वर्णीजी-प्रवचन:दर्शनपाहुड - गाथा 6
From जैनकोष
जे दंसणेसु भट्ठा णाणे भट्ठा चरित्तभट्ठा य ।
एदे भट्ठ वि भट्ठा सेसं पि जणं विणासंति ।। 6 ।।
(34) दर्शनभ्रष्टता की मूल भ्रष्टता और भ्रष्टों की उपासना में उपासकों की भ्रष्टता―जो पुरुष सम्यग्दर्शन में भ्रष्ट हैं और ज्ञान में भ्रष्ट हैं, चारित्र में भ्रष्ट है वे जीवे तो भ्रष्ट से भी भ्रष्ट हैं, और स्वयं भ्रष्ट तो हैं ही, अन्य जीवों को भी भ्रष्ट किया करते हैं । जो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट हैं, किंतु ज्ञान, चारित्र की बात है ही नहीं वे तो अजान लोग है, उनका तो लोक में कुछ धार्मिक संबंध ही नहीं है, पर जो जीव हों तो तीनों से भ्रष्ट, लेकिन साधु का रूप रख लें तो उनके द्वारा दूसरों का भी पतन होता है, अब जैसे तीनों से भ्रष्ट गृहस्थ जन हैं, सामान्य लोग हैं उनके द्वारा दूसरों का पतन नहीं है, किंतु जिनको गुरु माना और ये हों सबसे भ्रष्ट, तो उनके संग में भक्तों का भी पतन होता है । जो लोग ऐसे हैं कि श्रद्धान तो कुछ है ही नहीं, फिर भी व्यवहार में न कुछ ज्ञान की बात है और न कुछ चारित्र की बात है उसकी वजह से अन्य जीव भी भ्रष्ट हो गए और फिर वह अपने को साधुपना जताये तो उसमें उनका उद्धार है और न उनके भक्तों का । एक कहावत है―‘‘घुट्टू देवी ऊँट पुजारी ।’’ कोई एक घुट्टू देवी थी, वह तो वैसे ही टूटी फूटी सी थी और फिर उसका पुजारी भी कोई ऊँट था, मनुष्य नहीं । जैसा देव वैसा ही पुजारी ꠰ तो ऐसे ही दर्शन, ज्ञान, चारित्र से जो भ्रष्ट हैं वे स्वयं भ्रष्ट हैं और उनके आराधक पूजक वे भी भ्रष्ट हैं, वे अपना विनाश कर रहे हैं । इस दर्शनपाहुड ग्रंथ में एक यह प्रकरण यहाँ चल रहा है कि जो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट हों वे मोक्षमार्ग में तो नहीं हैं; लेकिन चारित्र पाल रहे हों ऊपरी, सब क्रियायें वगैरह ठीक कर रहे हों तो उनके द्वारा तीर्थप्रवृत्ति तो नहीं बिगड़ती, जो एक व्यवहारधर्म की परंपरा है उसमें बिगाड़ नहीं होता उनका खुद में बिगाड़ है, क्योंकि अपने स्वरूप का उनको अनुभव नहीं है । इस सम्यग्दर्शन का पता दूसरों को तो नहीं रहता कि इसको सम्यग्दर्शन है या नहीं । यदि कोई अत्यंत ही विरुद्ध क्रिया करे तो उसे देखकर यह तो अनुमान हो जायेगा कि इसको सम्यग्दर्शन नही है, पर सम्यग्दर्शन है यह बात जानना कठिन है । जब ऐसी समता वाले मुनि जो उपसर्ग किए जाने पर भी उपसर्ग करने वाले पर भी द्वेष नहीं करते, ऐसी समता व्यवहार में होकर भी सम्यग्दर्शन न हो, यह हो सकता है तब फिर इसमें सम्यग्दर्शन है इसका परिचय पाना कठिन है, इसलिए उसकी तो हम चर्चा क्या करें, पर जो व्यवहार में ज्ञान और चारित्र से भ्रष्ट है, आचरण जिनका योग्य नहीं है, अपने मत के श्रद्धान, ज्ञान, आचरण से भृष्ट हैं वे पुरुष तो उद्दंड है, वे खुद तो भृष्ट हैं ही मगर जो-जो लोग उनकी संगति में रहते हैं वे भी भृष्ट हो जाते हैं दूसरी बात कोई भक्त भला भी हो कुछ आचरण से, इन बातों से भी भृष्ट हैं उनकी सेवा संगति सुश्रुषा करना योग्य नहीं है । क्योंकि ऐसे अतिभ्रष्ट पुरुषों का पालन पोषण सेवा सुश्रुषा करने का अर्थ यह है कि कुमार्ग में चलने का प्रोत्साहन दिया है । तो जो अतिभृष्ट लोग है, तीनों से भृष्ट हैं, न श्रद्धान है, न कुछ ज्ञान है और आचरण भी खोटा है, ऐसे पुरुष स्वयं भी नष्ट होते हैं, वे अपने आत्मा का घात कर रहे हैं और उनके सेवकजन भी अपना घात करते हैं ꠰