ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 146 - समय-व्याख्या
From जैनकोष
जोगणिमित्तं गहणं जोगो मणवयणकायसंभूदो । (146)
भावणिमित्तो बंधो भावो रदिरागदोसमोहजुदो ॥156॥
अर्थ:
ग्रहण योग निमित्तक है; योग मन, वचन, काय से उत्पन्न होता है; बंध भाव निमित्तक है; भाव रति, राग, द्वेष, मोह युक्त है ।
समय-व्याख्या:
बहिरङ्गान्तरङ्गबन्धकारणाख्यानमेतत् ।
ग्रहणं हि कर्मपुद्गलानां जीवप्रदेशवर्तिकर्मस्कन्धानुप्रवेशः । तत् खलु योग-निमित्तम् । योगो वाङ्मनःकायकर्मवर्गणालम्बन आत्मप्रदेशपरिस्पन्दः । बन्धस्तु कर्म-पुद्गलानां विशिष्टशक्ति परिणामेनावस्थानम् । स पुनर्जीवभावनिमित्तः । जीवभावः पुनारतिरागद्वेषमोहयुतः, मोहनीयविपाकसम्पादितविकार इत्यर्थः । तदत्र पुद्गलानां ग्रहण-हेतुत्वाद्बहिरंगकारणं योगः, विशिष्टशक्ति स्थितिहेतुत्वादन्तरङ्गकारणं जीवभाव एवेति ॥१४६॥
समय-व्याख्या हिंदी :
यह, बन्ध के बहिरंग कारण और अन्तरंग कारण का कथन है ।
ग्रहण अर्थात् कर्म-पुद्गलों का जीव-प्रदेश-वर्ती (जीव के प्रदेशों के साथ एक क्षेत्र में स्थित) कर्म-स्कंधों में प्रवेश, उसका निमित्त योग है । योग अर्थात् वचन-वर्गणा, मनो-वर्गणा, काय-वर्गणा और कर्म-वर्गणा का जिसमे अवलम्बन होता है ऐसा, आत्मप्रदेशों का परिस्पन्द (अर्थात् जीव के प्रदेशों का कम्पन) ।
बंध अर्थात् कर्म-पुद्गलों का विशिष्ट शक्ति-रूप परिणाम सहित स्थित रहना (अर्थात् कर्म-पुद्गलों का अमुक अनुभाग-रूप शक्ति सहित अमुक काल तक टिकना), उसका निमित्त जीव-भाव है । जीव-भाव रति-राग-द्वेष-मोह युक्त (परिणाम) है अर्थात् मोहनीय के विपाक से उत्पन्न होने वाला विकार है ।
इसलिए यहाँ (बंध में), बहिरंग कारण (निमित्त) योग है क्योंकि वह पुद्गलों के ग्रहण का हेतु है, और अन्तरंग कारण (निमित्त) जीव-भाव ही है क्योंकि वह (कर्म-पुद्गलों की) विशिष्ट शक्ति तथा स्थिति का हेतु है ॥१४६॥