वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 152
From जैनकोष
कुर्वाण: फललिप्सुरेव हि फलं प्राप्नोति यत्कर्मण: । ज्ञानं संस्तदपास्तरागरचनो नो बध्यते कर्मणा कुर्वाणोऽपि हि कर्म तत्फलपरित्यागैकशीलो मुनि: ॥152॥
1205- फललिप्सा बिना कर्म का कर्ता के प्रति स्वफल की अयुक्ति- कर्म, उपभोग, मन, वचन, काय की चेष्टायें ये सब कर्म कर्ता को बलपूर्वक अपने फल के साथ नहीं जोड़ते। देखिये दो द्रव्यों की बात अपने को समझने की है। मन, वचन, काय की चेष्टायें हुई, कर्म हुआ, क्रिया हुई तो यह कर्म कर्ता को अपने फल के साथ जबरदस्ती नहीं जोड़ता है किंतु यह भी जीव फल की इच्छा करता हुआ कर्म करता है तो वह फल से जुड़ता। याने कुछ भी चेष्टा करता हुआ उसी समय फल की अभिलाषा कर लेता है यह जीव। बस यह ही एक ऐसा निमित्त है कि वहाँ उदय में आया हुआ द्रव्य प्रत्यय नवीन कर्मों के आस्रव का कारण बन जाता है, बंध होता है। फल न चाहो तो बंध नहीं, बंधन नहीं। फल की चाह है उसमें बंधन है। इसी को तो बताया है निष्काम कर्मयोग। कर्मयोग हो रहा, पर निष्काम होना चाहिए। इसमें भी कुछ लोग तो जानबूझकर कि भाई कर्म करो, उपकार करो, फल न चाहो, एक उमंग के साथ उपकार करते और सोचते कि फल न चाहो। तो जो कर्म की उमंग में आना है, जो उमंगपूर्वक कर्म करना होता है उसके भीतर में कुछ चाह पड़ी हुई है। चाहे और फल नहीं चाहा कि जैसे हमको और वैभव मिले या और बात हो तो इतना तो मन में आया कि चलो उपकार करें, ये लोग भी समझेंगे। ये भी एहसान मानेंगे। या चलो कुछ न कुछ लोगों की कोई बात चित्त में आये, उमंगपूर्वक कर्म किया जा रहा है तो उस प्रसंग में कुछ चाहा ही गया। निष्काम कर्मयोग तो यों होता है वस्तुत: कि वह चाहता ही नहीं। कर्म भी करना नहीं चाहता। फल की बात तो दूर जाने दो। फल भी नहीं चाहता, और क्रिया भी नहीं करना चाहता। अगर कर्मविपाकवश कोई क्रिया करनी पड़ रही है तो वहाँ कहलायेगा वह निष्कामकर्म। फल मत चाहें और फल न चाहते हुए में जो कुछ कर्म भी करना पड़ रहे हैं उसकी बात बतायी जा रही है कि वहाँ स्वापराध नहीं बन रहा, फल नहीं चाह रहा। अब कर्म कर रहे, वहाँ उमंग नहीं, वहाँ राग नहीं, इस कारण से स्वापराध न होने से बंध नहीं है। भीतर में इच्छा जगे, चाह हो, विकार हो उससे बंधन है। 1206- कामचार के बाबत आत्मनिरीक्षण-
अब यह बात तो सबकी अपनी-अपनी है। कोई वचन बोल देवे ऐसा कि मेरा मकान नहीं, मेरे भोग नहीं, मेरे शुद्धभाव है, तो ऐसा कहने भर से तो चाहरहितपने की बात तो नहीं बनती। और चाह नहीं है तो कहते ही क्यों? कहने की जरूरत क्या पड़ गई? लोक में गोष्ठी में जो ऐसा कहने की आवश्यकता पड़ी वही एक अनुमान कराता है कि चाह है कुछ, इच्छा है कुछ। तो भीतर में इच्छा हुई, विकार हुआ तो तत्कृत बंध होता है। इन सभी बातों में नियम है, जैसे हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह ये पाप बताये गए ना- तो पाप में दो बातें तो बतायी गई ना? भीतर का भाव और ऊपर की क्रिया। जो क्रिया है वह क्रिया है। उस क्रिया में आस्रव बंध नहीं, मगर यह तो देखो कि ऐसी क्रिया करता हुआ कोई पुरुष इच्छा बिना कर रहा क्या? इच्छा से कर रहा। विकारभाव सहित कर रहा, इसलिये वहाँ बंध है। तो यह बहुत-बहुत अपने में निरखना चाहिये कि मैं अपने ज्ञानस्वरूप में प्रतिष्ठित रह पाता हूँ या नहीं।
1207- सहजस्वभावगुण की दृष्टि में लाभ-
भैया! गुण देखें तो सहज स्वभाव का देखें। पर्याय में इस समय गुणदृष्टि करके संतोष करने की आदत न बनावें। हाँ स्वभाव में, सहज स्वभाव में उस गुण को निरखकर, उस अविकार रूप को निरखकर संतोष करने की तो बात ठीक है, मगर पर्याय में थोड़े गुण प्रकट हो गए, साथ ही दोष भी लगे हैं। अब जो कुछ थोड़े से गुण प्रकट होते हैं उनको निरखकर संतोष करने की आदत रहेगी तो अहंकार और अटकाव ये सारे दोष वहाँ आ जाते हैं। वहाँ तो तुम अपने दोष निरखो पर्याय में, परिणति में। तुम्हारे में यह कमी है तो उससे उन दोषों को हटाने के लिये एक भावना तो बनेगी। उसका अंतर्व्यापार तो बनेगा। तो पर्याय को निरखें तो दोष निरखें अपने कि हमारे दोष रह गया, यहाँ दूर करें, और थोड़े बहुत गुण अगर दिखें पर्याय में होने वाली छद्मस्थ अवस्था में तो अहंकार बनेगा। देखो उसी बुनियाद पर ही तो प्रत्येक पुरुष अपने आपको सबसे अधिक ज्ञानी भीतर में मानता हुआ बैठा है। जिस पर्याय में जो गुणविकास हुआ है उस पर नजर है, उसका अपने में एक बड़ा अनुभव सा करता है, मैंने सब कुछ जाना, तो पर्याय में छोटे मोटे थोड़े होने वाले विकास से संतोष करने की बात ठीक नहीं। गुण देखना है तो उस परिपूर्ण स्वभाव को देखो, अविकार स्वरूप को देखो, उससे तो लाभ मिलेगा, स्वभावाश्रय से लाभ मिलेगा, और जो थोड़े बहुत गुण प्रकट हुए हैं उनका आश्रय करने से लाभ नहीं मिलता। अच्छा, तो क्या दोषों के आश्रय से लाभ मिलता है? दोषों के आश्रय से भी लाभ नहीं मिलता, मगर दोषों के निरखने से अहंकार न जगेगा और उनको दूर करने का मन में भाव होगा। अरे, दोषों को दूर करने का उपाय है स्वभावाश्रय । यदि स्वभावाश्रय की ओर बढ़ेगा तो अपशिष्ट दोष भी दूर होगा। अपने में जो छोटा गुण प्रकट हुआ है उसको निरखकर मैं गुणी हूँ, मेरे यह प्रकट हुआ है तो अहंकार बनेगा।
1208- दोषों को निरख निरखकर धुनने का कर्तव्य–
अहंकार में राग में चूँकि स्वभावाश्रय के लायक भूमिका न बन पायेगी इसलिए बताया है कि इन दोषों को निरख निरखकर ऐसा यत्न करना चाहिए, ऐसे दूर करना चाहिए जैसे रूई का धुनिया एक-एक पूनी को निरख निरखकर उसको छोटे-छोटे हिस्सों में, ताँतों में लाकर ऐसा धुनता है कि उसका जरा सा भी हिस्सा धुने बिना नहीं रहता। ऐसा आचार्यों ने दृष्टांत दिया है, उस तरह से अपने दोषों को निरख निरखकर धुनना चाहिए। थोड़ी बहुत जो रूई धुनी है उस पर धुनिया की अधिक निगाह नहीं पहुंचती, किंतु जो नहीं धुनी, एक ऐसा कोई हिस्सा देखता है तो उस पर झट उसकी निगाह पहुंचती है, क्योंकि उसको धुन कर वह साफ करता है। तो अपने में गुण देखें तो सहज गुण देखें। सहज स्वरूप दिखे जो प्रत्येक जीव में समान है। और भीतर में पर्याय की बात देखना हो तो विनाश करने के ध्येय से उन दोषों को निरखना चाहिए। वे तो दोष हैं, फल की चाह करके नहीं, कर्म की चाह करके नहीं। और लोग तो बस निष्काम कर्म में निष्काम के इस अर्थ पर बल देते हैं कि फल नहीं चाहते। कर्म में बल नहीं दिया कि कर्म भी न चाहिए। मगर मोक्षमार्ग में यह बताया गया है कि फल भी न चाहो और क्रिया भी न चाहो। और, ऐसी स्थिति में फिर क्रिया हो, उपभोग हो, तो वह है निष्काम कर्म । यहाँ तुम अपने में ज्ञानरूप ही बस करके रहो।
1209- फललिप्सा से ही कर्मफलप्राप्ति-
यहाँ कह रहे हैं कि कर्म कर्ता को जबरदस्ती फल से नहीं जोड़ देते, ये ही स्वयं फल चाहते हैं सो ये फल को प्राप्त करते हैं। जैसे फल चाहता हुआ कोई राजा की सेवा करे तो राजा उसे फल देता, फल न चाहे तो फिर राजा की सेवा ही क्यों की जाय? और, कोई ऐसी बात भी हो सकती किसी में कि फल भी न चाहे किंतु राजसंपर्क है तो फल की चाह और क्रिया करने की चाह ये बंधन में बाँधते हैं। तो अपने को किस रूप रहना? ज्ञानरूप रहना, सारी राग रचना को दूर करना है, ऐसा अपने आपको ढालना है। देखो प्रतिसमय परिणतियाँ होती रहती हैं, हो ही रही हैं, बस प्रयोग करने को परीक्षा करने को सब स्थितियाँ पड़ी हैं। उन परिणतियों में राग न होना, उन परिणतियों को जानना कि यह कर्मविपाकवश प्रतिफलन हो गया है, और यहाँ जीव में वैसा ज्ञान बना करके, परलक्ष्य करके मैं अपने आपको विभावी बना रहा हूँ, हो रहा है ऐसा, मगर मेरा स्वरूप तो एक सहज ज्ञानमात्र है। उसमें ही बसना यह ही उसका कौशल है। ज्ञानरूप रहे, समस्त राग रचनाओं को दूर करे तो कर्मों से बँधेगा नहीं। देखिये लाभ पाने के लिए हर एक स्थिति काम दे देगी।
1210- ज्ञानी की विभाव पर भावों से दो टूक वार्ता-
देखिये- मातायें अपने बच्चे को गोद में खिलाती हैं। तो गोद में खिलाते हुए ऐसा भी भाव बनता है कि वह मेरा बच्चा कितना सुहावना है। इसके कारण मेरा कितना महत्त्व है। मैं भरी पूरी हूँ...। यह भी ममता का भाव बनता है। और क्या ऐसा भाव नहीं बनाया जा सकता कि उस बच्चे को सामने रखकर यह सोचें कि यह जीव पुद्गल का पिंडरूप एक यह पर्याय है, इसके साथ इसके कर्मोदय के अनुसार इसकी सांसारिक व्यवस्था चल रही है, यह जीव भिन्न है। यह मेरा कुछ नहीं है। यह मैं स्वतंत्र सत् हूँ, इस तरह की तत्त्वभावना क्या बोली नहीं जा सकती है? लो उस प्रसंग में भी हमने अपने कल्याणरूप की बात पायी। अच्छा और भीतर देखो, परिणतियाँ निरंतर हो रहीं, मानो यह मेरी गोद में नित्य ठहरा हुआ है। ज्ञानी जीव इन परिणतियों को निरखकर ऐसा चिंतन रखता है कि वाह इससे मेरा बड़ा महत्त्व है, यह ही तो मैं हूँ। एकमेक होकर सोच रहा। वहाँ परिणति के सामने देखे और सोचे, इतना भी भेद नहीं, किंतु एक परिणति में तन्मय होकर उस रूप अनुभव कर रहा है कि बस यह ही मैं महान हूँ, खास हूँ, सुखी हूँ, यों अनेक कल्पनायें बनाता है। तो ज्ञानी उन परिणतियों को सामने निरखकर क्योंकि उसने स्वभाव और वैभाविक प्रज्ञा के बल से भेद किया है तो अब वह विभावपरिणतियों से याने दूसरों से बात कर रहा है इस तरह से चिंतन कर सकता । अज्ञानी यों चिंतन नहीं कर सकता उन पर्यायों के प्रति, शरीरादिक के प्रति कि जैसे मानो यह दूसरा है और हम बात करें यों भेद नहीं कर पाता। वह तो एक रूप होकर ही व्यवहार करता है, पर ज्ञानी जीव उसे दूसरा कायम करके बात करता है। यह परिणति, यह परभाव जो मेरे स्वरूप में नहीं बसा, यह निबद्ध हुआ। मेरी बरबादी के लिए आया परभाव है। इससे मेरा क्या नाता? यह मेरा स्वरूप नहीं, मैं इस रूप न बहूँगा। मैं तो अपने स्वभावरूप रहूँगा। ज्ञानी इसी तरह का चिंतन करता।
1211- कर्मफल परित्यागशील आत्मानंदानुभवी के कर्मफल-लिप्सा की असंभवता-
ज्ञानरूप हो रहा है ज्ञानी। उसने रागरचना को दूर कर दिया है। हो रहा है कुछ राग कहीं, मगर प्रतीति में उसके राग रचना नहीं है। ऐसा पुरुष कर्म से नहीं बंधता कर्म को करता हुआ भी कर्म को कर नहीं रहा है। यह लौकिक भाषा में कहा जा रहा है। कर्म को करे और बँधे नहीं, यह बात न होगी, मगर लौकिक भाषा में समझाया जा रहा है, लौकिकजनों की ही तो बात समझना है कि यह ज्ञानी कर्म को करता हुआ भी कर्म से नहीं बँधता। क्यों नहीं बँधता? तत्फलपरित्यागैकशीलो मुनि:। यह मुनि, यह संत, यह ज्ञानी कर्मफल के परित्याग का स्वभाव रख रहा है याने स्वभावत: निसर्गत: कर्मफल की बात इसमें आती नहीं, जुड़ती नहीं, उसकी ओर चाह नहीं, जिसने अपने सहज चैतन्यस्वरूप का अनुभव करके आनंद पाया, ऐसे अनुपम आनंद का अनुभव कर चुकने वाले ज्ञानी के इन बाहरी सांसारिक फलों की क्या चाह हो सकती है? क्योंकि ज्ञानी पूरी तरह से पोल समझ चुका सांसारिक सुखों की और अपने आपमें जो एक सहज चैतन्यस्वरूप है उस रूप अपने आपको मानने का अनुभव कर चुका है। ऐसी परिस्थिति में जो अनुपम आनंद जगा है वह उस ही आनंद के इच्छुक है, वह कर्मफल न चाहेगा। कर्मफल मायने सुख दु:ख, कर्मफल चेष्टायें इनकी ओर से वह विरक्त रहता है, और अपने आपके स्वभाव की ओर उन्मुख रहता है। स्वभाव सहज भाव चिंतन करते-करते ध्यान में आयगा।
1212- सहज आत्मस्वभाव में आत्मत्व मानने का फल-
सहज भाव क्या कहलाता? अपने आप निरपेक्ष स्वयं ही होने वाली जो बात है स्वरूप सत्त्व उसमें यह अनुभव करना कि यह मैं हूँ बहुत सीधी सुगम बात लोग अनुभव करते ना इस शरीर में कि मैं फलाने चंद हूँ, फलाने लाल हूँ, फलाने प्रसाद हूँ, मैं अमुक व्यापारी हूँ, अमुक का पति हूँ, अमुक की पत्नी हूँ, अमुक का भाई हूँ, मैं इतने कुटुंब वाला हूँ, मैं ऐसे रोजगार वाला हूँ, कारखाने वाला हूँ...यों कितने ही प्रकार से मैं का अनुभव चल रहा है। बस उस मैं की ही बात कही जा रही है कि इस तरह से उस मैं का अनुभव न चले और ऐसी प्रतीति चले कि मैं तो एक सहज चित्प्रकाश मात्र हूँ। जैसा स्वरूप सबका वही मैं हूँ। देखिये इस विचार में कितने ही ऐब दूर हो जाते हैं। जैसे सब वैसा मैं। निरखते जावो उस चित्प्रकाश रूप अपने आपका श्रद्धान बन जाय कि मैं तो हूँ यह। बस उसका बेड़ा पार है। वह संसार से नियम से छूटेगा। उसके सारे जन्म मरण के संकट दूर होंगे। अब वह अधिक समय तक संसार में न रहेगा जिसने अपने आपके सही सत्य सहज स्वरूप को यह अनुभव कर लिया कि मैं तो यह हूँ, बस उसकी ये सारी बातें अपने आप आती हैं कि वह कर्मफल को रंच भी न चाहेगा और उसका फिर संसार में बंधन नहीं।