नियमसार - गाथा 165: Difference between revisions
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अप्पा अप्पपयासो णिच्छयणयएण दंसणं तम्हा।।165।।
निश्चयनय से स्वप्रकाशकता का समर्थन—इस गाथा में निश्चयनय से आत्मा में, ज्ञान में व दर्शन में स्वप्रकाशकता के स्वरूप का समर्थन किया है। निश्चयनय से ज्ञान स्वपरप्रकाशक है और इस ही प्रकार दर्शन भी स्वपरप्रकाशक है और निश्चयनय से आत्मा स्वपरप्रकाशक है। यों ज्ञान, दर्शन और आत्मा ये सब निश्चयनय से अपना ही प्रकाश करते हैं। शुद्ध ज्ञान का लक्षण स्वप्रकाशकपना है। ज्ञान में ज्ञान के कारण ज्ञेयाकार परिणमन होने पर भी ज्ञान ने उस निज ज्ञेयाकार को ही प्रकाशित किया है पर ज्ञेयाकार को ज्ञान ने नहीं प्रकाशित किया है। इस ही प्रकार सर्व आवरणों से मुक्त शुद्ध दर्शन में भी स्व का प्रकाश हुआ है, पर प्रकाश नहीं किया गया है निश्चयनय से। ज्ञान व दर्शन में प्रधान प्रकाश—यहाँ अपने आपके समझने के लिए अपने चर्चा-क्षेत्र के अंदर ही यह बात जानें, यहाँ ज्ञान की परप्रकाशकता जल्दी समझ में आ जाती है और दर्शन के व्यवहारनय की परप्रकाशकता विलंब से समझ में आती है और दर्शन की स्वप्रकाशकता शीघ्र समझ में आती है और ज्ञान की स्वप्रकाशकता विलंब से समझ में आती है। कारण यह है कि ज्ञान होता है बहिर्मुख चित्प्रकाश और दर्शन होता है अंतर्मुख चित्प्रकाश। ज्ञान का अर्थ जानन है, यह तो बात सुविदित है। दर्शन का काम सामान्यप्रतिभास है, यह लोगों को कुछ कम विदित रहता है। हम जो कुछ समझ पाते हैं, जिस समझ में यह ग्रहण हुआ है कि यह है कुछ, वह तो है ज्ञान, उससे भी पहिले जो सामान्यप्रतिभास है जिसके बारे में हम कुछ भी निर्देश नहीं कर सकते हैं वह है दर्शन। ज्ञान के मूलनिकट में दर्शन—हमने आँखों देखा और यह जाना कि यह बहुत बढ़िया हरा रंग है, यह क्या हुआ? ज्ञान या दर्शन? ज्ञान। हमने इतना ही जाना कि यह हरा रंग है यह भी ज्ञान हुआ और हरे रंग को जाना, पर हरा है यों कुछ समझा ही नहीं है रूप के बारे में, सो कुछ यहाँ न सोच सके कि यह हरा है किंतु, उसे ग्रहण में ले लिया कि यह है, यह भी हुआ ज्ञान। अब इससे और भीतर में नीचे में जो प्रतिभास है वह है दर्शन। दर्शन को नाम लेकर नहीं बता सकते कि दर्शन में क्या जाना? दर्शन सामान्यप्रतिभासस्वरूप है। नाम लेकर तो सामान्य कहलायेगा या विशेष? जहाँ नाम लिया वही विशेष बन जाता है, सामान्य निर्नाम होता है। उसकी संज्ञा हम नहीं रख सकते हैं। लौकिक और आध्यात्मिक सामान्य-विशेष—लोकरूढ़ि से सामान्य तो हमारे लिए व्यवहार के हैं। ये वास्तविक सामान्य नहीं हैं, विशेष हैं। जैसे सब लोग बैठे हैं और कह दिया जैन समाज, तो लोग तो कहते हैं कि सामान्य बात कह रहे हैं, किसी व्यक्ति का नाम तो नहीं लिया। तो व्यक्ति के मुकाबले में जैनसमाज कहना सामान्य है, पर जनसमाज इस शब्द के मुकाबले में जैनसमाज विशेष हो गया। और कह दिया कि जीव समाज, जिसमें सभी जीव आ जायें तो जीवसमाज के सामने समस्त जनसमाज भी विशेष हो गया। और कहा पदार्थसमूह, इसके सामने यह जीवसमाज भी विशेष हो गया। जहाँ तक भी हमारे ग्रहण में आकार है, सकल है तहाँ तक है विशेष। सामान्य तो निर्विशेष होता है। देखो, दुनिया में आदर विशेष का हुआ करता है, सामान्य का नहीं, किंतु कल्याण मार्ग में, शांतिमार्ग में, अध्यात्मक्षेत्र में सामान्य की कदर है, विशेष की नहीं। विशेष को पकड़कर रहने में शांति नहीं, आनंद नहीं, मोक्षमार्ग नहीं। जितना सामान्य की ओर लगाव है उतने ही हम उन्नति में हैं। आत्मपरिचय के लिये आत्मविश्राम की आवश्यकता—यह ज्ञान निश्चयनय से स्व का ही प्रकाश कर रहा है और यह दर्शन भी स्व का ही प्रकाश कर रहा है। यह आत्मा भी चूँकि निश्चय से समस्त इंद्रिय के व्यापार से रहित है, भीतर गुनगुनाहट, विकल्परूप भाव-व्यापारों से भी रहित है इस कारण अपने प्रकाश के लक्षण से ही लक्षित होता है। मैं आत्मा क्या हूँ, इसकी जानकारी आँखें फाड़कर देखने से नहीं हो सकती है। जरा अमुक पुरुष के आत्मा का निरीक्षण तो करो, आँखें फाड़कर आत्मा का निरीक्षण न हो जायेगा। किसी भी इंद्रिय से हम व्यापार करके हम आत्मा को नहीं पहिचान सकते हैं। यह इंद्रियव्यापार, यह इंद्रियज्ञान, यह इंद्रियसुख, ये सब तो मुझे बहकाने के प्रलोभन हैं। हे आत्मन् ! तू इस प्रलोभन में न बहका रह, नहीं तो तू अपनी निधि का अधिकारी नहीं बन सकता। ज्ञानी की स्वनिधिरुचि पर एक दृष्टांत—किसी सेठ के एक नाबालिग बच्चा हो और वह सेठ गुजर जाय तो सरकार उसकी जायदाद को अपने कोर्ट में ले लेती है और उसकी एवज में मानो 500 रु. मासिक खर्च को दे देती है। वह बालक 15, 16 वर्ष का हो जाय, उसे हर महीने 500 रु. मिल जाते हैं तो वह उसमें मग्न रहता है, सरकार के गुण गाता है, देखो सरकार घर बैठे हमें 500 रुपये माहवार भेजती है। अभी उसे यह पता नहीं है कि 20 लाख की जायदाद कोर्ट आफ बोर्ड अधीन के है। जब 18 वर्ष का हो गया तब उसे ज्ञान हुआ कि मेरी 20 लाख की निधि तो सरकार के अधीन है, अब वह 500) रुपये महीना लेना स्वीकार नहीं करता। सरकार को नोटिस दे देता है कि मैं अब बालिग हो गया हूँ, मुझे 500) रुपये माहवार न चाहिए। मेरी 20 लाख की जायदाद मुझे दी जाय। उसकी निधि उसे मिल जाती है। ज्ञानी की स्वनिधिरुचि—यों ही ये संसारी आत्माएँ नाबालिग हैं। अनादिकाल से नाबालिग चले आये अभी भी बालिग नहीं हुए। इनका बालिग होना समय पर निर्भर नहीं है कि कितना समय बीत जाय तो हम आप बालिग बन जायें। हम आपका बालिग बनना सम्यक्त्व पर निर्भर है। जिस दिन सम्यक्त्व हो जाय, समझो कि हम बालिग हो गए हैं। इन नाबालिग संसारी प्राणियों की निधि तो मानो पुण्य-सरकार ने हर ली है और इस अनंतज्ञान, अनंत आनंद की निधि को हर करके इन इंद्रियजंय ज्ञान और सुख में रम रहे हैं। जब वस्तुस्वरूप का सच्चा ज्ञान हो जाता है तो वह विवेकी इस पुण्य—सरकार को नोटिस दे देता है कि मुझे न चाहिए ये इंद्रियजंय सुख और इंद्रियजंय ज्ञान। यह इंद्रियजंय सुखों को भोगने को भी मना कर देता है और इंद्रियजंय ज्ञान के व्यापार को भी मना कर देता है। जब इसे अपने आपका बल मिलता है वहाँ पुण्य-सरकार विलीन हो जाती है। इसे आत्मीय आनंद की निधि मिल जाती है। आत्मा की स्वरूपप्रत्यक्षता—निश्चय से देखिये, दर्शन भी बाह्य पदार्थों से विमुख है, इस कारण वह भी स्व का ही प्रकाशक है। यों स्वरूप-प्रत्यक्षलक्षण से यह आत्मा निरखा जाता है। परिणमन-प्रत्यक्ष और स्वरूप-प्रत्यक्ष, दो तरह प्रत्यक्षपना परखें। परिणमन-प्रत्यक्ष तो अवधिज्ञान, मन:पर्यायज्ञान और केवलज्ञान में होता है, किंतु स्वरूपप्रत्यक्ष सम्यग्दृष्टि के हो जाता है। जैसे लोग कहते हैं ‘जल में मीन पियासी, मोहि सुन-सुन आवे हाँसी।’ यों ही यह देखिये कि ज्ञानस्वरूप ही तो यह मैं हूँ, फिर भी अपने ज्ञान को नहीं जान पाता, यह हँसी की ही तो बात है। खेद की बात है यह खुद की ही बात है, अन्य की नहीं। मैं अखंड हूँ और सहज ज्ञान-दर्शन-स्वरूप हूँ। सब कुछ जानता हुआ भी अथवा कुछ भी जानता हुआ भी अपने स्वरूप में अपने मूल में समस्त द्रव्यगुणपर्यायों के विकल्प से पृथक् हूँ। यह अपने सहज स्वरूप की चर्चा चल रही है। मैं तो जो हूँ सो हूँ। शुद्ध आत्मत्व का स्वरूप—समयसार में जहाँ शुद्ध आत्मा का लक्षण पूछा गया है, वहाँ यह उत्तर हुआ है कि यह आत्मा न तो कषायसहित है और न कषायरहित है, किंतु एक ज्ञायकस्वरूप है। उसमें भी अमुक का जानने वाला है, इस ढंग से न निरखना, किंतु शुद्ध ज्ञानप्रकाशमात्र है यों देखना। यह नाथ तो जो है सो ही है। इसे किसी भी विशेषण के नाम से नहीं बता सकते हैं। आत्मा कषायसहित नहीं है, कुछ धर्मध्यान बनाने पर यह बात समझ में आती है कि जीव में कषाय का स्वभाव नहीं है, कर्मोदय का निमित्त पाकर ही कषाय हुआ है सो जीव कषायसहित नहीं है। जीव कषायरहित भी नहीं है यह बात मुश्किल से समझ में आती है। आत्मा कषायरहित भी नहीं है तो फिर तीसरी बात क्या? तीसरी बात जो है सो है। न जीव कषायसहित है और न कषायरहित है, फिर जो है सो है। निरपेक्ष स्वरूप की दृष्टि का एक दृष्टांत—अभी यहाँ कुछ विकल्प उठा सकते हैं कि ये तो बातें ही हो रही है, जैसा चाहे मोड दो, जैसा चाहे बोल दो। अच्छा हमें आप यही बतावो कि यह चौकी पुस्तकसहित है या पुस्तकरहित है, इसका क्या स्वरूप है? इस चौकी का पुस्तकसहित होना तो स्वरूप नहीं है, यह तो आप मान जायेंगे क्योंकि पुस्तक सहित स्वरूप यदि होता तो सदा पुस्तक सहित ही रहना चाहिए। पुस्तक इस चौकी पर रखी हुई हो, फिर भी इस चौकी का स्वरूप पुस्तक सहित होना नहीं है। तो क्या चौकी का स्वरूप पुस्तकरहित है? चौकी का स्वरूप पुस्तकरहित भी नहीं है। तो क्या है? जितनी लंबी चौडी है, जैसा काठ है, जिस रंग का है उसका वर्णन करके बता दिया जाय कि ऐसी चौकी है, पर वस्तु का नाम लेकर चाहे सहितपना को बतावो, यह अन्यवस्तु का स्वरूप नहीं है।
परभावरहितपने का जल्प भी अपमान—भैया ! कभी-कभी तो रहितपने की बात भी बुरी लगने लगती है। जैसे कहा जाय कि तुम्हारे बाप तो जेल से रहित हो गये, तो बात तो ठीक कही जा रही है जेल में नहीं हैं, पर यह भी बुरा लग रहा है कि नहीं? क्यों बुरा लग रहा है कि इसमें यह भाव आ गया है कि यह जेल में थे, अब जेल से रहित हो गये हैं, तो उसने तो गाली दे दी है कि ये जेल में थे, अब जेल से रहित हो गये हैं। ऐसे ही जीव के स्वरूप में हम यह सोचें कि जीव कषायरहित है तो इसका अर्थ यह है कि कषाय की बात पहिले सोची है। जीव में कषाय का स्वरूप कब था, जो अब यह कह रहे हो कि जीव कषायरहित है।
परभावनिषेध में भी विकल्प—किसी से कहा जाय कि भाई तुम 9 बजे रात को अमुक जगह जावो, जरूरी काम है और देखो यहाँ से ये इतनी दूर जाने के बाद एक वट का पेड़ मिलता है, उसमें लोग व्यर्थ गप्प उड़ाते हैं कि यहाँ तीन चार भूत रहते हैं, सो भूत तो बिल्कुल नहीं है, तुम डरना मत। वहाँ भूत नहीं हैं, यही तो कहा, किंतु यह सुनकर जाने वाला व्यक्ति वट के पास पहूँचकर डरने लगेगा। क्यों डरते हो, यही तो समझाया था के भूत नहीं हैं, यह पीछे बोला जायेगा, पहिले तो भूत बोल रहे हो, फिर कहते हो कि भूत नहीं हैं। तो पहिले भूत का विकल्प करके दिल तो घबरा गया। अच्छा तो यह था कि वह कुछ भी न कहता। कह देता कि चले जावो अमुक जगह, तो वह उस वट के नीचे से भी निकल जाता, पर घबराहट नहीं होती। आत्मा को कषायरहित करने में प्रथम तो आत्मा के निजस्वरूप का उपयोग छोड़कर कषायों को देखता गया और आत्मा कषायों से रहित है, यह यों निरखे तो यह भी विकल्प है। स्वरूपमनन—यह जीव विकल्पों से परे रहने के स्वभाव वाला है। इसका स्वरूप—संचेतन ही लक्षण है, ऐसे निज प्रकाश द्वारा पूर्णरूप से अंतर्मुख होने के कारण यह आत्मा अखंड, अद्वैत, चैतन्यचमत्कारमात्र है, यों निश्चयनय से आत्मा के स्वरूप का आख्यान किया गया है कि आत्मा और ज्ञान-दर्शन भी स्वप्रकाशक हैं। निश्चय से आत्मा स्वप्रकाशक है, ज्ञान भी स्वप्रकाशक है और दर्शन भी स्वप्रकाशक है। एकाकार अपने रस के विस्तार से भरपूर पवित्र अनादि अनंत यह आत्मा अपने निर्विकल्प महिमा में ही सदा वास करता है। जो पुरुष आत्मस्वरूप के उपयोग में मग्न हो जाता है उसे शुद्ध आनंद का अनुभव हो जाता है, और समस्त विकल्पों के संकट भी समाप्त हो जाते हैं। यह बात इस देह-देवालय में विराजमान निजआत्मा भगवान की कही जा रही है, इससे नेह लगाये बिना, इसकी भक्ति-उपासना किए बिना भी बाह्य में प्रयत्नव्यापार कर डालें तो भी शांति और संतोष न होगा। इस कारण हम आपका यह कर्तव्य है कि इस आत्मतत्त्व के ज्ञान, मनन, चिंतन अनुभवन में प्रयत्नशील रहें। ज्ञानस्वभाववृत्तिरूप स्वविश्राम का अनुरोध—विषयों की आकुलता तब नहीं रहती है जब अपने आपमें एक परमविश्राम होता है। उस विश्राम के समय जिस ज्ञानमात्र निज आत्मतत्त्व का अनुभव होता है उस आत्मा की चर्चा चल रही है। यह आत्मा स्वरसत: अपने का और पर का प्रकाशक है। इस आत्मा का विशद बोध करने के लिए हमें अपनी क्या तैयारी करनी है, वह तैयारी है मात्र दृष्टि की। यह जीव केवल दृष्टि और भावना ही किया करता है। उस भावना में यदि रागद्वेष का संबंध है तब तो हैरानी होती है और रागद्वेष का संबंध न होकर केवलज्ञान से संबंध है तब वहाँ अलौकिक आनंद जगता है, किंतु यह आत्मा कहीं भी सिवाय भावना के और कुछ नहीं कर सकता है। गृहस्थी में हो तब, साधु पद में हो तब केवल भावना ही भावना बनाया करता है, यह न धन पैदा कर सकता है, न वैभव इकट्ठा कर सकता है और न किसी को सुखी-दु:खी कर सकता है। यह सब राग द्वेष सहित भावना में मान्यता होती है कि मैं धन कमाता हूँ। अरे, धन तो जड़ पदार्थ है, बाह्य वस्तु है, उसमें तो हमारा प्रवेश भी नहीं है। तुम तो केवल अपने एक ज्ञानस्वरूप में ही रहते हो। तुमने परपदार्थों में क्या किया, सो बतावो। अरे, इस शरीर तक की भी चीजें पर में नहीं गयीं। आत्मा की तो अलग बात है। संतोष का स्वयं आश्रय—यह आत्मा आकाशवत् निर्लेप है। यह अपनी भावना से ही अपनी अथवा जगत की व्यवस्था बनाता है, अर्थात् कल्पना से उस प्रकार का अपना रस अनुभव करता रहता है। इस आत्मा को किस दृष्टि से देखा जाय कि हमें अपने आपका स्पर्श अधिक हो सके? इस उपयोग में परपदार्थ का स्पर्श अनादि काल से किया और उन स्पर्शों में इसे संतोष न हुआ। कोई कह सकता है कि मनुष्य के कितना धन हो जाय तो उसे संतोष हो जायेगा? कोई सीमा बना सकता है क्या? या कोई धनिकों का सम्मेलन हो और उसमें यह निर्णय करना चाहें कि कितना धन होने पर उसे धनी कहा जाना चाहिए? तो कोई प्रस्ताव पास न हो सकेगा। कोई व्याख्या है क्या कि इतना धन हो तो उसे धनी कहा जाय? ये सब आपेक्षिक बातें हैं। लखपति, हजारपतियों की दृष्टि से धनी हैं न कि वे स्वयं धनी हैं। उन्हें करोड़पति नजर आ जायें तो वे अपने को धनी नहीं मानते और दुनिया के लोग भी करोड़पतियों के बीच बैठे हुए लखपति को भी धनी नहीं मानते। कितने का नाम धनी है और कितना धनी होने पर संतोष हो जाता है, इसकी कोई परिभाषा नहीं है। संतोष का साधन बाहर में नहीं है, धन में नहीं है, परिजन में नहीं है, इसके संतोष का साधन तो यह आत्मा ही स्वयं है। ध्रुव की रुचि में कल्याण—देखो भैया ! अपने आत्मा को। यह मैं आत्मा ध्रुव हूँ, सदा काल रहने वाला हूँ, ये चेतन-अचेतन समागम इनका तो कल तक का भी भरोसा नहीं है, भले ही कल्पना में ऐसा मानते रहें कि मेरा यह कभी न बिछुड़ेगा, किंतु यह कभी हो नहीं सकता। ये सब अध्रुव हैं, विनाशीक हैं। यह वैभव ही अध्रुव नहीं है किंतु ये सारे कषाय, संकल्प-विकल्प, सुख-दु:ख सब अध्रुव हैं। आपसे कहा जाय कि यह अमुक चीज ले लो 5 मिनट के लिए, बाद में फिर हम ले लेंगे, तो उसको ग्रहण करने में आपकी कोई खुशी नहीं है, क्योंकि आप जानते हैं कि यह थोड़े समय को है, बाद में तो छुड़ा ही ली जायेगी। आप तो चाहते यह हैं कि मुझे वह चीज मिले जो मेरे पास सदा रह सके। अपनी छोटी सी झौंपड़ी बनाकर उसमें रहने में सुख माना जाता है और कोई बड़ा पुरुष यह कहे कि तुम 6 महीने तक हमारी हवेली में टिक जावो। टिक तो जायेगा पर उसमें वह उस प्रकार का हर्ष न मान सकेगा जैसा कि छोटी झौंपड़ी बनाकर रहने में सुख मानता है। उसके चित्त में यह है कि यह तो मेरी सदा बन कर रहेगी, यहाँ से तो 6 महीने बाद में निकल जाना पड़ेगा। मनुष्य की प्रकृति है कि वह ध्रुव को चाहता है। तू अध्रुव को नहीं चाहता। तो तू भी सयाना बन। ये चेतन और अचेतन समागम अध्रुव ही तो हैं। तू इन अध्रुवों में प्रीति मत कर। तेरा ही स्वरूप तेरे लिए ध्रुव है। तू अपने उस ध्रुव स्वरूप का आदर कर। धर्म का अनुग्रह—जिसके सत्य ज्ञान जग गया है वह जीता हुआ भी मुक्त-सा है, उसे आकुलता नहीं होती है। अरे, क्या आकुलता करना? विघटता है सारा धन विघट जावो, पर एक अचेतन पदार्थ के विघटने के पीछे इस चैतन्य निज आत्मतत्त्व को दु:खी किया जाय तो यह कहाँ की बुद्धिमानी है? कोई तो दिन ऐसा आयेगा ही कि सब कुछ छोड़ ही देना पड़ेगा। तो जीवन में ही क्यों न अभ्यास किया जाय। जो होता हो सो हो, मुझे कुछ विकल्प नहीं करना है। विकल्प ही करने की क्या जरूरत है? उदय अच्छा है, अच्छा होगा, उदय बुरा है तो विकल्प करने से भी क्या पूरा पड़ेगा, आखिर इसे पाप के उदय से दु:खी होना ही पड़ेगा। विकल्प न करके धर्ममार्ग पर डटे रहें तो पाप के उदय भी निकल जायेंगे, शांति हो जायेगी। प्रत्येक स्थिति में धर्मकार्य करना और पवित्र भावना रखना लाभदायक है चाहे पुण्य का उदय हो, उसमें भी पवित्र भावों से ही लाभ है और चाहे पाप की स्थिति हो वहाँ भी पवित्र भाव में ही लाभ है। ईर्ष्या, दंभ, कषाय, विशाद आदि अपवित्र भावों से तो उत्तरोत्तर हानि ही हानि बढ़ेगी। लाभ नहीं हो सकता। निजस्वरूपास्तित्व का अवलोकन—अपने आपके आत्मा को अकेला देखो। मैं सबसे न्यारा केवल निज स्वरूपमात्र हूँ। जरा विश्वाससहित अपने आपके अकेलेपन का अनुभव करो तो सारा बोझ हट जाता है अपने ऊपर से, और समस्त चिंताएँ नष्ट हो जाती हैं। मैं समस्त पदार्थों से न्यारा, किंतु अपने आपके स्वरूप से तन्मय हूँ। मैं जो कुछ करता हूँ अपने भावों को कर पाता हूँ, मेरी कोई भी करतूत मेरे स्वरूप से बाहर इस जीवास्तिकाय से बाहर नहीं है। इस ज्ञानपुंज चैतन्य ने न किसी पर का परिणमन किया, न अभी भी कर रहा है और न कभी कर सकेगा। केवल यह भावना बनाता है। आत्मा का पर में अकर्तृत्व—देखो इस बोलते हुए और हाथ चलाते हुए की हालत में भी यह मैं आत्मा नहीं हाथ चला रहा हूँ। यहाँ भी केवल एक भावना बना रहा हूँ, परपदार्थों का परस्पर में ऐसा निमित्तनैमित्तिक संबंध है कि यह हाथ अनुकूल निमित्त पाकर स्वयं इस प्रकार चलता है और ये जीभ, ओंठ स्वयं ही निमित्त पाकर इस प्रकार चलते हैं जिससे जिसका निमित्त पाकर ये वचन वर्गणाएँ भी वचनरूप बन जाती हैं। यह मैं आत्मा तो केवल अपने भाव करता हूँ। यह पिंड जो आप हम सबका दिख रहा है यह तीन चीजों का पिंड है—जीव, कर्म और शरीर। इन तीन का पिंड बना हुआ है, उसमें से कर्मों का काम तो कर्मों में है, शरीर का काम शरीर में है और जीव का काम भाव करना है, वह जीव में है, पर इन तीन में ही परस्पर ऐसा निमित्तनैमित्तिक संबंध है कि दूसरों की हरकतों का निमित्त पाकर दूसरा अपनी हरकत करना लगता है। निमित्तनैमित्तिक परंपरा में शब्दविलास का विकास—इस जीव ने भाव बनाया है, ऐसा कहूँ, मैं इस प्रकार की बात बताऊँ ऐसी इच्छा बनायी, ज्ञान किया, इच्छा की, यहाँ तक तो आत्मा का काम रहा। अब ज्ञान और इच्छा करके जो एक परिस्थिति बनी उसमें निमित्त पाकर शरीर में रहने वाली वायु में संचरण हुआ। शरीर में वायु जैसे चली उसके अनुसार ये ओंठ और जीभ हिले और इन ओंठ जीभ के हिलने का निमित्त पाकर उस प्रकार के शब्द निकले। ये शब्द निमित्तनैमित्तिक परंपरा से निकले हैं। ये हाथ, पैर इस निमित्तनैमित्तिक परंपरा से चल उठे, पर यह मैं आत्मा तो केवल ज्ञान और इच्छा कर पाता हूँ, भावना बना पाता हूँ, अन्य किसी पदार्थ में परिणमन करने का सामर्थ्य नहीं है, ऐसा अपने आपके अनंत सामर्थ्य का उपयोग करके जो पुरुष मोह, ममता को मिटा देता है उसे आनंद प्रकट होता है। परकर्तृत्व का व्यर्थ विकल्प—अहो, विषय-भोगों का आनंद तो इस तरह का आनंद है जैसे लाल तेज मिर्च खाते जा रहे हैं और सी-सी करते जा रहे हैं, आँसू निकलते जा रहे हैं और फिर भी मिर्च की मांग करते जा रहे हैं। कैसी कल्पना बनाई है कि भीतर भी वेदना हो रही है, चरपराहट-सी लग रही है, आँसू तक निकल आये हैं और फिर भी मिर्च की चाह बनी हुई है, ऐसे ही इन बाह्य विषय-भोगों को भोगते हुए क्लेश भी हो रहा है, आकुलता मच रही है, पराधीनता हो रही है, आनंद रहा ही नहीं है, किंतु इस स्थिति को भी आनंद का भ्रम करके व्यर्थ चाह रहे हैं कि भोग मिले, धन मिले, समता मिले। अरे, ये समस्त समागम तेरे से अत्यंत जुदे हैं, क्यों इनकी तू चाह करता है? ये चाहे जायें तो, न चाहे जायें तो, उदयानुसार इन्हें सामने आना ही पड़ता है। भला बतलावो तो आज श्रीमान् हैं उन ही जैसे हाथ पैर तो अन्य बुद्धिमानों के भी तो हैं, पर यहाँ लक्ष्मी बिना सोचे ही आती रहती है और वहाँ यत्न करने पर भी न आये तो कैसे कहा जाय कि धन को कमाने वाले श्रीमान् हैं। वह तो आना है सो आती है, पर कोई पुरुष उस लक्ष्मी में आसक्ति करे तो वह पाप है और लक्ष्मी न होते हुए भी जो लक्ष्मी से उपेक्षा रक्खे वह मनुष्य भी पुण्यात्मा है। स्वरूप की सँभाल में संकट की समाप्ति—अपने स्वरूप को निरखो। मैं केवल अपने परिणामों का ही करने वाला हूँ। करने वाला भी क्या, मुझमें परिणमन होता है, क्योंकि परिणमे बिना कोर्इ वस्तु अपना सत्त्व नहीं रख सकती है। इसलिए अपने आपकी ओर मुड़े तो पर के बिगाड़ने और सुधारने का सब संक्लेश खत्म हो जाता है। जो केवल तेरे ही कारण तेरे में उठकर विकसित हो वह तो है तेरा धन और बाकी समस्त परभाव और परपदार्थ इनका संबंध मानना यह है तेरा कलंक। अहो ! तेरा आत्मा तो केवल ज्ञान और आनंदस्वरूपी है। इसमें तृष्णा का कलंक कैसे लग गया है? जिस तृष्णा-कलंक के पीछे यह जीव परेशान बना रहता है। पर्यायबुद्धि छोड़ों और विभक्त एकस्वरूप निज आत्मा की बुद्धि करो। तेरा सुख तुझमें ही है, कहीं गया नहीं है, परचिंता ने सुख का घात कर दिया है। इस परचिंता को तू मत कर। वे पर भी अपना कर्मोदय लिए हुए हैं, उनका पोषण तेरी चिंता के कारण नहीं हो रहा है, सब जीवों का पोषण सुख सुविधा उनके ही उदयानुसार होती है, तू अपने को केवल भाव ही करने वाला समझ। भेदज्ञान का यत्न—हे आत्मन् ! अपने स्वरूप को तो निरख। मैं अनादि अनंत शुद्ध एक ज्ञानस्वरूप हूँ अरे ! जो इस शरीर को छोड़कर निकल गया वह है जीव और यहाँ पड़ा रह गया वह हे अजीव। तो ऐसे ही इस जीवित अवस्था में भी समझो की जिसके निकल जाने के कारण यह अजीव ही नजर आयेगा वह तो है मैं जीव और उस जीव के निकल जाने के कारण जो यह जला दिया जायेगा या जो कुछ तब दिखा है वह है अजीव। जीव और अजीव के भेद करने में अधिक तकलीफ नहीं है, किंतु उसके लिये अपने विकल्पों के रोकने का प्रयत्न करना है। ज्ञानस्वरूप ही मेरा भाव है। ये रागादिक समस्त विकारभाव अचेतन हैं। ये उदयानुसार होते हैं। मैं इन सबसे न्यारा केवल एक शुद्ध ज्ञानस्वरूप हूँ। तू स्वरूप की भावना भा और अन्य भावनावों में भी स्वरूप की भावना का लक्ष्य रख। अनित्यभावना में स्वनित्यत्व का दर्शन—भैया ! जब अनित्य भावना में तुम अपना विचार कर रहे हो कि ये सब मिले हुए वैभव, धन, आयु ये सब अनित्य हैं, मिट जायेंगे, तो मिट जाने की बात को रो-रोकर क्या काम पूरा कर लोगे? अरे, इस मिटते हुए का जानना तो न मिटने वाले निज स्वरूप के जानने के लिए है। इन मिटने वालों को ही रो-रोकर पुकारना इससे क्या लाभ मिलेगा? जान लिया कि ये सब पदार्थ विनाशीक हैं, पर इस जानने से फायदा क्या? अविनाशी जो मैं आत्मा हूँ वह मैं इनसे न्यारा हूँ और अविनाशी हूँ, ऐसा जानकर अपने आपकी ओर झुकना तब अनित्य भावना भाना सफल है। अशरणभावना में स्वशरणता का दर्शन—अशरण भावना में यह सोच लिया कि कोई मेरा शरण नहीं है सब स्वार्थ के साथी हैं, कोई अंत में काम नहीं आते। दल, बल, देवी, देवता, परिवार, कुटुंब, मित्र सबके सब खड़े रहते हैं, पर कोई शरण नहीं होता है। अरे ! इस रोने से क्या फायदा है, ये कोर्इ भी शरण नहीं हैं, ऐसा मानने का प्रयोजन तो यह है कि तू ही तेरे शरण है। तू अपनी शरण रह और सुखी रह। जब तक अपने शरण की सुध न रहेगी तब तक अशरण भावना से लाभ कुछ न मिलेगा। संसारभावना में निज आनंदघन का दर्शन—संसार भावना में बड़ी विस्तारदृष्टि बना ली है। संसार के सभी लोग दु:खी हैं, श्रीमान् गरीब सब दु:खी है। अरे ! उनके दु:ख को देखकर तू दु:ख ही बढ़ायेगा। किसी के दु:ख को उपयोग में रखकर क्या कोई सुखी हुआ है? तू जगत् के जीवों का दु:ख निरख रहा है, इस जानने का लाभ तो यह है कि यह समझ जा कि मैं सब दु:खों से न्यारा स्वभावत: स्वयं आनंद का निधान हूं। ऐसे इस दु:खरहित ज्ञायकस्वभाव की ओर दृष्टि आये तो संसार भावना करना ठीक है। एकत्वभावना में अंत: एकत्व का दर्शन–लोग घबड़ाते हैं अपना अकेलापन जानकर कि मैं अकेला ही मरूंगा, अकेला ही जन्मा हूं। अरे इस अकेले के रोने से लाभ क्या मिलेगा ? अरे इस अकेलेपन के जानने का प्रयोजन तो यह है कि इससे भी और अत्यंत विशुद्ध ज्ञायकस्वरूप का एकत्व जो आनंदमय है, तुममें पड़ा है, तू अपने इस एकत्वस्वरूप की सुध ले तब एकत्व भावना सफल है। केवल जन्ममरण सुख दु:ख में अकेलापन भाने से तो दु:ख बढ़ेगा, सुख न मिलेगा। घबड़ाहट बढ़ेगी, पर अपने स्वरूप का विशुद्ध एकत्व दृष्टि में लेने से आनंद बढ़ेगा। अन्यत्व भावना में यह भाया करते हैं कि ये धन कन कंचन सब निराले हैं। मेरा तो देह तक भी नहीं है। तो इस बकवाद से लाभ क्या मिलेगा ? अरे इस वार्तालाप के फल में यदि मैं यह जान जाऊं कि मेरा ज्ञानानंदघन स्वरूप आत्मतत्त्व मुझसे न्यारा नहीं है, उसकी उपासना करो और इस धन वैभव आदि प्रकट निराले पदार्थों की उपासना मत करो। यह प्रेरणा जगे तो अन्यत्व भावना करना सफल है। अशुचिभावना में आत्मशुचिता का दर्शन–अशुचि भावना में हम गाते रहते हैं कि यह देह, हड्डी, चाम, खून, मांस, मज्जा, मल से भरा हुआ है। गाते रहें और ऐसे देखते भी रहें। अरे इन अशुचि पदार्थों के देखने पर तुम्हें यदि अपने शुचि पवित्र ज्ञानानंद स्वरूप की खबर नहीं होती है तो इन अशुचि पदार्थों के गाने से तुझे लाभ क्या मिलेगा ? ग्लानि ही बढ़गी। यह शरीर बड़ा दुर्गंधित है, घृणा ही पैदा करता है, समस्त लोकालोक को जानने की जिसमें सामर्थ्य है ऐसा यह आत्मतत्त्व ज्ञान में आये, भावना में आये तो यह अशुचि भावना भी सफल है। स्वरूपदर्शन का प्रसाद–भैया ! कुछ भी विचार करो, अपने स्वरूप के स्पर्श की ओर आयें तो लाभ है, बाकी ममता में, अहंकार में, विषयकषायों में या यों कहो कि मूढ़ों के मुंह लगने में कोई सार नहीं है। मूढ़ मायने मोही। मूढ़ का अर्थ लोगों ने मूर्ख कर रक्खा है, पर मोह का अर्थ है मोहोन्मत्त। मोहोन्मत्त विषयों के साधनभूत परजीवों से उपयोग जुटाने में सार न मिलेगा। अपने आपके स्वरूप की दृष्टि करो, उसमें निर्विकल्पता के कारण स्वयं यह स्वपरप्रकाशक आत्मतत्त्व का अनुभव हो जायेगा और तब पूर्ण निर्णय होगा कि यह मैं आत्मा स्व का भी प्रकाशक हूं और पर का भी प्रकाशक हूं। अप्पसरूवं पेच्छदि लोयालोय ण केवली भगवं। जइ कोइ भणइ एवं तस्स य किं दूसणं होइ।।166।। प्रतिभासविषयक सिद्धांतस्मरण–केवली भगवान निश्चय से तो आत्मा को जानते देखते हैं और व्यवहारनय से लोकालोक को जानते देखते हैं, यह सिद्धांत स्थापित किया गया था, अर्थात् प्रभु सारे लोक को जानते तो हैं किंतु लोक में तन्मय होकर नहीं जानते हैं, प्रभु अपने आपके आत्मा में ही ठहर कर समस्त लोकालोक को जान जाते हैं। इसमें जानने की तन्मयता आत्मा से है, परपदार्थ से नहीं है। यों लोक और अलोक इन परपदार्थों में तन्मय होकर नहीं जानते हैं। जैसे कि आनंदगुण अपने आप तन्मय होकर ही अनुभवा जाता है। किसी बाह्य पदार्थ में तन्मय होकर नहीं अनुभवा जाता है। इस ही प्रकार यह ज्ञान भी अपने आपके आत्मा में ही तन्मय हो करके जानता है, किसी परपदार्थ में तन्मय होकर नहीं जानता है। इस सिद्धांत को लेकर दो नयों की बात कही गयी है कि निश्चय से तो भगवान अपने को ही जानते देखते हैं और व्यवहार से भगवान समस्त लोकालोक को जानते देखते हैं। शंकासमाधानरूप में निश्चयप्रतिभास का प्रकाशन–इस संबंध में अब कोई शंकाकार केवल निश्चयनय की ही बात मानता है। व्यवहार की बात को झूठ कहता है और वह यों बतलाता है कि केवली भगवान अपने ही स्वरूप को देखते हैं, लोक और अलोक को नहीं। यदि हम ऐसा कहें तो इसमें क्या दूषण आता है ? यह शंकाकार की ओर से शंका है। यह गाथा शंकारूप भी है व समाधानरूप भी है, क्योंकि निश्चयनय से तो ऐसा ही है। इसमें भाव यह है कि जब भगवान अपने ज्ञान से अपने में ही तन्मय हैं, अपने ज्ञान से अपने में ही बढ़ रहे हैं निश्चय से। भले ही उनमें यह महिमा है कि जितने भी पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल और अन्य जीव इन सबके द्रव्य गुण पर्यायों को एक समय में जानने में समर्थ यह केवलज्ञान है, लेकिन यह तो परपदार्थों में प्रवेश करके नहीं जानता है, अपने आपमें ही तन्मय होकर जानता है। इन भगवान के तीसरा नेत्र प्रकट हुआ है अर्थात् सकलप्रत्यक्षप्रतिभास समस्त मनुष्यों के दो नेत्र हैं, जिनसे देखते जानते हैं, किंतु अरहंत महादेव इनके तीसरा लोचन प्रकट हुआ है और इसी कारण अरहंत भगवान का नाम त्रिलोचन है। यह तीसरा नेत्र है सकल प्रत्यक्ष निर्मल केवलज्ञान। इस तीसरे नेत्र के द्वारा प्रभु समस्त ब्रह्मांड को और लोक के बाहर के समस्त अलोकाकाश को एक साथ जानते हैं। उनका ज्ञान निरपेक्ष है, परपदार्थों के कारण से परपदार्थों को नहीं जानते, किंतु अपने ही स्वभाव से समस्त लोकालोक को जानते हैं। सर्वत्र गुण का अभिन्न आधार में प्रयोग–वास्तव में तो सभी जीव केवल अपने को ही जानते देखते हैं। जो लोग इन समस्त दुकान घर इन सबको जानते हैं वे लोग भी वास्तव में अपने को ही जान रहे हैं क्योंकि उनका ज्ञान उनके आत्मा में है। उनका ज्ञानस्वभाव ज्ञानगुण उनके आत्मा को छोड़कर कहीं बाहर जाता नहीं है, वहीं रहकर ज्ञान सबकुछ जानता रहता है, यहां से बाहर कहीं नहीं जाता है। यों हम आपका ज्ञान भी बाह्य पदार्थों में तन्मय होकर नहीं जानता। हां, जो मोही जीव हैं, जिनमें अज्ञान भरा है, रागद्वेष प्रबल है वे बाह्य पदार्थों में आसक्त हो जाते हैं अर्थात् बाहरी पदार्थों को अपने ध्यान में लेकर और उस ध्यान में कल्पनाएं बनाए रहते हैं। बाह्य पदार्थों में कोई नहीं लग सकता है। बाह्य बाह्य की जगह है, हम अपनी जगह हैं। जब तक यह जीव अपने आपका और इन पदार्थों का ऐसा एकदम रस्सी तोड़ अंतर नहीं डालता है तब तक इसका मोह दूर नहीं होता है। इस प्रकरण से हमें यह जानना चाहिए कि हम सीधा परपदार्थों को जानने तक का भी काम नहीं करते हैं। हम अपने को जानते हैं और मेरी स्वच्छता ऐसी है कि सारे पदार्थ यहां झलक जाते हैं, इस झलक से हम जानते हैं, परपदार्थों को नहीं जानते हैं जब जानने देखने का भी बाह्य पदार्थों से संबंध नहीं है तो फिर किस पदार्थ को हम भोग सकते हैं, किस पदार्थ को विषय बना सकते हैं ? यही तो संसार में रूलने का साधन है। प्रभुपरिचय–भगवान प्रभु पूर्णरूप से अंतर्मुख हैं, वे यद्यपि समस्त पदार्थों के ज्ञायक हैं, फिर भी अपने ही आनंदरस में लीन हैं। यहां हम लोगों का यह जानना भी कलंक की तरह बन रहा है। जानते हैं और जानने के ही साथ राग द्वेष की कल्पनाएं उठ जाती हैं, हम अपने आपमें नहीं रह पाते, बाहर की ओर आकर्षित हो जाते हैं, किंतु भगवान का कितना उत्कृष्ट ज्ञान है कि वे तीन लोक का सब कुछ जानते हैं फिर भी वे अपने आत्मीय आनंद को तजकर बाहर कहीं नहीं जाते हैं। हम ऐसी अपने मर्म की बात न जानें तो हम भगवान की पूजा भी करने के पात्र नहीं हैं, यों लोकरूढ़ि से भगवान के आगे सिर नवा लें, द्रव्य चढ़ा लें, स्तवन करलें, यह बात दूसरी है, किंतु भगवान में खासियत क्या है, भगवान का स्वरूप क्या है, उनका स्वभाव कैसा है, इस बात की परख न हो तो हम भगवान के गुण ही क्या समझेंगे और फिर उनकी पूजा और वंदना भी क्या होगी? भगवान की जो भक्ति करता है उसे अपने स्वरूप का अवश्य परिचय रहता है। जिसे अपने स्वरूप का परिचय रहता है वही यथार्थरूप से भगवान की भक्ति कर सकता है। प्रभु की गंभीरता—हे प्रभु ! आपका कितना विशद् स्वरूप है, आपके ज्ञान में तीन लोक, तीन काल के सब पदार्थ झलक रहे हैं फिर भी आप रंच भी आकुलता नहीं कर रहे हैं। भैया ! हम लोग न कुछ थोड़ीसी बात जानकर मेरे पास इतना धन है, मेरी इतनी प्रतिष्ठा है, मेरे ऐसे परिजन हैं, न कुछ इन खंड-खंड बातों को जानकर हम आप लोग आपे से बाहर हो जाया करते हैं, अपने में ही नहीं रह पाते हैं, पर प्रभु का यह ज्ञान कितना उदार है कि यहाँ समस्त लोक झलक रहा है, पर ये प्रभु एक अणु के प्रति भी वे आसक्त नहीं होते हैं, सबके ज्ञाताद्रष्टा रहते हैं। जब तक रागद्वेष रहेगा, अज्ञान, मोह रहेगा तब तक यह जीव शांति नहीं पा सकता, न कर्मों का नाश कर सकता है। मोह से कर्म बढ़ते हैं और निर्मोहता से कर्म कटते हैं। भैया ! प्रभु ने क्या किया था, जिसके प्रसाद से वे आज त्रिलोक पूज्य हो गये है और वे अपने आपके आत्मा में परम आनंदमग्न हैं। जो उन्होंने किया था। उसकी सुध अपने को नहीं होती, जिस मार्ग पर वे चले थे उस मार्ग पर चलने की अपने में प्रेरणा न हो, तो हम कर्मों को नहीं काट सकते हैं। प्रभु की विशुद्धि—निश्चय से जो केवल अपने ही स्वरूप का प्रत्यक्ष कर रहे हैं, इस ही वृत्ति में जो निरत हैं ऐसे ही ये प्रभु इस सहज केवल दर्शन के द्वारा सच्चिदानंद को ही निश्चय से देख रहे हैं। ऐसी ही चर्चा शंकाकार कर रहा है कि यदि हम ऐसा मानें तो हममें कौनसा दोष है? हाँ ठीक है। यदि तुम शुद्ध निश्चय की दृष्टि से ऐसा मानो तो कोई दोष नहीं है पर सर्वथा एकांत न कर लेना चाहिए। यह आत्मा अपने स्वरूप को देखता है। यह परमात्मा एक है। जो यह देख रहा है, जिसको देख रहा है वह एक है, विशुद्ध है। रागद्वेष की कलुषता उसमें रंच नहीं है अंतरंग में तो निर्मलता प्रकट हुई है, इसी में इतनी अनंत महिमा है कि हम आप भी उनकी मूर्ति बनाकर, उनकी स्थापना करके प्रात:काल से ही नहा-धोकर पवित्र मन करके पूजन और वंदन में आते हैं। हम किसकी पूजा करने आते हैं, उसका यथार्थ बोध कर लें तो हम आपका जन्म सफल है। रूढ़ि मात्र से तो वह लाभ न मिलेगा। प्रभु का पथ—प्रभु ने इस समस्त जगत को असार जानकर पहिले तो आरंभ और परिग्रह का त्याग किया था। निर्ग्रंथ दिशा ही जिनका अंबर है, ऐसी शुद्ध दिगंबरी मुद्रा से आत्मध्यान में रह-रहकर अपना उपयोग विशुद्ध किया था। 5 इंद्रियाँ और छठा मन, इन 6 के विषय इस जगत को बड़ा हैरान कर रहे हैं। यह प्राणी इन विषयों की अधीनता में बरबाद हो रहा है, पर प्रभु ने इन विषयों को सर्वप्रथम जीता था और विषयों को जीतकर मोह और कषायों को क्षीण कर लिया था। जब कषायें बिल्कुल न रहीं तो अंतर्मुहूर्त में ही केवलज्ञान प्रकट हो गया था। ज्ञानाश्रय का परिणाम—देखो, लोग चाहते हैं कि मुझे सबसे अधिक ज्ञान मिले, पर ज्ञान की ओर झुकें तो ज्ञान बढ़े। ज्ञान को छोड़कर इन बाहरी पदार्थों की ओर झुकेंगे तो ज्ञान न बढ़ेगा। ये समस्त दिखने वाले बाह्यपदार्थ अज्ञानमय हैं। इनकी ओर झुककर अज्ञानमय वेदन ही होगा और ज्ञानमय निज तत्त्व की ओर झुककर जो वेदन होगा वह ज्ञानमय वेदन होगा। अपने आपकी ओर झुकने का अर्थ है अपने को ज्ञानमात्र ही अनुभवना, मनन करना, चिंतन करना। जैसे हम आप लोग अपने को नानारूप अनुभव कर रहे हैं, मैं अमुक गाँव का हूँ, अमुक घर का हूँ, अमुक का पिता हूँ, अमुक का बेटा हूँ, ऐसे धन वाला हूँ, ऐसी पोजीशन का हूँ, इतना लंबा हूँ, गोरा हूँ, काला हूँ, कितने ही रूप यह जीव अपने को अनुभव रहा है, यदि इन नाना रूपों में अपने को अनुभव करता रहेगा तो इसका संसार कभी दूर न हो सकेगा। इन नाना रूपों को छोड़कर अपने को केवल ज्ञानस्वरूप ही अनुभव करेंगे तो ये संसार के संकट दूर होंगे। निर्ममत्व निज के आश्रय से संकटों का अभाव—भैया ! संकट है क्या? रागद्वेष बढ़ जाना ही संकट है। किसी पदार्थ के प्रति ममता हो जाना यही एक संकट है। चीज का मिटना, गुजरना यह संकट नहीं है किंतु अपने आपमें किसी परवस्तु के प्रति ममता का परिणाम होना यही संकट है। संकटों की जड़ ममता है, अहंकार है, संकट अन्य कुछ नहीं है। जो ज्ञानी जीव निज को निज, पर को पर दृढ़ता से जानते हैं, कि त्रिकाल भी मेरा स्वरूप चतुष्टय किसी पर रूप न होगा, किसी परपदार्थों का स्वरूप मुझमें तन्मय न होगा, त्रिकाल न्यारे हैं समस्त पदार्थ, परस्पर में ऐसी स्वतंत्रता की जो दृष्टि बनाता है उसको मोह कहाँ से होगा? मेरा मात्र मैं ही हूँ, ज्ञानादिक गुणों को छोड़कर अन्य कुछ मेरा नहीं है, मैं अपने ही स्वरूप में तन्मय हूँ, ऐसा जिसे अपने स्वरूप की दृढ़ता का विश्वास है वह बहुत मजबूत किले में बैठा हुआ है। जैसे कोई पुरुष मजबूत किले में बैठ जाय तो उसे अब विनाश का भय नहीं रहा, ऐसे ही हम आपका यह ज्ञान इस दृढ़ स्वरूप में बैठ जाय कि जो मेरा है वह कभी मेरे से छूट नहीं सकता, जो मेरा नहीं है वह कभी मेरे में आ नहीं सकता, ऐसा स्वरूप की दृढ़ता का भान हो वह पुरुष सुरक्षित है। उसे व्याकुलताएँ नहीं हो सकती हैं। ज्ञानभावना की शिक्षा—प्रियतम् ! करना यही है धर्म के लिए, भगवान का पूजन करके सीखना यही है, ज्ञानभावना को पुष्ट करना है। गुरुवों का सत्संग करके सीखना यही है। जगत में धन का होना, संतान का होना यह सब कर्मानुसार है। इनके लिए पूजा करना, प्रार्थना करना या गुरुसेवा करके धन, संतान की कामना करना, यह कर्तव्य नहीं है। जो देवपूजन नहीं करते उनके भी तो दमादम संतान होते रहते हैं, धन भी बढ़ता रहता है। जो गुरुसेवा से विमुख हैं वे भी लोक में सुखी देखे जाते हैं। इन सब सुखों के लिए देवपूजा या सत्संग आदि का उपयोग नहीं करना है। किंतु मेरे में वह धर्म प्रकट हो, जिस धर्म के प्रसाद से संसार से सदा के लिए छूट जाऊँ, ऐसी विविक्तता और निर्मलता के मार्ग में कदम बढ़ाना है, उसके लिए ही यह देव वंदन है। प्रभुत्वविकास—ये देव अनंत महिमा के निधान हैं, अपने आपमें यह शाश्वत आनंदमग्न रहते हैं, अविचल हैं। प्रभु जिस रूप अपने में वर्त रहे हैं उस रूप को त्रिकाल भी ये तज न सकेंगे। हम-आप लोग तो छिन-छिन में कभी खुश होते है, कभी कुछ निर्मलता प्रकट करते हैं, कभी मलिन बन जाते हैं, पर प्रभु के ऐसी चरम स्वच्छता है, ऐसी परम निर्मलता है कि वह त्रिकाल भी अपनी इस स्वच्छता को छोड़ न सकेंगे। है क्या? चेतन प्रभु हैं, चेतन हम हैं। हम आप पर रागद्वेष मोह का कूड़ा-कचरा पड़ा हुआ है, बस इसी कारण हम आत्मा और प्रभु परमात्मा में अंतर है। यह एक रागद्वेष का कूड़ा—कचरा न रहे तो वही स्वरूप यह है, वही परमात्मतत्त्व यह है, पर कैसा कर्मविपाक है कि मोह प्राय: छोड़ा नहीं जाता। धर्मपालन को अंत:पुरुषार्थ की आवश्यकता—भैया ! रागद्वेष तजने रूप ही धर्म सेवन करने योग्य है। रूढ़िगत तौर से भले ही सब धर्मव्यवहार करें, किंतु मोह जो 20 साल पहिले था, कहो उसमें भी बढ़कर मोह मौजूद हो तो जब मोह में अंतर नहीं आया तो धर्म की क्या पकड़ कर सकेंगे कि हाँ हमने कुछ धर्मसाधन किया है? अरे, धर्म तो नाम है मोहरहित और कषायरहित होने का। अपने अंतरंग में निरीक्षण तो करो कि हमने कितना मोह तजा है? क्या कभी हमने समस्त परपदार्थों से अत्यंत भिन्न ज्ञानस्वरूप मात्र अनुभव किया है? क्या कभी इस ज्ञायकस्वरूप एकाकी निज आत्मा में विश्राम किया है? यहाँ ही ठहरकर क्या हमने कभी संतोष पाया है? यदि नहीं पाया है, बाहरी आडंबर और पदार्थों में ही यह उपयोग लगा रहा है तो समझो कि हमने अभी धर्म नहीं कर पाया, इसके लिए अभी यत्न करना है।
धर्ममूर्ति—प्रभु साक्षात् धर्मस्वरूप है और शक्तिरूप में हम आप समस्त आत्मा साक्षात् धर्मस्वरूप हैं। धर्म नाम है स्वभाव का। जिसका जो स्वभाव है वह स्वभाव प्रकट हो जाय यथार्थ निर्दोष, उसी के मायने हैं धर्ममूर्ति का बनना। प्रभु धर्म की मूर्ति हैं इसीलिए हम पूजते हैं। धर्म में ही आनंद है। धर्मभाव को छोड़कर रहें तो आनंद न मिल सकेगा, दु:खी ही होंगे, क्लेश ही मचेगा। धर्ममूर्ति भगवान की वंदना करके हमें धर्म-स्वभाव का झुकाव होना चाहिए।
प्रभु का विशुद्ध ज्ञानघनस्वरूप—यह प्रभु स्वभाव में महान् है। इसमें व्यवहार का विस्तार ही नहीं है, यहाँ निश्चयनय से तका जा रहा है। प्रभु अपने में स्वरूप को देख रहे हैं किसी बाह्य लोक को नहीं, जानते तो हैं प्रभु लोकालोक को, मगर ऐसा कहने में एक तो पर का नाम लेकर कहना पड़ा, दूसरे एक आत्मा को तजकर दूसरे पदार्थ को बताना पड़ा, वह सब व्यवहार है। प्रभु शुद्ध हैं, स्वच्छ हैं, निर्दोष हैं, निराकुल हैं, कोई विषयवासना उनके अंदर नहीं है, वे शुद्ध ज्ञान के पिंड हैं। ज्ञान-पिंड का ही नाम भगवान है। ज्ञानघन प्रभु है। घन उसे कहते हैं जो ठोस हो, जिसमें दूसरी चीज का समावेश न हो। केवल वही का वही हो। जैसे कोई काठ होता है, बड़ा सारभूत हो, वज़नी बन जाता है। लोग कहते हैं कि यह ठोस काठ है। उसका अर्थ यह है कि इसमें किसी अन्य चीज का प्रवेश नहीं है। न घुन है, न बक्कल है, न कोई पोल है। यह प्रभु ही ज्ञान से ठोस हैं, ज्ञान के ही पिंड हैं। दृष्टांतपूर्वक ज्ञानानंदघन का विवरण—जैसे घड़े में पानी भरा हो तो पानी घड़े के अंदर ठोस रहता है। उसके भीतर एक सूत भी जगह ऐसी नहीं होती जहाँ पानी न हो और वह अगल-बगल पानी से ठोस होता है, इसी प्रकार यह भगवान आत्मा ज्ञान से ठोस है। यहाँ एक भी प्रदेश ऐसा नहीं है जहाँ ज्ञान न हो और अगल-बगल ज्ञानरस भरा हुआ न हो। ज्ञान में ठोस है। इस ज्ञानघनता का स्मरण यह पानी से भरा हुआ घड़ा दिलाता है, इसीलिए लोग पानी से भरे हुए घड़े को सगुन मानते हैं। रास्ता चल रहे हों और पानी भरा घड़ा मिल जाय तो लोग सगुन समझते हैं। अरे, उसे सगुन क्यों कहा? वह पानी से भरा हुआ घड़ा यह सुध दिलाता है कि जैसे यह घड़ा पानी से लबालब भरा हुआ है ऐसे ही यह आत्मा ज्ञान और आनंद से लबालब भरा हुआ है, ऐसे अपने आत्मा की सुध दिलाने के कारण यह पानी से भरा हुआ घड़ा सगुन माना जाता है। प्रभुज्ञानानंदघन हैं, अखंड अद्वैत चैतन्य चमत्कारमात्र हैं। उसका ध्यान करने से हमारे कर्मकलंक भी दूर होते हैं। यों प्रभुभक्ति हम आप लोगों का एक आवश्यक कार्य हैं।