्तर सेठ के वचन को प्रमाण मानकर कोतवाल चले गये और सेठ ने उसे रात्रि के समय निकाल दिया। इसी प्रकार अन्य सम्यग्दृष्टि को भी असमर्थ और अज्ञानी जनों से आये हुए धर्म के दोष का आच्छादन करना चाहिए।
वारिषेण की कथा
मगधदेश के राजगृह नगर में राजा श्रेणिक रहता था। उसकी रानी का नाम चेलिनी था। उन दोनों के वारिषेण नाम का पुत्र था। वारिषेण उत्तम श्रावक था। एक बार वह उपवास धारण कर चतुर्दशी की रात्रि में श्मसान में कायोत्सर्ग से खड़ा था। उसी दिन बगीचे में गयी हुई मगधसुन्दरी नामक वेश्या ने श्रीकीर्ति सेठानी के द्वारा पहना हुआ हार देखा। तदनन्तर उस हार को देखकर 'इस आभूषण के बिना मुझे जीवन से क्या प्रयोजन है' ऐसा विचार कर वह शय्या पर पड़ गयी। उस वेश्या में आसक्त विद्युच्चर चोर जब रात्रि के समय उसके घर आया तब उसे शय्या पर पड़ी देख बोला कि प्रिय तरह क्यों पड़ी हो? वेश्या ने कहा कि 'यदि श्रीकीर्ति सेठानी का हार मुझे देते हो तो मैं जीवित रहूंगी और तुम मेरे पति होओगे अन्यथा नहीं।' वेश्या के ऐसे वचन सुनकर तथा उसे आश्वासन देकर विद्युच्चर चोर आधी रात के समय श्रीकीर्ति सेठानी के घर गया और अपनी चतुराई से हार चुराकर बाहर निकल आया। हार के प्रकाश से 'यह चोर है' ऐसा जानकर गृह के रक्षकों तथा कोतवालों ने उसे पकडऩा चाहा। जब वह चोर भागने में असमर्थ हो गया तब वारिषेणकुमार के आगे उस हार को डालकर छिपकर बैठ गया। कोतवाल ने उस हार को वारिषेण के आगे पड़ा देखकर राजा श्रेणिक से कह दिया कि 'राजन्! वारिषेण चोर है।' यह सुनकर राजा ने कहा कि इस मूर्ख का मस्तक छेदकर लाओ। चाण्डाल ने वारिषेण का मस्तक काटने के लिए जो तलवार चलाई तो वह उसके गले में फूलों की माला बन गयी। उस अतिशय को सुनकर राजा श्रेणिक ने जाकर वारिषेण से क्षमा मांगी। विद्युच्चर चोर ने अभयदान पाकर राजा से जब अपना सब वृत्तान्त कहा तब वह वारिषेण को घर ले जाने के लिए उद्यत हुआ। परन्तु वारिषेण ने कहा कि अब तो मैं पाणिपात्र में भोजन करूंगा अर्थात् दिगम्बर मुनि बनूंगा। तदनन्तर वह सूरसेन गुरु के समीप मुनि हो गया। एक समय वारिषेण मुनि राजगृह के समीपवर्ती पलाशकूट ग्राम में चर्या के लिए प्रविष्ट हुए। वहाँ राजा श्रेणिक के अग्रिभूति मन्त्री के पुत्र पुष्पडाल ने उन्हें पडग़ाहा। चर्या कराने के बाद वह अपनी सोमिल्ला नामक स्त्री से पूछकर स्वामी का पुत्र तथा बाल्यकाल का मित्र होने के कारण कुछ दूर भेजने के लिए वारिषेण के साथ चला गया। अपने लौटने के अभिप्राय से वह क्षीरवृक्ष आदि को दिखाता तथ बार-बार मुनि को वन्दना करता था। परन्तु मुनि हाथ पकडक़र उसे साथ ले गये और धर्म का विशिष्ट उपदेश सुनाकर तथा वैराग्य उपजाकर उन्होंने उसे तप ग्रहण करा दिया। तप धारण करने पर भी वह सोमिल्ला स्त्री को नहीं भूलता था।
पुष्पडाल और वारिषेण दोनों ही मुनि बारह वर्ष तक तीर्थयात्रा कर भगवान् वर्धमान स्वामी के समवसरण में पहुँचे। वहाँ वर्धमान स्वामी और पृथ्वी से सम्बन्ध रखने वाला एक गीत देवों के द्वारा गाया जा रहा था। उसे पुष्पडाल ने सुना। गीत का भाव यह था कि जब पति प्रवास को जाता है तब स्त्री खिन्नचित्त होकर मैली कुचैली रहती है। परन्तु जब वह घर छोडक़र ही चल देता है, तब वह कैसे जीवित रह सकती है?
पुष्पडाल ने यह गीत अपने तथा सोमिल्ला के सम्बन्ध में लगा लिया इसलिए वह उत्कण्ठित होकर चलने लगा। वारिषेण मुनि यह जानकर उसका स्थितीकरण करने के लिए उसे अपने नगर ले गये। चेलिनी ने उन दोनों मुनियों को देखकर विचार किया कि वारिषेण क्या चारित्र से विचलित होकर आ रहा है? परीक्षा करने के लिए उसने दो आसन दिये- एक सराग और दूसरा वीतराग। वारिषेण ने वीतराग आसन पर बैठते हुए कहा कि हमारा अन्त:पुर बुलाया जावे। महारानी चेलिनी ने आभूषणों से सजी हुई उसकी बत्तीस स्त्रियाँ बुलाकर खड़ी कर दीं। तदनन्तर वारिषेण ने पुष्पडाल से कहा कि 'ये स्त्रियाँ और मेरा युवराज पद तुम ग्रहण करो।' यह सुनकर पुष्पडाल अत्यन्त लज्जित होता हुआ उत्कृष्ट वैराग्य को प्राप्त हुआ तथा परमार्थ से तप करने लगा।
विष्णुकुमार मुनि की कथा
अवन्ति देश की उज्जयिनी नगरी में श्रीवर्मा राजा राज्य करता था। उसके बलि, बृहस्पति, प्रह्लाद और नमुचि ये चार मन्त्री थे। यहाँ एक समय शास्त्रों के आधार, दिव्यज्ञानी तथा सात सौ मुनियों से सहित अकम्पनाचार्य आकर उद्यान में ठहर गये। अकम्पनाचार्य ने समस्त संघ को मना कर दिया था कि राजादिक के आने पर किसी के साथ वार्तालाप न किया जावे, अन्यथा समस्त संघ का नाश हो जावेगा।
राजा अपने धवलगृह में बैठा था। वहाँ से उसने पूजा की सामग्री हाथ में लेकर जाते हुए नागरिकों को देखकर मन्त्रियों से पूछा कि ये लोग कहाँ जा रहे हैं, यह यात्रा का समय तो है नहीं? मन्त्रियों ने कहा कि नगर के बाहर उद्यान में बहुत से नग्र साधु आये हैं, ये लोग वहीं जा रहे हैं। राजा ने कहा कि हम भी उन्हें देखने के लिए चलते हैं। ऐसा कहकर राजा मन्त्रियों सहित वहाँ गया। एक-एक कर समस्त मुनियों की वन्दना राजा ने की, परन्तु किसी ने भी आशीर्वाद नहीं दिया। दिव्य अनुष्ठान के कारण ये साधु अत्यन्त नि:स्पृह हैं, ऐसा विचार कर जब राजा लौटा तो खोटा अभिप्राय रखने वाले मन्त्रियों ने यह कहकर उन मुनियों का उपहास किया कि ये बैल हैं, कुछ भी नहीं जानते हैं, मूर्ख हैं, इसलिए छल से मौन लेकर बैठे हैं। ऐसा कहते हुए मन्त्री राजा के साथ जा रहे थे कि उन्होंने आगे चर्या कर आते हुए श्रुतसागर मुनि को देखा। देखकर कहा कि 'यह तरुण बैल पेट भरकर आ रहा है।' यह सुनकर उन मुनि ने राजा के मन्त्रियों से शास्त्रार्थ कर उन्हें हरा दिया। वापिस आकर मुनि ने ये सब समाचार अकम्पनाचार्य से कहे। अकम्पनाचार्य ने कहा कि तुमने समस्त संघ को मरवा दिया। यदि शास्त्रार्थ के स्थान पर जाकर तुम रात्रि को अकेले खड़े रहते हो तो संघ जीवित रह सकता है और तुम्हारे अपराध की शुद्धि हो सकती है। तदनन्तर श्रुतसागर मुनि वहाँ जाकर कायोत्सर्ग से स्थित हो गये।
अत्यन्त लज्जित और क्रोध से भरे हुए मन्त्री राजा में समस्त संघ को मारने के लिए जा रहे थे कि उन्होंने मार्ग में कायोत्सर्ग से खड़े हुए उन मुनि को देखकर विचार किया कि जिसने हम लोगों का पराभव किया है, वही मारने के योग्य है। ऐसा विचार कर चारों मन्त्रियों ने मुनि को मारने के लिए एक साथ खड्ग ऊपर उठाये, परन्तु जिसका आसन कम्पित हुआ था, ऐसे नगर देवता ने आकर उन सबको उसी अवस्था में कील दिया। प्रात:काल सब लोगों ने उन मन्त्रियों को उसी प्रकार कीलित देखा। मन्त्रियों की इस कुचेष्टा से राजा बहुत क्रुद्ध हुआ, परन्तु 'ये मन्त्री वंशपरम्परा से चले आ रहे हैं' यह विचार कर उन्हें मारा तो नहीं, सिर्फ गर्दभारोहण आदि कराकर निकाल दिया।
तदनन्तर, कुरुजांगलदेश के हस्तिनागपुर नगर में राजा महापद्म राज्य करते थे। उनकी रानी का नाम लक्ष्मीमती था। उनके दो पुत्र थे- पद्म और विष्णु। एक समय राजा महापद्म पद्म नामक पुत्र को राज्य देकर विष्णु नामक पुत्र के साथ श्रुतसागरचन्द्र नामक आचार्य के पास मुनि हो गये। वे बलि आदिक आकर पद्मराजा के मन्त्री बन गये। उसी समय कुम्भपुर के दुर्ग में राजा सिहंबल रहता था। वह अपने दुर्ग के बल से राजा पद्म के देश में उपद्रव करता था। राजा पद्म उसे पकडऩे की चिन्ता में दुर्बल होता जाता था। उसे दुर्बल देख एक दिन बलि ने कहा कि देव! दुर्बलता का क्या कारण है? राजा ने उसे दुर्बलता का कारण बताया। उसे सुनकर तथा आज्ञा प्राप्त कर बलि वहाँ गया और अपनी बुद्धि के माहात्म्य से दुर्ग को तोडक़र तथा सिंहबल को लेकर वापस आ गया। उसने राजा पद्म को यह कहकर सिंहबल को सौंप दिया कि यह वही सिंहबल है। राजा पद्म ने सन्तुष्ट होकर कहा कि तुम अपना वाञ्छित वर मांगो। बलि ने कहा कि जब मांगूगा, तब दिया जावे।
तदनन्तर कुछ दिनों में विहार करते हुए वे अकम्पनाचार्य आदि सातसौ मुनि उसी हस्तिनागपुर में आये। उनके आते ही नगर में हलचल मच गयी। बलि आदि मन्त्रियों ने उन्हें पहचान कर विचार किया कि राजा इनका भक्त है। इस भय से उन्होंने उन मुनियों को मारने के लिए राजा पद्म से अपना पहले का वर मांगा कि हम लोगों को सात दिन का राज्य दिया जावे। तदनन्तर राजा पद्म उन्हें सात दिन का राज्य देकर अन्त:पुर में चला गया। इधर बलि ने आतापनगिरि पर कायोत्सर्ग से खड़े हुए मुनियों को बाड़ी से वेष्टित कर मण्डप लगा यज्ञ करना शुरू किया। झूठे सकौरे, बकरा आदि जीवों के कलेवर तथा धूम आदि के द्वारा मुनियों को मारने के लिए बहुत भारी उपसर्ग किया। मुनि दोनों प्रकार का संन्यास लेकर स्थितर हो गये।
तदनन्तर मिथिला नगरी में आधी रात के समय बाहर निकले हुए श्रुतसागरचन्द्र आचार्य ने आकाश में काँपते हुए श्रवण नक्षत्र को देखकर अवधिज्ञान से जानकर कहा कि महामुनियों पर महान् उपसर्ग हो रहा है। यह सुनकर पुष्पधर नामक विद्याधर क्षुल्लक ने पूछा कि 'कहाँ किन पर महान् उपसर्ग हो रहा है?' उन्होंने कहा कि हस्तिनागपुर में अकम्पनाचार्य आदि सात सौ मुनियों पर। उपसर्ग कैसे दूर हो सकता है? ऐसा क्षुल्लक द्वारा पूछे जाने पर उन्होंने कहा कि 'धरणीभूषण पर्वत पर विक्रिया ऋद्धि के धारक विष्णुकुमार मुनि स्थित हैं। वे उपसर्ग को नष्ट कर सकते हैं।' यह सुन क्षुल्लक ने उनके पास जाकर सब समाचार कहे। 'मुझे विक्रिया ऋद्धि है क्या?' ऐसा विचारकर विष्णुकुमार मुनि ने अपना हाथ पसारा तो वह पर्वत को भेदकर दूर तक चला गया। पश्चात् विक्रिया का निर्णय कर उन्होंने हस्तिनागपुर जाकर राजा पद्म से कहा कि तुमने मुनियों पर उपसर्ग क्यों कराया? आपके कुल में ऐसा कार्य किसी ने नहीं किया। राजा पद्म ने कहा कि क्या करूँ मैंने पहले इसे वर दे दिया था।
अनन्तर विष्णुकुमार मुनि ने एक बौने ब्राह्मण का रूप बनाकर उत्तम शब्दों द्वारा वेद पाठ करना शुरू किया। बलि ने कहा कि तुम्हें क्या दिया जावे? बौने ब्राह्मण ने कहा कि तीन डग भूमि दे दो। 'पगले ब्राह्मण! देने को तो बहुत है और कुछ मांग' इस प्रकार बार-बार लोगों के कहे जाने पर भी वह तीन डग भूमि ही मांगता रहा। तत्पश्चात् हाथ में संकल्प का जल लेकर जब उसे विधिपूर्वक तीन डग भूमि दे दी गई, तब उसने एक पैर तो मेरु पर रखा, दूसरा पैर मानुषोत्तर पर्वत पर रखा और तीसरे पैर के द्वारा देव विमानों में क्षोभ उत्पन्न कर उसे बलि की पीठ पर रखा तथा बलि को बांधकर मुनियों का उपसर्ग दूर किया। तदनन्तर वे चारों मन्त्री राजा पद्म के भय से आकर विष्णुकुमार मुनि तथा अकम्पनाचार्य आदि मुनियों के चरणों में संलग्र हुए- चरणों में गिरकर क्षमा मांगने लगे। वे मन्त्री श्रावक बन गये।
व्रजकुमार मुनि की कथा
हस्तिनापुर में बल नामक राजा रहता था। उसके पुरोहित का नाम गरुड़ था। गरुड़ के एक सोमदत्त नाम का पुत्र था। उसने समस्त शास्त्रों का अध्ययन कर अहिच्छत्रपुर में रहने वाले अपने मामा सुभूति के पास जाकर कहा कि मामाजी! मुझे दुर्मुख राजा के दर्शन करा दो। परन्तु गर्व से भरे हुए सुभूति ने उसे राजा के दर्शन नहीं कराये। तदनन्तर हठधर्मी होकर वह स्वयं ही राजसभा में चला गया। वहाँ उसने राजा के दर्शन कर आशीर्वाद दिया और समस्त शास्त्रों की निपुणता को प्रकट कर मन्त्री पद प्राप्त कर लिया। उसे वैसा देख सुभूति माता ने अपनी यज्ञदत्ता नाम की पुत्री विवाह के लिए दे दी।
एक समय वह यज्ञदत्ता जब गर्भिणी हुई तब उसे वर्षाकाल में आम्रफल खाने का दोहला हुआ। पश्चात् बाग-बगीचों में आम्रफलों को खोजते हुए सोमदत्त ने देखा कि जिस आम्रवृक्ष के नीचे सुमित्राचार्य ने योग ग्रहण किया है, वह वृक्ष नाना फलों से फला हुआ है। उसने उस वृक्ष से फल लेकर आदमी के हाथ घर भेद दिये और स्वयं धर्मश्रवण कर संसार से विरक्त हो गया तथा तप धारण कर आगम का अध्ययन करने लगा। जब वह अध्ययन कर परिपक्व हो गया तब नाभिगिरि पर्वत पर आतापन योग से स्थित हो गया।
इधर यज्ञदत्ता ने पुत्र को जन्म दिया। पति के मुनि होने का समाचार सुनकर वह अपने भाई के पास चली गई। पुत्र की शुद्धि को जानकर वह अपने भाइयों के साथ नाभिगिरि पर्वत पर गयी। वहाँ आतापन योग में स्थित सोमदत्त मुनि को देखकर अत्यधिक क्रोध के कारण उसने वह बालक उनके पैरों में रख दिया और गालियाँ देकर स्वयं घर चली गयी।
उसी समय अमरावती नगरी का रहने वाला दिवाकर देव नाम का विद्याधर जो कि अपने पुरन्दर नामक छोटे भाई के द्वारा राज्य से निकाल दिया गया था, अपनी स्त्री के साथ मुनि की वन्दना करने के लिए आया था। उसने उस बालक को उठाकर अपनी स्त्री को सौंप दिया तथा उसका नाम वज्रकुमार रखकर चला गया। वह वज्रकुमार कनक नगर में विमल वाहन नामक अपने मामा के समीप समस्त विद्याओं में पारगामी होकर क्रम-क्रम से तरुण हो गया।
तत्पश्चात् गरुड़वेग और अंगवती की पुत्री पवनवेगा हेमन्त पर्वत पर बड़े श्रम से प्रज्ञप्ति नाम की विद्या सिद्ध कर रही थी। उसी समय वायु से कम्पित बेरी का एक पैना कांटा उसकी आँख में जा लगा। उसकी पीड़ा से चित्त चञ्चल हो जाने से उसे विद्या सिद्ध नहीं हो रही थी। अनन्तर वज्रकुमार ने उसे उस अवस्था में देख कुशलतापूर्वक वह काँटा निकाल दिया। काँटा निकल जाने से उसका चित्त स्थिर हो गया तथा विद्या सिद्ध हो गयी। विद्या सिद्ध होने पर उसने कहा कि आपके प्रसाद से यह विद्या सिद्ध हुई है इसलिए आप ही मेरे भत्र्ता हो। ऐसा कर उसने वज्रकुमार के साथ विवाह कर लिया।
एक दिन वज्रकुमार ने दिवाकर देव विद्याधर से कहा 'तात! मैं किसका पुत्र हूँ, सत्य कहिये। उसके कहने पर ही मेरी भोजनादि में प्रवृत्ति होगी।' दिवाकर देव ने पहले का सब वृत्तान्त सच-सच कह दिया। उसे सुनकर वह अपने पिता के दर्शन के करने के लिए भाइयों के साथ मथुरा नगरी की दक्षिण गुहा में गया। वहाँ दिवाकर देव ने वन्दना कर वज्रकुमार से पिता सोमदत्त को सब समाचार कह दिया। समस्त भाइयों को बड़े कष्ट से विदा कर वज्रकुमार मुनि हो गया।
इसी बीच में मथुरा में एक अन्य कथा घटी। वहाँ पूतिगन्ध राजा राज्य करता था। उसकी स्त्री का नाम उर्विला था। उर्विला सम्यग्दृष्टि तथा जिनधर्म की प्रभावना में अत्यन्त लीन थी। वह प्रतिवर्ष अष्टाह्निक पर्व में तीन बार जिनेन्द्र देव की रथयात्रा करती थी। उसी नगरी में एक सागरदत्त सेठ रहता था, उसकी सेठानी का नाम समुद्रदत्ता था। उन दोनों के एक दरिद्रा नाम की पुत्री हुई।
सागरदत्त के मर जाने पर एक दिन दरिद्रा दूसरे के घर में फेंके हुए भात के साथ खा रही थी। उसी समय चर्या के लिए प्रविष्ट हुए दो मुनियों ने उसे वैसा करते हुए देखा। तदनन्तर छोटे मुनि ने बड़े मुनि से कहा कि 'हाय बेचारी बड़े कष्ट से जीवन बिता रही है।' यह सुनकर बड़े मुनि ने कहा कि 'यह इसी नगरी में राजा की प्रिय पट्टरानी होगी।' भिक्षा के लिए भ्रमण करते हुए एक बौद्ध साधु ने मुनिराज के वचन सुनकर विचार किया कि मुनि का कथन अन्यथा नहीं होगा, इसलिए वह उसे अपने विहार में ले गया और वहाँ अच्छे आहार से उसका पालन-पोषण करने लगा।
एक दिन भरी जवानी में वह चैत्रमास के समय झूला झूल रही थी कि उसे देखकर राजा अत्यन्त विरहावस्था को प्राप्त हो गया। अनन्तर मन्त्रियों ने उसके लिए बौद्ध साधु से याचना की। उसने कहा कि यदि राजा हमारे धर्म को ग्रहण करे तो मैं इसे दे दूंगा। राजा ने वह सब स्वीकृत कर उसके साथ विवाह कर लिया। और वह उसकी अत्यन्त प्रिय पट्टरानी बन गयी।
फाल्गुन मास की नन्दीश्वर यात्रा में उर्विला ने रथयात्रा की। उसे देख उस पट्टरानी ने राजा से कहा कि 'देव! मेरे बुद्ध भगवान् का रथ इस समय नगर में पहले घूमे।' राजा ने कह दिया कि 'ऐसा ही होगा।' तदनन्तर उर्विला ने कहा कि 'यदि मेरा रथ पहले घूमता है तो मेरी आहार में प्रवृत्ति होगी, अन्यथा नहीं।' ऐसी प्रतिज्ञा कर वह क्षत्रिय गुहा में सोमदत्त आचार्य के पास गयी। उसी समय वज्रकुमार मुनि की वन्दना-भक्ति के लिये दिवाकर देव आदि विद्याधर आये थे। वज्रकुमार मुनि ने यह सब वृत्तान्त सुनकर उनसे कहा कि आप लोगों को प्रतिज्ञा पर आरूढ़ उर्विला की रथयात्रा करानी चाहिए। तदनन्तर उन्होंने बुद्धदासी का रथ तोडक़र बड़ी विभूति के साथ उर्विला की रथयात्रा कराई। उस अतिशय को देखकर प्रतिबोध को प्राप्त हुई बुद्धदासी तथा अन्य लोग जैनधर्म में लीन हो गये ॥२०॥