अनुभाग: Difference between revisions
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Latest revision as of 14:39, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
अनुभाग नाम द्रव्य की शक्ति का है। जीव के रागादि भावों की तरतमता के अनुसार उसके साथ बंधने वाले कर्मों की फलदान शक्ति में भी तरतमता होना स्वाभाविक है। मोक्ष के प्रकरण में कर्मों की यह शक्ति ही अनुभाग रूप से इष्ट है। जिस प्रकार एक बूँद भी पकता हुआ तेल शरीर को दझाने में समर्थ है और मन भर भी कम गर्म तेल शरीर को जलाने में समर्थ नहीं है; उसी प्रकार अधिक अनुभाग युक्त थोड़े भी कर्मप्रदेश जीव के गुणों का घात करने में समर्थ हैं, परंतु अल्प अनुभाग युक्त अधिक भी कर्मप्रदेश उसका पराभव करने में समर्थ नहीं हैं। अतः कर्मबंध के प्रकरण में कर्मप्रदेशों की गणना प्रधान नहीं है, बल्कि अनुभाग ही प्रधान है। हीन शक्ति वाला अनुभाग केवल एकदेश रूप से गुण का घात करने के कारण देशघाती और अधिक शक्तिवाला अनुभाग पूर्णरूपेण गुण का घातक होने के कारण सर्वघाती कहलाता है। इस विषय का ही कथन इस अधिकार में किया गया है।
- भेद व लक्षण
- अनुभाग सामान्य का लक्षण व भेद।
- जीवादि द्रव्यानुभागों के लक्षण।
- अनुभाग बंध सामान्य का लक्षण।
- अनुभाग बंध के 14 भेदों का निर्देश।
- सादि अनादि ध्रुव-अध्रुव आदि अनुभागों के लक्षण।
- अनुभाग स्थान सामान्य का लक्षण।
- अनुभाग स्थान के भेद।
- अनुभाग स्थान के भेदों के लक्षण।
- अनुभागबंध निर्देश
- अनुभाग बंध सामान्य का कारण।
- शुभाशुभ प्रकृतियों के जघन्य व उत्कृष्ट अनुभाग बंध के कारण।
- शुभाशुभ प्रकृतियों के चतुःस्थानीय अनुभाग निर्देश।
- प्रदेशों के बिना अनुभाग बंध संभव नहीं।
- परंतु प्रदेशों की हीनाधिकता से अनुभाग की हीनाधिकता नहीं होती।
- घाती अघाती अनुभाग निर्देश
- घाती व अघाती प्रकृति के लक्षण।
- घाती अघाती की अपेक्षा प्रकृतियों का विभाग।
- जीवविपाकी प्रकृतियों को घातिया न कहने का कारण।
- वेदनीय भी कथंचित् घातिया है।
- अंतराय भी कथंचित् अघातिया है।
- सर्वघाती व देशघाती अनुभाग निर्देश
- सर्वघाती व देशघाती अनुभाग निर्देश।
- सर्वघाती व देशघाती के लक्षण।
- सर्वघाती व देशघाती प्रकृतियों का निर्देश।
- सर्व व देशघाती प्रकृतियों में चतुःस्थानीय अनुभाग।
- कर्मप्रकृतियों में यथायोग्य चतुःस्थानीय अनुभाग।
- कर्मप्रकृतियों में सर्व व देशघाती अनुभाग विषयक शंका-समाधान
- मति आदि ज्ञानावरण देशघाती कैसे हैं?
- केवलज्ञानावरण सर्वघाती है या देशघाती?
- सम्यक्त्व प्रकृति देशघाती कैसे है?
- सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति सर्वघाती कैसे है?
- मिथ्यात्व प्रकृति सर्वघाती कैसे है?
- प्रत्याख्यानावरण कषाय सर्वघाती कैसे है?
- मिथ्यात्व का अनुभाग चतुःस्थानीय कैसे हो सकता है?
- मान कषाय की शक्तियों के दृष्टांत मिथ्यात्वादि प्रकृतियों के अनुभागों में कैसे लागू हो सकते हैं?
- अनुभाग बंध संबंधी कुछ नियम व प्ररूपणाएँ
- प्रकृतियों के अनुभाग की तरतमता संबंधी सामान्य नियम।
- प्रकृति विशेषों में अनुभाग की तरतमता का निर्देश
- ज्ञानावरण और दर्शनावरण के अनुभाग परस्पर समान होते हैं।
- केवलज्ञानदर्शनावरण, असाता व अंतराय के अनुभाग परस्पर समान हैं।
- तिर्यंचायु से मनुष्यायु का अनुभाग अनंतगुणा है।
- जघन्य व उत्कृष्ट अनुभाग के बंध कों संबंधी नियम
- अघातिया कर्मों का उत्कृष्ट अनुभाग सम्यग्दृष्टि को ही बंधता है, मिथ्यादृष्टि को नहीं।
- गोत्रकर्म का जघन्य अनुभागबंध तेज व वातकायि कों में ही संभव है।
- प्रकृतियों के जघन्य व उत्कृष्ट अनुभाग बंध कों की प्ररूपणा।
- अनुभाग विषयक अन्य प्ररूपणाओं का सूचीपत्र।
अनुभाग अध्यवसायस्थान। - देखें अध्यवसाय ।
अनुभागकांडकघात। - देखें अपकर्षण - 4।
कषायों की अनुभाग शक्तियाँ। - देखें कषाय - 2।
स्थिति व अनुभाग बंधों की प्रधानता। - देखें स्थिति - 3।
प्रकृति व अनुभाग में अंतर। - देखें प्रकृतिबंध -4.7।
सर्वघाती में देशघाती है, पर देशघाती में सर्वघाती नहीं। - देखें उदय - 4.2।
उत्कृष्ट अनुभाग का बंधक ही उत्कृष्ट स्थिति को बांधता है। - देखें स्थिति - 4।
उत्कृष्ट अनुभाग के साथ ही उत्कृष्ट स्थिति बंध का कारण। - देखें स्थिति - 5।
अनुभाग सत्त्व। - देखें सत्त्व
प्रकृतियों के चतुःस्थानीय अनुभाग बंध के काल, अंतर, क्षेत्र, स्पर्शन, भाव अल्पबहुत्व व संख्या संबंधी प्ररूपणाएँ। - देखें वह वह नाम
1. भेद व लक्षण
1. अनुभाग सामान्य का लक्षण व भेद
धवला पुस्तक 13/5,5,82/349/5
छदव्वाणं सत्ती अणुभागो णाम। सो च अणुभागो छव्विहो-जीवाणुभागो, पोग्गलाणुभागो धम्मत्थियअणुभागो अधम्मत्थियअणुभागो आगासत्थियअणुभागो कालदव्वाणुभागो चेदि।
= छह द्रव्यों की शक्ति का नाम अनुभाग है। वह अनुभाग छः प्रकार का है-जीवानुभाग, पुद्गलानुभाग, धर्मास्तिकायानुभाग, अधर्मास्तिकायानुभाग, आकाशास्तिकायानुभाग और कालद्रव्यानुभाग।
2. जीवादि द्रव्यानुभागों के लक्षण
धवला पुस्तक /13/5,5,82/349/7
तत्थ असेसदव्वागमो जीवाणुभागो। जरकुट्ठक्खयादिविणासणं तदुप्पायणं च पोग्गलाणुभागो। जोणिपाहुडे भणिदमंततंतसत्तीयो पोग्गलाणुभागो त्ति घेतव्वो। जीवपोग्गलाणं गमणागमणहेदुत्तं धम्मत्थियाणुभागो। तेसिमवट्ठाणहेदुत्तं अधम्मत्थियाणुभागो। जीवादिदव्वाणमाहारत्तमागासत्थियाणुभागो। अण्णेसिं दव्वाणं कमाकमेहि परिणमणहेदुत्तं कालदव्वाणुभागो। एवं दुसंजोगादिणा अणुभागपरूवणा कायव्वा। जहा [मट्टिआ] पिंड-दंड-चक्क-चीवर-जल-कुंभारादीणं घडुप्पायणाणुभागो।
= समस्त द्रव्यों का जानना जीवानुभाग है। ज्वर, कुष्ट और क्षय आदि का विनाश करना और उनका उत्पन्न करना, इसका नाम पुद्गलानुभाग है। योनिप्राभृत में कहे गये मंत्र तंत्ररूप शक्तियों का नाम पुद्गलानुभाग है, ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। जीव और पुद्गलों के गमन और आगमन में हेतु होना, धर्मास्तिकायानुभाग है। उन्हीं के अवस्थान में हेतु होना, अधर्मास्तिकायानुभाग है। जीवादि द्रव्यों का आधार होना, आकाशास्तिकायानुभाग है। अन्य द्रव्यों के क्रम और अक्रम से परिणमन में हेतु होना, कालद्रव्यानुभाग है। इसी प्रकार द्विसंयोगादि रूप से अनुभाग का कथन करना चाहिए।
जैसे-मृत्तिकापिंड, दंड, चक्र, चीवर, जल और कुंभार आदि का घटोत्पादन रूप अनुभाग।
3. अनुभाग बंध सामान्य का लक्षण
तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 8/21,22
विपाकोऽनुभवः ॥21॥ स यथानाम ॥22॥
= विविध प्रकार के पाक अर्थात् फल देने की शक्ति का पड़ना ही अनुभव है ॥21॥ वह जिस कर्म का जैसा नाम है उसके अनुरूप होता है ॥22॥
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 1240
कम्माणं जो दु रसो अज्झवसाणजणिद सुह असुहो वा। बंधो सो अणुभागो पदेसबंधो इमो होइ ॥1240॥
= ज्ञानावरणादि कर्मों का जो कषायादि परिणामजनित शुभ अथवा अशुभ रस है वह अनुभागबंध है।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /8/3/379
तद्रसविशेषोऽनुभवः। यथा-अजगोमहिष्यादिक्षीराणां तीव्रमंदादिभावेन रसविशेषः तथा कर्मपुद्गलानां स्वगतसामर्थ्यविशेषोऽनुभवः।
= उस (कर्म) के रस विशेष को अनुभव कहते हैं। जिस प्रकार बकरी, गाय और भैंस आदि के दूध का अलग-अलग तीव्र-मंद आदि रस विशेष होता है, उसी प्रकार कर्म-पुद्गलों का अलग-अलग स्वगत सामर्थ्य विशेष अनुभव है।
(पंचसंग्रह / प्राकृत / अधिकार /4/514) (राजवार्तिक अध्याय 8/3,6/567) (पंचसंग्रह / संस्कृत / अधिकार 4/366) ( द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 33/93)।
धवला पुस्तक 12/4,2,7,199/91/8
अट्ठण्णं वि कम्माणं जीवपदेसाणं अण्णोणाणुगमणहेदुपरिणामो।
= अनुभाग किसे कहते हैं? आठों कर्मों और प्रदेशों के परस्पर में अन्वय (एकरूपता) के कारणभूत परिणाम को अनुभाग कहते हैं।
कषायपाहुड़ पुस्तक 5/4-23/1/2/3
को अणुभागो। कम्माणं सगकज्जकरणसत्ती अणुभागो णामा।
= कर्मों के अपना कार्य करने (फल देने) की शक्ति को अनुभाग कहते हैं।
नियमसार / तात्पर्यवृत्तिगाथा 40
शुभाशुभकर्मणां निर्जरासमये सुखदुःखफलदानशक्तियुक्तो ह्यनुभागबंधः।
= शुभाशुभकर्म की निर्जरा के समय सुखदुःखरूप फल देने की शक्तिवाला अनुभागबंध है।
4. अनुभाग बंध के 14 भेदों का निर्देश
पंचसंग्रह / प्राकृत / अधिकार 4/441
सादि अणादिय अट्ठ य पसत्थिदरपरूवणा तहा सण्णा। पच्चय विवाय देसा सामित्तेणाह अणुभागो ॥441॥
अनुभाग के चौदह भेद हैं। वे इस प्रकार हैं-1. सादि, 2. अनादि, 3. ध्रुव, 4. अध्रुव, 5. जघन्य, 6. अजघन्य, 7. उत्कृष्ट, 8. अनुत्कृष्ट, 9. प्रशस्त, 10. अप्रशस्त, 11. देशघाति व सर्वघाति, 12. प्रत्यय, 13. विपाक, ये तेरह प्रकार तो अनुभाग बंध और 14 वाँ स्वामित्व। इन चौदह भेदों की अपेक्षा अनुभाग बंध का वर्णन किया जाता है।
5. सादि अनादि ध्रुव अध्रुव आदि अनुभागों के लक्षण
गोम्मट्टसार कर्मकांड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या./91/75
येषां कर्मणां उत्कृष्टाः तेषामेव कर्मणां उत्कृष्टः स्थित्यनुभागप्रदेशः साद्यादिभेदाच्चतुर्विधो भवति। अजघन्येऽपि एवमेव चतुर्विधः। तेषां लक्षणं.....अत्रोदाहरणमात्रं किंचित्प्रदर्श्यते। तद्यथा-उपशमश्रेण्यारोहकः सूक्ष्मसांपरायः उच्चैर्गोत्रानुभागं उत्कृष्टं बद्ध्वा उपशांतकषायो जातः। पुनरवरोहणे सूक्ष्मसांपरायो भूत्वा तदनुभागमनुत्कृष्टं बध्नातितदास्य सादित्वम्। तत्सूक्ष्मसांपरायचरमादधोऽनादित्वं। अभव्ये ध्रुवत्वं यदा अनुत्कृष्टं त्यक्त्वाउत्कृष्टं बध्नाति तदा अध्रुवत्वमिति। अजघन्येऽप्येवमेव चतुर्विधः। तद्यथा-सप्तमपृथिव्यां प्रथमोपशमसम्यक्त्वाभिमुखो मिथ्यादृष्टिश्चरमसमये नीचैर्गोत्रानुभाग जघन्यं बद्ध्वा सम्यग्दृष्टिर्भूत्वा तदनुभागमजघन्यं बध्नाति तदास्य सादित्वं द्वितीयादिसमयेषु अनादित्वमिति चतुर्विधं यथासंभव द्रष्टव्यम्।
= अनुभाग व प्रदेश बंध सादि, अनादि, ध्रुव, अध्रुव भेदतैं चार प्रकार ही है। बहुरि अजघन्य भी ऐसे ही अनुत्कृष्टवत् च्यार प्रकार ही है। इनके लक्षण यहाँ उदाहरण मात्र किंचित् कहिये है - उपशम श्रेणी चढ़ने वाला जीव सूक्ष्म सांपराय गुणस्थानवर्ती भया तहाँ उत्कृष्ट उच्चगोत्र का अनुभागबंध करि पीछे उपशांतकषाय गुणस्थानवर्ती भया। बहुरि इहाँ तैं उतरि करि सूक्ष्मसांपराय गुणस्थानवर्ती भया। तहाँ अनुत्कृष्ट उच्चगोत्र के अनुभाग बंध किया। तहाँ इस अनुत्कृष्ट उच्चगोत्र के अनुभाग को सादि कहिये। जातैं अनुत्कृष्ट उच्चगोत्र के अनुभाग का अभाव होइ बहुरि सद्भाव भया तातैं सादि कहिये। बहुरि सूक्ष्मसांपराय गुणस्थानतैं नीचे के गुणस्थानवर्ती जीव हैं तिनके सो बंध अनादि है। बहुरि अभव्य जीव विषैं सो बंध ध्रुव है। बहुरि उपशम श्रेणी वाले के जहाँ अनुत्कृष्ट को उत्कृष्ट बंध हो है तहाँ सो बंध अध्रुव है ऐसे अनुत्कृष्ट उच्चगोत्र के अनुभाग बंधविषैं सादि अनादि ध्रुव अध्रुव च्यारि प्रकार कहै। ऐसे ही जघन्य भी च्यारि प्रकार है, सो कहिये है। सप्तम नरक पृथिवीविषैं प्रथमोपशम सम्यक्त्व का सन्मुख भया मिथ्यादृष्टि जीव तहाँ मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का अंत समय विषैं जघन्य नीच गोत्र के अनुभाग को बांधे है। बहुरि सो जीव सम्यग्दृष्टि होइ पीछे मिथ्यात्व के उदयकरि मिथ्यादृष्टि भया तहाँ अजघन्य नीच गोत्र के अनुभाग को बांधे है। तहाँ इस अजघन्य नीच गोत्र के अनुभाग को सादि कहिये। बहुरि तिस मिथ्यादृष्टि के तिस अंत समयतैं पहिलै सो बंध अनादि है। अभव्य जीव के सो बंध ध्रुव है। जहां अजघन्य को छोड़ जघन्य को प्राप्त भया तहाँ सो बंध अध्रुव है। ऐसे अजघन्य नीचगोत्र के अनुभागविषैं सादि अनादि ध्रुव अध्रुव च्यारि प्रकार कहे। ऐसे ही यथा संभव और भी बंध विषैं सादि अनादि ध्रुव अध्रुव च्यारि प्रकार जानने। प्रकृति बंध विषैं उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट जघन्य अजघन्य ऐसे भेद नाहीं है। स्थिति, अनुभाग, प्रदेशबंधनि विषैं वे भेद यथायोग्य जानने।
6. अनुभाग स्थान सामान्य का लक्षण
धवला पुस्तक 12/4,2,7,200/111/12
एगजीवम्मि एक्कम्हि समये जो दीसदि कम्माणुभागो तं ठाणं णाम
= एक जीवमें एक समयमें जो कर्मानुभाग दिखता है उसे स्थान कहते हैं।
कषायपाहुड़ पुस्तक 5/4-22/$572/336/1
अनुभागट्ठाणं णाम चरिमफद्दयचरिमवग्गणाए एगपरमाणुम्हि ट्ठिदअणुभागट्ठाणविभागपडिच्छेदकलावो। सो उक्कडणाए वट्टदि...।
= अंतिम स्पर्धक की अंतिम वर्गणा के एक परमाणु में स्थित अनुभाग के अविभाग प्रतिच्छेदों के समूह को अनुभाग स्थान कहते हैं। प्रश्न - ऐसा मानने पर `एक अनुभाग स्थान में अनंत स्पर्धक होते हैं' इस सूत्र के साथ विरोध आता है?
उत्तर - नहीं, क्योंकि जघन्य अनुभाग स्थान के जघन्य स्पर्धक से लेकर ऊपर के सर्व स्पर्धक उसमें पाये जाते हैं।....
प्रश्न - तो एक अनुभाग स्थान में जघन्य वर्गणा से लेकर उत्कृष्ट स्थान की उत्कृष्ट वर्गणा पर्यंत क्रमसे बढ़ते हुए प्रदेशों के रहने का जो कथन किया जाता है उसका अभाव प्राप्त होता है?
उत्तर - ऐसा कहना ठीक नहीं, क्योंकि जहाँ यह उत्कृष्ट अनुभाग वाला परमाणु है, वहाँ क्यां यह एक ही परमाणु है या अन्य भी परमाणु हैं। ऐसा पूछा जाने पर कहा जायेगा कि वहाँ वह एक ही परमाणु नहीं है, किंतु वहाँ अनंत कर्मस्कंध होने चाहिए और उन कर्मस्कंधों के अवस्थान का यह क्रम है, यह बतलाने के लिए अनुभाग स्थान की उक्त प्रकार से प्ररूपणा की है।
प्रश्न - जैसे योगस्थान में जीव के सब प्रदेशों की सब योगों के अविभाग प्रतिच्छेदों को लेकर स्थान प्ररूपणा की है वैसा कथन यहाँ क्यों नहीं करते? उत्तर - नहीं, क्योंकि वैसा कथन करने पर अधःस्थित गलना के द्वारा और अन्य प्रकृति रूप संक्रमण के द्वारा अनुभाग कांडक की अंतिम फाली को छोड़कर द्विचरम आदि फालियों में अनुभाग स्थान के घात का प्रसंग आता है। किंतु ऐसा है नहीं, क्योंकि कांडक घात को छोड़कर अन्यत्र उसका घात नहीं होता।
समयसार / आत्मख्याति गाथा 52
यानि प्रतिविशिष्टप्रकृतिरसपरिणामलक्षणानि अनुभागस्थानानि.....।
= भिन्न-भिन्न प्रकृतियों के रस के परिणाम जिनका लक्षण हैं, ऐसे जो अनुभाग स्थान.....।
7. अनुभाग स्थान के भेद
धवला पुस्तक 12/4,7,2,200/111/13
तं च ठाणं दुविहं-अणुभागबंधट्ठाणं अणुभागसंतट्ठाणं चेदि।
= वह स्थान दो प्रकार का है - अनुभाग बंध स्थान व अनुभाग सत्त्वस्थान।
कषायपाहुड़ पुस्तक 5/4-22/ठाणप्ररूपणा सूत्र/पृष्ठ 330/14
संतकम्मट्ठाणाणि तिविहाणि-बंधसमुप्पत्तियाणि हदसमुप्पत्तियाणि हदहदसमुप्पत्तियाणि।
= सत्कर्मस्थान (अनुभाग) तीन प्रकार के हैं - बंधसमुत्पत्तिक, हतसमुत्पत्तिक और हतहतसमुत्पत्तिक।
(कषायपाहुड़ पुस्तक 5/4-22/$186/125/8)।
8. अनुभागस्थान के भेदों के लक्षण
1. अनुभाग सत्कर्म का लक्षण
धवला पुस्तक /12/4,2,4,200/112/1
जमणुभागट्ठाणं घादिज्जमाणं बंधाणुभागट्ठाणेण सरिसंण होदि, बंधअट्ठंक उव्वंकाणं विच्चाले हेट्ठिम उव्वंकादो अणंतगुणं उवरिम अट्ठंकादो अणंतगुणहीणं होदूण चेट्ठदि, तमणुभागसंतकम्मट्ठाणं।
= घाता जाने वाला जो अनुभागस्थान बंधानुभाग के सदृश नहीं होता है, किंतु बंध सदृश अष्टांक और उर्वक के मध्य में अधस्तन उर्वक से अनंतगुणा और उपरिम अष्टांक से अनंतगुणा हीन होकर स्थित रहता है, वह अनुभाग सत्कर्मस्थान है।
2. अनुभाग बंध स्थान का लक्षण
धवला पुस्तक /12/4,2,7,200/13
तत्थ जं बंधेण णिप्फण्णं तं बंधट्ठाण णाम। पुव्वबंधाणुभागे घादिज्जमाणे जं बंधाणुभागेण सरिसं होदूण पददि तं पि बंधट्ठाणं चेव, तत्सरिसअणुभागबंधुवलंभादो।
= जो बंध से उत्पन्न होता है वह बंधस्थान कहा जाता है। पूर्व बद्ध अनुभाग का घात किये जाने पर जो बंध अनुभाग के सदृश होकर पड़ता है वह भी बंधस्थान ही है, क्योंकि, उसके सदृश अनुभाग बंध पाया जाता है।
3. बंध समुत्पत्तिक अनुभाग सत्कर्मस्थान का लक्षण
कषायपाहुड़ पुस्तक 5/4-22/$570/331/1
बंधात्समुत्पत्तिर्येषां तानि बंधसमुत्पत्तिकानि।
= जिन सत्कर्मस्थानों की उत्पत्ति बंध से होती है, उन्हें बंधसमुत्पत्तिक कहते हैं।
कषायपाहुड़ पुस्तक 5/4-22/$186/125/9
हदसमुप्पत्तियं कादूणच्छिदसुहुमणिगोदजहण्णाणुभागसंतट्ठाणसमाणबंधट्ठाणमादिं कादूण जाव सण्णिपंचिदियपज्जतसव्वुक्कस्साणुभागबंधट्ठाणे त्ति ताव एदाणि असंखे0 लोगमेत्तछट्ठाणाणि बंधसमुत्पत्तियट्ठाणाणि त्ति भण्णंति, बंधेण समुप्पण्णत्तादी। अणुभागसंतट्ठाणघादेण जमुप्पण्णमणुभागसंतट्ठाणं तं पि एत्थ बंधट्ठाणमिदि घेत्तव्वं, बंधट्ठाणसमाणत्तादो।
= 1. हतसमुत्पत्तिक सत्कर्म को करके स्थित हुए सूक्ष्म निगोदिया जीव के जघन्य अनुभाग सत्त्वस्थान के समान बंधस्थान से लेकर संज्ञी पंचेंद्रिय पर्याप्तक के सर्वोत्कृष्ट अनुभागबंधस्थान पर्यंत जो असंख्यात लोकप्रमाण षट्स्थान हैं उन्हें बंध समुत्पत्तिकस्थान कहते हैं, क्योंकि वे स्थान बंध से उत्पन्न होते हैं।
2. अनुभाग सत्त्वस्थान के घात से जो अनुभाग सत्त्वस्थान उत्पन्न होते हैं उन्हें भी यहाँ बंधस्थान ही मानना चाहिए; क्योंकि वे बंधस्थान के समान हैं। (सारांश यह है कि बंधने वाले स्थानों को ही बंधसमुत्पत्तिकस्थान नहीं कहते, किंतु पूर्वबद्ध अनुभागस्थानों में भी रसघात होने से परिवर्तन होकर समानता रहती है तो वे स्थान भी बंधस्थान ही कहे जाते हैं।
4. हतसमुत्पत्तिक अनुभाग सत्कर्मस्थान का लक्षण
धवला पुस्तक 12/4,2,7,35/29/5
`हदसमुप्पत्तियकम्मेण' इति वुत्ते पुव्विल्लमणुभागसंतकम्मं सव्वं घादिय अणंतगुणहीणं कादूण `ट्ठिदेण' इति वुत्तं होदि।
= `हतसमुत्पत्तिक कर्म वाले' ऐसा कहने पर पूर्व के समस्त अनुभाग सत्त्व का घात करके और उसे अनंत गुणा हीन करके स्थित हुए जीव के द्वारा, यह अभिप्राय समझना चाहिए।
कषायपाहुड़ पुस्तक 5/4-22/$470/331/1
हते समुत्पत्तिर्येषां तानि हतसमुत्पत्तिकानि।
= घात किये जाने पर जिन सत्कर्मस्थानों की उत्पत्ति होती है, उन्हें हतसमुत्पत्तिक कहते हैं।
कषायपाहुड़ पुस्तक 5/4-22/$186/125/14
पुणो एदेसिमसंखे0 लोगमेत्तछट्ठाणाणं मज्झे अणंतगुणवड्ढि-अणंतगुणहाणि अट्ठंकुव्वंकाणं विच्चालेसु असंखे0 लोगमेत्तछट्ठाणाणि हदसमुपत्तियसंतकम्मछट्ठाणाणि भण्णंति। बंधट्ठाणघादेण बंधट्ठाणाणं विच्चालेसु जच्चंतरभावेण उप्पणतादो।
= इन असंख्यात लोकप्रमाण षट्स्थानों के मध्य में अष्टांक और उर्वक रूप जो अणंतगुणवृद्धियाँ और अणंतगुणहानियाँ हैं उनके मध्य में जो असंख्यात लोकप्रमाण षट्स्थान हैं, उन्हें हतसमुत्पत्तिक सत्कर्मस्थान कहते हैं। क्योंकि बंधस्थान का घात होने से बंधस्थानों के बीच में ये जात्यंतर रूप से उत्पन्न हुए हैं।
5. हतहतसमुत्पत्तिक अनुभाग सत्कर्मस्थान का लक्षण
कषायपाहुड़ पुस्तक 5/4-22/$470/331/2
हतस्य हतिः हतहतिः ततः समुत्पत्तिर्येषां तानि हतहतिसमुत्पत्तिकानि।
= घाते हुए का पुनः घात किये जाने पर जिन सत्कर्मस्थानों की उत्पत्ति होती है, उन्हें हतहतसमुत्पत्तिक कहते हैं।
कषायपाहुड़ पुस्तक 5/4-22/$186/126/2
पुणो एदेसिमसंखे0 लोकमेत्ताणं हदसमुप्पत्तियसंतकम्मट्ठाणाणमणंतगुणवड्ढि-हाणि अट्ठंकुव्वंकाणं विच्चालेसु असंखे0 लोगमेतछट्ठाणाणि हदहदसमुप्पत्तियसंतकम्म ट्ठाणाणि, वुच्चंति, धादेणुप्पण्ण अणुभागट्ठाणाणि बंधाणुभागट्ठाणेहिंतो विसरिसाणि घादियबंधसमुप्पत्तिय-हदसमुप्पत्तियअणुभागट्ठाणेहिंतो विसरिसभावेण उप्पाइदत्तादो।
= इन असंख्यात लोकप्रमाण हतसमुत्पत्तिक सत्कर्मस्थानों के जो कि अष्टांक और उर्वंकरूप अनंतगुण वृद्धि हानिरूप हैं, बीच में जो असंख्यात लोकप्रमाण षट्स्थान हैं, उन्हें हतहतसमुत्पत्तिक सत्कर्मस्थान कहते हैं। बंधस्थानों से विलक्षण जो अनुभागस्थान रसघात से उत्पन्न हुए है; उनका घात करके उत्पन्न हुए ये स्थान बंधसमुत्पत्तिक और हतसमुत्पत्तिक अनुभाग स्थानों से विलक्षणरूप से ही वे उत्पन्न किये जाते हैं।
2. अनुभागबंध निर्देश
1. अनुभाग बंधसामांय का कारण
षट्खंडागम पुस्तक 12/4-2-8 संत 13/288
कसायपच्चए ट्ठिदि अणुभागवेयण ॥13॥
= कषाय प्रत्यय से स्थिति व अनुभाग वेदना होती है।
(सर्वार्थसिद्धि अध्याय /8/3/379) (राजवार्तिक अध्याय 8/3,10/567) ( धवला पुस्तक 12/4-2-8-13/गाथा 2/489) (नयचक्रवृहद् गाथा 155) ( गोम्मट्टसार कर्मकांड / मूल गाथा संख्या/257/364) (द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 33)।
2. शुभाशुभ प्रकृतियों के जघन्य व उत्कृष्ट अनुभाग बंध के कारण
पंचसंग्रह / अधिकार /4/451-452
सुहपयडीण विसोही तिव्वं असुहाण संकिलेसेण। विवरीए दु जहण्णो अणुभाओ सव्वपयडीणं ॥451॥ बायालं पि पसत्था विसोहिगुण उक्कडस्स तिव्वाओ। वासीय अप्पसत्था मिच्छुक्कडसंकि लिट्ठस्स ॥442॥
= शुभ प्रकृतियों का अनुभागबंध विशुद्ध परिणामों से तीव्र अर्थात् उत्कृष्ट होता है। अशुभ प्रकृतियों का अनुभागबंध संक्लेश परिणामों से उत्कृष्ट होता है। इससे विपरीत अर्थात् शुभ प्रकृतियों का संक्लेश से और अशुभ प्रकृतियों का विशुद्धि से जघन्य अनुभाग बंध होता है ॥451॥
जो ब्यालीस प्रशस्त प्रकृतियाँ हैं, उनका उत्कृष्ट अनुभागबंध विशुद्धिगुण की उत्कटता वाले जीव के होता है तथा ब्यासी जो अप्रशस्त प्रकृतियाँ हैं उनका उत्कृष्ट अनुभाग बंध उत्कृष्ट संक्लेश वाले मिथ्यादृष्टि जीव के होता है ॥452॥
( सर्वार्थसिद्धि अध्याय /8/21/398) (राजवार्तिक अध्याय 8/21,1/583/14) ( गोम्मट्टसार कर्मकांड / मूल गाथा संख्या/163-164/199) (पंचसंग्रह / संस्कृत / अधिकार 4/273-274)।
3. शुभाशुभ प्रकृतियों के चतुःस्थानीय अनुभाग निर्देश
पंचसंग्रह / प्राकृत / अधिकार /4/487
सुहपयडीणं भावा गुडखंडसियामयाण खलु सरिसा। इयरा दु णिंबकंजीरविसहालाहलेण अहमाई।
= शुभ प्रकृतियों के अनुभाग गुड़ खाँड शक्कर और अमृत के तुल्य उत्तरोत्तर मिष्ट होते हैं। पाप प्रकृतियों का अनुभाग निंब, कांजीर, विष व हालाहल के समान निश्चय से उत्तरोत्तर कटुक जानना।
(पंचसंग्रह / अधिकार /4/319) ( गोम्मटसार कर्मकांड/ मूल/184/216) (द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 33/39)।
4. प्रदेशों के बिना अनुभागबंध संभव नहीं
धवला पुस्तक 6/1,9,7,43/201/5
अणुभागबंधादो पदेसबंधो तक्कारणजोगट्ठाणाणं च सिद्धाणि हवंति। कुदो। पदंसेहि विणा अणुभागाणुववत्तीदो।
= अनुभाग बंध से प्रदेश बंध और उसके कारणभूत योगस्थान सिद्ध होते हैं, क्योंकि प्रदेशों के बिना अनुभाग बंध नहीं हो सकता।
5. परंतु प्रदेशों की हीनाधिकता से अनुभाग की हीनाधिकता नहीं होती
कषायपाहुड़ पुस्तक 5/4-22/$557/337/11
ट्ठिदीए इव पदेसगलणाए अणुभावघादो णत्थि त्ति जाणावणट्ठं।
= प्रदेशों के गलने से जैसे स्थिति घात होता है, वैसे प्रदेशों के गलने से अनुभाग का घात नहीं होता।
कषायपाहुड़ पुस्तक 5/4-22/$572/336/1
उक्कट्ठिदे अणुभागट्ठाणाविभागपडिछेदाणं वड्ढीए अभावादो। ....ण सो उक्कऽणाए वड्ढदि, बंधेण विणा तदुक्कड्डणाणुववत्तीदो।
= उत्कृषण के होने पर अनुभाग स्थान के अविभाग प्रतिच्छेदों का समूह रूप वह अनुभाग स्थान उत्कर्षण से नहीं बढ़ता, क्योंकि बंध के बिना उनका उत्कर्षण नहीं बन सकता।
धवला पुस्तक 12/4,2,7,201/115/5
जोगवड्ढीदो अणुभागवड्ढीए अभावादो।
= योग वृद्धि से अनुभाग वृद्धि संभव नहीं।
3. घाती अघाती अनुभाग निर्देश
1. घाती व अघाती प्रकृति के लक्षण
धवला पुस्तक 7/2,1,15/62/6
केवलणाण-दंसण-सम्मत्त-चारित्तवीरियाणमणेयभेयभिण्णाण जीवगुणाण विरोहित्तणेण तेसिं घादिववदेसादो।
= केवलज्ञान, केवलदर्शन, सम्यक्त्व, चारित्र और वीर्य रूप जो अनेक भेद-भिन्न जीवगुण हैं, उनके उक्त कर्म विरोधी अर्थात् घातक होते हैं और इसलिए वे घातियाकर्म कहलाते हैं।
(गोम्मट्टसार कर्मकांड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या./10/8) (पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 998)।
धवला पुस्तक 7/2,1,15/62/7
सेसकम्माणं घादिववदेसो किण्ण होदि। ण, तेसि जीवगुणविणासणसत्तीए अभावा।
= शेष कर्मों को घातिया नहीं कहते क्योंकि, उनमें जीव के गुणों का विनाश करने की शक्ति नहीं पायी जाती।
( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 999)।
2. घाती अघाती की अपेक्षा प्रकृतियों का विभाग
राजवार्तिक अध्याय 8/23,7/584/28
ताः पुनः कर्मप्रकृतयो द्विविधाः-घाति का अघातिकाश्चेति। तत्र ज्ञानदर्शनावरणमोहांतरायाख्या घातिका। इतरा अघातिकाः।
= वह कर्म प्रकृतियाँ दो प्रकार की हैं - घातिया व अघातिया। तहाँ ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोह व अंतराय ये तो घातिया हैं और शेष चार (वेदनीय, आयु, नाम, गोत्र) अघातिया।
(धवला पुस्तक 7/2,1,15/62), ( गोम्मट्टसार कर्मकांड / मूल गाथा संख्या/7,9/7)।
3. जीवविपाकी प्रकृतियों को घातिया न कहने का कारण
धवला पुस्तक 7/2,1,15/63/1
जीवविवाइणामकम्मवेयणियाणं घादिकम्मववएसो किण्ण होदि। ण जीवस्स अणप्पभूदसुभगदुभगादिपज्जयसमुप्पायणे वावदाणं जीव-गुणविणासयत्तविरहादो। जीवस्स सुहविणासिय दुक्खप्पाययं असादावेदणीयं घादिववएसं किण्ण लहदे। ण तस्स घादिकम्मसहायस्स घादिकम्मेहि विणा सकलकरणे असमत्थस्स सदो तत्थ पउत्ती णत्थि त्ति जाणावणट्ठं तव्ववएसाकरणादो।
= प्रश्न - जीवविपाकी नामकर्म एवं वेदनीय कर्मों को घातिया कर्म क्यों नहीं माना?
उत्तर - नहीं माना, क्योंकि, उनका काम अनात्मभूत सुभग दुर्भग आदि जीव की पर्यायें उत्पन्न करना है, जिससे उन्हें जीवगुण विनाशक मानने में विरोध उत्पन्न होता है।
प्रश्न - जीव के सुख को नष्ट करके दुःख उत्पन्न करने वाले असातावेदनीय को घातिया कर्मनाम क्यों नहीं दिया?
उत्तर - नहीं दिया, क्योंकि, वह घातियाकर्मों का सहायक मात्र है और घातिया कर्मों के बिना अपना कार्य करने में असमर्थ तथा उसमें प्रवृत्ति रहित है। इसी बात को बतलाने के लिए असाता वेदनीय को घातिया कर्म नहीं कहा।
4. वेदनीय भी कथंचित् घातिया है
गोम्मट्टसार कर्मकांड / मूल गाथा संख्या/19/12
घादिंव वेयणीयं मोहस्स बलेण घाददे जीवं। इदि घादीणं मज्झे मोहस्सादिम्हि पढिदं तु ॥19॥
= वेदनीयकर्म घातिया कर्मवत् मोहनीयकर्म का भेद जो रति अरति तिनि के उदयकाल करि ही जीव को घातै है। इसी कारण इसको घाती कर्मों के बीच में मोहनीय से पहिले गिना गया है।
5. अंतराय भी कथंचित् अघातिया है
गोम्मट्टसार कर्मकांड / मूल गाथा संख्या/17/11
घादीवि अघादिं वा णिस्सेसं घादणे असक्कादो। णामतियणिमित्तादो विग्घं पडिदं अघादि चरिमम्हि ॥17॥
= अंतरायकर्म घातिया है तथापि अघातिया कर्मवत् है। समस्त जीव के गुण घातने को समर्थ नाहीं है। नाम, गोत्र, वेदनीय इन तीन कर्मनि के निमित्ततैं ही इसका व्यापार है। इसी कारण अघातियानि के पीछे अंत विषैं अंतराय कर्म कह्या है।
धवला पुस्तक 1/1,1,1/44/4
रहस्यमंतरायः, तस्य शेषघातित्रितयविनाशाविनाभाविनो भ्रष्टवीजवन्निःशक्तीकृताघातिकर्मणो हननादरिहंता।
= रहस्य अंतरायकर्म को कहते हैं। अंतराय कर्म का नाश शेष तीन घातिया कर्मों के नाश का अविनाभावी है और अंतराय कर्म के नाश होने पर अघातिया कर्म भ्रष्ट बीज के समान निःशक्त हो जाते हैं।
4. सर्वघाती व देशघाती अनुभाग निर्देश
1. सर्वघाती व देशघाती अनुभाग निर्देश
राजवार्तिक अध्याय 8/23,7/584/29
घातिकाश्चापि द्विविधाः सर्वघातिका देशघातिकाश्चेति।
= घातिया प्रकृतियाँ भी दो प्रकार हैं-सर्वघाती व देशघाती।
(धवला पुस्तक 7/2,1,15/63/6) ( गोम्मट्टसार कर्मकांड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या./38/48/2)।
2. सर्वघाती व देशघाती के लक्षण
कषायपाहुड़ पुस्तक 5/$3/3/11
सव्वघादि त्ति किं। सगपडिबद्धं जीवगुणं सव्वं णिरवसेसं घाइउं विणासिदुं सीलं जस्स अणुभागस्स सो अणुभागो सव्व घादी।
= सर्वघाती इस पद का क्या अर्थ है? अपने से प्रतिबद्ध जीव के गुण को पूरी तरह से घातने का जिस अनुभाग का स्वभाव है उस अनुभाग को सर्वघाती कहते हैं।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 34/99
सर्वप्रकारेणात्मगुणप्रच्छादिकाः कर्मशक्तयः सर्वघातिस्पर्द्धकानि भण्यंते, विवक्षितैकदेशेनात्मगुणप्रच्छादिकाः शक्तयो देशघातिस्पर्द्धकानि भण्यंते।
= सर्वप्रकार से आत्मगुणप्रच्छादक कर्मों की शक्तियाँ सर्वघाती स्पर्धक कहे जाते हैं और विवक्षित एकदेश रूप से आत्मगुणप्रच्छादक शक्तियाँ देशघाती स्पर्द्धक कहे जाते हैं।
3. सर्वघाती व देशघाती प्रकृतियों का निर्देश
पंचसंग्रह / प्राकृत / अधिकार 483-484
केवलणाणावरणं दंसणछक्कं च मोहवारसयं। ता सव्वघाइसण्णा मिस्सं मिच्छत्तमेयवीसदिमं ॥483॥ णाणावरणचउक्कं दंसणतिगमंतराइगे पंच। ता होंति देशघाई सम्मं संजलणणीकसाया य ॥484॥
= केवलज्ञानावरण, दर्शनावरणषट्क अर्थात् पाँच निद्रायें व केवलदर्शनावरण, मोहनीय की बारह अर्थात् अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान चतुष्क, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन 21 प्रकृतियों की सर्वघाती संज्ञा है ॥483॥ ज्ञानावरण के शेष चार, दर्शनावरण की शेष तीन, अंतराय की पाँच, सम्यक्त्वप्रकृति, संज्वलनचतुष्क और नौ नोकषाय-ये छब्बीस देशघाती प्रकृतियाँ हैं ॥484॥
(राजवार्तिक अध्याय 8/23,7/584/30) ( गोम्मट्टसार कर्मकांड / मूल गाथा संख्या/39-40/43) (पंचसंग्रह / संस्कृत / अधिकार 4/310-313)।
गोम्मट्टसार कर्मकांड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या./546/708/14
द्वादश कषायाणां स्पर्धकानि सर्वघातीन्येव न देशघातीनि।
= बारह कषाय अर्थात् अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान चतुष्क के स्पर्धक सर्वघाती ही हैं, देशघाती नहीं।
4. सर्व व देशघाती प्रकृतियों में चतुःस्थानीय अनुभाग
धवला पुस्तक 7/2,1,15/63/गाथा 14
सव्वावरणीयं पुण उक्कस्सं होदि दारुगसमाणे। हेठ्ठा देसावरणं सव्वावरणं च उवरिल्लं ॥14॥
= घातिया कर्मों की जो अनुभाग शक्ति लता, दारु, अस्थि और शैल समान कही गयी है, उसमें दारु तुल्य से ऊपर अस्थि और शैल तुल्य भागों में तो उत्कृष्ट सर्वावरणीय या सर्वघाती शक्ति पायी जाती है, किंतु दारु सम भाग के निचले अनंतिम भाग में (व उससे नीचे सब लता तुल्य भाग में) देशावरण या देशघाती शक्ति है, तथा ऊपर के अनंत बहु भागों में (मध्यम) सर्वावरण शक्ति है।
गोम्मट्टसार कर्मकांड / मूल गाथा संख्या/180/211
सत्ती य लदादारू अट्ठीसेलोवमाहु घादीणं। दारुअणंतिमभागोत्ति देसघादी तदो सव्वं।
= घातिया प्रकृतियों में लता दारु अस्थि व शैल ऐसी चार शक्तियाँ हैं। उनमें दारु का अनंतिम भाग (तथा लता) तो देशघाती हैं और शेष सर्वघाती हैं।
(द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 33/93)
क्षपणासार /भाषा टीका /465/540/11
तहाँ जघन्य स्पर्धकतैं लगाय अनंत स्पर्धक लता भाग रूप हैं। तिनके ऊपर अनंत स्पर्धक दारु भाग रूप हैं। तिनिके ऊपर अनंत स्पर्धक अस्थि भाग रूप हैं। तिनिके ऊपर उत्कृष्ट स्पर्धक पर्यंत अनंत स्पर्धक शैल भाग रूप हैं। तहाँ प्रथम स्पर्धक देशघाती का जघन्य-स्पर्धक है तहाँ तैं लगाय लता भाग के सर्व स्पर्धक अर दारु भाग के अनंतवाँ भाग मात्र (निचले) स्पर्धक देशघाती हैं। तहाँ अंत विषैं देशघाती उत्कृष्ट स्पर्धक भया। बहुरि ताके ऊपरि सर्वघाती का जघन्य स्पर्धक है। तातैं लगाय ऊपरि के सब स्पर्धक सर्वघाती है। तहाँ अंत स्पर्धक उत्कृष्ट सर्वघाती जानना।
5. कर्म प्रकृतियों में यथायोग्य चतुःस्थानीय अनुभाग
1. ज्ञानावरणादि सर्व प्रकृतियों की सामान्य प्ररूपणा
पंचसंग्रह / प्राकृत / अधिकार 4/486
आवरणदेसघायंतरायसंजलणपुरिससत्तरसं। चउविहभावपरिणया तिभावसेसा सयं तु सत्तहियं।
= मतिज्ञानावरणादि चार, चक्षुदर्शनावरणादि तीन, अंतराय की पाँच, संज्वलन चतुष्क और पुरुषवेद, ये सत्तरह प्रकृतियाँ लता, दारु, अस्थि और शैल रूप चार प्रकार के भावों से परिणत हैं। अर्थात् इनका अनुभाग बंध एकस्थानीय, द्विस्थानीय, त्रिस्थानीय और चतुःस्थानीय होता है। शेष 107 प्रकृतियाँ दारु, अस्थि और शैलरूप तीन प्रकार के भावों से परिणत होती हैं। उ का एक स्थानीय (केवल लता रूप) अनुभाग बंध नहीं होता ॥48॥
क्षपणासार /भाषा टीका/465/540/17
केवल के विना च्यारि ज्ञानावरण, तीन दर्शनावरण, अर सम्यक्त्व मोहनीय, संज्वलन चतुष्क, नोकषाय नव, अंतराय पाँच इन छब्बीस प्रकृतिनि की लता समान स्पर्धक की प्रथम वर्गणा सो एक-एक वर्ग के अविभाग प्रतिच्छेद की अपेक्षा समान है। ......बहुरि मिथ्यात्व बिना केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरण, निद्रा पाँच, मिश्रमोहनीय, संज्वलन बिना 12 कषाय इन सर्वघाती 20 प्रकृतिनि के देशघाती स्पर्धक हैं नाहीं। तातें सर्वघाती जघन्य स्पर्धक वर्गणा तैसे ही परस्पर समान जाननी। तहाँ पूर्वोक्त देशघाती छब्बीस प्रकृतिनि की अनुभाग रचना देशवाती जघन्य स्पर्धक तैं लगाय उत्कृष्ट देशघाती स्पर्धक पर्यंत होइ। तहाँ सम्यक्त्वमोहनीय का तौ इहाँ ही उत्कृष्ट अनुभाग होइ निवरया। अवशेष 25 प्रकृतिनि की रचना तहाँ तैं ऊपर सर्वघाती उत्कृष्ट स्पर्धक पर्यंत जाननी। बहुरि सर्वघाती बीस प्रकृतिनि की रचना सर्वघाती का जघन्य स्पर्धकतैं लगाय उत्कृष्ट स्पर्धक पर्यंत है। यहाँ विशेष इतना-सर्वघाती दारु भाग के स्पर्धकनिका अनंतवाँ भाग मात्र स्पर्धक पर्यंत मिश्र मोहनीय के स्पर्धक जानने। ऊपरि नहीं हैं। बहुरि इहाँ पर्यंत मिथ्यात्व के स्पर्धक नाहीं है। इहाँ तै ऊपरि उत्कृष्ट स्पर्धक पर्यंत मिथ्यात्व के स्पर्धक हैं।
2. मोहनीय प्रकृति की विशेष प्ररूपणा
कषायपाहुड़ पुस्तक 5/4-22/चूर्णसूत्र/$189-214/129-151
उत्तरपयडिअणुभागविहत्तिं वत्तइस्सामो।$189। पुव्वं गणिज्जा इमा परूवणा ।$190। सम्मत्तस्स पढमं देसघादिफद्दयमादिं कादूण जाव चरिम घादिफद्दगं त्ति एदाणि फद्दयाणि ।$191। सम्मामिच्छत्तस्स अणुभागसंतकम्मं सव्वघादिआदिफद्दयमादिंकादूण दारुअसमाणस्स अणंतभागे णिट्ठिदं ।$192। मिच्छत्तस्स अणुभागसंतकम्मं जम्मि सम्मामिच्छत्तस्स अणुभागसंतकम्मं णिट्ठिदं तदो अणंतरफद्दयमाढत्ता उवरि अप्पडिसिद्धं ।$193। बारसकसायाणमणुभागसंतकम्मं सव्वघादीणं दुट्ठाणियमादिफद्दयमादिं कादूण उवरिमप्पडिसिद्धं ।$194। चदुसंजलणणवणोकसायाणमणुभागसंतकम्मं देसघादीणमादिफद्दयमादिं कादूण उवरि सव्वघादि त्ति अप्पडिसिद्धं ।$195। तत्थ दुविधा सण्णा घादि सण्णा ट्ठाणसण्णा च ।$196। ताओ दो वि एक्कदो णिज्जंति ।$197। मिच्छत्तस्स अणुभागसंतकम्मं जहण्णयं सव्वघादि दुट्ठाणियं ।$198। उक्कस्सयमणुभागसंतकम्मं सव्वघादिचदुट्ठाणियं ।$200। एवं बारसकसायछण्णोकसायाणं ।$201। सम्मत्तस्स अणुभागसंतकम्मं देसघादि एगट्ठाणियं वा दुट्ठाणियं वा ।$202। सम्मामिच्छत्तस्स अणुभागसंतकम्मं सव्वघादि दुट्ठाणियं ।$203। एक्कं चेव ट्ठाणं सम्मामिच्छत्ताणुभागस्स ।$204। चदुसंजलणाणमणुभागसतकम्मं सव्वघाती वा देसघादी वा एगट्ठाणियं वा दुट्ठाणियं वा तिट्ठाणियं वा चउट्ठाणियं वा ।$205। इत्थिवेदस्स अणुभागसंतकम्मं सव्वघादौ दुट्ठाणियं वा तिट्ठाणियं वा चउट्ठाणियं वा ।$206। मोत्तूण खवगचरिमसमयइत्थिवेदय उदयणिसेगं ।$207। तस्स देसघादी एगट्ठामियं ।$208। पुरिसवेदस्स अणुभागसंतकम्मं जहण्णयं देसघादी एगट्ठाणियं ।$209। उक्कस्साणुभागसंतकम्मं सव्वघादी चदुट्ठाणियं ।$210। णवुंसयवेदयस्स अणुभागसंतकम्मं जहण्णयं सव्वघादी दुट्ठाणियं ।$211। उक्कस्सयमणुभागसंतकम्मं सव्वघादी चउट्ठाणियं ।$212। णवरि खवगस्स चरिमसमयणवुंसयवेदयस्स अणुभागसंतकम्मं देसघादी एगट्ठाणियं ।$214।
= अब उत्तर प्रकृति अनुभाग विभक्ति को कहते हैं ।189। पहिले इस प्ररूपणा को जानना चाहिए ।190। सम्यक्त्व प्रकृति के प्रथम देशघाती स्पर्धक से लेकर अंतिम देशघाती स्पर्धक पर्यंत ये स्पर्धक होते हैं ।191। सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति का अनुभागसत्कर्म प्रथम सर्वघाती स्पर्धक से लेकर दारु के अनंतवें भाग तक होता है ।192। जिस स्थान में सम्यग्मिथ्यात्व का अनुभागसत्कर्म समाप्त हुआ उसके अनंतरवर्ती स्पर्धक से लेकर आगे बिना प्रतिषेध के मिथ्यात्व सत्कर्म होता है ।193। बारह कषायों का अनुभागसत्कर्म सर्वघातियों के द्विस्थानिक प्रथम स्पर्धक से लेकर आगे बिना प्रतिषेध के होते हैं। (अर्थात् दारु के जिस भाग से सर्वघाती स्पर्धक प्रारंभ होते हैं उस भाग से लेकर शैल पर्यंत उनके स्पर्धक होते हैं) ।194। चार संज्वलन और नव नोकषायों का अनुभागसत्कर्म देशघातियों के प्रथम स्पर्धक से लेकर आगे बिना प्रतिषेध के सर्वघाती पर्यंत है। (तो भी उन सबके अंतिम स्पर्धक समान नहीं हैं) ।195।
उनमें-से संज्ञा दो प्रकार की है-घाति संज्ञा और स्थान संज्ञा ।166। आगे उन दोनों संज्ञाओं को एक साथ कहते हैं॥ 197॥ मिथ्यात्व का जघन्य अनुभाग सत्कर्म सर्वघाती और द्विस्थानिक (लता, दारु रूप) है॥ 198॥ मिथ्यात्व का उत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्म सर्वघाती और चतुःस्थानिक (लता, दारु, अस्थि, शैल) रूप है॥ 200॥ इसी प्रकार बारह कसाय और छः नोकषायों (त्रिवेद रहित) का अनुभाग सत्कर्म है॥ 201॥ सम्यक्त्व का अनुभाग सत्कर्म देशघाती है और एकस्थानिक तथा द्विस्थानिक है (लता रूप तथा लता दारु रूप)॥ 202॥
सम्यग्मिथ्यात्व का अनुभागसत्कर्म सर्वघाती और द्विस्थानिक (लता दारु रूप) है ॥203॥ सम्यग्मिथ्यात्व के अनुभाग का एक (द्विस्थानिक) ही स्थान होता है॥204॥ चार संज्वलन कषायों का अनुभागसत्कर्म सर्वघाती और देशघाती तथा एक स्थानिक (लता) द्विस्थानिक (लता, दारु), त्रिस्थानिक (लता, दारु, अस्थि) और चतुःस्थानिक (लता, दारु, अस्थि व शैल) होता है ॥205॥ स्त्रीवेद का अनुभाग सत्कर्म सर्वघाती तथा द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक होता है (केवल लतारूप नहीं होता) ॥206॥ मात्र अंतिम समयवर्ती क्षपक स्त्रीवेदी के उदयगत निषेक को छोड़कर शेष अनुभाग सर्वघाती तथा द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक होता है ॥207॥ किंतु उस (पूर्वोक्त क्षपक) का अनुभाग सत्कर्म देशघाती और एक स्थानिक है ॥209॥ तथा उत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्म सर्वघाती और चतुःस्थानिक होता है ॥210॥ नपुंसकवेद का जघन्य अनुभागसत्कर्म सर्वघाती और द्विस्थानिक होता है ॥211॥ तथा (उसी का) उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म सर्वघाती और चतुःस्थानिक होता है ॥212॥ इतना विशेष है कि अंतिम समयवर्ती नपुंसकवेदी क्षपक का अनुभागसत्कर्म देशघाती और एकस्थानिक होता है ॥214॥
6. कर्मप्रकृतियों में सर्व व देशघाती अनुभाग विषयक शंका-समाधान
1. मति आदि ज्ञानावरण देशघाती कैसे हैं
प्रश्न - मति आदि ज्ञानावरण देशघाती कैसे हैं?
उत्तर - मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय चार ज्ञानावरण ज्ञानांश को घात करने के कारण देशघाती हैं, जब कि केवलज्ञानावरण ज्ञान के प्रचुर अंशों को घातने के कारण सर्वघाती है। (अवधि व मनःपर्यय ज्ञानावरण में देशघाती सर्वघाती दोनों स्पर्धक हैं। दे.-उदय 4।2)।
2. केवलज्ञानावरण सर्वघाती है या देशघाती
धवला पुस्तक 13/5,5,21/214/10
केवलणाणावरणीयं किं सव्वघादी आहो देसघादो। ण ताव सव्वघादी, केवलणाणस्स णिस्सेणाभावे संते जीवाभावप्पसंगादो आवरणिज्जाभावेण सेसावरणाणमभावप्पसंगादो वा। ण च देसघादी, `केवलणाण-केवलदंसणावरणीयपयडीओ सव्वघादियाओ'त्ति सुत्तेण सह विरोहादो। एत्थ परिहारो-ण ताव केवलणाणावरणीयं देसघादी, किंतु सव्वघादी चेव; णिस्सेसमावरिदकेवलणाणत्तादो। ण च जीवाभावो, केवलणाणे आवरिदे वि चदुण्णं णाणाणं संतुवलंभादो। जीवम्मि एक्कं केवलणाणं, तं च णिस्सेसमावरिदं। कत्तो पुण चदुण्णं णाणाणं संभवो। ण, छारच्छण्णग्गीदोबप्फुप्पत्तीए इव सव्वघादिणा आवरणेण आवरिदकेवलणाणादो चदुण्णं णाणाणमुप्पत्तीए विरोहाभावादो। एदाणि चत्तारि वि णाणाणि केवलणाणस्स अवयवा ण होंति।
प्रश्न - केवलज्ञानावरणीयकर्म क्या सर्वघाती है या देशघाती? (क) सर्वघाती तो हो नहीं सकता, क्योंकि केवलज्ञान का निःशेष अभाव मान लेने पर जीव के अभाव का प्रसंग आता है। अथवा आवरणीय ज्ञानों का अभाव होने पर शेष आवरणों के अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है। (ख) केवलज्ञानावरणीय कर्म देशघाती भी नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसा मानने पर `केवलज्ञानावरणीय और केवलदर्शनावरणीय कर्म सर्वघाती है' इस सूत्र के साथ विरोध आता है?
उत्तर - केवल ज्ञानावरणीय देशघाती तो नहीं है, किंतु सर्वघाती ही है; क्योंकि वह केवलज्ञान का निःशेष आवरण करता है, फिर भी जीव का अभाव नहीं होता, क्योंकि केवलज्ञान के आवृत होने पर भी चार ज्ञानों का अस्तित्व उपलब्ध होता है।
प्रश्न - जीव में एक केवलज्ञान है। उसे जब पूर्णतया आवृत्त कहते हो, तब फिर चार ज्ञानों का सद्भाव कैसे हो सकता है?
उत्तर - नहीं, क्योंकि जिस प्रकार राख से ढकी हुई अग्नि से बाष्प की उत्पत्ति होती है, उसी प्रकार सर्वघाती आवरण के द्वारा केवलज्ञान के आवृत्त होने पर भी उससे चार ज्ञानों की उत्पत्ति होने में कोई विरोध नहीं आता।
प्रश्न - चारों ज्ञान केवलज्ञान के अवयव हैं या स्वतंत्र?
उत्तर - देखें ज्ञान - I.4।
3. सम्यक्त्व प्रकृति देशघाती कैसे है
कषायपाहुड़ पुस्तक 5/4-22/$191/130/1
लदासमाणजहण्णफद्दयमादिं कादूण जाव देसघादिदारू असमाणुक्कस्सफद्दयं ति ट्ठिदसम्मत्ताणुभागस्स कुदो देसघादित्तं। ण, सम्मत्तस्स एगदेसं घादेंताणं तदविरोहो। को भागो सम्मत्तस्स तेण घाइज्जदि। थिरत्तं णिक्कंक्खत्तं।
प्रश्न - लता रूप जघन्य स्पर्धक से लेकर देशघाती दारुरूप उत्कृष्ट स्पर्धक पर्यंत स्थित सम्यक्त्व का अनुभाग देशघाती कैसे है? उत्तर - नहीं, क्योंकि सम्यक्त्व प्रकृति का अनुभाग सम्यग्दर्शन के एकदेश को घातता है। अतः उसके देशघाती होने में कोई विरोध नहीं है।
प्रश्न - सम्यक्त्व के कौन-से भाग का सम्यक्त्व प्रकृति द्वारा घात होता है?
उत्तर - उसकी स्थिरता और निष्कांक्षिता का घात होता है। अर्थात् उसके द्वारा घाते जाने से सम्यग्दर्शन का मूल से विनाश तो नहीं होता किंतु उसमें चल, मल आदि दोष आ जाते हैं।
4. सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति सर्वघाती कैसे है
कषायपाहुड़ पुस्तक 5/4-22/$192/130/10
सम्मामिच्छत्तफद्दयाणं कुदो सव्वघादित्तं। णिस्सेससम्मत्तघायणादो। ण च सम्मामिच्छत्ते सम्मत्तस्स गंधो वि अत्थि, मिच्छत्तसम्मत्तेहिंतो जच्चंतरभावेणुप्पण्णे सम्मामिच्छत्ते सम्मत्त-मिच्छत्ताणमत्थित्तविरोहादो।
= प्रश्न - सम्यग्मिथ्यात्व के स्पर्धक सर्वघाती कैसे हैं?
उत्तर - क्योंकि वे संपूर्ण सम्यक्त्व का घात करते हैं। सम्यग्मिथ्यात्व के उदय में सम्यक्त्व की गंध भी नहीं रहती, क्योंकि मिथ्यात्व और सम्यक्त्व की अपेक्षा जात्यंतर रूप से उत्पन्न हुए सम्यग्मिथ्यात्व में सम्यक्त्व और मिथ्यात्व के अस्तित्व का विरोध है। अर्थात् उस समय न सम्यक्त्व ही रहता है और न मिथ्यात्व ही रहता है, किंतु मिला हुआ दही-गुड़ के समान एक विचित्र ही मिश्रभाव रहता है।
धवला पुस्तक 5/1,7,4/198/9
सम्मामिच्छत्तं खओवसमियमिदि चे एवं विहविवक्खाए सम्मामिच्छत्तं खओवसमियं मा होदु, किंतु अवयव्यवयवनिराकरणानिराकरणं पडुच्च खओवसमियं सम्मामिच्छत्तदव्वकम्मपि सव्वघादी चेव होदु, जच्चतरस्स सम्मामिच्छत्तस्स सम्मत्ताभावादो। किंतु सद्दहणभागो ण होदि, सद्दहणासद्दहणाणमेयत्तविरोहा।
= सम्यग्मिथ्यात्व का उदय रहते हुए अवयवी रूप सम्यक्त्व गुण का तो निराकरण रहता है किंतु सम्यक्त्व गुण का अवयव रूप अंश प्रगट रहता है, इस प्रकार क्षायोपशमिक भी वह सम्यग्मिथ्यात्व द्रव्यकर्म सर्वघाती ही होवे, क्योंकि जात्यंतर सम्यग्मिथ्यात्व कर्म के सम्यक्त्वता का अभाव है। किंतु श्रद्धान भाग अश्रद्धान भाग नहीं हो जाता है, क्योंकि श्रद्धान और अश्रद्धान के एकता का विरोध है।
धवला पुस्तक 1/1,1,11/168/5
सम्यग्दृष्टेर्निरन्वयविनाशाकारिणः सम्यग्मिथ्यात्वस्य कथं सर्वघातित्वमिति चेन्न, सम्यग्दृष्टेः साकल्यप्रतिबंधितामपेक्ष्य तस्य तथोपदेशात्।
= प्रश्न - सम्यग्मिथ्यात्व का उदय सम्यग्दर्शन का निरन्वय विनाश तो करता नहीं है, फिर उसे सर्वघाती क्यों कहा? उत्तर - ऐसी शंका ठीक नहीं है, क्योंकि वह सम्यग्दर्शन की पूर्णता का प्रतिबंध करता है, इस अपेक्षा से सम्यग्मिथ्यात्व को सर्वघाती कहा है।
धवला पुस्तक 7/2,1,79/110/8
होदु णाम सम्मत्तं पडुच्च सम्मामिच्छत्तफद्दयाणं सव्वघादित्तं, किंतु असुद्धणए विवक्खिए ण सम्मामिच्छत्तफद्दयाणं सव्वघादित्तमत्थि, तेसिमुदए संते वि मिच्छत्तसंवलिदसम्मत्तकणस्सुवलंभादो।
= सम्यक्त्व की अपेक्षा भले ही सम्यग्मिथ्यात्व स्पर्धकों में सर्वघातीपन हो, किंतु अशुद्धनय की विवक्षा से सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के स्पर्धकों में सर्वघातीपन नहीं होता, क्योंकि उनका उदय रहने पर भी मिथ्यात्वमिश्रित सम्यक्त्व का कण पाया जाता है।
( धवला पुस्तक 14/5,6,19/21/6)।
5. मिथ्यात्व प्रकृति सर्वघाती कैसे है
कषायपाहुड़ पुस्तक 5/4-22/$200/139/7
कुदो सव्वघादित्तं। सम्मत्तासेसावयवविणासणेण।
= प्रश्न - यह सर्वघाती क्यों है?
उत्तर - क्योंकि यह सम्यक्त्व के सब अवयवों का विनाश करता है, अतः सर्वघाती है।
6. प्रत्याख्यानावरणकषाय सर्वघाती कैसे है
धवला पुस्तक 5/1,7,7/202/5
एवं संते पच्चक्खाणावरणस्स सव्वघादित्तं फिट्टदि त्ति उत्ते ण फिट्टदि, पच्चक्खाणं सव्वं घादयदि त्ति तं सव्वघादी उच्चदि। सव्वमपच्चक्खाणं ण घादेदि, तस्स तत्थ वावाराभावा।
= प्रश्न - यदि ऐसा माना जाये (कि प्रत्याख्यानावरण चतुष्क के उदय के सर्व प्रकार के चारित्र विनाश करने की शक्ति का अभाव है) तो प्रत्याख्यानावरण कषाय का सर्वघातीपन नष्ट हो जाता है?
उत्तर - नहीं होता, क्योंकि प्रत्याख्यानावरण कषाय अपने प्रतिपक्षी सर्व प्रत्याख्यान (संयम) गुण को घातता है, इसलिए वह सर्वघाती कहा जाता है। किंतु सर्व अप्रत्याख्यान को नहीं घातता है, क्योंकि इसका इस विषय में व्यापार नहीं है।
7. मिथ्यात्व का अनुभाग चतुःस्थानीय कैसे हो सकता है
कषायपाहुड़ पुस्तक 5/4-22/$198-200/137-140/12
मिच्छत्ताणुभागस्स दारुअट्ठि-सेलसमाणाणि त्ति तिण्णि चेव ट्ठाणाणि लतासमाणफद्दयाणि उल्लंघिय दारुसमाणम्मि अवठिदसम्मामिच्छत्तुक्कस्सफद्दयादोअणंतगुणभावेझ मिच्छत्तजहण्णफद्दयस्स अवट्ठाणादो। तदो मिच्छत्तस्स जहण्णासु भागसंतकम्मं दुट्ठाणियमिदि वुत्ते दारु-अट्ठि-समाणफद्दयाणं गहणं कायव्वं, अण्णहा तस्स दुट्ठाणियत्तीणुववत्तीदो! ....लतादारुस्थानाभ्यां केनचिदंशांतरेण समानतया एकत्वमापन्नस्य दारुसमानस्थानस्य तद्व्यपदेशोपपत्तेः। समुदाये प्रवृत्तस्य शब्दस्य तदवयवेऽपि प्रवृत्त्युपलंभाद्वा ॥पृ. 137-138॥ लदासमाणफद्दएहि विणा कधं मिच्छत्ताणुभागस्स चदुट्ठाणियत्तं। .....मिच्छत्तुकस्सफद्दयम्मि लदादारु-अट्ठि-सेलसमाणट्ठाणाणि चत्तारि वि अत्थि, तेसि फद्दयाविभागपलिच्छेदाणसंभवो, .....मिच्छत्तुक्कस्साणुभागसंतकम्मं चदुट्ठाणियमिदि वुत्ते मिच्छत्तेगुक्कस्सफद्दयस्सेव कधं गहणं। ण, मिच्छत्तुक्कस्सफद्दयचरियवग्गणाए एगपरमाणुणा धरिदअणंताविभागपलिच्छेदणिप्पण्णअणंतंफद्दयाणमुक्कस्साणुभागसंतकम्मववएसादो।
= प्रश्न - मिथ्यात्व के अनुभाग के दारु के समान, अस्थि के समान और शैल के समान, इस प्रकार तीन ही स्थान हैं। क्योंकि लता समान स्पर्धकों को उल्लंघन करके दारुसमान अनुभागमें स्थित सम्यग्मिथ्यात्व के उत्कृष्ट स्पर्धक से मिथ्यात्व का जघन्य अनुभागसत्कर्म द्विस्थानिक है ऐसा कहनेपर दारुसमान और अस्थिसमान स्पर्धकों का ग्रहण करना चाहिए, अन्यथा वह द्विस्थानिक नहीं बन सकता?
उत्तर - किसी अंशांतर की अपेक्षा समान होने के कारण लता समान और दारु समान स्थानों से दारुस्थान अभिन्न है, अतः उसमें द्विस्थानिक व्यपदेश हो सकता है। अथवा जो शब्द समुदायमें प्रवृत्त होता है, उसके अवयवमें भी उसकी प्रवृत्ति देखी जाती है, अतः केवल दारुसमान स्थानों को भी द्विस्थानिक कहा जाता है। .....
प्रश्न - जब मिथ्यात्व के स्पर्धक लता समान नहीं होते तो उसका अनुभाग चतुःस्थानिक कैसे है?
उत्तर - मिथ्यात्व के उत्कृष्ट स्पर्धक में लता समान, दारु-समान, अस्थिसमान और शैलसमान चारों ही स्थान हैं, क्योंकि उनके स्पर्धकों के अविभाग प्रतिच्छेदों की संख्या यहाँ पायी जाती है। और बहुत अविभाग प्रतिच्छेदों में स्तोक अविभाग प्रतिच्छेदों का होना असंभव नहीं है, क्योंकि एक आदि संख्या के बिना अविभाग प्रतिच्छेदों की संख्या बहुत नहीं हो सकती।....
प्रश्न - मिथ्यात्व का उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म चतुःस्थानिक है, ऐसा कहनेपर मिथ्यात्व के एक उत्कृष्ट स्पर्धक का ही ग्रहण कैसे होता है?
उत्तर - नहीं, क्योंकि मिथ्यात्व के उत्कृष्ट स्पर्धक की अंतिम वर्गणामें एक परमाणु के द्वारा धारण किये गये अनंत अविभाग प्रतिच्छेदों से निष्पन्न अनंत स्पर्धकों की उत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्म संज्ञा है।
8. मानकषाय की शक्तियों के दृष्टांत मिथ्यात्वादि प्रकृतियों के अनुभागों में कैसे लागू हो सकते हैं
कषायपाहुड़ पुस्तक 5/4-22/$199/139/1
लदा-दारु-अट्ठि-सेलसण्णाओ माणाणुभागफद्दयाणं लयाओ, कंध मिच्छत्तम्मि पयट्टंति। ण, माणम्मि अवट्ठिदचदुण्हं सण्णाणमणुभागाविभागपलिच्छेदेहि समाणत्तं पेक्खिदूण पयडिविरुद्धमिच्छत्तादिफद्दएसु वि पबुत्तीए वि रोहाभावादो।
= प्रश्न - लता, दारु, अस्थि और शैल संज्ञाएँ मान कषाय के अनुभाग स्पर्धकों में की गयी हैं। (देखें
कषाय - 3), ऐसी दशा में वे संज्ञाएँ मिथ्यात्व में कैसे प्रवृत्त हो सकती हैं?
उत्तर - नहीं, क्योंकि, मानकषाय और मिथ्यात्व के अनुभाग के अविभागी प्रतिच्छेदों के परस्पर में समानता देखकर मानकषाय में होने वाली चारों संज्ञाओं की मानकषाय से विरुद्ध प्रकृतिवाले मिथ्यात्वादि (सर्व कर्मों के अनुभाग) स्पर्धकों में भी प्रवृत्ति होने में कोई विरोध नहीं है।
5. अनुभाग बंध संबंधी कुछ नियम व प्ररूपणाएँ
1. प्रकृतियों के अनुभाग की तरतमता संबंधी सामान्य नियम
धवला पुस्तक 12/4,2,7,65/55/4
महाबिसयस्स अणुभागो महल्लो होदि, थोवविसयस्स अणुभागो थोवो होदि।....खवगसेडीए देसघादिबंधकरणे जस्स पुव्वमेव अणुभागबंधो देसघादी जादो तस्साणुभागो थोवो। जस्स पच्छा जादो तस्स बहुओ।
= महान् विषय वाली प्रकृति का अनुभाग महान् होता है और अल्प विषय वाली प्रकृति का अनुभाग अल्प होता है।....यथा-क्षपकश्रेणी में देशघाती बंधकरण के समय जिसका अनुभाग बंध पहले ही देशघाती हो गया है उसका अनुभाग स्तोक होता है और जिसका अनुभागबंध पीछे देशघाती होता है उसका अनुभाग बहुत होता है।
(धवला पुस्तक 12/4,2,7,124/66/15)।
2. प्रकृति विशेषों में अनुभाग की तरतमता का निर्देश
1. ज्ञानावरण व दर्शनावरण के अनुभाग परस्पर समान होते हैं
षट्खंडागम पुस्तक 12/4,2,7/43/33/2
णाणावरणीय-दंसणावरणीयवेयणाभावदो जहण्णियाओ दो वि तुल्लाओ अणंतगुणाओ।
= भाव की अपेक्षा ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय की जघन्य वेदनाएँ दोनों ही परस्पर तुल्य होकर अनंतगुणी हैं।
2. केवलज्ञान, दर्शनावरण, असाता व अंतराय के अनुभाग परस्पर समान हैं
षट्खंडागम पुस्तक 12/4,2,7/सूत्र 76/49/6
केवलणाणावरणीयं केवलदंसणावरणीयं असादवेदणीयं वीरियंतराइयं च चत्तारि वि तुल्लाणि अणंतगुणहीणाणि ॥76॥
= केवलज्ञानावरणीय, केवलदर्शनावरणीय, असातावेदनीय और वीर्यांतराय ये चारों ही प्रकृतियाँ तुल्य होकर उसमें अनंतगुणी हैं ॥76॥
3. तिर्यंचायु से मनुष्यायु का अनुभाग अनंतगुणा है
धवला पुस्तक 12/4,2,13,162/431/12
सहावदो चेव तिरिक्खाउआणुभागादो मणुसाउअभावस्स अणंतगुणत्ता।
= स्वभाव से ही तिर्यंचायु के अनुभाग से मनुष्यायु का भाव अनंतगुणा है।
3. जघन्य व उत्कृष्ट अनुभाग के बंध संबंधी नियम
1. अघातिया कर्मों का उत्कृष्ट अनुभाग सम्यग्दृष्टि को ही बंधता है, मिथ्यादृष्टि को नहीं
धवला पुस्तक 12/4,2,13/250/456/4
ण च मिच्छाइट्ठीसु अघादिकम्माणमुक्कस्सभावो अत्थि सम्माइट्ठीसु णियमिदउक्कस्साणुभागस्स मिच्छइट्ठीसु संभवविरोहादो।
= मिथ्यादृष्टि जीवों में अघातिकर्मों का उत्कृष्ट भाव संभव नहीं है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीवों में नियम से पाये जाने वाले अघाति कर्मों के उत्कृष्ट अनुभाग के मिथ्यादृष्टि जीवों में होने का विरोध है।
धवला पुस्तक 12/4,2,13,256/459/2
असंजदसम्मादिट्ठिणा मिच्छादिट्ठिणा वा बद्धस्स देवाउअं पेक्खिदूण अप्पसत्थस्स उक्कस्सत्तविरोहादो। तेण अणंतगुणहीणा।
= सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि के द्वारा बांधी गयी मनुष्यायु चूँकि देवायु की अपेक्षा अप्रशस्त है, अतएव उसके उत्कृष्ट होने का विरोध है। इसी कारण वह अनंतगुणी हीन है।
2. गोत्रकर्म का जघन्य अनुभागबंध तेज व वातकायिकों में ही संभव है
धवला पुस्तक 12/4,2,13,204/441/8
बादरतेउक्काइयपज्जत्तएसु जादजहण्णाणुभागेण सह अण्णत्थ उप्पत्तीए अभावादो। जदि अण्णत्थ उप्पज्जदि तो णियमा अणंतगुणवड्ढीए वड्ढिदं चेव उप्पज्जदि ण अण्णहा।
= बादरतेजकायिक व वायुकायिक पर्याप्तक जीवों में उत्पन्न जघन्य अनुभाग के साथ अन्य जीवों में उत्पन्न होना संभव नहीं। यदि वह अन्य जीवों में उत्पन्न होता है तो नियम से वह अनंतगुण वृद्धि से वृद्धि को प्राप्त होकर ही उत्पन्न होता है, अन्य प्रकार से नहीं।
4. प्रकृतियों के जघन्य व उत्कृष्ट अनुभाग बंधकों की प्ररूपणा
प्रमाण-1.
(पंचसंग्रह / प्राकृत / अधिकार 4/460-482) (देखें स्थिति - 6), (कषायपाहुड़ पुस्तक 5/4-22/$229-276/151-185/केवल मोहनीय कर्म विषयक)
संकेत-अनि. = अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में उस प्रकृति की बंधव्युच्छित्ति से पहला समय; अपू. = अपूर्वकरण गुणस्थान में उस प्रकृति की बंधव्युच्छित्ति से पहला समय; अप्र. = अप्रमत्तसंयत; अवि. = अविरतसम्यग्दृष्टि; क्षपक. = क्षपकश्रेणी; चतु. = चतुर्गति के जीव; ति. = तिर्यंच; तीव्र. = तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; देश.-देशसंयत; ना. = नारकी; प्र. = प्रमत्तसंयत; मध्य. = मध्य परिणामों युक्त जीव; मनु. = मनुष्य; मि. = मिथ्यादृष्टि; विशु. = अत्यंत विशुद्ध परिणामयुक्त जीव; सम्य. = सम्यग्दृष्टि; सा. मि. = सातिशय मिथ्यादृष्टि; सू. सा. = सूक्ष्मसांपराय का चरम समय।
प्रकृति | उत्कृष्ट अनुभाग बंधक | जघन्य अनुभाग बंधक |
---|---|---|
ज्ञानावरणीय 5 | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि | सूक्ष्मसांपराय का चरम समय |
दर्शनावरणीय 4 | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि | सूक्ष्मसांपराय का चरम समय |
निद्रा, प्रचला | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि | अपूर्वकरण गुणस्थान में उस प्रकृति की बंधव्युच्छित्ति से पहला समय; |
निद्रा निद्रा, प्रचला प्रचला | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि | सातिशय मिथ्यादृष्टि;/चरम |
स्त्यानगृद्धि | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि | सातिशय मिथ्यादृष्टि;/चरम |
अंतराय 5 | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि | सूक्ष्मसांपराय का चरम समय |
मिथ्यात्व | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि | सातिशय मिथ्यादृष्टि;/चरम |
अनंतानुबंधी चतु. | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि | सातिशय मिथ्यादृष्टि;/चरम |
अप्रत्याख्यान चतु. | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि | प्रमत्तसंयत सन्मुख अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में उस प्रकृति की बंध व्युच्छित्ति से पहला समय; |
प्रत्याख्यान चतु. | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि | प्रमत्तसंयत सन्मुख अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में उस प्रकृति की बंध व्युच्छित्ति से पहला समय; |
संज्वलन चतु. | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि | अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में उस प्रकृति की बंध व्युच्छित्ति से पहला समय; |
हास्य, रति | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि | अपूर्वकरण गुणस्थान में उस प्रकृति की बंधव्युच्छित्ति से पहला समय; |
अरति, शोक | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि | अप्रमत्तसंयत सन्मुख प्रमत्तसंयत |
भय, जुगुप्सा | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि | अपूर्वकरण गुणस्थान में उस प्रकृति की बंधव्युच्छित्ति से पहला समय; |
स्त्री, नपुंसक वेद | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि |
पुरुष वेद | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि | अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में उस प्रकृति की बंध व्युच्छित्ति से पहला समय; |
साता | क्षपकश्रेणी | मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि;सम्यग्दृष्टि |
असाता | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि | मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि;सम्यग्दृष्टि |
नरकायु | मिथ्यादृष्टि;मनुष्य,तिर्यंच; | मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि;सम्यग्दृष्टि |
तिर्यंचायु | मिथ्यादृष्टि;मनुष्य,तिर्यंच; | मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि;सम्यग्दृष्टि |
मनुष्यायु | मिथ्यादृष्टि;मनुष्य,तिर्यंच; | मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि;सम्यग्दृष्टि |
देवायु | अपूर्वकरण गुणस्थान में उस प्रकृति की बंधव्युच्छित्ति से पहला समय | मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि;सम्यग्दृष्टि |
नरक द्विक | मिथ्यादृष्टि;मनुष्य,तिर्यंच; | मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि;सम्यग्दृष्टि |
तिर्यक् द्विक | मिथ्यादृष्टि;मनुष्य,तिर्यंच; | सप्तम पृथ्वी नारकी |
मनुष्य द्विक | सम्यग्दृष्टि देव, नारकी | मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि; |
देव द्विक | क्षपकश्रेणी | मिथ्यादृष्टि, तिर्यंच, मनुष्य |
एकेंद्रिय जाति | मिथ्यादृष्टि देव | मध्य परिणामों युक्त जीव मिथ्यादृष्टि मनुष्य,तिर्यंच;देव, नारकी |
2-4 इंद्रिय जाति | मिथ्यादृष्टि;मनुष्य,तिर्यंच; | मिथ्यादृष्टि मनुष्य,तिर्यंच |
पंचेंद्रिय जाति | क्षपकश्रेणी | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि |
औदारिक द्विक | सम्यग्दृष्टि देव, नारकी | मिथ्यादृष्टि देव, नारकी |
वैक्रियक द्विक | क्षपकश्रेणी | मिथ्यादृष्टि मनुष्य,तिर्यंच |
आहारक द्विक | क्षपकश्रेणी | मिथ्यादृष्टि मनुष्य,तिर्यंच |
तैजस शरीर | क्षपकश्रेणी | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि |
कार्मण शरीर | क्षपकश्रेणी | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि |
निर्माण | क्षपकश्रेणी | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि |
प्रशस्त वर्णादि 4 | क्षपकश्रेणी | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि |
अप्रशस्त वर्णादि 4 | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि | अपूर्वकरण गुणस्थान में उस प्रकृति की बंधव्युच्छित्ति से पहला समय; मध्य परिणामों युक्त जीव;. मिथ्यादृष्टि |
सम चतुरस्र संस्थान | क्षपकश्रेणी | मध्य परिणामों युक्त जीव; मिथ्यादृष्टि |
शेष पाँच संस्थान | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि | मध्य परिणामों युक्त जीव; मिथ्यादृष्टि |
वज्र ऋषभ नाराच | सम्यग्दृष्टि देव, नारकी | मध्य परिणामों युक्त जीव; मिथ्यादृष्टि |
वज्र नाराच आदि 4 | सम्यग्दृष्टि देव, नारकी | मध्य परिणामों युक्त जीव; मिथ्यादृष्टि |
असंप्राप्त सृपाटिका | मिथ्यादृष्टि देव, नारकी | मध्य परिणामों युक्त जीव; मिथ्यादृष्टि |
अगुरुलघु | क्षपकश्रेणी | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि |
उपघात | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि | अपूर्वकरण गुणस्थान में उस प्रकृति की बंधव्युच्छित्ति से पहला समय; |
परघात | क्षपकश्रेणी | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि |
आतप | मिथ्यादृष्टि देव | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव;मिथ्यादृष्टि भवनत्रिक से ईशान |
उद्योत | मिथ्यादृष्टि देव | मिथ्यादृष्टि देव, नारकी |
उच्छ्वास | सूक्ष्मसांपराय का चरम समय | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि |
प्रशस्त विहायोगति | क्षपकश्रेणी | मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि |
अप्रशस्त विहायोगति | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि | मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि |
प्रत्येक | क्षपकश्रेणी | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि |
साधारण | मिथ्यादृष्टि मनुष्य,तिर्यंच | मिथ्यादृष्टि मनुष्य,तिर्यंच |
त्रस | क्षपकश्रेणी | |
स्थावर | मिथ्यादृष्टि देव | मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि देव मनुष्य,तिर्यंच |
सुभग | क्षपकश्रेणी | मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि |
दुर्भग | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि | मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि |
सुस्वर | क्षपकश्रेणी | मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि |
दुस्स्वर | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि | मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि |
शुभ | क्षपकश्रेणी | मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि |
अशुभ | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि | मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि |
सूक्ष्म | मिथ्यादृष्टि मनुष्य,तिर्यंच | मिथ्यादृष्टि मनुष्य,तिर्यंच |
बादर | क्षपकश्रेणी | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि |
पर्याप्त | क्षपकश्रेणी | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि |
अपर्याप्त | मिथ्यादृष्टि मनुष्य,तिर्यंच | मिथ्यादृष्टि मनुष्य,तिर्यंच |
स्थिर | क्षपकश्रेणी | मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि |
अस्थिर | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि | मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि |
आदेय | क्षपकश्रेणी | मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि |
अनादेय | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि | मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि |
यशःकीर्ति | क्षपकश्रेणी | मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि |
अयशःकीर्ति | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि | मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि |
तीर्थंकर | क्षपकश्रेणी | नारकी सन्मुख अविरतसम्यग्दृष्टि |
उच्च गोत्र | क्षपकश्रेणी | मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि |
नीच गोत्र | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि | सप्तम पृथ्वी नारकी मिथ्यादृष्टि |
अंतराय 5 | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि | अपूर्वकरण गुणस्थान में उस प्रकृति की बंधव्युच्छित्ति से पहला समय; |
5. अनुभाग विषयक अन्य प्ररूपणाओं का सूचीपत्र
प्रकृति | विषय | जघन्य उत्कृष्ट पद | भुजगारादि पद | जघन्य उत्कृष्ट वृद्धि | षड्गुण वृद्धि |
---|---|---|---|---|---|
.-- | -- | महाबंध पुस्तक $...पृष्ठ | महाबंध पुस्तक $...पृष्ठ | महाबंध पुस्तक $...पृष्ठ | महाबंध पुस्तक $...पृष्ठ |
1. मूल प्रकृति | संनिकर्ष | 4/172-181/74-79 | -- | -- | -- |
भंगविचय | 4/182-185/79-81 | 4/285/131-132 | -- | -- | |
अनुभाग अध्यवसाय स्थान संबंधी सर्व प्ररूपणाएँ | 4/371-386/168-176 | -- | -- | 4/360-361/163-164 | |
2. उत्तरप्रकृति | संनिकर्ष | 5/1-308/1-126 | -- | -- | -- |
-- | भंगविचय | 5/309-313/126-129 | 5/492-497/276-78 | -- | 5/617/362 |
-- | अनुभाग अध्यवसाय स्थान संबंधी सर्व प्ररूपणाएँ | 5/626-658/372-398 | -- | -- | -- |
पुराणकोष से
अनुभव का अपरनाम । महापुराण 20. 254-255
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