वर्णीजी-प्रवचन:दर्शनपाहुड - गाथा 25
From जैनकोष
णवि देहो बंदिज्जइ ण वि य कुलो ण वि य जाइसंजुत्तो ।
को बंदामि गुणहीणों ण हु सवणो णेय सावओ होइ ।। 25 ।।
(121) देह की अवंद्यता―प्रत्येक साधु जो नग्न हैं वह
(122) कुल और जाति की अवंद्यता―देह की भांति कुल भी वंदनीय नहीं है । कोई पुरुष उत्तम कुल में पैदा हो गया तो उससे वह बड़ा थोड़े ही कहलाने लगा । ऊँचे कुल में तो पैदा हो ले और आचरण नीचा रखे तो वह पुरुष वंदनीय है क्या? मोक्षमार्ग में जो आत्मा चल रहा है वह वंदनीय है । यदि रत्नत्रय नहीं है तो बड़ा कुल होने से भी वंदनीक नहीं कहलाता कोई उत्तम जाति में है, जाति होती है माता के पक्ष से और कुल रहता है पिता के पक्ष से । वैसे तो मुख्य कुल है मगर माता के पक्ष का जैसा स्वभाव है वह भी संतान में आ लेता है कभी । जैसे कभी कहते हैं ना कि इसका आकार तो इसके नाना जैसा है, मामा जैसा है, और किसी को कहते हैं कि इसका आकार इसके दादा बाबा जैसा है, तो बच्चे में संस्कार दोनों ओर के पड़ सकते हैं, इस कारण दोनों की बात कही जा रही है । कोई उत्तम जाति में उत्पन्न हुआ हो याने अच्छे घर की लड़की हो, वही जिसकी माँ हो तो उससे भी क्या होता है? यदि रत्नत्रय नहीं है तो जाति तो पूज्य नहीं हो जाती ।
(123) गुणहीन साधु की अवंद्यता―तात्पर्य यह है कि गुणहीन साधु वंदना के योग्य नहीं है । और गुणहीन साधु है ऐसा कोई जान ले और फिर भी उसका वंदन करे तो उस श्रावक को भी अपराध है और साधु अगर ऐसा चाहे कि मुझको ये लोग वंदना करें तो साधु का तो वह बहुत बड़ा अपराध है, जिसके मन में यह भावना जगे कि मुझको ये नमस्कार करें तो निश्चित समझ लो कि वह साधु ही नहीं है, क्योंकि साधु होते हैं दो किस्म के । (1) अच्छे ज्ञानी और (2) ज्ञानी । ज्ञानी के तो कभी यह भावना जगेगी ही नहीं कि मुझे कोई नमस्कार करे और जिसके भावना जगी समझो कि वह नियम से अज्ञानी है । तो जो दूसरों से वंदन चाहे वह भी दुर्गति का पात्र है और अज्ञानी कुशील साधु हो और जान ले कोई और फिर उसका वंदन करे तो वह श्रावक भी दुर्गति में जाता है, इस कारण से गुण का विवेक करना दोनों को आवश्यक है । गुणहीन साधु वंदना के योग्य नहीं है । अगर कोई गुणहीन साधु है, सम्यक्त्वरहित, भावसंयमरहित कोई साधु बन गया है तो वह साधु न तो श्रावक रहा और न साधु रहा । ऐसा साधु तो श्रावक से भी गया बीता है । श्रावक तो थोड़ा मोक्षमार्ग में लग भी सकेगा मगर वह साधु मोक्षमार्ग में रंच भी नहीं है । जिसके सम्यक्त्व नहीं, भावसंयम नहीं और उद्दंडता के विचार हैं, लोक में पुजने के लिए हो गया है वह साधु श्रावक से भी निम्न दशा में है । सो प्रकरण में जो बताया कि साधु के यथाजात रूप देखकर जो आदर न करे वह पुरुष सम्यक्त्व हीन कहलाता है । मगर यथाजात रूप क्या है वह इन दोनों गाथाओं में स्पष्ट किया है । जिसके विकार न जगे, सम्यक्त्व बना रहे, आत्मदृष्टि रहे, केवल आत्मकल्याण की भावना से ही जो साधु हुआ हो वह है यथाजात रूप धारी साधु और संयमरहित सम्यक्त्वरहित गुणहीन साधु न तो साधु ही रहा और न श्रावक ही रहा ।