युक्त्यनुशासन - गाथा 41: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(No difference)
|
Revision as of 11:56, 17 May 2021
यदेवकारोपहितां पदं तद᳭ अस्वार्थत: स्वार्थमवच्छिनत्ति ।
पर्यायसामान्यविशेष सर्वंपदार्थ हानिश्च विरोधिवत्यस्यात् ।।41।।
(143) एवकारोपहित पद की अस्वार्थव्यवच्छेदकता―यहाँ प्रकरण यह चल रहा है कि वर्णसमूहरूप पद सामान्यविशेषात्मक पदार्थ को कभी सामान्य की प्रधानता से प्रकाशित करता है, कभी विशेष की प्रधानता से प्रकाशित करता है, तो उस ही पद के बारे में कुछ प्रकाश इस छंद में डाला गया है । जो पद एवकार से सहित है अर्थात् जिसके साथ एव लगा है, निश्चय पड़ा है, जैसे जीवएव अर्थात् जीव ही, एव का अर्थ है ‘ही’ । पद के साथ ‘ही’ लगा हुआ है तो वह अन्य अर्थ से हटाकर खुद के अर्थ में ले जाता है । जैसे जब कहा कि जीव ही तो मायने अजीव नहीं, किंतु जीव ‘ही’ याने ‘ही’ शब्द अस्व अर्थ का व्यवच्छेदक है याने उस पद का
जो अर्थ नहीं हैं उन अर्थों को दूर करता है । तो जैसे मोटे रूप में कोई पद अपने वाच्य अर्थ को ही ग्रहण करता, अन्य अर्थ को ग्रहण नहीं करता, इसी प्रकार सुख, ज्ञान, आदिक अपनी पर्यायों को इन सभी को अलग करता है याने शब्द में जो अर्थ भरा है सिर्फ उसी विशेष को वह ग्रहण करता है और उसके अतिरिक्त अन्य सब विशेषों का निराकरण करता है, ऐसा शब्द में स्वभाव पड़ा है । यदि ऐसा शब्द-स्वभाव न माना जाये तो एक ही पद से दुनियां को समस्त पदार्थों का बोध हो जाना चाहिए, फिर अलग-अलग बताकर क्यों किया जाता? जैसे कि मैं सुखी हूँ, दुःखी हूँ, चेतन हूँ, अचेतन हूँ; ये इतने पद क्यों बताये गए? इतने पद यों बताये गए कि यह पद केवल अपने स्वार्थ को ही ग्रहण करता, अन्य अर्थ को ग्रहण नहीं करता ।
(144) वस्तु के सामान्यविशेषात्मकत्व की व पद से सामान्यविशेषात्मक अर्थ के विशेषांतर की सिद्धि―प्रकरण यह चल रहा है कि वस्तु सामान्यविशेषात्मक है । वहाँ सामान्य में विशेष निष्ठ है । विशेष में सामान्य निष्ठ है यह नहीं कहा जा सकता, क्योंकि अगर विशेष में सामान्य निष्ठ हो तो विशेष का अभाव होने पर सामान्य का अभाव हो जायेगा और इससे फिर उन स्वभावी पर्यायों का भी अभाव हो जायेगा, शक्तियों का भी अभाव हो जायेगा याने जीव शब्द से कुछ अभिधेय नहीं बना, क्योंकि जीव पदार्थ की भी हानि हो गई, इससे विशेष सामान्य में निष्ठ होता है यह कहना भला है । अब यहाँ शंकाकार कहता है कि जैसे जीवशब्द बोला, उसमें ‘ही’ लगाकर भी बोल लीजिए तो जीव ‘ही’ ऐसा शब्द बोलने पर जीव का जो प्रतियोग (विरोधी) अजीव है उसका तो व्यवच्छेद हो जायेगा, मगर जीव में ही रहने वाली जो पर्याय है, सामान्य विशेष तत्त्व है वह तो जीव की अप्रतियोगी याने जीव पदार्थ में विरोध नहीं है उनका व्यवच्छेद कैसे हो जायेगा? हां, वह पदार्थ, वह पर्याय गुण अविविक्षित है ꠰
(145) शंकाकार की सामान्यविशेषात्मक अर्थ के विशेषांतर की सिद्धिरूप में शंका का समाधान―समाधान करते हैं कि यदि शंकाकार दोनों के भाव में आ गया तो यह उचित ही है, इससे तो स्याद्वाद का अनुसरण होता है और एकांत मत की हानि होती है । निष्कर्ष यह है कि पदार्थ सामान्यविशेषात्मक है, और जब कोई वर्ण समानरूप पद बोला जाता है तो द्रव्य गुण कर्म सामान्यविशेष इन सबमें से किसी एक का प्रधान रूप से अर्थ आता है और दूसरे की उससे स्वीकृति बनी रहती है, क्योंकि पदार्थ सामान्यविशेषात्मक ही होता है, इसलिए उसमें से एक का ही बोध हो और अन्य सब विशेषों की असिद्धि हो तो वह अवस्तु ठहरेगी, ऐसा कोई सत् होता ही नहीं है । तो इससे पद सामान्यविशेष पद का ही बोधक होता है ।