हे नर, भ्रमनींद क्यों न छांडत दुखदाई: Difference between revisions
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Latest revision as of 07:04, 16 February 2008
हे नर, भ्रमनींद क्यों न छांडत दुखदाई ।
सेवत चिरकाल सोंज, आपनी ठगाई ।।हे नर. ।।
मूरख अघ कर्म कहा, भेदै नहिं मर्म लहा ।
लागै दुखज्वालकी न, देहकै तताई।।१ ।।हे नर. ।।
जमके रव बाजते, सुभैरव अति गाजते ।
अनेक प्रान त्यागते, सुनै कहा न भाई।।२ ।।हे नर. ।।
पर को अपनाय आप-रूपको भुलाय हाय ।
करन विषय दारु जार, चाहदौं बढ़ाई।।३ ।।हे नर. ।।
अब सुन जिनवान, राग-द्वेषको जघान ।
मोक्षरूप निज पिछान `दौल', भज विरागताई।।४ ।।हे नर. ।।