योगसार - संवर-अधिकार गाथा 210
From जैनकोष
व्यवहारनय से शरीरादि आत्मा के कहे जाते हैं, निश्चयनय से नहीं -
शरीरमिन्द्रियं द्रव्यं विषयो विभवो विभु: ।
ममेति व्यवहारेण भण्यते न च तत्त्वत: ।।२१०।।
अन्वय :- शरीरं, इन्द्रियं, द्रव्यं, विषय:, विभव: च विभु: मम (अस्ति) इति व्यवहारेण भण्यते तत्त्वत: न (भण्यते) ।
सरलार्थ :- औदारिकादि शरीर, स्पर्शनेन्द्रियादि इन्द्रियाँ, धनादिद्रव्य, स्पर्शादि इन्द्रियों के विषय, अनेक प्रकार का लौकिक वैभव, स्वामी आदि मेरे हैं; ऐसा व्यवहारनय से कहा जाता है; किन्तु तात्त्विक दृष्टि से/निश्चयनय से शरीरादि मेरे/आत्मा के नहीं हैं ।