वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1232
From जैनकोष
विधाय वंचकं शास्त्रं मार्गमुद्दिश्य निर्दयम्।
प्रपात्य व्यसने लोकं भोक्ष्येऽहं वांछितं सुखम्।।1232।।
जो पुरुष इस जगत में ठगिया शास्त्रों को बनाकर निर्दय मार्ग का उपदेश करके, लोगों को आपत्ति में डालकर चाहते हैं कि मैं वांछित सुख भोगूँ यह मृषानंद नाम का रौद्रध्यान है। जैसे किसी समय ऐसे शास्त्र गढ़े गये कि यज्ञ में पशुवों के होमने से पशुवों को भी स्वर्ग मिलता है और यज्ञ करने वालों को भी। चर्चा करते-करते में पक्ष पड़ गया। वह पक्ष इतना कठिन बन गया कि जो शास्त्र रचने में उनको उतारू होना पड़ा। कितना बुरा हुआ, कितना अनर्थ हुआ, कितने ही प्राणियों को विपत्ति में डाला। वह शास्त्र रचने वाला पुरुष चाहे दो चार पुरुषों को अपने हाथ से मार डालता तो दो चार ही तो मरते, पर ऐसे खोटे शास्त्र रचे जिनमें पशुवों की बलि का उपदेश दिया गया। अब उनके इस कुशास्त्र की रचना से कितने जीवों का अनर्थ हुआ? हजारों कह लो, लाखों भी कह लो। तो यह सब मृषानंद रौद्रध्यान है। ऐसा करने वाले किस गति में गए होंगे? क्या उनका भवतव्य होगा। सीधी सी बात है कि यदि अपनी भलाई करना है तो सरल बनें और शुद्ध तत्त्वज्ञान उत्पन्न करें, धर्मलाभ लें और चूँकि गृहस्थ हैं तो न्यायपूर्वक सच्चाई सहित अपनी आजीविका बनाये रहें। करना तो यों है और खोटे भाव बनाना, दूसरे जीवों का अनर्थ सोचना― ये सब तो इस जीव को भयंकर दुगर्ति के देने वाले परिणाम हैं।