वर्णीजी-प्रवचन:दर्शनपाहुड - गाथा 2
From जैनकोष
दंषणमूलो धम्मो उवइट्ठो जिणवरेहिं सिस्साणं ।
तं सोऊण सकण्णे दंसणदीणो ण वंदिव्वो ।।2।꠰
(4) धर्म और धर्म की दर्शनमूलकता―धर्म दर्शनमूलक है, ऐसा जिनवर ने शिष्यों को उपदेश किया है । सम्यग्दर्शन जिसकी जड़ है वह धर्म है ꠰ धर्म तो चारित्र का नाम है और उस धर्म का मूल है सम्यग्दर्शन । धर्म का लक्षण समंत भद्राचार्य ने किया कि जो संसार के दु:खों से छुटाकर उत्तम सुख में धारण करे सो धर्म । अब कौन धारण करता, कौन सा भाव ऐसा है जो संसार के दुःखों से छुटा दे और उत्तम सुख में पहुंचा दे? जरा एक लौकिक हिसाब में थोड़ा यह ध्यान दो कि किसी मनुष्य को जब व्यग्रता होती है इष्टवियोग होने से या किसी कारण से तो उस व्यग्रता के नष्ट होने का उसका क्या उपाय बनता? जैसे मानो किसी के इष्ट का वियोग हो गया पुत्र का, पिता का, दादा का, स्त्री का, मां का, जिसे भी बहुत इष्ट समझता हो, वियोग होने पर वह बड़ा दुःखी होता है । तो लोग समझाने वाले आते हैं, अनेक प्रकार समझाते हैं, उनका समझाना मोहबर्द्धक होता है प्राय: करके । उसकी याद दिलाते हैं―वह बड़ा अच्छा था, होनहार था, सबकी खबर लिया करता था, उसके गुण गायेंगे, उसे सुखकारी बतायेंगे, ऐसी कुछ बातें कहेंगे, तो यह कोई समझाने का ढंग नहीं है, यह तो दुःख बढ़ाने का ढंग है, और होता भी यह ही है कि ज्यों-ज्यों लोग समझाते हैं त्यों-त्यों उसका दुःख बढ़ता जाता है, पर कोई विवेकी पुरुष समझाये या स्वयं उसकी समझ में आ जाये कि वह तो बिल्कुल भिन्न जीव है, मैं उससे बिल्कुल अलग हूँ, मेरा साथी कोई दूसरा संसार में हो ही नहीं सकता । सब अपने-अपने किए का फल पाते हैं । कोई किसी दूसरे का मददगार नहीं, ऐसी बात जब समझ में आती है और अपने आप में अकेलेपन का अनुभव होता है तब उसका वह दुःख मिटता है । जब लोकपद्धति में यह बात पायी जा रही है कि जब अपना एकाकीपन समझ में आये तो उसका दुःख मिटे, ऐसे ही यहाँ समझिए कि जब अपना एकत्व समझ में आये तो संसार के संकट मिटें और उत्तम सुख में पहुंचे ꠰ क्या? वह अपना एकत्व, विशुद्ध एकत्व, यह जीव अकेला ही मरता है, अकेला ही पैदा होता है, यह एकत्व का स्थूल रूप है ꠰ जैसा कि लोगों ने समझ रखा है कि यह जीव आया, यह मनुष्य आया, यह पशु मरा । जो एकत्व है वह न जन्मता है न मरता है, जो आत्मा का स्वरूप है सहज ज्ञानमात्र ज्ञान ज्योति, चित्चमत्कार मात्र वस्तु है वह मिटती नहीं कभी । ऐसा यह आत्मवस्तु सहज स्वरूप है ।
(5) धर्म का आश्रय लेने का कर्तव्य―पर के संबंध बिना अपने आप में ही अपने ही सत्त्व के कारण जो मेरा सहज स्वरूप है उस रूप अपने को माने, मैं यह हूँ, उसकी सारी समस्यायें सुलझ जाती हैं और उसको फिर संकट नहीं रहते । करने का यह काम है । अंत: घुसे-घुसे गुप्त-गुप्त इस गुप्त तत्त्व को पा ले । संसार में जितने समागम मिले हैं इनमें किसी भी प्रकार के जो लगाव है वह अपनी विडंबना है । उसमें हित नहीं है । हित है तो अपने इस एकत्व विभक्त अंतस्तत्त्वरूप अपने आपकी श्रद्धा करके अधिकाधिक प्रयास इस ही स्व में मग्न होने में है । दूसरा कोई कार्य इस जीव के लिये हितकारी नहीं है । बाकी तो सब अच्छे कार्य यों करने पड़ते, करना चाहिए कि जब यहाँ मग्न न सके तो उनमें ही भेद तो करें कि यह अशुभ है यह शुभ है, अशुभ से हटो, शुभ में आवो । इसमें एक पात्रता रहती है कि मैं अपने उस विशुद्ध एकत्व को जब कभी भी निरख लूंगा । यदि यह अशुभ में ही बह गया तो यह ऐसा पात्र फिर नहीं रहता । तो जिसके यह निर्णय है कि करने योग्य काम तो आत्मा के सहज चैतन्यस्वरूप का भान करके उस रूप ही अपने को ऐसा मान लेना कि फिर कोई कितना ही बहकाये पर अन्य बुद्धि न बने, यह है । जैसे कि लोग अपने-अपने नाम में ऐसा दृढ़ निर्णय बनाये हैं कि मैं अमुक चंद हूँ, अमुक लाल हूँ, अमुक प्रसाद हूँ आदि, और कोई उस नाम के बजाये दूसरा नाम ले ले तो उसमें बहकते नहीं, ऐसे ही अपने इस सहजस्वरूप के बारे में ऐसा दृढ़ निर्णय करके रहें कि कोई इस आत्मतत्त्व का अन्यथा स्वरूप बताकर बहकाये तो बहकें नहीं । चार्वाकों ने बहकाया कि चार महाभूत मिल गए, चैतन्य हो गया, सो यह बात सुनने, समझने और मानने में बड़ी सस्ती और अच्छी लग रही ‘ऋणं कृत्या घृतं पीवेत्’ ऋण करके भी घी पियो । खूब मौज से रहो, .....अच्छा भी लगता है ऐसा सुनने में, मगर ऐसे शब्द इस एकत्व के अनुभवी को विचलित नहीं कर सकते । अनुभव पाया, परिणमन आया, समझ में ध्रुवतत्त्व आया, समझ में सारी समस्यावों का यहाँ हल हो गया ।
(6) धर्म का अभिन्न मूल सम्यग्दर्शन―एकत्व का सहारा ले, आश्रय ले उस ही में बल लगाये, अपने अंत: ही प्रतिष्ठित बने, यह है धर्म जो संसार के संकटों से छुटाकर उत्तम सुख में पहुंचा देता है; ऐसा यह धर्मसम्यग्दर्शन मूलक है । जैसे कहते हैं ना―वृक्ष की जड़, तो इसमें दो बातें आयीं―वृक्ष और जड़ । तो दो बातें होकर भी एक ही बात है । क्या जड़ वृक्ष से भिन्न अंग है? नहीं, ऐसे ही चारित्र और दर्शन, चारित्र तो है वृक्ष और सम्यग्दर्शन है जड़ । इस निगाह में दो बातें समझ में आयीं । चारित्र वृक्ष है, सम्यग्दर्शन उसकी जड़ है, पर जैसे वृक्ष से जड़ कोई अलग चीज हो और वहाँ जुड़ गई हो, ऐसा तो नहीं है, ऐसे ही वह एक धर्म है और उसकी यह जड़ वह भाव है कि जो आधार बन गया कि जिसके बिना वह वृक्ष चारित्र हो ही नहीं सकता । तो ऐसा सम्यग्दर्शन धर्म का मूल है ।
(7) सम्यक्त्व की उपपत्ति का संक्षिप्त निर्देशन―कैसे सम्यग्दर्शन प्रकट होता है, उसका क्या उपाय है, क्या कारण है, इस विषय में बहुत वक्तव्य है, फिर भी संक्षेप में इतना समझ लें कि समवशरण जिनबिंब दर्शन और और भी धार्मिक कार्य, तत्त्व ज्ञानाभ्यास ये उपाय तो बनते हैं मिथ्यात्वप्रकृति के उपशम के कारणभूत । मिथ्यात्व का उपशम होना यह भी तो आवश्यक कार्य है वहाँ? उसके साधन है, वे सब बातें और मिथ्यात्व का उपशम आदिक कारण हैं सम्यग्दर्शन के व्यक्त होने का । वह अबुद्धिपूर्वक है और मिथ्यात्व के उपशम करने का कारण वे सब बुद्धिपूर्वक हैं । इस कारण परंपरया इसे कारण कह देते हैं । वस्तुत: तो सम्यग्दर्शन जब उत्पन्न होता है तो वहाँ कोई आश्रयभूत नहीं होता सिवाय एक स्वतत्त्व के, पर उसकी निष्पत्ति की विधि क्या है, इस विषय में बुद्धिपूर्वक उपायों का आगे वर्णन किया जायेगा । जो भी बुद्धिपूर्वक उपाय हैं ज्ञान, अध्ययन, पूजा, गुरुसेवा, तत्त्वचर्चा आदि वे सब साक्षात् तो सम्यक्त्वघातक प्रकृतियों को हीन करने में कारण है, फिर सम्यक्त्वघातक प्रकृतियों का उपशमादि सम्यक्त्वनिष्पत्ति का निमित्त है ।
(8) सम्यग्दर्शन की वार्ता―अष्टपाहुड में यह दर्शनपाहुड नाम का अधिकार है । यहाँ कह रहे हैं कि जिनेंद्रदेव ने शिष्यों को उपदेश किया है कि धर्म दर्शनमूलक है अर्थात् सम्यग्दर्शन पूर्वक यह जीव आगे बढ़ता है और अपने अंतस्तत्त्व की स्थिरता में सफलता पाता है । आत्मस्थिरता है धर्म और उसका मूल है सम्यग्दर्शन, जिसे कहो सूझ, जैसे तीन बातों से काम चलता हैं―सूझ, बूझ, रीझ । किसी भी काम को करेंगे तो उसकी सूझ होनी चाहिए, और उस संबंध में बूझ याने ज्ञान और उस पर रीझ, तो वह कार्य बनता है । तो सूझ है सम्यग्दर्शन, मार्ग देखा, स्वभाव देखा, स्वभाव की झलक हुई । अब उसमें स्थिरता करे वह है चारित्र । तो मूल तो सम्यग्दर्शन है । वह सम्यक्त्व क्या है? वह अनिर्वचनीय परिणाम है । किसी ने उसका विपरीत अभिप्रायरहित स्वच्छता नाम दिया है, उस सम्यग्दर्शन की बात लोग सम्यग्दर्शन के प्रतिपक्ष की समझ से? जल्दी समझ पाते हैं मायने सम्यक्त्व का प्रतिपक्ष है मिथ्यात्व, उसे तो समझ लेंगे कि विपरीत अभिप्राय है, बस यही न रहे, लो यह ही सम्यग्दर्शन है और अपनी ज्ञानमुखेन समझ है, सो सहज ज्ञानस्वभाव की अनुभूति होना सो सम्यग्दर्शन है । सहज स्वभाव क्या? जब से आत्मा है तब ही से जो है―सहजायेते इति सहजं, जो उसकी सत्ता के साथ ही है उसे कहते हैं सहज, सहज का अर्थ लोग सुगम करते हैं, सरल करते हैं, अनेक प्रयोगों में आता है, पर शब्दार्थ की दृष्टि से सहज का भाव है, जो आत्मसत्त्व के साथ हो उसे कहते हैं सहज याने स्वरूप ।
(9) सहज स्वरूप की आलंब्यता―स्वरूप साथ रहता है अनादि से । ऐसा तो और लोग भी मानते हैं, पर उसे भेद रूप मानते हैं । दो पदार्थ जुदे-जुदे मान लेते हैं, ज्ञान, चेतना, बुद्धि, यह आत्मा से अलग पदार्थ हैं और आत्मा ज्ञान से अलग पदार्थ है । आत्मा तो द्रव्य नाम का पदार्थ है और ज्ञान, बुद्धि गुण नाम का पदार्थ है, फिर उनका समवाय मानते, किंतु तत्त्व ऐसा नहीं है । गुण वस्तु से तन्मय है । आत्मा ज्ञान से तन्मय है अनादि से । और वही इस जीव का शाश्वत शरण है और वही तरण तारण है । जो अभी भजन में सुना था, ब्रह्मप्यारे, यह मेरा आत्मस्वभाव यह ही मेरे को शरण है और वह शाश्वत है, उसे जो न पहिचाने सो भटके और जो पहिचाने उसका उद्धार हो । बस सर्व उपदेशों का सार निचोड़ निष्कर्ष इतना ही है कि जिसे यहाँ तक कहा कि जिसने इस स्वभाव को जाना उसने सब जैनशासन को जाना, क्योंकि जैनशासन की बड़ी-बड़ी न्याय छटावों से जानकारी करने का प्रयोजन क्या है? वाद-विवाद करना प्रयोजन है क्या, या दुनिया में अपना पांडित्य जाहिर करना है क्या? क्या प्रयोजन है आगम के अभ्यास का? बड़ी-बड़ी पंडिताई पा लेने का प्रयोजन है क्या? बस इस सहज शुद्ध, सहज सिद्ध स्वभाव का परिचय पाना और फिर उसकी ही धुन बन जाना, तो ऐसे इस सहज स्वभाव का परिचय मिले, अनुभूति मिले वहाँ है यह सम्यग्ज्ञान । जो सम्यक् है, निरपेक्ष है, सहज है, मात्र सत्त्व के कारण है ऐसे सम्यक्तत्त्व का दर्शन होना सम्यग्दर्शन है । सम्यक् का सम्यक् में सम्यक् प्रणाली से दर्शन होना सम्यग्दर्शन है । सम्यग्दर्शन अनुभूतिपूर्वक ही होता है, उसके बाद अनुभूति चले, किसी बाह्यपदार्थ में भी ध्यान दे, और और प्रवृत्ति कामकाज करे यह तो संभव है सम्यग्दर्शन के होते हुए भी, लेकिन ? सम्यग्दर्शन की जो निष्पत्ति है वह ज्ञानानुभूतिपूर्वक ही है और इसी कारण ज्ञान सम्यग्ज्ञान कहलाता है । वही ज्ञान जो पहले था सम्यग्दर्शन नाम को नहीं पा रहा था, सम्यग्दर्शन होते ही सम्यग्ज्ञान नाम पा गया ।
(10) सम्यक्त्व से पूर्व हुए ज्ञान की और सम्यक्त्व के होने पर हुए ज्ञान की मीमांसा―जैसे आपने मानो अब तक श्रवणबेलगोल की बाहुबलि की मूर्ति नहीं देखी, मगर उसकी फोटो तो देखी, चर्चा तो सुनी, पुस्तक भी तो बाँची और, बहुत बड़ा ज्ञान भी कर लिया, इतना मोटा अंगूठा है,―इतना लंबा पैर है, घुटने तक इतनी लंबी है, पूरी मूर्ति इतनी ऊँची है, यों सही-सही सब जानकारी कर लिया । कुछ जानकारी में फर्क रहा क्या? पुस्तक से पढ़ कर या फोटो देखकर सब तरह का ज्ञान कर लिया एक तो यह ज्ञान और फिर आप श्रवण बेलगोल जायें, पहाड़ पर चढ़कर उस मूर्ति के पूरे दर्शन करें, उस दर्शन के समय में मूर्ति का जो ज्ञान हुआ, इन दोनों प्रकार के ज्ञानों में आप तुलना करें, तो कुछ अंतर आया कि नहीं? दर्शन करने से पहले जो ज्ञान था मूर्ति का वह किस प्रकार था, दर्शन के साथ ही वही ज्ञान अब कैसी दृढ़ता, स्पष्टता, प्रत्यक्षता को लिए हुए है । जैसे वहाँ ज्ञान में अंतर आया, मूर्ति दर्शन से पहले, मूर्ति का ज्ञान और मूर्तिदर्शन के बाद मूर्ति का ज्ञान, जैसे इन ज्ञानों में अंतर है ऐसे ही आत्मविषयक ज्ञान की भी बात समझो । ज्ञानानुभूति से पहले स्वानुभव से पहले आत्मा के संबंध में होने वाला ज्ञान और आत्मानुभूति के साथ और उसके बाद रहने वाला ज्ञान इन दोनों ज्ञानों में अंतर क्या है? जानकारी वही चल रही है, मगर वहाँ सम्यक् व्यपदेश न था? उसकी स्पष्टता, प्रत्यक्षता, दृढ़ता न होने के कारण । और, अब यहाँ स्वसम्वेदन प्रत्यक्ष हुआ, सहज आनंद का अनुभव हुआ, अलौकिक स्थिति का परिचय हुआ । अब यह ज्ञान सम्यग्ज्ञान है ।
(11) सम्यक्त्व होने की विधि―सम्यक्त्व हुआ कैसे ? तो देखिये―उपाय तो यह ही है कि जानकारी करें और सहज स्वभाव का परिचय करें और उस ही का अभ्यास करें, ध्यान में किसी समय में सहजस्वभाव का अभ्यास बनायें, उसकी चर्चा हो, सो पौरुष करने का तो यह ही है । ऐसे पौरुष का फल यह होगा कि जो सम्यक्त्वघातक प्रकृतियाँ हैं अनंतानुबंधी चार मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक̖प्रकृति ये तीन यों सात, इनमें जो प्रबल प्रकृतियां हैं उनका उपशम होने लगेगा । जैसे गाया करते हैं ना कि क्रोध प्रकृति के उदय के सन्निधान में जीव में क्रोध विकार होता है, ऐसे ही गाइये कि आत्मा के इन विशुद्ध परिणामों के सान्निध्य में मिथ्यात्व जैसे कर्मों में उपशम होने लगता है, देखिये सारी स्थितियाँ घटनायें सब निमित्त नैमित्तिक योग वाली हैं, मगर प्रत्येक द्रव्य अपने आप में स्वतंत्र है । एक के परिणमन को दूसरा नहीं करता । कोई भी पदार्थ अपने प्रदेश से बाहर अपनी परिणति, अपनी क्रिया नहीं कर पाता । स्वरूप ही नहीं ऐसा, मगर उपादान में ऐसी कला है, उपादान में ऐसी योग्यता है कि वह अनुकूल निमित्त सन्निधान में अपनी विकृति कर लेता है । तो यहाँ भी देखिये―अनुकूल विशुद्ध परिणाम हैं सान्निध्य में मिथ्यात्व कर्म में उपशमन होता, अंत: करण होता ꠰
(12) सम्यक्त्वोद्यमी मिथ्यादृष्टि का प्रायोग्यलब्धि में हुए पौरुष का दिग्दर्शन―एक मिथ्यादृष्टि जीव सम्यग्दर्शन उत्पन्न होने के प्रसंग में कितना बड़ा पौरुष करता है जिस पौरुष को ध्यान में लें तो यह जंचेगा कि उसने 99 प्रतिशत मोक्ष का काम बनाया अब एक प्रतिशत काम शेष रहा । पर करणानुयोग से उसका मिलान करें तो यह ज्ञात होगा कि जिस समय यह मिथ्यादृष्टि जीव प्रायोग्यलब्धि में आता है, यहाँ तक अभव्य भी आ जाता है, अन्य भव्य भी आ जाते, जिन्हें सम्यक्त्व नहीं भी होगा वे और जिन्हें सम्यक्त्व होगा वे भी हैं, यहाँ एक जनरल काम है, मगर प्रायोग्यलब्धि के परिणाम की विशुद्धता देखिये कि उस समय ऐसी प्रकृतियों का बंधावसरण होता, बंध रुक जाता कि जिन प्रकृतियों का बंध छठे गुणस्थान में होता हैं उनका बंध रुक जाता है मिथ्यात्व में, कब? जब यह प्रायोग्यलब्धि में आता है, उसे बंधविच्छेद न कहकर बंधावसरण कहा है, क्योंकि आगे बंध होने लगता है । सम्यग्दृष्टि, जिनका बंद कर ले उनका बंध मिथ्यादृष्टि ने प्रायोग्यलब्धि में रोक दिया । इसमें पौरुष बता रहे कि कितना उसके अंत: विशुद्ध परिणाम चल रहे ।
(13) सम्यक्त्वोद्यमी सातिशयमिथ्यादृष्टि का करणलब्धि में होने वाले अंत: करण के महापौर का निर्देश―भैया, आत्मा को तो तत्त्वज्ञान, स्वरूपमनन, बस यह ही काम पड़ा है और वहां कर्म में स्वयमेव उनके ही परिणमन से क्या-क्या गतियां होती हैं । सम्यक्त्वघातक कर्म के अंतरकरण होता याने ताज्जुब की बात कि कोई कर्म मानो हजार वर्ष इस स्थिति का रह रहा है और कही बीच में एक दिन की स्थिति गायब हो जाये, यह कितने आश्चर्य की बात है । यह दशा उपशम में होती है, स्थिति सभी कर्मों की जिसकी जितनी है, लगातार उनके निषेकविभागों से निरंतर चल रही है, उसमें बीच में नाला नहीं खुदा है कि यहाँ गैल कट गई । जिस कर्म की स्थिति मानो हजार वर्ष की है तो अब वह अब से लेकर हजार वर्ष तक प्रतिसमय निषेकों की सत्त्व में स्थिति में पड़ा है । लेकिन उस सातिशय मिथ्यादृष्टि के उन करण परिणामों की इतनी विशुद्धता है कि बीच में नाला खुद गया, गैल रुक गई । फिर आगे गैल, उतने समय को स्थिति नहीं रहती, किस तरह कि जैसे कोई वकील है और उसको जेठ आषाढ़ के महीने में ऐसी इच्छा हो गई कि दसलक्षण के दिनों में हम कोर्ट न जायेंगे, तो वह ऐसी कोशिश करता है कि जिसकी तारीख दसलक्षण में पड़ी है उन तारीखों को कुछ को तो सावन के महीने में करा लेता है, कुछ को भाद्र कृष्णपक्ष में करा लेता है और कुछ तारीखों को असौज वगैरह में करा लेता है । मतलब, दसलक्षण के दिनों में अब उसकी कोई तारीख नहीं, वह निश्चिंत होकर दसलक्षण पर्व मनाता है, ध्यान करता है । ऐसे ही जिसको मानो अब तीन मिनट बाद उपशम सम्यक्त्व होगा एक मिनट के लिए, तो उस चौथे मिनट की स्थिति का समस्त द्रव्य कुछ तो दो तीन मिनट की स्थिति में आ जायेंगे, कुछ 5वें छठें की स्थिति में पहुंच जायेंगे, बीच में यह स्थिति साफ है ꠰ ऐसी टूटन कभी भी किसी सत्त्व में नहीं हुआ करती, मगर अंत: करण परिणाम के बल से स्थिति में यह टूटन आ गईं है । इसकी विधि को कहते हैं आगाल और प्रत्यागाल । इनको यह जीव नहीं कर रहा । उस जीव बेचारे को पता ही नहीं, वह तो अपने स्वरूप मनन में है, जीव उपयोग का ही काम कर सकता है, वही कर रहा । मगर निमित्तनैमित्तिक योग से कर्म ऐसी दुर्दशा में पहुंच रहे ।
(14) सातिशय मिथ्यादृष्टि का सम्यक्त्वघातक प्रकृतियों के उपशमन का महापौरुष― अंतरकरण हुए बाद अंतर्मुहूर्त को विश्राम होता है फिर और करणलब्धि होती है इसके प्रसाद से अथवा इन विशुद्ध भावों के सान्निध्य में अब सम्यक्त्वघातक प्रकृतियों का उपशम होने लगता है । अब तीसरा मिनट खतम होने को आया, और मिथ्यात्व का अंतिम समय है । उपशम सम्यक्त्व होता है तो अनादि मिथ्यादृष्टि पाने जिसके पहली ही बार उपशम सम्यक्त्व हो रहा है तो उसके पास चूंकि सम्यग्मिथ्यात्व सम्यक् प्रकृति की सत्ता न थी, ये दो प्रकृतियाँ बंध योग्य नहीं हैं तो उस समय दबे दबाये में मिथ्यात्वप्रकृति के तीन टुकड़े हो जाते हैं, कुछ साबित रह गया वह मिथ्यात्व, कुछ दल गया वह सम्यग्मिथ्यात्व और कुछ चूरा हो गया वह सम्यक̖प्रकृति । इस जीव को सर्वप्रथम उपशम सम्यक्त्व का लाभ होता है निमित्त नैमित्तिक योग की कथा सुनकर यह दृष्टि जरा भी न लेना कि इस निमित्तभूत पदार्थ ने कोई अपनी परिणति उपादान में डाल दी । भाव प्रभाव असर कुछ भी कहो उसका नाम है उपादेय याने उपादान में होने वाला कार्य ।
(15) दुर्लभ सत्समागम पाकर आत्महित का पौरुष करने का कर्तव्य―इस जीव ने अब तक सारे विकल्प कर डाले मगर इस सहज शुद्ध स्वरूप पर उपयोग नहीं दिया । जैसे कोई बावला सब घरों में जाता फिरे मगर उसको अपने घर का पता नहीं तो वह जिस घर जाता उसी घर उसे ठोकरें लगती । इस जीव ने जिसको शरण माना वही से लात लगी । फुटबाल जिस लड़के के पास गया उसने फुटबाल को उठाकर हृदय से नहीं लगाया, मुख से नहीं चूमा, किंतु उसकी लात ही लगी ऐसे ही यह जीव बाहर में जिन बातों को शरण मानकर चला वहाँ से ही इसको कष्ट हुआ, इसने अपने स्वभाव का परिचय नहीं पाया । यह बड़े सौभाग्य की बात है जो आज उत्तम भव मिला, उत्तम कुल मिला और जैन शासन का संग मिला, इसे पाकर भी हम विषय कषायों का परित्याग न करें, अपने आत्मवैभव को न देखें और बाहरी पदार्थों में ललचाते रहें, बाहरी मायावी लोगों में यह मैं हूँ, इस मैं मैं का स्थापन करते रहें तो फिर मनुष्य क्यों हुए? विषयसुख तो पशु होकर भी भोगा जा सकता था, बल्कि मनुष्यों को कम सुख है पशुओं को ज्यादह, यह धर्महीन मनुष्य की बात कह रहे, पशुओं को डर (भय) नहीं रहता कोई लाठी लेकर सामने आये तभी पशु डरते मगर ये मनुष्य तो बड़े-बड़े डनलप के गद्दा तक्कों में पड़ा हुआ भी भय किया करता, डरा करता, चिंता करता कि पता नहीं क्या कानून बन जाये, कब यह सब कुछ छिन जाये, पता नहीं कब क्या स्थिति बने....ये सब बातें सोच-सोच कर मनुष्य लोग रात दिन भय किया करते, पर ये कोई भय उन पशुओं को नहीं होते । ये सब बातें लौकिक पुरुषों के हिसाब से कही जा रहीं । मनुष्य आहार करता, पेट भरा है फिर भी कोई चाट पकौड़ी वाला आ जाये तो इस लेटर बाक्स में (पेट में) कुछ न कुछ जगह निकल ही आती है (हँसी) । पर पशु तो भरपेट आहार करके तृप्त हो जाते एक बार पेट भर जाने पर फिर चाहे आप कैसी ही हरी घास डाले, दाना डालें, पर उसकी ओर देखते भी नहीं । वे संतुष्ट हटकर खड़े रहते, उन्हें कुछ फिकर नहीं रहती । और वहाँ इन सुखों के मामले में मानो मनुष्य लोग अपनी संतान से सुख समझते हैं तो क्या पशु अपने बच्चों से सुख नहीं मानते? अरे उन्हें भी अपने बच्चे प्रिय होते, उनको देखकर वे हर्ष मानते । यही बात निद्रा और मैथुन संज्ञावों के संबंध में समझें । यों आहार, निद्रा, भय, मैथुन इन चारों प्रकार की संज्ञाओं में मनुष्यों की अपेक्षा पशु श्रेष्ठ है मनुष्य भव की श्रेष्ठता तो उसके धर्मपालन से है । इस मनुष्य जीवन को पाकर अपना विवेक सही बनायें, अपना लक्ष्य सही रखें, संयम का जीवन रहे ।
(16) सहज स्वभाव की दृष्टि के प्रयोग बल से परभावों की निवृत्ति पूर्वक परमात्मत्व का विकास―इस समस्त पदार्थ समूह में मेरे लिए एक यह समयसार ही सार है । यह निरपेक्ष सहजस्वरूप मेरा जो अपने आप मेरे में शाश्वत अंत: प्रकाशमान है उसका मिलाप, उसकी उपासना, उसकी भक्ति, उसकी ओर अभिमुखता, उस पर ही मेरी ज्ञान किरणों का निशाना रहना, बस यह ही एक सारभूत चीज है जो धर्म का मूल है । साक्षात् धर्म कौन? आत्मस्वभाव के अनुरूप स्थिति बन जाना । जैसा अंदर वैसा बाहर । यह है साक्षात् धर्म, प्रकट धर्म । उस प्रकट धर्म का कारण है यह अंत: लगाव, अंतरात्मापन । यह विकास कुछ जोड़ने से नहीं होता किंतु त्यागने से होता है । इसमें कोई चीज लगाना नहीं है किंतु विषय कषाय भाव उपाधि आदिक जो कुछ है वह सब हटने से प्रकट होता । जैसे जैनियों की मूर्ति प्रकट होती है ऐसे ही यह परमात्मापन आत्मा से प्रकट होता है । पाषाणमूर्ति बनती है तो कुछ लगाकर नहीं बनती, किंतु हटा हटाकर बनती है । मूर्ति बनाने से पहले कुशल कारीगर को उस पत्थर की मूर्ति के ज्ञान द्वारा दर्शन हुए थे तब ही वह ऐसे हाथ चला सका जिससे मूर्ति खंडित नहीं हुई, प्रकट हुई । अटपट हाथ क्यों नहीं चलता? बीच से ही टाँकी क्यों नहीं मारता, उसमें विनय थी, आस्था थी कि यहाँ मूर्ति है, यह ही तो प्रकट हुई है । उसको उस बड़े पत्थर में मूर्ति के दर्शन हुए थे । उसको ढाकने वाले जो अगल बगल के पत्थर हैं बस उनको उसने हटाना शुरू किया । पहले बड़े पत्थर हटे, फिर और छोटे, फिर और छोटे, फिर पाउडर जैसे, इस तरह हटाने-हटाने का काम तो किया और मूर्ति प्रकट हो गई, ऐसे ही यहाँ पर भी हमें हटाने-हटाने का ही काम करना है । मगर वह हटाने के काम का हथियार क्या है? छेनी हथौड़ी क्या है? वह है स्वभावदृष्टि । उसका ही लक्ष्य, उसकी ही भावना, यह ही हथोड़ी, यही छेनी, और उसके प्रयोग से हटता क्या हैं? विषय कषाय उपाधि, कुछ इसकी बात, कुछ बाह्य संयोग की बात । सब स्वयं अपने-अपने परिणाम से हटते जाते हैं । लगाया क्या इस ज्ञानी ने आत्मा में ? लगाने की जरूरत क्या थी? वह तो परिपूर्ण है अधूरी चीज हो तो बाहर से लाने की जरूरत होती, परिपूर्ण है, उस पर आवरण है तो आवरण हटाने भर की जरूरत होती है । यहाँ मूर्ति का आवरण हथौड़ी, छेनी से हटाया, मगर इस भगवान आत्मा का आवरण किसी परद्रव्य के साधन से नहीं हटता, यह अपने आपके उपयोग से हटता है ।
(17) व्यवहारचारित्र की उपयोगिता व व्यवहारचारित्र में भी वीतरागता के दर्शन की ज्ञानी की प्रकृति―स्वभावाश्रय का प्रयोग जो करते हैं उनको जो अड़चनें आती, असुविधायें आती वह अंतराय न आये और सीधे इस आत्मस्थिरता को पाये उसके लिए जो उनकी चर्या बनती है वह चर्या है व्यवहारचारित्र । उनका परिणाम हुआ महाव्रत समिति गुप्ति, उस समिति गुप्ति में दर्शन करें, किसके? वीतरागता के । अच्छा, वहाँ राग के दर्शन नहीं कर सकते क्या? राग के भी कर सकते । जितनी प्रवृत्ति है उस मुखेन राग के दर्शन होंगे और जितनी निवृत्ति है उस मुखेन वीतरागता के दर्शन होंगे । अब यह आपकी रुचि है, आपको दोष-दोष पकड़ने की आदत है तो राग दोष की मुख्यता से उसको देखिये और अगर आपको वीतरागता देखने को रुचि है तो उस ही चीज को वीतरागता की दृष्टि से देखिये । ज्ञानी की आस्था चलती जाती है, लक्ष्य उसका एक स्वभावदर्शन । एक काम करना है और सारे काम हो जाते हैं, जो होना था । बस अपने सहज स्वरूप का परिचय करें, ज्ञान करें और उसकी ही धुन बनाये, यह ही एक मनुष्य जीवन में सारभूत काम काम है ।