वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2089
From जैनकोष
इति विगतविकल्पं क्षीणरागादिदोषं,
विदितसकलवेद्यं व्यक्त विश्वप्रपंचम् ।
शिवमजमनवद्यं विश्वलोकैकनाथं,
परमपुरुषमुच्चैर्भावशुद्धया भजस्व ।।2089।।
रूपातीत तत्त्व के ध्यान का अनुरोधपूर्वक प्रकरण का उपसंहार―समस्त विकल्पों से दूर निर्विकल्प ज्ञानमात्र, जिसके रागादिक दोष समस्त क्षीण हो गए हैं, विकारों से अतीत हैं, सकल वेद्य विदित हो गए हैं, कोई सत् जानने को छूटा नहीं है । समस्त विश्व के प्रपंचों को जिसने छोड़ दिया है, केवल एक ज्ञानलीला ही जिनके रही है, सर्व रागद्वेषादिक की लीलायें जिनकी समाप्त हो गई हैं, ऐसे शिव अज निर्दोष समस्त विश्व के एक नेता ऐसे उत्कृष्ट आत्मा को हे भव्य जन ! भावशुद्धि से ध्यावो, सेवो । उनके गुणसमूह में ऐसा ध्यान लगावो कि 'वह मैं हूं' इस प्रकार का पहिले योग चले और स्वरूपमात्र का चिंतन रहकर एक ज्ञानानुभव बने, इस प्रकार से उस परमात्मतत्त्व को भजो । इस रूपातीत ध्यान में पहिले सिद्धप्रभु का ध्यान किया, जहाँ दासोहं जैसी स्थिति है, फिर उस विकास से अपनी शक्ति समता लाकर सोहं जैसी स्थिति बनाई गई है । इसके बाद जब स्वरूपमात्र ध्यान में रहा तो वहाँ केवल हं अनुभव में आया । ज्ञानमात्र निज तत्त्व अनुभव में रहता है । यह तत्त्व रूप से अतीत है, शरीर मुद्रा आकार इन सबसे परे हैं, इससे इस परमज्योति ज्ञानस्वरूप तत्त्व को रूपातीत कहा है । इस तरह धर्मध्यान के प्रसंग में यह ध्यानी आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय आदिक में कम से बढ़-बढ़कर समस्त विधियों से चलकर अंत में रूपातीत ध्यानं में जो धर्मध्यान को ध्याया था उसको समाप्त करते हैं । इसके बाद अब धर्मध्यान का फल बताकर शुक्लध्यान का वर्णन करेंगे ।
।। ज्ञानार्णव प्रवचन विंश भाग समाप्त ।।