वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2088
From जैनकोष
निष्कल: परमात्माहं लोकालोकावभासक: ।
विश्वव्यापी स्वभावस्थो बिकारपरिवर्जित: ।।2088।।
निष्कल आत्मा में देहात्मबुद्धि होने का दुष्परिणाम―रूपातीत ध्यान का यह एक अंतिम प्रसंग है । इसमें उपसंहार रूप में ध्यान की बात फिर बतायी है । ऐसा चिंतन होता है कि मैं निष्कल हूँ, शरीररहित हूँ, शरीर से परे हूँ । शरीर से परे का उपयोग लगायें तो अब भी विदित होने लगेगा कि मैं शरीर से परे शरीर से विलक्षण स्वरूप वाला हूँ । इस शरीर में जो रात दिन का संस्कार बसा है, यह मैं हूँ, इस वासना को हम क्षणभर भी नहीं छोड़ना चाहते हैं । प्रशंसा में, निंदा में, व्यवहार में, पोजीशन में, सब स्थितियों में इस शरीर को शरीर के नाते ही सब मान रहे हैं । शरीर को ही ‘यह मैं हूं’ इस प्रकार अनुभव रहे हैं तो यह कितनी बड़ी भारी विपदा है? जो विपदा संसार के सभी संकटों का मूल कारण है । तो घबड़ाकर और संकटों को मिटाने के लिए तो बाहर में बड़ी हठ करते हैं और जो उपाय सूझता है सो बनाते हैं, पर सब संकटो से भी महान संकट जो यह लगा है कि हम आप यह वासना बनाये बैठे हैं कि यह वासना बनाये बैठे हैं कि यह शरीर ही में हूँ । कहने सुनने में तो लगता है कि क्या है, जरासी बात है, किंतु यह बात इतनी बड़ी है कि जिसके कारण चौरासी लाख योनियों में, चतुर्गतियों में, नाना शरीरों में भटकना पड़ रहा है, जन्म लेना पड़ रहा है । बात इतनी जानना है कि इस देह से रहित यह मैं आत्मा हूँ, ऐसा जानना अनुभव करना, यह कितनी बड़ी विपदा है? सारी विपदाओं का यही कारण है । भला, निगोद जैसी स्थितियों में रहना पड़े, जीव को स्वरूपत: और विकास की ओर से देखो तो कितना बड़ा अंतर हो गया? कहाँ क्या रहा? कितने प्रकार के संकटों को सहने वाले पशु पक्षी कीड़े मकोड़े नजर आ रहे हैं । यह सब किसका परिणाम है? देह को माना कि यह मैं हूँ, बस इतनीसी मान्यता का यह सारा परिणाम है । जैसे― विष की एक बूंद सारे भोजन को विषैला बना देनी है, इसी प्रकार शरीर को ही 'यह मैं हूं' इतनी मान्यता ही सारे संकटों का कारण बन जाती है । उसका फल यह संसार का सारा संकट है । धन वैभव, कुटुंब, इज्जत प्रतिष्ठा―इनकी उत्सुकता इस शरीर में आत्मबुद्धि रखने के ही कारण है । यदि इन सबसे भिन्न अपने आपको निरख स के तो फिर चिंता किस बात की होगी?
निष्कलता के अनुभव से सकल संकटों का अभाव―अनुभव करिये कि मैं शरीररहित हूँ । यह बात छोटी नहीं, बड़ी बात है । ऐसा ज्ञान बनेगा, अनुभव बनेगा तो इस ही उपाय से आप शरीररहित बन जायेंगे, विशुद्ध आत्मा बन जायेंगे, पर मूल में यह यत्न करने का है और सब कल्याणों की यह जड़ है । समस्त ऋद्धियां सिद्धियां एक इसी अनुभव पर निर्भर हैं―मैं शरीर से रहित केवल ज्ञानमात्र हूँ । इन आंखों से भी बाहर में निरखना बंद कर लीजिए । इस निरखने में जो कुछ नजर आता है वह दिल को उचाटने का ही कारण होता है । कुछ क्षोभ और और विकल्पों का ही उत्पादक होगा । समस्त इंद्रियों का व्यापार रोककर निरखिये निज में शरीर में है यह, पर कुछ ऐसी उपयोग की विधि है कि उपयोग में शरीर का भान ही नहीं रहता अत्यंत निर्भार केवल ज्ञानमात्र रह जाता है । ऐसा अनुभव आने दीजिए । यह ज्ञानमात्र का अनुभव सारे संकट दूर कर देता है । यहाँ न जाने किन-किन को देखकर अपना संपर्क बनाया अपने विकल्पों का विस्तार बनाया, पर उससे क्लेश ही मिला―एक इस ज्ञानमात्र निज तत्व का अनुभव हो तो सभी संकट दूर हो जायें ।
आत्मरक्षा की धुनी में अंतर्व्यवहार―यह आत्मरक्षा के वास्तविक प्रसंग में बात कही जा रही है । इस चिंतन के प्रसाद से सारे संकट दूर होते हैं । आजकल के संकट देखो―देश विदेश में शत्रुतायें चल रही हैं, एक देश दूसरे देश को हड़प जाना चाहता है । जो जिस देश में उत्पन्न हो गया उसे यह अपना समझ लेता है, उसी के पक्ष में रहता है, अन्य का विरोधी हो जाता है । यह एक कितनी अज्ञानता भरी बात है? जरा सोचो तो सही कि जैसा मेरा स्वरूप है वैसा ही सर्व जीवो का स्वरूप है । जैसा स्वरूप इस देश के वासियों का है, वैसा ही स्वरूप अन्य देशवासियों का भी है, फिर उनसे द्वेष किस बात का करना? उनके प्रति अनेक प्रकार के विकल्प बनाकर, उनसे द्वेष भावना रखकर अनेक प्रकार के संकटों का अनुभव किया करते हैं । पर उन सबका विकल्प छोड़कर एक इस निज आत्मतत्त्व का अनुभव किया जाय तो इसी अनुभव के प्रसाद से सारे संकट दूर हो जाते हैं ।
भगवती का प्रसाद―जोशी लोग कहा करते हैं अपने भक्तों को कि तेरी भगवती फतेह करे । जरा बतावो तो सही कि वह भगवती कौन सी है? वह भगवती है प्रज्ञा भगवती, यह ज्ञानानुभूति । इसके प्रसाद से हमारी पूर्ण विजय होती है । सारे संकट टल जाते हैं । लोग तो ऐसा कहते हैं कि वह भगवती भगवान के अर्द्धांग में रहती है । भगवती और भगवान का रूपक भी यहाँ दिखाते हैं । इस शरीर के ऊपर से नीचे तक एक ओर का आधा अंग तो भगवान का रूपक बनाकर दिखाते हैं और आधा अंग भगवती का बनाकर दिखाते हैं । इस अलंकार की बात को कही तो, पर उसमें भी थोड़ा डरकर कहा । अरे जरा अंतर्दृष्टि कर के देखो तो भगवान का सारा ही रूप भगवतीरूप है और सारा ही भगवतीरूप भगवान का रूप है । उसमें अर्द्धांग का विभाग नहीं है । जो भगवान की परिणति है उसे भगवती कहते हैं । तो उस ज्ञानानुभूति भगवती के प्रसाद से सारे संकट दूर होते हैं । ज्ञानी चिंतन कर रहा है कि मैं निष्कल हूँ, परमात्मा हूँ, लोकालोक का अवभासन करने वाला हूँ । समस्त जगत इस ज्ञान में ज्ञेय होता है । मैं समस्त विश्व में व्यापक हूँ, स्वभाव में स्थित हूँ, विकारों से रहित हूं―इस प्रकार यह ज्ञानी ध्यानी रूपातीत ध्यान के प्रसंग में अपना चिंतन कर रहा है । अब इस प्रकरण में एक ऐसे परमात्मा को भजो इस अनुरोधरूप अंतिम छंद कहा जा रहा है ।