रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 115: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:35, 2 July 2021
उच्चैर्गोत्रं प्रणतेर्भोगो दानादुपासनात्पूजा
भक्ते: सुंदररूपं स्तवनात्कीर्तिस्तपोनिधिषु ।। 115 ।।
तपोनिधि महापुरुषों के वैयावृत्य से सुगति का लाभ―अब यहाँ दान का फल बतला रहे हैं । जो तप के निधान हैं, समताभाव के धारण करने वाले हैं, 22 परीषहों पर विजय प्राप्त करते हैं । शरीर से विरक्त हैं, पंचेंद्रिय के विषयों से विरक्त हैं ऐसे मुनिजन उनको नमस्कार करने से उच्च गोत्र में या स्वर्गलोक में उत्पन्न होते हैं, फिर स्वर्ग से आकर तीर्थकर चक्रवर्ती जैसे उच्चकुल में जन्म लेकर निर्ग्रंथ अवस्था को धारणकर सिद्ध पद को प्राप्त करते हैं । इतने बड़े महान पद की प्राप्ति की प्रारंभिक बात यह अतिथियों की सेवा है । मुनिजन, त्यागीजन और श्रावकोत्तम की जो सेवा है वह कारण बना मूल से जिससे बढ़ बढ़कर यह सिद्ध दशा को प्राप्त हो जाता है । दान के प्रभाव से यह जीव स्वर्ग में, भोगभूमि में जन्म लेता है, सो उत्तम पात्रदान के प्रभाव से भोगभूमि के भोग भोगता है, स्वर्ग के भोग भोगता है राजपाट के भोग भोगता है । अहिमिंद्र बनता है याने उत्तम गति प्राप्त करता है । और वहाँ भी धर्म की धारा परंपरा चलती रहती है जिससे संसार शरीर भोगों से विरक्त होकर निकट काल में निर्ग्रंथ पुरुष बनकर यह निर्वाण को प्राप्त होता है । साधुवों की पूजा उनकी उपासना भक्ति के प्रसाद से तीन लोक में पूज्य केवली प्रभु बन जाता है कैसे बनता है? उनकी यदि सेवा चित्त में न हो तो वहाँ कैसे उमंग उत्साह और विधि बने? 5 परमेष्ठी जिन में दो तो है भगवान अरहंत और सिद्ध । आचार्य उपाध्याय और साधु ये है भगवान के रूप, जिनलिंग के धारक । उस ही मार्ग में लगे हुए हैं । इनकी भक्ति सेवा की बड़ी महिमा है । वे धर्म की धारा में रहकर निकट काल में ही सर्व सकंटों से मुक्त हो जाते हैं ।