पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 85 - समय-व्याख्या: Difference between revisions
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Latest revision as of 13:26, 30 June 2023
जह हवदि धम्मदव्वं तह जाणेह दव्वमधमक्खं । (85)
ठिदिकिरियाजुत्ताणं कारणभूदं तु पुढवीव ॥93॥
अर्थ:
जैसे धर्म द्रव्य है, उसीप्रकार अधर्म नामक द्रव्य भी जानो; परन्तु वह स्थिति-क्रिया-युक्त को पृथ्वी के समान कारणभूत है।
समय-व्याख्या:
अधर्मस्वरूपाख्यानमेतत् ।
यथा धर्मः प्रज्ञापितस्तथाधर्मोऽपि प्रज्ञापनीयः । अयं तु विशेषः । सगतिक्रियायुक्तानामुदकवत्कारणभूतः, एषः पुनः स्थितिक्रियायुक्तानां पृथिवीवत्कारणभूतः । यथा पृथिवी स्वयं पूर्वमेव तिष्ठन्ती परमस्थापयन्ती च स्वयमेव तिष्ठतामश्वादीनामुदासीना-विनाभूतसहायकारणमात्रत्वेन स्थितिमनुगृह्णाति, तथाऽधर्मोऽपि स्वयं पूर्वमेव तिष्ठन् परमस्थापयंश्च स्वयमेव तिष्ठतां जीवपुद्गलानामुदासीनाविनाभूतसहायकारणमात्रत्वेन स्थितिमनुगृह्णातीति ॥८५॥
समय-व्याख्या हिंदी :
यह, अधर्म के स्वरूप का कथन है ।
जिस प्रकार धर्म का प्रज्ञापन किया गया, उसी प्रकार अधर्म का भी प्रज्ञापन करने योग्य है । परन्तु यह (निम्नोक्तानुसार) अन्तर है : वह (धर्मास्तिकाय) गति-क्रिया-युक्त को पानी की भाँति कारण-भूत है और यह (अधर्मास्तिकाय) स्थिति-क्रिया-युक्त को पृथ्वी की भाँति कारण-भूत है । जिस प्रकार पृथ्वी स्वयं पहले से ही स्थिति-रूप (स्थिर) वर्तती हुई तथा पर को स्थिति (स्थिरता) नहीं कराती हुई, स्वयमेव स्थिति रूप से परिणमित होते हुए अश्वादिक को उदासीन अविनाभावी सहाय-रूप कारण-मात्र के रूप में स्थिति में अनुग्रह करती है, उसी प्रकार अधर्म (अधर्मास्तिकाय) भी स्वयं पहले से ही स्थिति रूप से वर्तता हुआ और पर को स्थिति नहीं कराता हुआ, स्वयमेव स्थिति रूप परिणमित हुए जीव-पुद्गलों को उदासीन अविनाभावी सहाय-रूप कारण-मात्र के रूप में स्थिति में अनुग्रह करता है ॥८६॥