नरक: Difference between revisions
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<div class="image-with-content_image-box_left">[[File:नरक.jpg|250px|नरक]]</div> <big>प्रचुर रूप से पाप कर्मों के फलस्वरूप अनेकों प्रकार के असह्य दु:खों को भोगने वाले जीव विशेष नारकी कहलाते हैं। उनकी गति को नरकगति कहते हैं, और उनके रहने का स्थान नरक कहलाता है, जो शीत, उष्ण, दुर्गंधि आदि असंख्य दु:खों की तीव्रता का केंद्र होता है। वहाँ पर जीव बिलों अर्थात् सुरंगों में उत्पन्न होते व रहते हैं और परस्पर में एक दूसरे को मारने-काटने आदि के द्वारा दु:ख भोगते रहते हैं।</big> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong> [[नरक#1 | नरकगति सामान्य निर्देश]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText"> नरक सामान्य का लक्षण।<br /> | <li class="HindiText">[[नरक#1.1 | नरक सामान्य का लक्षण। ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> नरकगति या नारकी का लक्षण।<br /> | <li class="HindiText"> [[नरक#1.2 | नरकगति या नारकी का लक्षण। ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> नारकियों के भेद (निक्षेपों की | <li class="HindiText"> [[नरक#1.3 | नारकियों के भेद (निक्षेपों की अपेक्षा)। ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> नारकी के भेदों के लक्षण।<br /> | <li class="HindiText"> [[नरक#1.4 | नारकी के भेदों के लक्षण। ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> नरकगति में गति, इंद्रिय आदि 14 मार्गणाओं के स्वामित्व संबंधी 20 प्ररूपणाएँ। –देखें [[ सत् ]]।<br /> | <li class="HindiText"> नरकगति में गति, इंद्रिय आदि 14 मार्गणाओं के स्वामित्व संबंधी 20 प्ररूपणाएँ। –देखें [[ सत् ]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> नरकगति संबंधी सत्, संख्या, | <li class="HindiText"> नरकगति संबंधी सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव व अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ। –देखें [[ वह वह नाम ]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> नरकायु के बंधयोग्य परिणाम।–देखें [[ आयु#3 | आयु - 3]]।<br /> | <li class="HindiText"> नरकायु के बंधयोग्य परिणाम।–देखें [[ आयु#3 | आयु - 3]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> नरकगति में कर्मप्रकृतियों के | <li class="HindiText"> नरकगति में कर्मप्रकृतियों के बंध, उदय, सत्त्व-विषयक प्ररूपणाएँ।–देखें [[ वह वह नाम ]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> नरकगति में जन्म मरण विषयक गति | <li class="HindiText"> नरकगति में जन्म मरण विषयक गति अगति प्ररूपणाएँ।–देखें [[ जन्म#6 | जन्म - 6]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> सभी मार्गणाओं में आय के अनुसार | <li class="HindiText"> सभी मार्गणाओं में आय के अनुसार व्यय होने का नियम।–देखें [[ मार्गणा ]]।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong> [[नरक#2 | नरकगति के दु:खों का निर्देश ]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText"> नरक में दु:ख के सामान्य भेद।<br /> | <li class="HindiText"> [[नरक#2.1 | नरक में दु:ख के सामान्य भेद। ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> शारीरिक दु:ख निर्देश।<br /> | <li class="HindiText"> [[नरक#2.2 | शारीरिक दु:ख निर्देश। ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> क्षेत्रकृत दु:ख निर्देश।<br /> | <li class="HindiText"> [[नरक#2.3 | क्षेत्रकृत दु:ख निर्देश। ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> असुर देवोंकृत दु:ख निर्देश।<br /> | <li class="HindiText"> [[नरक#2.4 | असुर देवोंकृत दु:ख निर्देश। ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> मानसिक दु:ख निर्देश।<br /> | <li class="HindiText"> [[नरक#2.5 | मानसिक दु:ख निर्देश। ]]<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong> [[नरक#3 | नारकियों के शरीर की विशेषताएँ ]]</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText"> जन्मने व पर्याप्त होने संबंधी विशेषता।<br /> | <li class="HindiText"> [[नरक#3.1 | जन्मने व पर्याप्त होने संबंधी विशेषता। ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> शरीर की अशुभ आकृति।<br /> | <li class="HindiText"> [[नरक#3.2 | शरीर की अशुभ आकृति। ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> वैक्रियक भी वह मांस आदि युक्त होता है।<br /> | <li class="HindiText"> [[नरक#3.3 | वैक्रियक भी वह मांस आदि युक्त होता है। ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> इनके मूँछ-दाढ़ी नहीं होती।<br /> | <li class="HindiText"> [[नरक#3.4 | इनके मूँछ-दाढ़ी नहीं होती। ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> इनके शरीर में | <li class="HindiText"> [[नरक#3.5 | इनके शरीर में निगोद राशि नहीं होती। ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> छिन्न भिन्न होने पर वह स्वत: | <li class="HindiText"> [[नरक#3.6 | छिन्न भिन्न होने पर वह स्वत: पुन: पुन: मिल जाता है। ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> आयु पूर्ण होने पर वह काफूरवत् उड़ जाता है।<br /> | <li class="HindiText"> [[नरक#3.7 | आयु पूर्ण होने पर वह काफूरवत् उड़ जाता है। ]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> नरके में प्राप्त आयुध पशु आदि नारकियों के ही शरीर की विक्रिया हैं। </li> | <li class="HindiText"> [[नरक#3.8 | नरके में प्राप्त आयुध पशु आदि नारकियों के ही शरीर की विक्रिया हैं। ]] </li> | ||
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<li class="HindiText">नारकियों को पृथक् विक्रया नहीं होती।–देखें [[ | <li class="HindiText">नारकियों को पृथक् विक्रया नहीं होती।–देखें [[ वैक्रियिक#1 | वैक्रियिक- 1]]। </li> | ||
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<li class="HindiText"> छह पृथिवीयों में | <li class="HindiText"> [[नरक#3.9 | छह पृथिवीयों में आयुधों रूप विक्रिया होती है और सातवीं में कीड़ों रूप। ]] </li> | ||
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<li class="HindiText"> वहाँ जल अग्नि आदि जीवों का भी अस्तित्व है।–देखें [[ काय#2.5 | काय - 2.5]]। </li> | <li class="HindiText"> वहाँ जल अग्नि आदि जीवों का भी अस्तित्व है।–देखें [[ काय#2.5 | काय - 2.5]]। </li> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong> [[नरक#4 | नारकियों में संभव भाव व गुणस्थान आदि ]]</strong> | ||
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<li class="HindiText"> सदा अशुभ परिणामों से | <li class="HindiText"> [[नरक#4.1 | सदा अशुभ परिणामों से युक्त रहते हैं। ]] </li> | ||
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<li class="HindiText">2-3. नरकगति में सम्यक्त्वों व गुणस्थानों का स्वामित्व। </li> | <li class="HindiText"> [[नरक#4.3 | 2-3. नरकगति में सम्यक्त्वों व गुणस्थानों का स्वामित्व। ]] </li> | ||
<li class="HindiText"> मिथ्यादृष्टि से अन्य गुणस्थान वहाँ कैसे संभव है। </li> | <li class="HindiText"> [[नरक#4.4 | मिथ्यादृष्टि से अन्य गुणस्थान वहाँ कैसे संभव है। ]]</li> | ||
<li class="HindiText"> वहाँ सासादन की संभावना कैसे है ? </li> | <li class="HindiText"> [[नरक#4.5 | वहाँ सासादन की संभावना कैसे है ? ]]</li> | ||
<li class="HindiText"> मरकर पुन: जी जाने वाले उनकी अपर्याप्तावस्था में भी सासादन व मिश्र कैसे नहीं मानते ? </li> | <li class="HindiText"> [[नरक#4.6 | मरकर पुन: जी जाने वाले उनकी अपर्याप्तावस्था में भी सासादन व मिश्र कैसे नहीं मानते ? ]] </li> | ||
<li class="HindiText"> वहाँ सम्यग्दर्शन कैसे संभव है ? </li> | <li class="HindiText"> [[नरक#4.7 | वहाँ सम्यग्दर्शन कैसे संभव है ? ]]</li> | ||
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<li class="HindiText"> अशुभ लेश्या में भी सम्यक्त्व कैसे उत्पन्न होता है।–देखें [[ लेश्या#4 | लेश्या - 4]]।</li> | <li class="HindiText"> अशुभ लेश्या में भी सम्यक्त्व कैसे उत्पन्न होता है।–देखें [[ लेश्या#4 | लेश्या - 4]]।</li> | ||
<li class="HindiText"> सम्यक्त्वादिकों सहित | <li class="HindiText"> सम्यक्त्वादिकों सहित जन्म मरण संबंधी नियम।–देखें [[ जन्म#6 | जन्म - 6]]। </li> | ||
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<li class="HindiText"> सासादन, मिश्र व सम्यग्दृष्टि मरकर नरक में उत्पन्न नहीं होते। इसमें हेतु। </li> | <li class="HindiText"> [[नरक#4.8 | सासादन, मिश्र व सम्यग्दृष्टि मरकर नरक में उत्पन्न नहीं होते। इसमें हेतु। ]] </li> | ||
<li class="HindiText"> ऊपर के गुणस्थान यहाँ क्यों नहीं होते। </li> | <li class="HindiText"> [[नरक#4.9 | ऊपर के गुणस्थान यहाँ क्यों नहीं होते। ]]</li> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong> [[नरक#5 | नरकलोक निर्देश ]]</strong> | ||
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<li class="HindiText"> नरक की सात पृथिवियों के नाम निर्देश। </li> | <li class="HindiText"> [[नरक#5.1 | नरक की सात पृथिवियों के नाम निर्देश। ]]</li> | ||
<li class="HindiText"> अधोलोक सामान्य परिचय। </li> | <li class="HindiText"> [[नरक#5.2 | अधोलोक सामान्य परिचय। ]]</li> | ||
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<li class="HindiText"> पटलों व बिलों का सामान्य परिचय। </li> | <li class="HindiText"> [[नरक#5.3 | पटलों व बिलों का सामान्य परिचय। ]]</li> | ||
<li class="HindiText"> बिलों में स्थित जन्मभूमियों का परिचय। </li> | <li class="HindiText"> [[नरक#5.4 | बिलों में स्थित जन्मभूमियों का परिचय। ]]</li> | ||
<li class="HindiText"> नरक भूमियों में मिट्टी, आहार व शरीर आदि की दुर्गंधियों का निर्देश। </li> | <li class="HindiText"> [[नरक#5.5 | नरक भूमियों में मिट्टी, आहार व शरीर आदि की दुर्गंधियों का निर्देश। ]]</li> | ||
<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> [[नरक#5.6 | नरक बिलों में अंधकार व भयंकरता। ]]</li> | ||
<li class="HindiText"> नरकों में शीत उष्णता का निर्देश।</li> | <li class="HindiText"> [[नरक#5.7 | नरकों में शीत उष्णता का निर्देश। ]]</li> | ||
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<li class="HindiText"> सातों पृथिवियों की | <li class="HindiText"> [[नरक#5.8 | सातों पृथिवियों की मोटाई व बिलों आदि का प्रमाण। ]]</li> | ||
<li class="HindiText"> सातों पृथिवियों के | <li class="HindiText"> [[नरक#5.9 | सातों पृथिवियों के बिलों का विस्तार। ]]</li> | ||
<li class="HindiText"> बिलों में परस्पर | <li class="HindiText"> [[नरक#5.10 | बिलों में परस्पर अंतराल। ]]</li> | ||
<li class="HindiText"> पटलों के नाम व तहाँ स्थित | <li class="HindiText"> [[नरक#5.11 | पटलों के नाम व तहाँ स्थित बिलों का परिचय। ]]</li> | ||
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<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> नरक लोक के नक्शे।–देखें [[ लोक#7 | लोक - 7]]। </li> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1" id="1"> नरकगति सामान्य का लक्षण</strong> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1"> नरक सामान्य का लक्षण </strong> </span><br> | ||
राजवार्तिक/2/50/2-3/156/13 <span class="SanskritText">शीतोष्णासद्वेद्योदयापादितवेदनया नरान् कायंतीति शब्दायंत इति नारका:। अथवा पापकृत: प्राणिन आत्यंतिकं दु:खं नृणंति नयंतीति नारकाणि। औणादिक: कर्तर्यक:। </span>=<span class="HindiText">जो नरों को शीत, उष्ण आदि वेदनाओं से शब्दाकुलित कर | <span class="GRef">राजवार्तिक/2/50/2-3/156/13</span> <span class="SanskritText">शीतोष्णासद्वेद्योदयापादितवेदनया नरान् कायंतीति शब्दायंत इति नारका:। अथवा पापकृत: प्राणिन आत्यंतिकं दु:खं नृणंति नयंतीति नारकाणि। औणादिक: कर्तर्यक:। </span>=<span class="HindiText">जो नरों को शीत, उष्ण आदि वेदनाओं से शब्दाकुलित कर दे वह नरक है। अथवा पापी जीवों को आत्यंतिक दु:खों को प्राप्त कराने वाले नरक हैं।<br> <span class="GRef">धवला 14/5,6,641/495/8</span> णिरयसेडिबद्धाणि णिरयाणि णाम। =नरक के श्रेणीबद्ध बिल नरक कहलाते हैं।</span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> नरकगति या नारकी का लक्षण</strong></span><br /> | ||
तिलोयपण्णत्ति/1/60 <span class="PrakritGatha"> ण रमंति जदो णिच्चं दव्वे खेत्ते य काल भावे य। अण्णोण्णेहि य णिच्चं तम्हा ते णारया भणिया।60।</span> =<span class="HindiText">यत; तत्स्थानवर्ती द्रव्य में, क्षेत्र में, काल में, और भाव में जो जीव रमते नहीं हैं, तथा परस्पर में भी जो कभी भी प्रीति को प्राप्त नहीं होते हैं, अतएव वे नारक या नारकी कहे जाते हैं। ( धवला 1/1,1,24/ | <span class="GRef">तिलोयपण्णत्ति/1/60</span> <span class="PrakritGatha"> ण रमंति जदो णिच्चं दव्वे खेत्ते य काल भावे य। अण्णोण्णेहि य णिच्चं तम्हा ते णारया भणिया।60।</span> =<span class="HindiText">यत; तत्स्थानवर्ती द्रव्य में, क्षेत्र में, काल में, और भाव में जो जीव रमते नहीं हैं, तथा परस्पर में भी जो कभी भी प्रीति को प्राप्त नहीं होते हैं, अतएव वे नारक या नारकी कहे जाते हैं। <span class="GRef">(धवला 1/1,1,24/ गाथा 128/202)</span> <span class="GRef">(गोम्मटसार जीवकांड/147/369)</span>।</span><br /> | ||
राजवार्तिक/2/50/3/156/17 <span class="SanskritText">नरकेषु भवा नारका:।</span> =<span class="HindiText">नरकों में जन्म लेने वाले जीव नारक हैं। ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/147/369/18 )।</span><br /> | <span class="GRef">राजवार्तिक/2/50/3/156/17</span> <span class="SanskritText">नरकेषु भवा नारका:।</span> =<span class="HindiText">नरकों में जन्म लेने वाले जीव नारक हैं। <span class="GRef">(गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/147/369/18)</span>।</span><br /> | ||
धवला 1/1,1,24/201/6 <span class="SanskritText">हिंसादिष्वसदनुष्ठानेषु व्यापृता: निरतास्तेषां गतिर्निरतगति:। अथवा नरान् प्राणिन: कायति पातयति खलीकरोति इति नरक: कर्म, तस्य नरकस्यापत्यानि नारकास्तेषां गतिर्नारकगति:। अथवा यस्या उदय: सकलाशुभकर्मणामुदयस्य सहकारिकारणं भवति सा नरकगति:। अथवा द्रव्यक्षेत्रकालभावेष्वन्योन्येषु च विरता: नरता:, तेषां गति: नरतगति:।</span> = | <span class="GRef">धवला 1/1,1,24/201/6</span> <span class="SanskritText">हिंसादिष्वसदनुष्ठानेषु व्यापृता: निरतास्तेषां गतिर्निरतगति:। अथवा नरान् प्राणिन: कायति पातयति खलीकरोति इति नरक: कर्म, तस्य नरकस्यापत्यानि नारकास्तेषां गतिर्नारकगति:। अथवा यस्या उदय: सकलाशुभकर्मणामुदयस्य सहकारिकारणं भवति सा नरकगति:। अथवा द्रव्यक्षेत्रकालभावेष्वन्योन्येषु च विरता: नरता:, तेषां गति: नरतगति:।</span> = | ||
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<li class="HindiText"> जो हिंसादि असमीचीन कार्यों में व्यापृत हैं उन्हें निरत कहते हैं और उनकी गति को निरतगति कहते हैं। </li> | <li class="HindiText"> जो हिंसादि असमीचीन कार्यों में व्यापृत हैं उन्हें निरत कहते हैं और उनकी गति को निरतगति कहते हैं। </li> | ||
<li class="HindiText"> अथवा जो नर अर्थात् प्राणियों को काता है अर्थात् गिराता है, पीसता है, उसे नरक कहते हैं। नरक यह एक कर्म है। इससे जिनकी उत्पत्ति होती है उनको नारक कहते हैं, और उनकी गति को नारकगति कहते हैं। </li> | <li class="HindiText"> अथवा जो नर अर्थात् प्राणियों को काता है अर्थात् गिराता है, पीसता है, उसे नरक कहते हैं। नरक यह एक कर्म है। इससे जिनकी उत्पत्ति होती है उनको नारक कहते हैं, और उनकी गति को नारकगति कहते हैं। </li> | ||
<li class="HindiText"> अथवा जिस गति का उदय संपूर्ण अशुभ कर्मों के उदय का सहकारी कारण है उसे नरकगति कहते हैं। </li> | <li class="HindiText"> अथवा जिस गति का उदय संपूर्ण अशुभ कर्मों के उदय का सहकारी कारण है उसे नरकगति कहते हैं। </li> | ||
<li | <li class="HindiText"> अथवा जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में तथा परस्पर में रत नहीं हैं, अर्थात् प्रीति नहीं रखते हैं, उन्हें नरत कहते हैं और उनकी गति को नरतगति कहते हैं। <span class="GRef">(गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/147/369/19)</span>।</li><br /></ol> | ||
<span class="GRef">धवला 13/5,5,140/392/2</span> <span class="SanskritText">न रमंत इति नारका:। </span>=<span class="HindiText">जो रमते नहीं हैं वे नारक कहलाते हैं।</span><br /> | |||
<span class="GRef">गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/147/369/16</span> <span class="SanskritText"> यस्मात्कारणात् ये जीवा: नरकगतिसंबंध्यंनपानादिद्रव्ये, तद्भूतलरूपक्षेत्रे, समयादिस्वायुरवसानकाले चित्पर्यायरूपभावे भवांतरवैरोद्भवतज्जनितक्रोधादिभ्योऽंयोंयै: सह नूतनपुरातननारका: परस्परं च न रमंते तस्मात्कारणात् ते जीवा नरता इति भणिता:। नरता एव नारता:। ...अथवा निर्गतोऽय: पुण्यं एभ्य: ते निरया: तेषां गति: निरयगति: इति व्युत्पत्तिभिरपि नारकगतिलक्षणं कथितं। </span><br> | |||
=<span class="HindiText">क्योंकि जो जीव नरक संबंधी अन्नपान आदि द्रव्य में, तहाँ की पृथिवी रूप क्षेत्र में, तिस गति संबंधी प्रथम समय से लगाकर अपना आयु पर्यंत काल में तथा जीवों के चैतन्य रूप भावों में कभी भी रति नहीं मानते। 5. और पूर्व के अन्य भवों संबंधी वैर के कारण इस भव में उपजे क्रोधादिक के द्वारा नये व पुराने नारकी कभी भी परस्पर में नहीं रमते, इसलिए उनको कभी भी प्रीति नहीं होने से वे ‘नरत’ कहलाते हैं। नरत को ही नारत जानना। तिनकी गति को नारतगति जानना। 6. अथवा ‘निर्गत’ कहिये गया है ‘अय:’ कहिये पुण्यकर्म जिनसे ऐसे जो निरय, तिनकी गति सो निरय गति जानना। इस प्रकार निरुक्ति द्वारा नारकगति का लक्षण कहा। </span><br /> | |||
</li> | |||
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</li> | </li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3">नारकियों के भेद</strong></span><br /> | ||
पंचास्तिकाय/118 <span class="PrakritText">णेरइया पुढविभेयगदा। </span>=<span class="HindiText"> | <span class="GRef">पंचास्तिकाय/118</span> <span class="PrakritText">णेरइया पुढविभेयगदा। </span>=<span class="HindiText"> [[नरक#5 |रत्नप्रभा आदि सात पृथिवियों ]] के भेद से नारकी भी सात प्रकार के हैं। <span class="GRef">(नियमसार/16)</span>।</span><br /> | ||
धवला 7/2,1,4/29/13 <span class="PrakritText">अधवा णामट्ठवणदव्वभावभेएण णेरइया चउव्विहा होंति।</span> =<span class="HindiText">अथवा नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव के भेद से नारकी चार प्रकार के होते हैं। (विशेष देखें [[ निक्षेप#1 | निक्षेप - 1]])।<br /> | <span class="GRef">धवला 7/2,1,4/29/13</span> <span class="PrakritText">अधवा णामट्ठवणदव्वभावभेएण णेरइया चउव्विहा होंति।</span> =<span class="HindiText">अथवा नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव के भेद से नारकी चार प्रकार के होते हैं। (विशेष देखें [[ निक्षेप#1 | निक्षेप - 1]])।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4">नारकी के भेदों के लक्षण</strong><br /> | ||
देखें [[ नय#III.1.8 | नय - III.1.8 ]](नैगम नय आदि सात नयों की अपेक्षा नारकी कहने की विवक्षा)।</span><br /> | देखें [[ नय#III.1.8 | नय - III.1.8 ]](नैगम नय आदि सात नयों की अपेक्षा नारकी कहने की विवक्षा)।</span><br /> | ||
धवला 7/2,1,4/30/4 <span class="PrakritText">कम्मणेरइओ णाम णिरयगदिसहगदकम्मदव्वसमूहो। पासपंजरजंतादीणि णोकम्मदव्वाणि णेरइयभावकारणाणि णोकम्मदव्वणेरहओ णाम। </span>=<span class="HindiText"> | <span class="GRef">धवला 7/2,1,4/30/4</span> <span class="PrakritText">कम्मणेरइओ णाम णिरयगदिसहगदकम्मदव्वसमूहो। पासपंजरजंतादीणि णोकम्मदव्वाणि णेरइयभावकारणाणि णोकम्मदव्वणेरहओ णाम। </span>=<span class="HindiText">नरक गति के साथ आये हुए कर्म द्रव्य समूह को कर्मनारकी कहते हैं। पाश, पंजर, यंत्र आदि नोकर्म द्रव्य जो नारक भाव की उत्पत्ति में कारणभूत होते हैं, नोकर्म द्रव्य नारकी हैं। (शेष देखें [[ निक्षेप ]])।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2" id="2"> नरक गति के दु:खों का निर्देश</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1"> नरक में दु:खों के सामान्य भेद</strong> </span><br /> | ||
तत्त्वार्थसूत्र/3/4-5 <span class="SanskritText">परस्परोदीरितदु:खा:।4। संक्लिष्टासुरोदीरितदु:खाश्च प्राक् चतुर्थ्या:।5।</span> <span class="HindiText">=वे परस्पर उत्पन्न किये गये दु:ख वाले होते हैं।4। और चौथी भूमि से पहले तक अर्थात् पहिले दूसरे व तीसरे नरक में संक्लिष्ट असुरों के द्वारा उत्पन्न किये दु:ख वाले होते हैं।5। </span><br /> | <span class="GRef">तत्त्वार्थसूत्र/3/4-5</span> <span class="SanskritText">परस्परोदीरितदु:खा:।4। संक्लिष्टासुरोदीरितदु:खाश्च प्राक् चतुर्थ्या:।5।</span> <span class="HindiText">=वे परस्पर उत्पन्न किये गये दु:ख वाले होते हैं।4। और चौथी भूमि से पहले तक अर्थात् पहिले दूसरे व तीसरे नरक में संक्लिष्ट असुरों के द्वारा उत्पन्न किये दु:ख वाले होते हैं।5। </span><br /> | ||
त्रिलोकसार/197 <span class="PrakritGatha">खेत्तजणिदं असादं सारीरं माणसं च असुरकयं। भुंजंति जहावसरं भवट्ठिदी चरिमसमयो त्ति।197।</span>=<span class="HindiText">क्षेत्र जनित, शारीरिक, मानसिक और असुरकृत ऐसी चार प्रकार की असाता यथा अवसर अपनी पर्याय के | <span class="GRef">त्रिलोकसार/197</span> <span class="PrakritGatha">खेत्तजणिदं असादं सारीरं माणसं च असुरकयं। भुंजंति जहावसरं भवट्ठिदी चरिमसमयो त्ति।197।</span>=<span class="HindiText">क्षेत्र जनित, शारीरिक, मानसिक और असुरकृत ऐसी चार प्रकार की असाता यथा अवसर अपनी पर्याय के अंत समय पर्यंत भोगता है। <span class="GRef">(कार्तिकेयानुप्रेक्षा/35)</span>।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> शारीरिक दु:ख निर्देश</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.2.1" id="2.2.1"> नरक में उत्पन्न होकर उछलने संबंधी दु:ख</strong> </span><br /> | ||
तिलोयपण्णत्ति/2/314-315 <span class="PrakritGatha"> भीदीए कंपमाणो चलिदुं दुक्खेण पट्ठिओ संतो। छत्तीसाउहमज्झे पडिदूणं तत्थ उप्पलइ।314। उच्छेहजोयणाणिं सत्त धणू छस्सहस्सपंचसया। उप्पलइ पढमखेत्ते दुगुणं दुगुणं कमेण सेसेसु।315।</span>=<span class="HindiText">वह नारकी जीव (पर्याप्ति पूर्ण करते ही) भय से काँपता हुआ बड़े कष्ट से चलने के लिए प्रस्तुत होकर, छत्तीस आयुधों के मध्य में गिरकर वहाँ से उछलता है।314। प्रथम पृथिवी में सात योजन 6500 धनुष प्रमाण ऊपर उछलता है। इससे आगे शेष छ: पृथिवियों में उछलने का प्रमाण क्रम से उत्तरोत्तर दूना दूना है।315। ( हरिवंशपुराण/4/355-361 ) ( महापुराण/10/35-37 ) ( त्रिलोकसार/181-182 ) ( ज्ञानार्णव/36/18-19 )।<br /> | <span class="GRef">तिलोयपण्णत्ति/2/314-315</span> <span class="PrakritGatha"> भीदीए कंपमाणो चलिदुं दुक्खेण पट्ठिओ संतो। छत्तीसाउहमज्झे पडिदूणं तत्थ उप्पलइ।314। उच्छेहजोयणाणिं सत्त धणू छस्सहस्सपंचसया। उप्पलइ पढमखेत्ते दुगुणं दुगुणं कमेण सेसेसु।315।</span>=<span class="HindiText">वह नारकी जीव (पर्याप्ति पूर्ण करते ही) भय से काँपता हुआ बड़े कष्ट से चलने के लिए प्रस्तुत होकर, छत्तीस आयुधों के मध्य में गिरकर वहाँ से उछलता है।314। प्रथम पृथिवी में सात योजन 6500 धनुष प्रमाण ऊपर उछलता है। इससे आगे शेष छ: पृथिवियों में उछलने का प्रमाण क्रम से उत्तरोत्तर दूना दूना है।315। <span class="GRef">(हरिवंशपुराण/4/355-361)</span> <span class="GRef">( महापुराण/10/35-37)</span> <span class="GRef">( त्रिलोकसार/181-182)</span> <span class="GRef">(ज्ञानार्णव/36/18-19)</span>।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.2.2" id="2.2.2">परस्पर कृत दु:ख निर्देश</strong> <br /> | ||
<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/2/316-342</span> का भावार्थ–उसको वहाँ उछलता देखकर पहले नारकी उसकी ओर दौड़ते हैं।316। शस्त्रों, भयंकर पशुओं व वृक्ष नदियों आदि का रूप धरकर (देखें [[ नरक#3 | नरक - 3]])।317। उसे मारते हैं व खाते हैं।322। हज़ारों यंत्रों में पेलते हैं।323। साकलों से बँधते हैं व अग्नि में फेंकते हैं।324। करोंत से चोरते हैं व भालों से बींधते हैं।325। पकते तेल में फेंकते हैं।326। शीतल जल समझकर यदि वह वेतरणी नदी में प्रवेश करता है तो भी वे उसे छेदते हैं।327-328। कछुओं आदि का रूप धरकर उसे भक्षण करते हैं।329। जब आश्रय ढूँढ़ने के लिए बिलों में प्रवेश करता है तो वहाँ अग्नि की ज्वालाओं का सामना करना पड़ता है।330। शीतल छाया के भ्रम से असिपत्र वन में जाते हैं।331। वहाँ उन वृक्षों के तलवार के समान पत्तों से अथवा अन्य शस्त्रास्त्रों से छेदे जाते हैं।332-333। गृद्ध आदि पक्षी बनकर नारकी उसे चूँट-चूँट कर खाते हैं।334-335। अंगोपांग चूर्ण कर उसमें क्षार जल डालते हैं।336। फिर खंड-खंड करके चूल्हों में डालते हैं।337। तप्त लोहे की पुतलियों से आलिंगन कराते हैं।338। उसी के मांस को काटकर उसी के मुख में देते हैं।339। गलाया हुआ लोहा व ताँबा उसे पिलाते हैं।340। पर फिर भी वे मरण को प्राप्त नहीं होते हैं (देखें [[ नरक#3 | नरक - 3]])।341। अनेक प्रकार के शस्त्रों आदि रूप से परिणत होकर वे नारकी एक दूसरे को इस प्रकार दुख देते हैं।342। <span class="GRef">(भगवती आराधना/1565-1580)</span>, <span class="GRef">(सर्वार्थसिद्धि/2/5/209/7)</span>, <span class="GRef">(राजवार्तिक/3/5/8/31)</span>, <span class="GRef">(हरिवंशपुराण/4/363-365)</span>, <span class="GRef">(महापुराण/10/38-63)</span>, <span class="GRef">(त्रिलोकसार/183-190)</span>, <span class="GRef">(जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/157-177)</span>, <span class="GRef">(कार्तिकेयानुप्रेक्षा/36-39)</span>, <span class="GRef">(ज्ञानार्णव/36/61-76)</span>, <span class="GRef">( वसुनंदी श्रावकाचार/166-169)</span>।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/3/4/208/3</span> <span class="SanskritText"> नारका: भवप्रत्ययेनावधिना ...दूरादेव दु:खहेतूनवगम्योत्पन्नदु:खा: प्रत्यासत्तौ परस्परालोकनाच्च प्रज्वलितकोपाग्नय: पूर्वभवानुस्मरणाच्चातिती व्रानुबद्धवैराश्च श्वशृगालादिवत्स्वाभिघाते प्रवर्तमान: स्वविक्रियाकृत...आयुधै: स्वकरचरणदशनैश्च छेदनभेदनतक्षणदंशनादिभि: परस्परस्यातितीव्रं दु:खमुत्पादयंति। </span>=<span class="HindiText">नारकियों के भवप्रत्यय अवधिज्ञान होता है। उसके कारण दूर से ही दु:ख के कारणों को जानकर उनको दु:ख उत्पन्न हो जाता है और समीप में आने पर एक दूसरे को देखने से उनकी कोपाग्नि भभक उठती है। तथा पूर्वभव का स्मरण होने से उनकी वैर की गाँठ और दृढ़तर हो जाती है, जिससे वे कुत्ता और गीदड़ के समान एक दूसरे का घात करने के लिए प्रवृत्त होते हैं। वे अपनी विक्रिया से अस्त्र शस्त्र बना कर (देखें [[ नरक#3 | नरक - 3]]) उनसे तथा अपने हाथ पाँव और दाँतों से छेदना, भेदना, छीलना और काटना आदि के द्वारा परस्पर अति तीव्र दु:ख को उत्पन्न करते हैं। <span class="GRef">(राजवार्तिक/3/4/1/165/4)</span>, <span class="GRef">(महापुराण/10/40,103)</span><br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.2.3" id="2.2.3"> आहार संबंधी दु:ख निर्देश</strong><br /> | ||
तिलोयपण्णत्ति/2/343-346 का भावार्थ–अत्यंत तीखी व कड़वी थोड़ी सी मिट्टी को चिरकाल में खाते हैं।343। अत्यंत दुर्गंधवाला व ग्लानि युक्त आहार करते हैं।344-346।<br /> | <span class="GRef">तिलोयपण्णत्ति/2/343-346</span> का भावार्थ–अत्यंत तीखी व कड़वी थोड़ी सी मिट्टी को चिरकाल में खाते हैं।343। अत्यंत दुर्गंधवाला व ग्लानि युक्त आहार करते हैं।344-346।<br /> | ||
देखें [[ नरक#5 | | देखें - [[ नरक#5.5 | सातों पृथिवियों में मिट्टी की दुर्गंधी का प्रमाण ]]<br /> | ||
<span class="GRef"> हरिवंशपुराण/4/366 का भावार्थ</span>–अत्यंत तीक्ष्ण खारा व गरम वैतरणी नदी का जल पीते हैं और दुर्गंध युक्त मिट्टी का आहार करते हैं।</span><br /> | |||
त्रिलोकसार/192 | <span class="GRef">त्रिलोकसार/192</span> <span class="PrakritGatha">सादिकुहिदातिगंधं सणिमणं मट्टियं विभुंजंति। घम्मभवा वंसादिसु असंखगुणिदासहं तत्तो।192। </span>=<span class="HindiText">कुत्ते आदि जीवों की विष्टा से भी अधिक दुर्गंधित मिट्टी का भोजन करते हैं। और वह भी उनको अत्यंत अल्प मिलती है, जबकि उनकी भूख बहुत अधिक होती है।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.2.4" id="2.2.4">भूख-प्यास संबंधी दु:ख निर्देश</strong> </span><br /> | ||
ज्ञानार्णव/36/77-78 <span class="SanskritGatha">बुभुक्षा जायतेऽत्यर्थं नरके तत्र देहिनाम् । यां न शामयितुं शक्त: पुद्गलप्रचयोऽखिल:।77। तृष्णा भवति या तेषु वाडवाग्निरिवोल्वणा। न सा शाम्यति नि:शेषपीतैरप्यंबुराशिभि:।78। </span>=<span class="HindiText">नरक में नारकी जीवों को भूख ऐसी लगती है, कि समस्त पुद्गलों का समूह भी उसको शमन करने में समर्थ नहीं।77। तथा वहाँ पर तृष्णा बड़वाग्नि के समान इतनी उत्कट होती है कि समस्त समुद्रों का जल भी पी लें तो नहीं मिटती।78। <br /> | <span class="GRef">ज्ञानार्णव/36/77-78</span> <span class="SanskritGatha">बुभुक्षा जायतेऽत्यर्थं नरके तत्र देहिनाम् । यां न शामयितुं शक्त: पुद्गलप्रचयोऽखिल:।77। तृष्णा भवति या तेषु वाडवाग्निरिवोल्वणा। न सा शाम्यति नि:शेषपीतैरप्यंबुराशिभि:।78। </span>=<span class="HindiText">नरक में नारकी जीवों को भूख ऐसी लगती है, कि समस्त पुद्गलों का समूह भी उसको शमन करने में समर्थ नहीं।77। तथा वहाँ पर तृष्णा बड़वाग्नि के समान इतनी उत्कट होती है कि समस्त समुद्रों का जल भी पी लें तो नहीं मिटती।78। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.2.5" id="2.2.5"> रोगों संबंधी दु:ख निर्देश</strong> </span><br /> | ||
ज्ञानार्णव/36/20 <span class="SanskritGatha">दु:सहा निष्प्रतीकारा ये रोगा: संति केचन। साकल्येनैव गात्रेषु नारकाणां भवंति ते।20।</span> =<span class="HindiText">दुस्सह तथा निष्प्रतिकार जितने भी रोग इस संसार में हैं वे सबके सब नारकियों के शरीर में रोमरोम में होते हैं।<br /> | <span class="GRef">ज्ञानार्णव/36/20</span> <span class="SanskritGatha">दु:सहा निष्प्रतीकारा ये रोगा: संति केचन। साकल्येनैव गात्रेषु नारकाणां भवंति ते।20।</span> =<span class="HindiText">दुस्सह तथा निष्प्रतिकार जितने भी रोग इस संसार में हैं वे सबके सब नारकियों के शरीर में रोमरोम में होते हैं।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong>शीत व उष्ण संबंधी दु:ख निर्देश</strong> <br /> | ||
देखें [[ नरक#5 | | देखें - [[ नरक#5.7 | नारक पृथिवी में अत्यंत शीत व उष्ण होती हैं। ]]<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3"> क्षेत्रकृत दु:ख निर्देश</strong> <br /> | ||
देखें [[ नरक#5 | नरक | देखें - [[ नरक#5.5 | नरक की मिट्टी तथा नारकियों के शरीर अत्यंत दुर्गंधी युक्त होते हैं | ]] वहाँ के बिल [[नरक#5.6 | अत्यंत अंधकार पूर्ण ]] तथा [[नरक#5.8 | शीत या उष्ण होते हैं।]] <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4"> असुर देवोंकृत दु:ख निर्देश</strong> </span><br /> | ||
तिलोयपण्णत्ति/2/348-350 <span class="PrakritText"> सिकतानन.../...।348।...वेतरणिपहुदि असुरसुरा। गंतूण बालुकंतं णारइयाणं पकोपंति।349। इह खेत्ते जह मणुवा पेच्छंते मेसमहिसजुद्धादिं। तह णिरये असुरसुरा णारयकलहं पतुट्ठमणा।350। </span>=<span class="HindiText">सिकतानन...वैतरणी | <span class="GRef">तिलोयपण्णत्ति/2/348-350</span> <span class="PrakritText"> सिकतानन.../...।348।...वेतरणिपहुदि असुरसुरा। गंतूण बालुकंतं णारइयाणं पकोपंति।349। इह खेत्ते जह मणुवा पेच्छंते मेसमहिसजुद्धादिं। तह णिरये असुरसुरा णारयकलहं पतुट्ठमणा।350। </span>=<span class="HindiText">[[ असुर#2 |सिकतानन...वैतरणी आदिक असुरकुमार जाति के देव ]] तीसरी बालुकाप्रभा पृथिवी तक जाकर नारकियों को क्रोधित कराते हैं। 348-349। इस क्षेत्र में जिस प्रकार मनुष्य, मेंढे और भैंसे आदि के युद्ध को देखते हैं, उसी प्रकार असुरकुमार जाति के देव नारकियों के युद्ध को देखते हैं और मन में संतुष्ट होते हैं। <span class="GRef">(महापुराण/10/64)</span></span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/3/5/209/7 <span class="SanskritText">सुतप्तायोरसपायननिष्टप्तायस्तंभालिंगन...निष्पीडनादिभिर्नारकाणां दु:खमुत्पादयंति। </span>=<span class="HindiText">खूब तपाया हुआ लोहे का रस पिलाना, अत्यंत तपाये गये लोहस्तंभ का आलिंगन कराना, ...यंत्र में पेलना आदि के द्वारा नारकियों को परस्पर दु:ख उत्पन्न कराते हैं। (विशेष देखें [[ पहिले परस्परकृत दु:ख ]]) ( भगवती आराधना/1568-1570 ), ( राजवार्तिक/3/5/8/361/31 ), ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/168-169 )</span><br /> | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/3/5/209/7</span> <span class="SanskritText">सुतप्तायोरसपायननिष्टप्तायस्तंभालिंगन...निष्पीडनादिभिर्नारकाणां दु:खमुत्पादयंति। </span>=<span class="HindiText">खूब तपाया हुआ लोहे का रस पिलाना, अत्यंत तपाये गये लोहस्तंभ का आलिंगन कराना, ...यंत्र में पेलना आदि के द्वारा नारकियों को परस्पर दु:ख उत्पन्न कराते हैं। (विशेष देखें [[ [[नरक#2.2.2 | पहिले परस्परकृत दु:ख ]]) <span class="GRef">(भगवती आराधना/1568-1570)</span>, <span class="GRef">(राजवार्तिक/3/5/8/361/31)</span>, <span class="GRef">(जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/168-169)</span></span><br /> | ||
<span class="GRef"> महापुराण/10/41</span> <span class="SanskritGatha">चोदयंत्यसुराश्चैनां यूयं युध्यध्वमित्यरम् । संस्मार्य पूर्ववैराणि प्राक्चतुर्थ्या: सुदारुणा: ।41।</span>=<span class="HindiText">पहले की तीन पृथिवियों तक अतिशय भयंकर असुरकुमार जाति के देव जाकर वहाँ के नारकियों को उनके पूर्वभव वैर का स्मरण कराकर परस्पर में लड़ने के लिए प्रेरणा करते रहते हैं। <span class="GRef">(वसुनंदी श्रावकाचार/170)</span> <br /> | |||
देखें [[ असुर#3 | असुर - 3 ]](अंबरीष आदि कुछ ही प्रकार के असुर देव नरकों में जाते हैं, सब नहीं)<br /> | देखें [[ असुर#3 | असुर - 3 ]](अंबरीष आदि कुछ ही प्रकार के असुर देव नरकों में जाते हैं, सब नहीं)<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5"> मानसिक दु:ख निर्देश</strong> <br /> | ||
महापुराण/10/67-86 का | <span class="GRef">महापुराण/10/67-86 का भावार्थ</span>–अहो ! अग्नि के फुलिंगों के समान यह वायु, तप्त धूलिका वर्षा।67-68। विष सरीखा असिपत्र वन।69। जबरदस्ती आलिंगन करने वाली ये लोहे की गरम पुतलियाँ।70। हमको परस्पर में लड़ाने वाले ये दुष्ट यमराजतुल्य असुर देव।71। हमारा भक्षण करने के लिए यह सामने से आ रहे जो भयंकर पशु।72। तीक्ष्ण शस्त्रों से युक्त ये भयानक नारकी।73-75। यह संताप जनक करुण क्रंदन की आवाज़।76। शृगालों की हृदयविदारक ध्वनियाँ।77। असिपत्रवन में गिरने वाले पत्तों को कठोर शब्द।78। काँटों वाले सेमर वृक्ष।79। भयानक वैतरणी नदी।80। अग्नि की ज्वालाओं युक्त ये विलें।81। कितने दु:स्सह व भयंकर हैं। प्राण भी आयु पूर्ण हुए बिना छूटते नहीं।82। अरे-अरे ! अब हम कहाँ जावें।83। इन दु:खों से हम कब तिरेंगे।84। इस प्रकार प्रतिक्षण चिंतवन करते रहने से उन्हें दु:सह मानसिक संताप उत्पन्न होता है, तथा हर समय उन्हें मरने का संशय बना रहता है।85। <br /> | ||
ज्ञानार्णव/36/27-60 का | <span class="GRef">ज्ञानार्णव/36/27-60 का भावार्थ</span>–हाय हाय ! पापकर्म के उदय से हम इस ( उपरोक्तवत् ) भयानक नरक में पड़े हैं।27। ऐसा विचारते हुए वज्राग्नि के समान संतापकारी पश्चात्ताप करते हैं।28। हाय हाय ! हमने सत्पुरुषों व वीतरागी साधुओं के कल्याणकारी उपदेशों का तिरस्कार किया है।29-33। मिथ्यात्व व अविद्या के कारण विषयांध होकर मैंने पाँचों पाप किये।34-37। पूर्वभवों में मैंने जिनको सताया है वे यहाँ मुझको सिंह के समान मारने को उद्यत है।38-40। मनुष्य भव में मैंने हिताहित का विचार न किया, अब यहाँ क्या कर सकता हूँ।41-44। अब किसकी शरण में जाऊँ।45। यह दु:ख अब मैं कैसे सहूँगा।46। जिनके लिए मैंने पाप कार्य किये वे कुटुंबीजन अब क्यों आकर मेरी सहायता नहीं करते।47-51। इस संसार में धर्म के अतिरिक्त अन्य कोई सहायक नहीं।52-59। इस प्रकार निरंतर अपने पूर्वकृत पापों आदि का सोच करता रहता है।60। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3" id="3"> नारकियों के शरीर की विशेषताएँ</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.1" id="3.1"> जन्मने व पर्याप्त होने संबंधी</strong> </span><br /> | ||
तिलोयपण्णत्ति/2/313 <span class="PrakritGatha">पावेण णिरयबिले जादूणं ता मुहुत्तगं मेत्ते। छप्पज्जत्ती पाविय आकस्मियभयजुदो होदि।313।</span> =<span class="HindiText">नारकी जीव पाप से नरक बिल में उत्पन्न होकर और एक मुहूर्त मात्र में छह पर्याप्तियों को प्राप्त कर आकस्मिक भय से युक्त होता है। ( महापुराण/10/34 )</span><br /> | <span class="GRef">तिलोयपण्णत्ति/2/313</span> <span class="PrakritGatha">पावेण णिरयबिले जादूणं ता मुहुत्तगं मेत्ते। छप्पज्जत्ती पाविय आकस्मियभयजुदो होदि।313।</span> =<span class="HindiText">नारकी जीव पाप से नरक बिल में उत्पन्न होकर और एक मुहूर्त मात्र में छह पर्याप्तियों को प्राप्त कर आकस्मिक भय से युक्त होता है। <span class="GRef">(महापुराण/10/34)</span></span><br /> | ||
महापुराण/10/33 <span class="SanskritGatha">तत्र वीभत्सुनि स्थाने जाले मधुकृतामिव। तेऽधोमुखा प्रजायंते पापिनामुन्नतिं कुत:।33। </span>=<span class="HindiText">उन पृथिवियों में वे जीव मधु-मक्खियों के छत्ते के समान लटकते हुए घृणित स्थानों में नीचे की ओर मुख करके पैदा होते हैं।<br /> | <span class="GRef">महापुराण/10/33</span> <span class="SanskritGatha">तत्र वीभत्सुनि स्थाने जाले मधुकृतामिव। तेऽधोमुखा प्रजायंते पापिनामुन्नतिं कुत:।33। </span>=<span class="HindiText">उन पृथिवियों में वे जीव मधु-मक्खियों के छत्ते के समान लटकते हुए घृणित स्थानों में नीचे की ओर मुख करके पैदा होते हैं।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="3.2" id="3.2">शरीर की अशुभ प्रकृति</strong> </span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/3/3/207/4 <span class="SanskritText">देहाश्च तेषामशुभनामकर्मोदयादत्यंताशुभतरा विकृताकृतयो हुंडसंस्थाना दुर्दर्शना:। </span>=<span class="HindiText">नारकियों के शरीर अशुभ नामकर्म के उदय से होने के कारण उत्तरोत्तर (आगे-आगे की पृथिवियों में) अशुभ हैं। उनकी विकृत आकृति है, हुंडक संस्थान है, और देखने में बुरे लगते हैं। ( राजवार्तिक/3/3/4/164/12 ), ( हरिवंशपुराण/4/368 ), ( महापुराण/10/34,95 ), (विशेष देखें [[ उदय#6.3 | उदय - 6.3]])<br /> | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/3/3/207/4</span> <span class="SanskritText">देहाश्च तेषामशुभनामकर्मोदयादत्यंताशुभतरा विकृताकृतयो हुंडसंस्थाना दुर्दर्शना:। </span>=<span class="HindiText">नारकियों के शरीर अशुभ नामकर्म के उदय से होने के कारण उत्तरोत्तर (आगे-आगे की पृथिवियों में) अशुभ हैं। उनकी विकृत आकृति है, हुंडक संस्थान है, और देखने में बुरे लगते हैं। <span class="GRef">(राजवार्तिक/3/3/4/164/12)</span>, <span class="GRef">(हरिवंशपुराण/4/368)</span>, <span class="GRef">(महापुराण/10/34,95)</span>, (विशेष देखें [[ उदय#6.3 | उदय - 6.3]])<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.3" id="3.3"> वैक्रियक भी वह मांसादि युक्त होता है</strong> </span><br /> | ||
राजवार्तिक/3/3/4/164/14 <span class="SanskritText">यथेह श्लेष्ममूत्रपुरीषमलरुधिरवसामेद: पूयवमनपूतिमांसकेशास्थिचर्माद्यशुभमौदारिकगतं ततोऽप्यतीवाशुभत्वं नारकाणां वैक्रियकशरीरत्वेऽपि। </span>=<span class="HindiText">जिस प्रकार के श्लेष्म, मूत्र, पुरीष, मल, रुधिर, वसा, मेद, पीप, वमन, पूति, मांस, केश, अस्थि, चर्म अशुभ सामग्री युक्त औदारिक शरीर होता है, उससे भी अतीव अशुभ इस सामग्री युक्त नारकियों का वैक्रियक भी शरीर होता है। अर्थात् वैक्रियक होते हुए भी उनका शरीर उपरोक्त वीभत्स | <span class="GRef">राजवार्तिक/3/3/4/164/14</span> <span class="SanskritText">यथेह श्लेष्ममूत्रपुरीषमलरुधिरवसामेद: पूयवमनपूतिमांसकेशास्थिचर्माद्यशुभमौदारिकगतं ततोऽप्यतीवाशुभत्वं नारकाणां वैक्रियकशरीरत्वेऽपि। </span>=<span class="HindiText">जिस प्रकार के श्लेष्म, मूत्र, पुरीष, मल, रुधिर, वसा, मेद, पीप, वमन, पूति, मांस, केश, अस्थि, चर्म अशुभ सामग्री युक्त औदारिक शरीर होता है, उससे भी अतीव अशुभ इस सामग्री युक्त नारकियों का वैक्रियक भी शरीर होता है। अर्थात् वैक्रियक होते हुए भी उनका शरीर उपरोक्त वीभत्स सामग्री युक्त होता है।<br /> | ||
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<li class="HindiText"><strong name="3.4" id="3.4">इनके मूँछ दाढ़ी नहीं होती</strong><br /> | <li class="HindiText"><strong name="3.4" id="3.4">इनके मूँछ दाढ़ी नहीं होती</strong><br /> | ||
<span class="GRef">बोधपाहुड़/ टीका/32 में उद्धृत</span>-देवा वि य नेरइया हलहर चक्की य तह य तित्थयरा। सव्वे केसव रामा कामा निक्कुंचिया होंति।1।–सभी देव, नारकी, हलधर, चक्रवर्ती तथा तीर्थंकर, प्रतिनारायण, नारायण व कामदेव ये सब बिना मूँछ दाढ़ी वाले होते हैं।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.5" id="3.5">इनके शरीर में निगोद राशि नहीं होती</strong> </span><br /> | ||
धवला 14/5,6,91/81/8 <span class="PrakritText">पुढवि-आउ-तेज-वाउक्काइया देव-णेरइया आहारसरीरा पमत्तसंजदा सजोगिअजोगिकेवलिणो च पत्तेयसरीरा वुच्चंति; एदेसिं णिगोदजीवेहिं सह संबंधाभावादो।</span>=<span class="HindiText">पृथिवीकायिक, जलकायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, देव, नारकी, आहारकशरीर, प्रमत्तसंयत, सयोगकेवली और अयोगकेवली ये जीव प्रत्येक शरीर वाले होते हैं; क्योंकि, इनका निगोद जीवों के | <span class="GRef">धवला 14/5,6,91/81/8</span> <span class="PrakritText">पुढवि-आउ-तेज-वाउक्काइया देव-णेरइया आहारसरीरा पमत्तसंजदा सजोगिअजोगिकेवलिणो च पत्तेयसरीरा वुच्चंति; एदेसिं णिगोदजीवेहिं सह संबंधाभावादो।</span>=<span class="HindiText">पृथिवीकायिक, जलकायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, देव, नारकी, आहारकशरीर, प्रमत्तसंयत, सयोगकेवली और अयोगकेवली ये जीव प्रत्येक शरीर वाले होते हैं; क्योंकि, इनका निगोद जीवों के साथ संबंध नहीं होता।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.6" id="3.6">छिन्न-भिन्न होने पर वह स्वत: पुन: पुन: मिल जाता है</strong></span><br /> | ||
तिलोयपण्णत्ति/2/341 <span class="PrakritGatha"> करवालपहरभिण्णं कूवजलं जह पुणो वि संघडदि। तह णारयाण अंगं छिज्जंतं विविहसत्थेहिं।341।</span> =<span class="HindiText">जिस प्रकार तलवार के प्रहार से भिन्न हुआ कुएँ का जल फिर से भी मिल जाता है, इसी प्रकार अनेकानेक शस्त्रों से छेदा गया नारकियों का शरीर भी फिर से मिल जाता है।; ( हरिवंशपुराण/4/364 ); ( महापुराण/10/39 ); ( त्रिलोकसार/194 ) ( ज्ञानार्णव/36/80 )।<br /> | <span class="GRef">तिलोयपण्णत्ति/2/341</span> <span class="PrakritGatha"> करवालपहरभिण्णं कूवजलं जह पुणो वि संघडदि। तह णारयाण अंगं छिज्जंतं विविहसत्थेहिं।341।</span> =<span class="HindiText">जिस प्रकार तलवार के प्रहार से भिन्न हुआ कुएँ का जल फिर से भी मिल जाता है, इसी प्रकार अनेकानेक शस्त्रों से छेदा गया नारकियों का शरीर भी फिर से मिल जाता है।; <span class="GRef">( हरिवंशपुराण/4/364 )</span>; ( <span class="GRef">महापुराण/10/39)</span>; <span class="GRef">( त्रिलोकसार/194)</span> ( <span class="GRef">ज्ञानार्णव/36/80)</span>।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.7" id="3.7">आयु पूर्ण होने पर वह काफूरवत् उड़ जाता है</strong></span><br /> | ||
तिलोयपण्णत्ति/2/353 <span class="PrakritGatha"> कदलीघादेण विणा णारयगत्ताणि आउअवसाणे। मारुदपहदब्भाइ व णिस्सेसाणिं विलीयंते।353।</span> =<span class="HindiText">नारकियों के शरीर कदलीघात के बिना (देखें [[ मरण#4 | मरण - 4]]) आयु के अंत में वायु से ताड़ित मेघों के समान नि:शेष विलीन हो जाते हैं। ( त्रिलोकसार/196 )।<br /> | <span class="GRef">तिलोयपण्णत्ति/2/353</span> <span class="PrakritGatha"> कदलीघादेण विणा णारयगत्ताणि आउअवसाणे। मारुदपहदब्भाइ व णिस्सेसाणिं विलीयंते।353।</span> =<span class="HindiText">नारकियों के शरीर कदलीघात के बिना (देखें [[ मरण#4 | मरण - 4]]) आयु के अंत में वायु से ताड़ित मेघों के समान नि:शेष विलीन हो जाते हैं। <span class="GRef">(त्रिलोकसार/196)</span>।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.8" id="3.8"> नरक में प्राप्त आयुध पशु आदि नारकियों के ही शरीर की विक्रिया है</strong> </span><br /> | ||
तिलोयपण्णत्ति/2/318-321 <span class="PrakritGatha">चक्कसरसूलतोमरमोग्गरकरवत्तकोंतसूईणं। मुसलासिप्पहुदीणं वणणगदावाणलादीणं ।318। वयवग्घतरच्छसिगालसाणमज्जालसीहपहुदीणं। अण्णोण्णं चसदा ते णियणियदेहं विगुव्वंति।319। गहिरबिलधूममारुदअइतत्तकहल्लिजंतचुल्लीणं। कंडणिपीसणिदव्वीण रूवमण्णे विकुव्वंति।320। सूवरवणग्गिसोणिदकिमिसरिदहकूववाइपहुदीणं। पुहुपुहुरूवविहीणा णियणियदेहं पकुव्वंति।321।</span> =<span class="HindiText">वे नारकी जीव चक्र, वाण, शूली, तोमर, मुद्गर, करोंत, भाला, सूई, मूसल, और तलवार इत्यादिक शस्त्रास्त्र; वन एवं पर्वत की आग; तथा भेड़िया, व्याघ्र, तरक्ष, शृगाल, कुत्ता, बिलाव, और सिंह, इन पशुओं के अनुरूप परस्पर में सदैव अपने-अपने शरीर की विक्रिया किया करते हैं।318-319। अन्य नारकी जीव गहरा बिल, धुआँ, वायु, अत्यंत तपा हुआ खप्पर, यंत्र, चूल्हा, कंडनी, (एक प्रकार का कूटने का उपकरण), चक्की और दर्वी (बर्छी), इनके आकाररूप अपने-अपने शरीर की विक्रिया करते हैं।320। उपर्युक्त नारकी शूकर, दावानल, तथा शोणित और कीड़ों से युक्त सरित्, द्रह, कूप, और वापी आदिरूप पृथक्-पृथक् रूप से रहित अपने-अपने शरीर की विक्रिया किया करते हैं। (तात्पर्य यह कि नारकियों के अपृथक् विक्रिया होती है। देवों के समान उनके पृथक् विक्रिया नहीं होती।321। ( सर्वार्थसिद्धि/3/4/208/6 ); ( राजवार्तिक/3/4/165/4 ); ( हरिवंशपुराण/4/363 ); ( ज्ञानार्णव/36/67 ); ( वसुनंदी श्रावकाचार/166 ); (और भी देखें [[ अगला शीर्षक ]])।<br /> | <span class="GRef">तिलोयपण्णत्ति/2/318-321</span> <span class="PrakritGatha">चक्कसरसूलतोमरमोग्गरकरवत्तकोंतसूईणं। मुसलासिप्पहुदीणं वणणगदावाणलादीणं ।318। वयवग्घतरच्छसिगालसाणमज्जालसीहपहुदीणं। अण्णोण्णं चसदा ते णियणियदेहं विगुव्वंति।319। गहिरबिलधूममारुदअइतत्तकहल्लिजंतचुल्लीणं। कंडणिपीसणिदव्वीण रूवमण्णे विकुव्वंति।320। सूवरवणग्गिसोणिदकिमिसरिदहकूववाइपहुदीणं। पुहुपुहुरूवविहीणा णियणियदेहं पकुव्वंति।321।</span> =<span class="HindiText">वे नारकी जीव चक्र, वाण, शूली, तोमर, मुद्गर, करोंत, भाला, सूई, मूसल, और तलवार इत्यादिक शस्त्रास्त्र; वन एवं पर्वत की आग; तथा भेड़िया, व्याघ्र, तरक्ष, शृगाल, कुत्ता, बिलाव, और सिंह, इन पशुओं के अनुरूप परस्पर में सदैव अपने-अपने शरीर की विक्रिया किया करते हैं।318-319। अन्य नारकी जीव गहरा बिल, धुआँ, वायु, अत्यंत तपा हुआ खप्पर, यंत्र, चूल्हा, कंडनी, (एक प्रकार का कूटने का उपकरण), चक्की और दर्वी (बर्छी), इनके आकाररूप अपने-अपने शरीर की विक्रिया करते हैं।320। उपर्युक्त नारकी शूकर, दावानल, तथा शोणित और कीड़ों से युक्त सरित्, द्रह, कूप, और वापी आदिरूप पृथक्-पृथक् रूप से रहित अपने-अपने शरीर की विक्रिया किया करते हैं। (तात्पर्य यह कि नारकियों के अपृथक् विक्रिया होती है। देवों के समान उनके पृथक् विक्रिया नहीं होती।321। <span class="GRef">(सर्वार्थसिद्धि/3/4/208/6)</span>; <span class="GRef">(राजवार्तिक/3/4/165/4)</span>; <span class="GRef">(हरिवंशपुराण/4/363)</span>; <span class="GRef">(ज्ञानार्णव/36/67)</span>; <span class="GRef">(वसुनंदी श्रावकाचार/166)</span>; (और भी देखें [[ [[नरक#3.9 | अगला शीर्षक ]])।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.9" id="3.9">छह पृथिवियों में आयुधों रूप विक्रिया होती है और सातवीं में कीड़ों रूप</strong></span><br /> | ||
राजवार्तिक/2/47/4/152/11 <span class="SanskritText"> नारकाणां त्रिशूलचक्रासिमुद्गरपरशुभिंडिपालाद्यनेकायुधैकत्वविक्रिवा–आ षष्ठया:। सप्तम्यां महागोकीटकप्रमाणलोहितकुंथुरूपैकत्वविक्रिया।</span> =<span class="HindiText">छठे नरक तक के नारकियों के त्रिशूल, चक्र, तलवार, मुद्गर, परशु, भिंडिपाल आदि अनेक आयुधरूप एकत्व विक्रिया होती है (देखें [[ | <span class="GRef">राजवार्तिक/2/47/4/152/11</span> <span class="SanskritText"> नारकाणां त्रिशूलचक्रासिमुद्गरपरशुभिंडिपालाद्यनेकायुधैकत्वविक्रिवा–आ षष्ठया:। सप्तम्यां महागोकीटकप्रमाणलोहितकुंथुरूपैकत्वविक्रिया।</span> =<span class="HindiText">छठे नरक तक के नारकियों के त्रिशूल, चक्र, तलवार, मुद्गर, परशु, भिंडिपाल आदि अनेक आयुधरूप एकत्व विक्रिया होती है (देखें [[ वैक्रियिक#1 | वैक्रियिक - 1]])। सातवें नरक में गाय बराबर कीड़े लोहू, चींटी आदि रूप से एकत्व विक्रिया होती है।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="4" id="4"> नारकियों में संभव भाव व गुणस्थान आदि</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="4.1" id="4.1">सदा अशुभ परिणामों से युक्त रहते हैं</strong> </span><br /> | ||
तत्त्वार्थसूत्र/3/3 <span class="SanskritText"> नारका नित्याशुभतरलेश्यापरिणामदेहवेदनाविक्रिया:। </span>=<span class="HindiText">नारकी निरंतर अशुभतर लेश्या, परिणाम, देह, वेदना व विक्रिया वाले हैं। (विशेष देखें [[ लेश्या#4 | लेश्या - 4]])।<br /> | <span class="GRef">तत्त्वार्थसूत्र/3/3</span> <span class="SanskritText"> नारका नित्याशुभतरलेश्यापरिणामदेहवेदनाविक्रिया:। </span>=<span class="HindiText">नारकी निरंतर अशुभतर लेश्या, परिणाम, देह, वेदना व विक्रिया वाले हैं। (विशेष देखें [[ लेश्या#4 | लेश्या - 4]])।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="4.2" id="4.2"> नरकगति में सम्यक्त्वों का स्वामित्व</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef">षट्खण्डागम 1/1,1/सूत्र 151-155/399-401</span> <span class="PrakritText">णेरइया अत्थि मिच्छाइट्ठी सासण-सम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी असंजदसम्माइट्ठि त्ति।151। एवं जाव सत्तसु पुढवीसु।152। णेरइया असंजदसम्माइट्ठि-ट्ठाणे अत्थि खइयसम्माइट्ठी वेदगसम्माइट्ठी उवसमसम्माइट्ठी चेदि।153। एवं पढमाए पुढवीए णेरइआ।154। विदियादि जाव सत्तमाए पुढवीए णेरइया असंजदसम्माइट्ठिट्ठाणे खइयसम्माइट्ठी णत्थि, अवसेसा अत्थि।155। </span>=<span class="HindiText">नारकी जीव मिथ्यादृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती होते हैं।151। इस प्रकार सातों पृथिवियों में प्रारंभ के चार गुणस्थान होते हैं।152। नारकी जीव असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में क्षायिक सम्यग्दृष्टि, वेदक सम्यग्दृष्टि और उपशम सम्यग्दृष्टि होते हैं।153। इसी प्रकार प्रथम पृथिवी में नारकी जीव होते हैं।154। दूसरी पृथिवी से लेकर सातवीं पृथिवी तक नारकी जीव असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में क्षायिक सम्यग्दृष्टि नहीं होते हैं। शेष दो सम्यग्दर्शनों से युक्त होते हैं।155।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="4.3" id="4.3"> नरकगति में गुणस्थानों का स्वामित्व</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef">षट्खण्डागम1/1,1/सूत्र.25/204</span> <span class="PrakritText">णेरइया चउट्ठाणेसु अत्थि मिच्छाइंट्ठी सासणसम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी असंजदसम्माइट्ठित्ति।25।</span> | |||
<span class="GRef">षट्खण्डागम1/1,1/सूत्र 79-83/319-323</span> <span class="PrakritText">णेरइया मिच्छाइट्ठिअसंजदसम्माइट्ठिट्ठाणे सिया पज्जत्ता सिया अपज्जत्ता।71। सासणसम्माइट्ठिसम्मामिच्छाइट्ठिट्ठाणे णियमा पज्जत्ता।80। एवं पढमाए पुढवीए णेरइया।81। विदियादि जाव सत्तमाए पुढवीए णेरइया मिच्छाइट्ठिट्ठाणे सिया पज्जत्ता सिया अपज्जत्ता।82। सासणसम्माइट्ठि-सम्मामिच्छाइट्ठि-असंजदसम्माइट्ठिट्ठाणे णियमा पज्जत्ता।83।</span> =<span class="HindiText">मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि इन चार गुणस्थानों में नारकी होते हैं।25। नारकी जीव मिथ्यादृष्टि और असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में पर्याप्तक होते हैं और अपर्याप्तक भी होते हैं।79। नारकी जीव सासादन सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानों में नियम से पर्याप्तक ही होते हैं।80। इसी प्रकार प्रथम पृथिवी में नारकी होते हैं।81। दूसरी पृथिवी से लेकर सातवीं पृथिवी तक रहने वाले नारकी मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में पर्याप्तक भी होते हैं और अपर्याप्तक भी होते हैं।82। पर वे (2-7 पृथिवी के नारकी) सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में नियम से पर्याप्तक होते हैं।83। <br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="4.4" id="4.4"> मिथ्यादृष्टि से अन्य गुणस्थान वहाँ कैसे संभव है</strong></span><br /> | ||
धवला 1/1,1,25/205/3 <span class="SanskritText">अस्तु मिथ्यादृष्टिगुणे तेषां सत्त्वं मिथ्यादृष्टिषु तत्रोत्पत्तिनिमित्तमिथ्यात्वस्य सत्त्वात् । नेतरेषु तेषां सत्त्वं तत्रोत्पत्तिनिमित्तस्य मिथ्यात्वस्यासत्त्वादिति चेन्न, आयुषो बंधमंतरेण मिथ्यात्वाविरतिकषायाणां तत्रोत्पादनसामर्थ्याभावात् । न च बद्धस्यायुष: सम्यक्त्वान्निरन्वयविनाश: आर्षविरोधात् । न हि बद्धायुष: सम्यक्त्वं संयममिव न प्रतिपद्यंते सूत्रविरोधात् । </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में नारकियों का सत्त्व रहा आवे, क्योंकि, वहाँ पर (अर्थात् मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में) नारकियों में उत्पत्ति का | <span class="GRef">धवला 1/1,1,25/205/3</span> <span class="SanskritText">अस्तु मिथ्यादृष्टिगुणे तेषां सत्त्वं मिथ्यादृष्टिषु तत्रोत्पत्तिनिमित्तमिथ्यात्वस्य सत्त्वात् । नेतरेषु तेषां सत्त्वं तत्रोत्पत्तिनिमित्तस्य मिथ्यात्वस्यासत्त्वादिति चेन्न, आयुषो बंधमंतरेण मिथ्यात्वाविरतिकषायाणां तत्रोत्पादनसामर्थ्याभावात् । न च बद्धस्यायुष: सम्यक्त्वान्निरन्वयविनाश: आर्षविरोधात् । न हि बद्धायुष: सम्यक्त्वं संयममिव न प्रतिपद्यंते सूत्रविरोधात् । </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में नारकियों का सत्त्व रहा आवे, क्योंकि, वहाँ पर (अर्थात् मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में) नारकियों में उत्पत्ति का निमित्त कारण मिथ्यादर्शन पाया जाता है। किंतु दूसरे गुणस्थान में नारकियों का सत्त्व नहीं पाया जाना चाहिए; क्योंकि, अन्य गुणस्थान सहित नारकियों में उत्पत्ति का निमित्त कारण मिथ्यात्व नहीं पाया जाता है। (अर्थात् मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में ही नरकायु का बंध संभव है, अन्य गुणस्थानों में नहीं) ? <strong>उत्तर</strong>–ऐसा नहीं है; क्योंकि, नरकायु के बंध बिना मिथ्यादर्शन, अविरत और कषाय की नरक में उत्पन्न कराने की सामर्थ्य नहीं है। (अर्थात् नरकायु ही नरक में उत्पत्ति का कारण है, मिथ्या, अविरति व कषाय नहीं)। और पहले बँधी हुई आयु का पीछे से उत्पन्न हुए सम्यग्दर्शन द्वारा निरन्वय नाश भी नहीं होता है; क्योंकि, ऐसा मान लेने पर आर्ष से विरोध आता है। जिन्होंने नरकायु का बंध कर लिया है, ऐसे जीव जिस प्रकार संयम को प्राप्त नहीं हो सकते हैं, उसी प्रकार सम्यक्त्व को भी प्राप्त नहीं होते, यह बात भी नहीं है; क्योंकि, ऐसा मान लेने पर भी सूत्र से विरोध आता है (देखें [[ आयु#6.7 | आयु - 6.7]])।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="4.5" id="4.5"> वहाँ सासादन की संभावना कैसे है</strong></span><br /> | ||
धवला 1/1,1,25/205/8 <span class="SanskritText"> सम्यग्दृष्टीनां बद्धायुषां तत्रोत्पत्तिरस्तीति संति तत्रासंयतसम्यग्दृष्टय:, न सासादनगुणवतां तत्रोत्पत्तिस्तद्गुणस्य तत्रोत्पत्त्या सह विरोधात् । तहिं कथं तद्वतां तत्र सत्त्वमिति चेन्न, पर्याप्तनरकगत्या सहापर्याप्तया इव तस्य विरोधाभावात् । किमित्यपर्याप्तया विरोधश्चेत्स्वभावोऽयं, न हि स्वभावा: परपर्यनुयोगार्हा:। ...कथं पुनस्तयोस्तत्र सत्त्वमिति चेन्न, परिणामप्रत्ययेन तदुत्पत्तिसिद्धे:। </span>=<span class="HindiText">जिन जीवों ने पहले नरकायु का बंध किया है और जिन्हें पीछे से सम्यग्दर्शन उत्पन्न हुआ है, ऐसे बद्धायुष्क सम्यग्दृष्टियों की नरक में उत्पत्ति है, इसलिए नरक में असंयत सम्यग्दृष्टि भले ही पाये जावें, परंतु सासादन गुणस्थान वालों की मरकर नरक में उत्पत्ति नहीं हो सकती (देखें [[ जन्म#4.1 | जन्म - 4.1]]) क्योंकि सासादन गुणस्थान का नरक में उत्पत्ति के साथ विरोध है। <strong>प्रश्न</strong>–तो फिर, सासादन गुणस्थान वालों का नरक में सद्भाव कैसे पाया जा सकता है ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, जिस प्रकार नरकगति में अपर्याप्त अवस्था के साथ सासादन गुणस्थान का विरोध है उसी प्रकार पर्याप्तावस्था सहित नरकगति के साथ सासादन गुणस्थान का विरोध नहीं है। <strong>प्रश्न</strong>–अपर्याप्त अवस्था के साथ उसका विरोध क्यों है ? <strong>उत्तर</strong>–यह नारकियों का स्वभाव है और स्वभाव दूसरों के प्रश्न के योग्य नहीं होते हैं। (अन्य गतियों में इसका अपर्याप्त काल के साथ विरोध नहीं है, परंतु मिश्र गुणस्थान का तो सभी गतियों में अपर्याप्त काल के साथ विरोध है।) ( धवला 1/1,1,80/320/8 )। <strong>प्रश्न</strong>–तो फिर सासादन और मिश्र इन दोनों गुणस्थानों का नरक गति सत्त्व कैसे संभव है? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, परिणामों के निमित्त से | <span class="GRef">धवला 1/1,1,25/205/8</span> <span class="SanskritText"> सम्यग्दृष्टीनां बद्धायुषां तत्रोत्पत्तिरस्तीति संति तत्रासंयतसम्यग्दृष्टय:, न सासादनगुणवतां तत्रोत्पत्तिस्तद्गुणस्य तत्रोत्पत्त्या सह विरोधात् । तहिं कथं तद्वतां तत्र सत्त्वमिति चेन्न, पर्याप्तनरकगत्या सहापर्याप्तया इव तस्य विरोधाभावात् । किमित्यपर्याप्तया विरोधश्चेत्स्वभावोऽयं, न हि स्वभावा: परपर्यनुयोगार्हा:। ...कथं पुनस्तयोस्तत्र सत्त्वमिति चेन्न, परिणामप्रत्ययेन तदुत्पत्तिसिद्धे:। </span>=<span class="HindiText">जिन जीवों ने पहले नरकायु का बंध किया है और जिन्हें पीछे से सम्यग्दर्शन उत्पन्न हुआ है, ऐसे बद्धायुष्क सम्यग्दृष्टियों की नरक में उत्पत्ति है, इसलिए नरक में असंयत सम्यग्दृष्टि भले ही पाये जावें, परंतु सासादन गुणस्थान वालों की मरकर नरक में उत्पत्ति नहीं हो सकती (देखें [[ जन्म#4.1 | जन्म - 4.1]]) क्योंकि सासादन गुणस्थान का नरक में उत्पत्ति के साथ विरोध है। <strong>प्रश्न</strong>–तो फिर, सासादन गुणस्थान वालों का नरक में सद्भाव कैसे पाया जा सकता है ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, जिस प्रकार नरकगति में अपर्याप्त अवस्था के साथ सासादन गुणस्थान का विरोध है उसी प्रकार पर्याप्तावस्था सहित नरकगति के साथ सासादन गुणस्थान का विरोध नहीं है। <strong>प्रश्न</strong>–अपर्याप्त अवस्था के साथ उसका विरोध क्यों है ? <strong>उत्तर</strong>–यह नारकियों का स्वभाव है और स्वभाव दूसरों के प्रश्न के योग्य नहीं होते हैं। (अन्य गतियों में इसका अपर्याप्त काल के साथ विरोध नहीं है, परंतु मिश्र गुणस्थान का तो सभी गतियों में अपर्याप्त काल के साथ विरोध है।) <span class="GRef">(धवला 1/1,1,80/320/8)</span>। <strong>प्रश्न</strong>–तो फिर सासादन और मिश्र इन दोनों गुणस्थानों का नरक गति सत्त्व कैसे संभव है? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, परिणामों के निमित्त से नरक गति की पर्याप्त अवस्था में उनकी उत्पत्ति बन जाती है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="4.6" id="4.6"> मर-मरकर पुन:-पुन: जो उठने वाले नारकियों की अपर्याप्तावस्था में भी सासादन व मिश्र मान लेने चाहिए ?</strong> </span><br /> | ||
धवला 1/1,1,80/321/1 <span class="SanskritText">नारकाणामग्निसंबंधाद्भस्मसाद्भावमुपगतानां पुनर्भस्मनि समुत्पद्यमानानामपर्याप्ताद्धायां गुणद्वयस्य सत्त्वाविरोधान्नियमेन पर्याप्ता इति न घटत इति चेन्न, तेषां मरणाभावात् । भावे वा न ते तत्रोत्पद्यंते।...आयुषोऽवसाने म्रियमाणानामेष नियमश्चेन्न, तेषामपमृत्योरसत्त्वात् । भस्मसाद्भावमुपगतानां तेषां कथं पुनर्मरणमिति चेन्न, देहविकारस्यायुर्विच्छित्त्यनिमित्तत्वात् ।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–अग्नि के संबंध से भस्मीभाव को प्राप्त होने वाले नारकियों के अपर्याप्त काल में इन दो गुणस्थानों के होने में कोई विरोध नहीं आता है, इसलिए, इन गुणस्थानों में नारकी नियम से पर्याप्त होते हैं, यह नियम नहीं बनता है? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, अग्नि आदि निमित्तों से नारकियों का मरण नहीं होता है (देखें [[ नरक#3 | नरक - 3]] | <span class="GRef">धवला 1/1,1,80/321/1</span> <span class="SanskritText">नारकाणामग्निसंबंधाद्भस्मसाद्भावमुपगतानां पुनर्भस्मनि समुत्पद्यमानानामपर्याप्ताद्धायां गुणद्वयस्य सत्त्वाविरोधान्नियमेन पर्याप्ता इति न घटत इति चेन्न, तेषां मरणाभावात् । भावे वा न ते तत्रोत्पद्यंते।...आयुषोऽवसाने म्रियमाणानामेष नियमश्चेन्न, तेषामपमृत्योरसत्त्वात् । भस्मसाद्भावमुपगतानां तेषां कथं पुनर्मरणमिति चेन्न, देहविकारस्यायुर्विच्छित्त्यनिमित्तत्वात् ।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–अग्नि के संबंध से भस्मीभाव को प्राप्त होने वाले नारकियों के अपर्याप्त काल में इन दो गुणस्थानों के होने में कोई विरोध नहीं आता है, इसलिए, इन गुणस्थानों में नारकी नियम से पर्याप्त होते हैं, यह नियम नहीं बनता है? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, अग्नि आदि निमित्तों से नारकियों का मरण नहीं होता है (देखें [[ नरक#3.6 | नरक - 3.6]])। यदि नारकियों का मरण हो जावे तो पुन: वे वहीं पर उत्पन्न नहीं होते हैं (देखें [[ जन्म#6.6 | जन्म - 6.6]])। <strong>प्रश्न</strong>–आयु के अंत में मरने वालों के लिए ही यह सूत्रोक्त (नारकी मरकर नरक व देवगति में नहीं जाता, मनुष्य या तिर्यंचगति में जाता है) नियम लागू होना चाहिए? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि नारकी जीवों के अपमृत्यु का सद्भाव नहीं पाया जाता (देखें [[ मरण#4 | मरण - 4]]) अर्थात् नारकियों का आयु के अंत में ही मरण होता है, बीच में नहीं। <strong>प्रश्न</strong>–यदि उनकी अपमृत्यु नहीं होती तो जिनका शरीर भस्मीभाव को प्राप्त हो गया है, ऐसे नारकियों का, (आयु के अंत में) पुनर्मरण कैसे बनेगा ? <strong>उत्तर</strong>–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, देह का विकार आयु कर्म के विनाश का निमित्त नहीं है। (विशेष देखें [[ मरण#2 | मरण - 2]])।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="4.7" id="4.7"> वहाँ सम्यग्दर्शन कैसे संभव है</strong> </span><br /> | ||
धवला 1/1,1,25/206/7 <span class="SanskritText">तर्हि सम्यग्दृष्टयोऽपि तथैव संतीति चेन्न, इष्टत्वात् । सासादनस्येव सम्यग्दृष्टेरपि तत्रोत्पत्तिर्मा भूदिति चेन्न, प्रथमपृथिव्युत्पत्ति प्रति निषेधाभावात् । प्रथमपृथिव्यामिव द्वितीयादिषु पृथिवीषु सम्यग्दृष्टय: किंनोत्पद्यंत इति चेन्न, सम्यक्त्वस्य तत्रतन्यापर्याप्ताद्धया सह विरोधात् ।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–तो फिर सम्यग्दृष्टि भी उसी प्रकार होते हैं ऐसा मानना चाहिए। अर्थात् सासादन की भाँति सम्यग्दर्शन की भी वहाँ उत्पत्ति मानना चाहिए ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं; क्योंकि, यह बात तो हमें इष्ट ही है, अर्थात् सातों पृथिवियों की पर्याप्त अवस्था में सम्यग्दृष्टियों का सद्भाव माना गया है। <strong>प्रश्न</strong>–जिस प्रकार सासादन सम्यग्दृष्टि नरक में उत्पन्न नहीं होते हैं, उसी प्रकार सम्यग्दृष्टियों की भी मरकर वहाँ उत्पत्ति नहीं होनी चाहिए? <strong>उत्तर</strong>–सम्यग्दृष्टि मरकर प्रथम पृथिवी में उत्पन्न होते हैं, इसका आगम में निषेध नहीं है। <strong>प्रश्न</strong>–जिस प्रकार प्रथम पृथिवी में सम्यग्दृष्टि उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार द्वितीयादि पृथिवियों में भी सम्यग्दृष्टि क्यों उत्पन्न नहीं होते हैं ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं; क्योंकि, द्वितीयादि पृथिवियों की अपर्याप्तावस्था के साथ सम्यग्दर्शन का विरोध है।<br /> | <span class="GRef">धवला 1/1,1,25/206/7</span> <span class="SanskritText">तर्हि सम्यग्दृष्टयोऽपि तथैव संतीति चेन्न, इष्टत्वात् । सासादनस्येव सम्यग्दृष्टेरपि तत्रोत्पत्तिर्मा भूदिति चेन्न, प्रथमपृथिव्युत्पत्ति प्रति निषेधाभावात् । प्रथमपृथिव्यामिव द्वितीयादिषु पृथिवीषु सम्यग्दृष्टय: किंनोत्पद्यंत इति चेन्न, सम्यक्त्वस्य तत्रतन्यापर्याप्ताद्धया सह विरोधात् ।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–तो फिर सम्यग्दृष्टि भी उसी प्रकार होते हैं ऐसा मानना चाहिए। अर्थात् सासादन की भाँति सम्यग्दर्शन की भी वहाँ उत्पत्ति मानना चाहिए ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं; क्योंकि, यह बात तो हमें इष्ट ही है, अर्थात् सातों पृथिवियों की पर्याप्त अवस्था में सम्यग्दृष्टियों का सद्भाव माना गया है। <strong>प्रश्न</strong>–जिस प्रकार सासादन सम्यग्दृष्टि नरक में उत्पन्न नहीं होते हैं, उसी प्रकार सम्यग्दृष्टियों की भी मरकर वहाँ उत्पत्ति नहीं होनी चाहिए? <strong>उत्तर</strong>–सम्यग्दृष्टि मरकर प्रथम पृथिवी में उत्पन्न होते हैं, इसका आगम में निषेध नहीं है। <strong>प्रश्न</strong>–जिस प्रकार प्रथम पृथिवी में सम्यग्दृष्टि उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार द्वितीयादि पृथिवियों में भी सम्यग्दृष्टि क्यों उत्पन्न नहीं होते हैं ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं; क्योंकि, द्वितीयादि पृथिवियों की अपर्याप्तावस्था के साथ सम्यग्दर्शन का विरोध है।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="4.8" id="4.8">सासादन, मिश्र व सम्यग्दृष्टि मरकर नरक में उत्पन्न नहीं होते। इसका हेतु</strong></span><br /> | ||
धवला 1/1,1,83/323/9 <span class="SanskritText">भवतु नाम सम्यग्मिथ्यादृष्टेस्तत्रानुत्पत्ति:। सम्यग्मिथ्यात्वपरिणाममधिष्ठितस्य मरणाभावात् ।...किंत्वेतंन युज्यते शेषगुणस्थानप्राणिनस्तत्र नोत्पद्यंत इति। न तावत् सासादनस्तत्रोत्पद्यते तस्य नरकायुषो बंधाभावात् । नापि बद्धनरकायुष्क: सासादनं प्रतिपद्य नारकेषूत्पद्यते तस्य तस्मिन् गुणे मरणाभावात् । नासंयतसम्यग्दृष्टयोऽपि तत्रोत्पद्यंते तत्रोत्पत्तिर्निमित्ताभावात् । न तावत्कर्मस्कंधबहुत्वं तस्य तत्रोत्पत्ते: कारणं क्षपितकर्मांशानामपि जीवानां तत्रोत्पत्तिदर्शनात् । नापि कर्मस्कंधाणुत्वं तत्रोत्पत्ते: कारणं गुणितकर्मांशानामपि तत्रोत्पत्तिदर्शनात् । नापि नरकगतिकर्मण: सत्त्वं तस्य तत्रोत्पत्ते: करणं तत्सत्त्वं प्रत्यविशेषत: सकलपंचेंद्रियाणामपि नरकप्राप्तिप्रसंगात् । नित्यनिगोदानामपि विद्यमानत्रसकर्मणां त्रसेषूत्पत्तिप्रसंगात् । नाशुभलेश्यानां सत्त्वं तत्रोत्पत्ते: कारणं मरणावस्थायामसंयतसम्यग्दृष्टे: षट् सु पृथिविषूत्पत्तिनिमित्ताशुभलेश्याभावात् । न नरकायुष: सत्त्वं तस्य तत्रोत्पत्ते: कारणं सम्यग्दर्शनासिना छिन्नषट्पृथिव्यायुष्कत्वात् । न च तच्छेदोऽसिद्ध: आर्षात्तत्सिद्धयुपलंभात् । तत: स्थितमेतत् न सम्यग्दृष्टि: षट्मु पृथिवीषूत्पद्यत इति।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–समयग्मिथ्यादृष्टि जीव की मरकर शेष छह पृथिवियों में भी उत्पत्ति नहीं होती है, क्योंकि सम्यग्मिथ्यात्वरूप परिणाम को प्राप्त हुए जीव का मरण नहीं होता है (देखें [[ मरण#3 | मरण - 3]])। किंतु शेष (सासादन व असंयत सम्यग्दृष्टि) गुणस्थान वाले प्राणी (भी) मरकर वहाँ पर उत्पन्न नहीं होते, यह कहना नहीं बनता ? <strong>उत्तर</strong>–1. सासादन गुणस्थान वाले तो नरक में उत्पन्न ही नहीं होते हैं; क्योंकि, सासादन गुणस्थान वालों के नरकायु का बंध ही नहीं होता है (देखें [[ प्रकृति बंध#7 | प्रकृति बंध - 7]])। 2. जिसने पहले नरकायु का बंध कर लिया है ऐसे जीव भी सासादन गुणस्थान को प्राप्त होकर नारकियों में उत्पन्न नहीं होते हैं। क्योंकि नरकायु का बंध करने वाले जीव का सासादन गुणस्थान में मरण ही नहीं होता है। 3. असंयत सम्यग्दृष्टि जीव भी द्वितीयादि पृथिवियों में उत्पन्न नहीं होते हैं; क्योंकि, सम्यग्दृष्टियों के शेष छह पृथिवियों में उत्पन्न होने के निमित्त नहीं पाये जाते हैं। 4. कर्मस्कंधों की बहुलता को उसके लिए वहाँ उत्पन्न होने का निमित्त नहीं कहा जा सकता; क्योंकि, | <span class="GRef">धवला 1/1,1,83/323/9</span> <span class="SanskritText">भवतु नाम सम्यग्मिथ्यादृष्टेस्तत्रानुत्पत्ति:। सम्यग्मिथ्यात्वपरिणाममधिष्ठितस्य मरणाभावात् ।...किंत्वेतंन युज्यते शेषगुणस्थानप्राणिनस्तत्र नोत्पद्यंत इति। न तावत् सासादनस्तत्रोत्पद्यते तस्य नरकायुषो बंधाभावात् । नापि बद्धनरकायुष्क: सासादनं प्रतिपद्य नारकेषूत्पद्यते तस्य तस्मिन् गुणे मरणाभावात् । नासंयतसम्यग्दृष्टयोऽपि तत्रोत्पद्यंते तत्रोत्पत्तिर्निमित्ताभावात् । न तावत्कर्मस्कंधबहुत्वं तस्य तत्रोत्पत्ते: कारणं क्षपितकर्मांशानामपि जीवानां तत्रोत्पत्तिदर्शनात् । नापि कर्मस्कंधाणुत्वं तत्रोत्पत्ते: कारणं गुणितकर्मांशानामपि तत्रोत्पत्तिदर्शनात् । नापि नरकगतिकर्मण: सत्त्वं तस्य तत्रोत्पत्ते: करणं तत्सत्त्वं प्रत्यविशेषत: सकलपंचेंद्रियाणामपि नरकप्राप्तिप्रसंगात् । नित्यनिगोदानामपि विद्यमानत्रसकर्मणां त्रसेषूत्पत्तिप्रसंगात् । नाशुभलेश्यानां सत्त्वं तत्रोत्पत्ते: कारणं मरणावस्थायामसंयतसम्यग्दृष्टे: षट् सु पृथिविषूत्पत्तिनिमित्ताशुभलेश्याभावात् । न नरकायुष: सत्त्वं तस्य तत्रोत्पत्ते: कारणं सम्यग्दर्शनासिना छिन्नषट्पृथिव्यायुष्कत्वात् । न च तच्छेदोऽसिद्ध: आर्षात्तत्सिद्धयुपलंभात् । तत: स्थितमेतत् न सम्यग्दृष्टि: षट्मु पृथिवीषूत्पद्यत इति।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–समयग्मिथ्यादृष्टि जीव की मरकर शेष छह पृथिवियों में भी उत्पत्ति नहीं होती है, क्योंकि सम्यग्मिथ्यात्वरूप परिणाम को प्राप्त हुए जीव का मरण नहीं होता है (देखें [[ मरण#3 | मरण - 3]])। किंतु शेष (सासादन व असंयत सम्यग्दृष्टि) गुणस्थान वाले प्राणी (भी) मरकर वहाँ पर उत्पन्न नहीं होते, यह कहना नहीं बनता ? <strong>उत्तर</strong>–1. सासादन गुणस्थान वाले तो नरक में उत्पन्न ही नहीं होते हैं; क्योंकि, सासादन गुणस्थान वालों के नरकायु का बंध ही नहीं होता है (देखें [[ प्रकृति बंध#7 | प्रकृति बंध - 7]])। 2. जिसने पहले नरकायु का बंध कर लिया है ऐसे जीव भी सासादन गुणस्थान को प्राप्त होकर नारकियों में उत्पन्न नहीं होते हैं। क्योंकि नरकायु का बंध करने वाले जीव का सासादन गुणस्थान में मरण ही नहीं होता है। 3. असंयत सम्यग्दृष्टि जीव भी द्वितीयादि पृथिवियों में उत्पन्न नहीं होते हैं; क्योंकि, सम्यग्दृष्टियों के शेष छह पृथिवियों में उत्पन्न होने के निमित्त नहीं पाये जाते हैं। 4. कर्मस्कंधों की बहुलता को उसके लिए वहाँ उत्पन्न होने का निमित्त नहीं कहा जा सकता; क्योंकि, क्षपित कर्मांशिकों की भी नरक में उत्पत्ति देखी जाती है। 5. कर्मस्कंधों की अल्पता भी उसके लिए वहाँ उत्पन्न होने का निमित्त नहीं है, क्योंकि, गुणित कर्मांशिकों की भी वहाँ उत्पत्ति देखी जाती है। 6. नरक गति नामकर्म का सत्त्व भी उसके लिए वहाँ उत्पत्ति का निमित्त नहीं है; क्योंकि नरक गति के सत्त्व के प्रति कोई विशेषता न होने से सभी पंचेंद्रिय जीवों की नरक गति की प्राप्ति का प्रसंग आ जायेगा। तथा नित्य निगोदिया जीवों के भी त्रसकर्म की सत्ता रहने के कारण उनकी त्रसों में उत्पत्ति होने लगेगी। 7. अशुभ लेश्या का सत्त्व भी उसके लिए वहाँ उत्पन्न होने का निमित्त नहीं कहा जा सकता; क्योंकि, मरण समय असंयत सम्यग्दृष्टि जीव के नीचे की छह पृथिवियों में उत्पत्ति की कारण रूप अशुभ लेश्याएँ नहीं पायी जातीं। 8. नरकायु का सत्त्व भी उसके लिए वहाँ उत्पत्ति का कारण नहीं है; क्योंकि, सम्यग्दर्शन रूपी खंग से नीचे की छह पृथिवी संबंधी आयु काट दी जाती है। और वह आयु का कटना असिद्ध भी नहीं है; क्योंकि, आगम से इसकी पुष्टि होती है। इसलिए यह सिद्ध हुआ कि नीचे की छह पृथिवियों में सम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न नहीं होता।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="4.9" id="4.9"> ऊपर के गुणस्थान यहाँ क्यों नहीं होते</strong></span><br /> | ||
तिलोयपण्णत्ति/2/274-275 <span class="PrakritGatha">ताण य पच्चक्खाणवरणोदयसहिदसव्वजीवाणं। हिंसाणंदजुदाणं णाणाविहसंकिलेसपउराणं।274। देसविरदादिउवरिमदसगुणठाणाण हेदुभूदाओ। जाओ विसोधियाओ कइया वि ण ताओ जायंति।275। </span>=<span class="HindiText">अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से सहित, हिंसा में आनंद मानने वाले और नाना प्रकार के प्रचुर दु:खों से संयुक्त उन सब नारकी जीवों के देशविरत आदिक उपरितन दश गुणस्थानों के हेतुभूत जो विशुद्ध परिणाम हैं, वे कदाचित् भी नहीं होते हैं।274-275।</span><br /> | <span class="GRef">तिलोयपण्णत्ति/2/274-275</span> <span class="PrakritGatha">ताण य पच्चक्खाणवरणोदयसहिदसव्वजीवाणं। हिंसाणंदजुदाणं णाणाविहसंकिलेसपउराणं।274। देसविरदादिउवरिमदसगुणठाणाण हेदुभूदाओ। जाओ विसोधियाओ कइया वि ण ताओ जायंति।275। </span>=<span class="HindiText">अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से सहित, हिंसा में आनंद मानने वाले और नाना प्रकार के प्रचुर दु:खों से संयुक्त उन सब नारकी जीवों के देशविरत आदिक उपरितन दश गुणस्थानों के हेतुभूत जो विशुद्ध परिणाम हैं, वे कदाचित् भी नहीं होते हैं।274-275।</span><br /> | ||
धवला 1/1,1,25/207/3 <span class="SanskritText">नोपरिमगुणानां तत्र संभवस्तेषां संयमासंयमसंयमपर्यायेण सह विरोधात् ।</span>=<span class="HindiText">इन चार गुणस्थानों (1-4 तक) के अतिरिक्त ऊपर के गुणस्थानों का नरक में सद्भाव नहीं है; क्योंकि, संयमासंयम, और संयम पर्याय के साथ नरकगति में उत्पत्ति होने का विरोध है। <br /> | <span class="GRef">धवला 1/1,1,25/207/3</span> <span class="SanskritText">नोपरिमगुणानां तत्र संभवस्तेषां संयमासंयमसंयमपर्यायेण सह विरोधात् ।</span>=<span class="HindiText">इन चार गुणस्थानों (1-4 तक) के अतिरिक्त ऊपर के गुणस्थानों का नरक में सद्भाव नहीं है; क्योंकि, संयमासंयम, और संयम पर्याय के साथ नरकगति में उत्पत्ति होने का विरोध है। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="5" id="5">नरक लोक निर्देश</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="5.1" id="5.1">नरक की सात पृथिवियों के नाम निर्देश</strong></span><br /> | ||
तत्त्वार्थसूत्र/3/1 <span class="SanskritText">रत्नशर्कराबालुकापंकधूमतमोमहातम:प्रभाभूमयो घनांबुवाताकाशप्रतिष्ठा: सप्ताधोऽध:।1। </span>=<span class="HindiText">रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तम:प्रभा, और महातम:प्रभा, ये सात भूमियाँ घनांबुवात अर्थात् घनोदधि वात और आकाश के सहारे स्थित हैं तथा क्रम से नीचे हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/1/152 ); ( हरिवंशपुराण/4/43-45 ); ( महापुराण/10/31 ); ( त्रिलोकसार/144 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/113 )।</span><br /> | <span class="GRef">तत्त्वार्थसूत्र/3/1</span> <span class="SanskritText">रत्नशर्कराबालुकापंकधूमतमोमहातम:प्रभाभूमयो घनांबुवाताकाशप्रतिष्ठा: सप्ताधोऽध:।1। </span>=<span class="HindiText">रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तम:प्रभा, और महातम:प्रभा, ये सात भूमियाँ घनांबुवात अर्थात् घनोदधि वात और आकाश के सहारे स्थित हैं तथा क्रम से नीचे हैं। <span class="GRef">(तिलोयपण्णत्ति/1/152 )</span>; <span class="GRef">(हरिवंशपुराण/4/43-45)</span>; <span class="GRef">(महापुराण/10/31)</span>; <span class="GRef">(त्रिलोकसार/144)</span>; <span class="GRef">(जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/113)</span>।</span><br /> | ||
तिलोयपण्णत्ति/1/153 <span class="PrakritGatha">घम्मावंसामेघाअंजणरिट्ठाणउब्भमघवीओ। माघविया इय ताणं पुढवीणं गोत्तणाभाणि।153।</span> =<span class="HindiText">इन पृथिवियों के अपर रूढि नाम क्रम से घर्मा, वंशा, मेघा, अंजना, अरिष्टा, मघवी और माघवी भी हैं।46। ( हरिवंशपुराण/4/46 ); ( महापुराण/10/32 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/111-112 ); ( त्रिलोकसार/145 )।<br /> | <span class="GRef">तिलोयपण्णत्ति/1/153</span> <span class="PrakritGatha">घम्मावंसामेघाअंजणरिट्ठाणउब्भमघवीओ। माघविया इय ताणं पुढवीणं गोत्तणाभाणि।153।</span> =<span class="HindiText">इन पृथिवियों के अपर रूढि नाम क्रम से घर्मा, वंशा, मेघा, अंजना, अरिष्टा, मघवी और माघवी भी हैं।46। <span class="GRef">( हरिवंशपुराण/4/46)</span>; <span class="GRef">( महापुराण/10/32)</span>; <span class="GRef">(जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/111-112)</span>; <span class="GRef">(त्रिलोकसार/145)</span>।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="5.2" id="5.2">अधोलोक सामान्य परिचय</strong> </span><br /> | ||
तिलोयपण्णत्ति/2/9,21,24-25 <span class="PrakritGatha">खरपंकप्पबहुलाभागा रयणप्पहाए पुढवीए।9। सत्त चियभूमीओ णवदिसभाएण घणोवहि विलग्गा। अट्ठमभूमी दसदिसभागेसु घणोवहि छिवदि।24। पुव्वापरदिब्भाए वेत्तासणसंणिहाओ संठाओ। उत्तर दक्खिणदीहा अणादिणिहणा य पुढवीओ।25। </span>< | <span class="GRef">तिलोयपण्णत्ति/2/9,21,24-25</span> <span class="PrakritGatha">खरपंकप्पबहुलाभागा रयणप्पहाए पुढवीए।9। सत्त चियभूमीओ णवदिसभाएण घणोवहि विलग्गा। अट्ठमभूमी दसदिसभागेसु घणोवहि छिवदि।24। पुव्वापरदिब्भाए वेत्तासणसंणिहाओ संठाओ। उत्तर दक्खिणदीहा अणादिणिहणा य पुढवीओ।25। </span> | ||
<span class="GRef">तिलोयपण्णत्ति/1/164</span> <span class="PrakritGatha">सेढीए सत्तंसो हेट्ठिम लोयस्स होदि मुहवासो। भूमीवासो सेढीमेत्ताअवसाण उच्छेहो।164। </span>=<span class="HindiText">अधोलोक में सबसे पहले रत्नप्रभा पृथिवी है, उसके तीन भाग हैं–खरभाग, पंकभाग और अप्पबहुलभाग। (रत्नप्रभा के नीचे क्रम से शर्कराप्रभा आदि छ: पृथिवियाँ हैं।)।9। सातों पृथिवियों में ऊर्ध्वदिशा को छोड़ शेष नौ दिशाओं में घनोदधि वातवलय से लगी हुई हैं, परंतु आठवीं पृथिवी दशों-दिशाओं में ही घनोदधि वातवलय को छूती है।24। उपर्युक्त पृथिवियाँ पूर्व और पश्चिम दिशा के अंतराल में वेत्रासन के सदृश आकारवाली हैं। तथा उत्तर और दक्षिण में समान रूप से दीर्घ एवं अनादि निधन है।25। <span class="GRef">(राजवार्तिक/3/1/14/161/16)</span>; <span class="GRef">(हरिवंशपुराण/4/6,48)</span>; <span class="GRef">(त्रिलोकसार/144,146)</span>; <span class="GRef">( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/106,115)</span>। अधोलोक के मुख का विस्तार जगश्रेणी का सातवाँ भाग (1 राजू), भूमि का विस्तार जगश्रेणी प्रमाण (7 राजू) और अधोलोक के अंत तक ऊँचाई भी जग श्रेणी प्रमाण (7 राजू) ही है।164। <span class="GRef">(हरिवंशपुराण/4/9)</span>, <span class="GRef">(जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/108)</span></span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 4/1,3,1/9/3</span> <span class="PrakritText">मंदरमूलादो हेट्ठा अधोलोगो।</span> | |||
<span class="GRef">धवला 4/1,3,3/42/2</span> <span class="PrakritText">चत्तारि-तिण्णि-रज्जुबाहल्लजगपदरपमाणा अधउड्ढलोगा।</span>=<span class="HindiText">मंदराचल के मूल से नीचे का क्षेत्र अधोलोक है। चार राजू मोटा और जगत्प्रतरप्रयाण लंबा चौड़ा अधोलोक है।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="5.3" id="5.3"> पटलों व बिलों का सामान्य परिचय</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/2/28,36</span> <span class="PrakritGatha">सत्तमखिदिबहुमज्झे बिलाणि सेसेसु अप्पबहुलं तं। उवरिं हेट्ठे जोयणसहस्समुज्झिय हवंति पडलकमे।28। इंदयसेढी बद्धा पइण्णया य हवंति तिवियप्पा। ते सव्वे णिरयबिला दारुण दुक्खाणं संजणणा।36। </span>=<span class="HindiText">सातवीं पृथिवी के तो ठीक मध्य भाग में ही नारकियों के बिल हैं। परंतु ऊपर अब्बहुलभाग पर्यंत शेष छह पृथिवियों में नीचे व ऊपर एक-एक हजार योजन छोड़कर पटलों के क्रम से नारकियों के बिल हैं।28। वे नारकियों के बिल, इंद्रक, श्रेणी बद्ध और प्रकीर्णक के भेद से तीन प्रकार के हैं। ये सब ही बिल नारकियों को भयानक दु:ख दिया करते हैं।36। ( <span class="GRef">राजवार्तिक/3/2/2/162/10)</span>, ( <span class="GRef">हरिवंशपुराण/4/71-72)</span>, ( <span class="GRef">त्रिलोकसार/150)</span>, ( <span class="GRef">जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/142)</span>।</span><br /> | |||
धवला 14/5,6,641/495/8 <span class="PrakritText">णिरयसेडिबाद्धणि णिरयाणि णाम। सेडिबद्धाणं मज्झिमणिरयावासा णिरइंदयाणि णाम। तत्थतणपइण्णया णिरयपत्थडाणि णाम।</span> =<span class="HindiText">नरक के श्रेणीबद्ध नरक कहलाते हैं, श्रेणीबद्धों के मध्य में जो नरकवास हैं वे नरकेंद्रक कहलाते हैं। तथा वहाँ के प्रकीर्णक नरक प्रस्तर कहलाते हैं।</span><br /> | <span class="GRef">धवला 14/5,6,641/495/8</span> <span class="PrakritText">णिरयसेडिबाद्धणि णिरयाणि णाम। सेडिबद्धाणं मज्झिमणिरयावासा णिरइंदयाणि णाम। तत्थतणपइण्णया णिरयपत्थडाणि णाम।</span> =<span class="HindiText">नरक के श्रेणीबद्ध नरक कहलाते हैं, श्रेणीबद्धों के मध्य में जो नरकवास हैं वे नरकेंद्रक कहलाते हैं। तथा वहाँ के प्रकीर्णक नरक प्रस्तर कहलाते हैं।</span><br /> | ||
तिलोयपण्णत्ति/2/95,104 <span class="PrakritGatha"> संखेज्जमिंदयाणं रुं दं सेढिगदाण जोयणया। तं होदि असंखेज्जं पइण्णयाणुभयमिस्सं च।95। संखेज्जवासजुत्ते णिरय-विले होंति णारया जीवा। संखेज्जा णियमेणं इदरम्मि तहा असंखेज्जा।104। </span>=<span class="HindiText">इंद्रक बिलों का विस्तार संख्यात योजन, श्रेणीबद्ध बिलों का असंख्यात योजन और प्रकीर्णक बिलों का विस्तार उभयमिश्र हैं, अर्थात् कुछ का संख्यात और कुछ का असंख्यात योजन है।95। संख्यात योजनवाले नरक बिलों में नियम से संख्यात नारकी जीव तथा असंख्यात योजन विस्तार वाले बिलों में असंख्यात ही नारकी जीव होते हैं।104। ( राजवार्तिक/3/2/2/163/11 ); ( हरिवंशपुराण/4/169-170 ); ( त्रिलोकसार/167-168 )।</span><br /> | <span class="GRef">तिलोयपण्णत्ति/2/95,104</span> <span class="PrakritGatha"> संखेज्जमिंदयाणं रुं दं सेढिगदाण जोयणया। तं होदि असंखेज्जं पइण्णयाणुभयमिस्सं च।95। संखेज्जवासजुत्ते णिरय-विले होंति णारया जीवा। संखेज्जा णियमेणं इदरम्मि तहा असंखेज्जा।104। </span>=<span class="HindiText">इंद्रक बिलों का विस्तार संख्यात योजन, श्रेणीबद्ध बिलों का असंख्यात योजन और प्रकीर्णक बिलों का विस्तार उभयमिश्र हैं, अर्थात् कुछ का संख्यात और कुछ का असंख्यात योजन है।95। संख्यात योजनवाले नरक बिलों में नियम से संख्यात नारकी जीव तथा असंख्यात योजन विस्तार वाले बिलों में असंख्यात ही नारकी जीव होते हैं।104। <span class="GRef">(राजवार्तिक/3/2/2/163/11)</span>; <span class="GRef">( हरिवंशपुराण/4/169-170)</span>; <span class="GRef">(त्रिलोकसार/167-168)</span>।</span><br /> | ||
त्रिलोकसार/177 <span class="PrakritText">वज्जघणभित्तिभागा वट्टतिचउरंसबहुविहायारा। णिरया सयावि भरिया सव्विदियदुक्खदाईहिं। </span>=<span class="HindiText">वज्र सदृश भीत से युक्त और गोल, तिकोने अथवा चौकोर आदि विविध आकार वाले, वे नरक बिल, सब इंद्रियों को दु:खदायक, ऐसी सामग्री से पूर्ण हैं।<br /> | <span class="GRef">त्रिलोकसार/177</span> <span class="PrakritText">वज्जघणभित्तिभागा वट्टतिचउरंसबहुविहायारा। णिरया सयावि भरिया सव्विदियदुक्खदाईहिं। </span>=<span class="HindiText">वज्र सदृश भीत से युक्त और गोल, तिकोने अथवा चौकोर आदि विविध आकार वाले, वे नरक बिल, सब इंद्रियों को दु:खदायक, ऐसी सामग्री से पूर्ण हैं।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="5.4" id="5.4">बिलों में स्थित जन्मभूमियों का परिचय</strong><br /> | ||
तिलोयपण्णत्ति/2/302-312 का | <span class="GRef">तिलोयपण्णत्ति/2/302-312 का सारार्थ</span>–</span> | ||
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<li | <li class="HindiText"> इंद्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक बिलों के ऊपर अनेक प्रकार की तलवारों से युक्त, अर्धवृत्त और अधोमुख वाली जन्मभूमियाँ हैं। वे जन्मभूमियाँ धर्मा (प्रथम) को आदि लेकर तीसरी पृथिवी तक उष्ट्रिका, कोथली, कुंभी, मुद्गलिका, मुद्गर, मृदंग, और नालि के सदृश हैं।302-303। चतुर्थ व पंचम पृथिवी में जन्मभूमियों का आकार गाय, हाथी, घोड़ा, भस्त्रा, अब्जपुट, अंबरोष और द्रोणी जैसा है।304। छठी और सातवीं पृथिवी की जन्मभूमियाँ झालर (वाद्यविशेष), भल्लक (पात्रविशेष), पात्री, केयूर, मसूर, शानक, किलिंज (तृण की बनी बड़ी टोकरी), ध्वज, द्वीपी, चक्रवाक, शृगाल, अज, खर, करभ, संदोलक (झूला), और रीछ के सदृश हैं। ये जन्मभूमियाँ दुष्प्रेक्ष्य एवं महाभयानक हैं।305-306। उपर्युक्त नारकियों की जन्मभूमियाँ अंत में करोंत के सदृश, चारों तरफ़ से गोल, मज्जवमयी (?) और भंयकर हैं।307। ( राजवार्तिक/3/2/2/163/19 ); ( हरिवंशपुराण/4/347-349 ); ( त्रिलोकसार/180 )।</span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> उपर्युक्त जन्मभूमियों का विस्तार जघन्य रूप से 5 कोस, उत्कृष्ट रूप से 400 कोस, और मध्यम रूप से 10-15 कोस है।309। जन्मभूमियों की ऊँचाई अपने-अपने विस्तार की अपेक्षा पाँच गुणी है।310।( हरिवंशपुराण/4/351 )। (और भी देखें नीचे हरिवंशपुराण व त्रिलोकसार )। </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> ये जन्मभूमियाँ 7,3,2,1 और 5 कोणवाली हैं।310। जन्मभूमियों में 1,2,3,5 और 7 द्वार-कोण और इतने ही दरवाजे होते हैं। इस प्रकार की व्यवस्था केवल श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक बिलों में ही है।311। इंद्रक बिलों में ये जन्मभूमियाँ तीन द्वार और तीन कोनों से युक्त हैं। <span class="GRef">(हरिवंशपुराण/4/352)</span></span><br /> | ||
हरिवंशपुराण/4/350 <span class="SanskritText">एकद्वित्रिकगव्यूतियोजनव्याससंगता: शतयोजनविस्तीर्णास्तेषूत्कृष्टास्तु वर्णिता:।350। </span>= <span class="HindiText">वे जन्मस्थान एक कोश, दो कोश, तीन कोश और एक योजन विस्तार से सहित हैं। उनमें जो उत्कृष्ट स्थान हैं, वे सौ योजन तक चौड़े कहे गये हैं।350।</span><br /> | <span class="GRef">हरिवंशपुराण/4/350</span> <span class="SanskritText">एकद्वित्रिकगव्यूतियोजनव्याससंगता: शतयोजनविस्तीर्णास्तेषूत्कृष्टास्तु वर्णिता:।350। </span>= <span class="HindiText">वे जन्मस्थान एक कोश, दो कोश, तीन कोश और एक योजन विस्तार से सहित हैं। उनमें जो उत्कृष्ट स्थान हैं, वे सौ योजन तक चौड़े कहे गये हैं।350।</span><br /> | ||
त्रिलोकसार/180 <span class="PrakritGatha"> इगिवितिकोसो वासो जोयणमिव जोयणं सयं जेट्ठं। उट्ठादीणं बहलं सगवित्थारेहिं पंचगुणं।180।</span>=<span class="HindiText">एक कोश, दो कोश, तीन कोश, एक योजन, दो योजन, तीन योजन और 100 योजन, इतना घर्मांदि सात पृथिवियों में स्थित उष्ट्रादि आकार वाले | <span class="GRef">त्रिलोकसार/180</span> <span class="PrakritGatha"> इगिवितिकोसो वासो जोयणमिव जोयणं सयं जेट्ठं। उट्ठादीणं बहलं सगवित्थारेहिं पंचगुणं।180।</span>=<span class="HindiText">एक कोश, दो कोश, तीन कोश, एक योजन, दो योजन, तीन योजन और 100 योजन, इतना घर्मांदि सात पृथिवियों में स्थित उष्ट्रादि आकार वाले उपपाद स्थानों की क्रम से चौड़ाई का प्रमाण है।180। और बाहल्य अपने विस्तार से पाँच गुणा है।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="5.5" id="5.5"> नरक भूमियों में दुर्गंधि निर्देश</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="5.5.1" id="5.5.1"> बिलों में दुर्गंधि</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/2/34</span> <span class="PrakritGatha"> अजगजमहिसतुरंगमखरोट्ठमर्ज्जारअहिणरादीणं। कुधिदाणं गंधेहिं णिरयबिला ते अणंतगुणा।34।</span> =<span class="HindiText">बकरी, हाथी, भैंस, घोड़ा, गधा, ऊँट, बिल्ली, सर्प और मनुष्यादिक के सड़े हुए शरीरों के गंध की अपेक्षा वे नारकियों के बिल अनंतगुणी दुर्गंध से युक्त होते हैं।34। ( तिलोयपण्णत्ति/2/308 ); ( त्रिलोकसार/178 )।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="5.5.2" id="5.5.2"> आहार या मिट्टी की दुर्गंधि</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/2/344-346</span> <span class="PrakritGatha">अजगजमहिसतुरंगमखरोट्ठमर्ज्जारमेसपहुदीणं। कुथिताणं गंधादो अणंतगंधो हुवेदि आहारो।344। घम्माए आहारो कोसस्सब्भंतरम्मि ठिदजीवे। इह मारदि गंधेणं सेसे कोसद्धवडि्ढया सत्ति।346। </span>=<span class="HindiText">नरकों में बकरी, हाथी, भैंस, घोड़ा, गधा, ऊँट, बिल्ली और मैढ़े आदि के सड़े हुए शरीर की गंध से अनंतगुणी दुर्गंध वाली (मिट्टी का) आहार होता है।344। धर्मा पृथिवी में जो आहार (मिट्टी) है, उसकी गंध से यहाँ पर एक कोस के भीतर स्थित जीव मर सकते हैं। इसके आगे शेष द्वितीयादि पृथिवियों में इसकी घातक शक्ति, आधा-आधा कोस और भी बढ़ती गयी है।346। <span class="GRef">(हरिवंशपुराण/4/342)</span>; <span class="GRef">(त्रिलोकसार/192-193)</span>।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="5.5.3" id="5.5.3"> नारकियों के शरीर की दुर्गंधि</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> महापुराण/10/100</span> <span class="PrakritGatha">श्वमार्जारखरोष्ट्रादिकुणपानां समाहृतौ। यद्वैगंध्यं तदप्येषां देहगंधस्य नोपमा।100।</span>=<span class="HindiText">कुत्ता, बिलाव, गधा, ऊँट, आदि जीवों के मृत कलेवरों को इकट्ठा करने से जो दुर्गंध उत्पन्न होती है, वह भी इन नारकियों के शरीर की दुर्गंध की बराबरी नहीं कर सकती।100।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="5.6" id="5.6"> नरक बिलों में अंधकार व भयंकरता</strong> </span><br /> | ||
तिलोयपण्णत्ति/2/ | <span class="GRef">तिलोयपण्णत्ति/2/ गाथा संख्या</span> <span class="PrakritText">कक्खकवच्छुरोदो खइरिगालातितिक्खसूईए। कुंजरचिक्कारादो णिरयाबिला दारुणा तमसहावा।35। होरा तिमिरजुत्ता।102। दुक्खणिज्जामहाघोरा।306। णारयजम्मणभूमीओ भीमा य।307। णिच्चंधयारबहुला कत्थुरिहंतो अणंतगुणो।312।</span>=<span class="HindiText">स्वभावत: अंधकार से परिपूर्ण ये नारकियों के बिल कक्षक (क्रकच), कृपाण, छुरिका, खदिर (खैर) की आग, अति तीक्ष्ण सूई और हाथियों की चिक्कार से अत्यंत भयानक हैं।35। ये सब बिल अहोरात्र अंधकार से व्याप्त हैं।102। उक्त सभी जन्मभूमियाँ दुष्प्रेक्ष एवं महा भयानक हैं और भयंकर हैं।306-307। ये सभी जन्मभूमियाँ नित्य ही कस्तूरी से अनंतगुणित काले अंधकार से व्याप्त हैं।312।</span><br /> | ||
त्रिलोकसार/186-187,191 <span class="PrakritText">वेदालगिरि भीमा जंतसुयक्कडगुहा य पडिमाओ। लोहणिहग्गिकणड्ढा परसूछुरिगासिपत्तवणं।186। कूडासामलिरुक्खा वइदरणिणदीउ खारजलपुण्णा। पुहरुहिरा दुगंधा हदा य किमिकोडिकुलकलिदा।187। विच्छियसहस्सवेयणसमधियदुक्खं धरित्तिफासादो।191।</span> =<span class="HindiText">वेताल सदृश आकृति वाले | <span class="GRef">त्रिलोकसार/186-187,191</span> <span class="PrakritText">वेदालगिरि भीमा जंतसुयक्कडगुहा य पडिमाओ। लोहणिहग्गिकणड्ढा परसूछुरिगासिपत्तवणं।186। कूडासामलिरुक्खा वइदरणिणदीउ खारजलपुण्णा। पुहरुहिरा दुगंधा हदा य किमिकोडिकुलकलिदा।187। विच्छियसहस्सवेयणसमधियदुक्खं धरित्तिफासादो।191।</span> =<span class="HindiText">वेताल सदृश आकृति वाले महा भयानक तो वहाँ पर्वत हैं और सैकड़ों दु:खदायक यंत्रों से उत्कट ऐसी गुफाएँ हैं। प्रतिमाएँ अर्थात् स्त्री की आकृतियाँ व पुतलियाँ अग्निकणिका से संयुक्त लोहमयी हैं। असिपत्र वन है, सो फरसी, छुरी, खड्ग इत्यादि शस्त्र समान यंत्रों कर युक्त है।186। वहाँ झूठे (मायामयी) शाल्मली वृक्ष हैं जो महादु:खदायक हैं। वेतरणी नामा नदी है सो खारा जलकर संपूर्ण भरी है। घिनावने रुधिर वाले महा दुर्गंधित द्रह हैं जो कोड़ों, कृमिकुल से व्याप्त हैं।187। हज़ारों बिच्छू काटने से जैसी यहाँ वेदना होती है उससे भी अधिक वेदना वहाँ की भूमि के स्पर्श मात्र से होती है।191।</span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="5.7" id="5.7">नरकों में शीत-उष्णता का निर्देश</strong> <strong> </strong> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="5.7.1" id="5.7.1"> पृथिवियों में शीत-उष्ण विभाग</strong></span><br> <span class="GRef">तिलोयपण्णत्ति/2/29-31 </span> <span class="PrakritGatha">पढमादिबितिचउक्के पंचमपुढवाए तिचउक्कभागंतं। अदिउण्हा णिरयबिला तट्ठियजीवाण तिव्वदाधकरा।29। पंचमिखिदिए तुरिमे भागे छट्टीय सत्तमे महिए। अदिसीदा णिरयबिला तट्ठिदजीवाण घोरसीदयरा।30। वासीदिं लक्खाणं उण्हबिला पंचवीसिदिसहस्सा। पणहत्तारिं सहस्सा अदिसीदबिलाणि इगिलक्खं।31। </span>=<span class="HindiText">पहली पृथिवी से लेकर पाँचवीं पृथिवी के तीन चौथाई भाग में स्थित नारकियों के बिल, अत्यंत उष्ण होने से वहाँ रहने वाले जीवों को तीव्र गर्मी की पीड़ा पँहुचाने वाले हैं।29। पाँचवीं पृथिवी के अवशिष्ट चतुर्थ भाग में तथा छठीं, सातवीं पृथिवी में स्थित नारकियों के बिल, अत्यंत शीत होने से वहाँ रहने वाले जीवों को भयानक शीत की वेदना करने वाले हैं।30। नारकियों के उपर्युक्त चौरासी लाख बिलों में से बयासी लाख पच्चीस हजार बिल उष्ण और एक लाख पचहत्तर हजार बिल अत्यंत शीत हैं।31। <span class="GRef">(धवला 7/2,7,78/ गाथा 1/405)</span>, <span class="GRef">(हरिवंशपुराण/4/346)</span>, <span class="GRef">( महापुराण/10/90)</span>, <span class="GRef">(त्रिलोकसार/152)</span>, <span class="GRef">(ज्ञानार्णव/36/11)</span>। </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="5.7.2" id="5.7.2"> नरकों में शीत-उष्ण की तीव्रता</strong></span><br> | ||
तिलोयपण्णत्ति/2/32-33 <span class="PrakritGatha"> मेरुसमलोहपिंडं सीदं उण्हे बिलम्मि पक्खित्तं। ण लहदि तलप्पदेसं विलीयदे मयणखंडं व।32। मेरुसमलोहपिंडं उण्हं सीदे बिलम्मि पक्खित्तं। ण लहदि तलप्पदेसं विलीयदे लवणखंडं व।33।</span> =<span class="HindiText">यदि उष्ण बिल में मेरु के बराबर लोहे का शीतल पिंड डाल दिया जाये, तो वह तलप्रदेश तक न पँहुचकर बीच में ही मैन (मोम) के टुकड़े के समान पिघलकर नष्ट हो जायेगा।32। इसी प्रकार यदि मेरु पर्वत के बराबर लोहे का उष्ण पिंड शीत बिल में डाल दिया जाय तो वह भी तलप्रदेश तक नहीं पँहुचकर बीच में ही नमक के टुकड़े के समान विलीन हो जायेगा।33। ( भगवती आराधना/1563-1564 ), ( ज्ञानार्णव/36/12-13 )।</span></li> | <span class="GRef">तिलोयपण्णत्ति/2/32-33</span> <span class="PrakritGatha"> मेरुसमलोहपिंडं सीदं उण्हे बिलम्मि पक्खित्तं। ण लहदि तलप्पदेसं विलीयदे मयणखंडं व।32। मेरुसमलोहपिंडं उण्हं सीदे बिलम्मि पक्खित्तं। ण लहदि तलप्पदेसं विलीयदे लवणखंडं व।33।</span> =<span class="HindiText">यदि उष्ण बिल में मेरु के बराबर लोहे का शीतल पिंड डाल दिया जाये, तो वह तलप्रदेश तक न पँहुचकर बीच में ही मैन (मोम) के टुकड़े के समान पिघलकर नष्ट हो जायेगा।32। इसी प्रकार यदि मेरु पर्वत के बराबर लोहे का उष्ण पिंड शीत बिल में डाल दिया जाय तो वह भी तलप्रदेश तक नहीं पँहुचकर बीच में ही नमक के टुकड़े के समान विलीन हो जायेगा।33। <span class="GRef">(भगवती आराधना/1563-1564)</span>, <span class="GRef">(ज्ञानार्णव/36/12-13)</span>।</span></li> | ||
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</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"><strong name="5.8" id="5.8"> सातों पृथिवियों की | <li class="HindiText"><strong name="5.8" id="5.8"> सातों पृथिवियों की मोटाई व बिलों का प्रमाण</strong><br> प्रत्येक कोष्ठक के अंकानुक्रम से प्रमाण– नं.1-2 (देखें [[ नरक#5.1 | नरक - 5.1]])।<BR> | ||
नं.3–( तिलोयपण्णत्ति/2/9,22 ), ( राजवार्तिक/3/1/8/160/19 ), ( हरिवंशपुराण/4/48,57-58 ), ( त्रिलोकसार/146,147 ), ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/114,121-122 )। नं.4–( तिलोयपण्णत्ति/2/37 ), ( राजवार्तिक/3/2/2/162/11 ), ( हरिवंशपुराण/4/75 ), ( त्रिलोकसार/153 ), ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/145 )।<br>नं.5,6––( तिलोयपण्णत्ति/2/77-79,82 ), ( राजवार्तिक/3/2/2/162/25 ), ( हरिवंशपुराण/4/104,117,128,137,144,149,150 ), ( त्रिलोकसार/163-166 )। नं.7–( तिलोयपण्णत्ति/2/26-27 ), ( राजवार्तिक/3/2/2/162/5 ), ( हरिवंशपुराण/4/73-74 ), ( महापुराण/10/91 ), ( त्रिलोकसार/151 ), ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/143-144 ) | नं.3–<span class="GRef">(तिलोयपण्णत्ति/2/9,22)</span>, <span class="GRef">( राजवार्तिक/3/1/8/160/19)</span>, <span class="GRef">(हरिवंशपुराण/4/48,57-58)</span>, <span class="GRef">(त्रिलोकसार/146,147)</span>, <span class="GRef">(जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/114,121-122)</span>। नं.4–<span class="GRef">(तिलोयपण्णत्ति/2/37)</span>, <span class="GRef">(राजवार्तिक/3/2/2/162/11)</span>, <span class="GRef">(हरिवंशपुराण/4/75)</span>, <span class="GRef">(त्रिलोकसार/153)</span>, <span class="GRef">(जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/145)</span>।<br>नं.5,6––<span class="GRef">(तिलोयपण्णत्ति/2/77-79,82)</span>, <span class="GRef">(राजवार्तिक/3/2/2/162/25)</span>, <span class="GRef">(हरिवंशपुराण/4/104,117,128,137,144,149,150)</span>, <span class="GRef">(त्रिलोकसार/163-166)</span>। नं.7–<span class="GRef">( तिलोयपण्णत्ति/2/26-27)</span>, <span class="GRef">(राजवार्तिक/3/2/2/162/5)</span>, <span class="GRef">(हरिवंशपुराण/4/73-74)</span>, <span class="GRef">(महापुराण/10/91)</span>, <span class="GRef">( त्रिलोकसार/151)</span>, <span class="GRef">( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/143-144)</span>।</li> | ||
</ol> | </ol> | ||
<table border="1" cellspacing="0" cellpadding="0" width="673"> | <table border="1" cellspacing="0" cellpadding="0" width="673"> | ||
Line 486: | Line 493: | ||
<ol> | <ol> | ||
<ol start="9"> | <ol start="9"> | ||
<li class="HindiText"><strong name="5.9" id="5.9"> सातों पृथिवियों के बिलों का विस्तार</strong><br> देखें [[ नरक#5 | नरक - 5]] | <li class="HindiText"><strong name="5.9" id="5.9"> सातों पृथिवियों के बिलों का विस्तार</strong><br> देखें [[ नरक#5.4 | नरक - 5.4]] (सर्व इंद्रक बिल संख्यात योजन विस्तार वाले हैं। सर्व श्रेणीबद्ध असंख्यात योजन विस्तार वाले हैं। प्रकीर्णक बिल संख्यात योजन विस्तार वाले भी हैं और असंख्यात योजन विस्तार वाले भी। <br> | ||
कोष्ठक नं.1=(देखें [[ ऊपर कोष्ठक नं#7 | ऊपर कोष्ठक नं - 7]])। कोष्ठक नं.2-5–( तिलोयपण्णत्ति/2/96-99,103 ), ( राजवार्तिक/3/2/2/163/13 ), ( हरिवंशपुराण/4/161-170 ), ( त्रिलोकसार/167-168 )।<br>कोष्ठक नं.6-8–( तिलोयपण्णत्ति/2/157 ), ( राजवार्तिक/3/2/2/163/15 ), ( हरिवंशपुराण/4/218-224 ), ( त्रिलोकसार/170-171 )।</li> | कोष्ठक नं.1=(देखें [[ ऊपर कोष्ठक नं#7 | ऊपर कोष्ठक नं - 7]])। कोष्ठक नं.2-5–<span class="GRef">(तिलोयपण्णत्ति/2/96-99,103)</span>, <span class="GRef">(राजवार्तिक/3/2/2/163/13)</span>, <span class="GRef">( हरिवंशपुराण/4/161-170)</span>, <span class="GRef">(त्रिलोकसार/167-168)</span>।<br>कोष्ठक नं.6-8–<span class="GRef">(तिलोयपण्णत्ति/2/157 )</span>, <span class="GRef">(राजवार्तिक/3/2/2/163/15)</span>, <span class="GRef">(हरिवंशपुराण/4/218-224)</span>, <span class="GRef">( त्रिलोकसार/170-171)</span>।</li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</ol> | </ol> | ||
Line 548: | Line 555: | ||
<td width="69" valign="top"><p class="HindiText">2684</p></td> | <td width="69" valign="top"><p class="HindiText">2684</p></td> | ||
<td width="83" valign="top"><p class="HindiText">1997316</p></td> | <td width="83" valign="top"><p class="HindiText">1997316</p></td> | ||
<td width="66" valign="top"><p class="HindiText"> | <td width="66" valign="top"><p class="HindiText">[[File:JSKHtmlSample_clip_image002_0051.gif ]]</p></td> | ||
<td width="69" valign="top"><p class="HindiText">2</p></td> | <td width="69" valign="top"><p class="HindiText">2</p></td> | ||
<td width="73" valign="top"><p class="HindiText"> | <td width="73" valign="top"><p class="HindiText">[[File:JSKHtmlSample_clip_image004_0013.gif ]]</p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
Line 560: | Line 567: | ||
<td width="83" valign="top"><p class="HindiText">1198524</p></td> | <td width="83" valign="top"><p class="HindiText">1198524</p></td> | ||
<td width="66" valign="top"><p class="HindiText">2 </p></td> | <td width="66" valign="top"><p class="HindiText">2 </p></td> | ||
<td width="69" valign="top"><p class="HindiText"> | <td width="69" valign="top"><p class="HindiText">[[File:JSKHtmlSample_clip_image006_0014.gif ]]</p></td> | ||
<td width="73" valign="top"><p class="HindiText"> | <td width="73" valign="top"><p class="HindiText">[[File:JSKHtmlSample_clip_image008_0014.gif ]]</p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
Line 570: | Line 577: | ||
<td width="69" valign="top"><p class="HindiText">700</p></td> | <td width="69" valign="top"><p class="HindiText">700</p></td> | ||
<td width="83" valign="top"><p class="HindiText">799300</p></td> | <td width="83" valign="top"><p class="HindiText">799300</p></td> | ||
<td width="66" valign="top"><p class="HindiText"> | <td width="66" valign="top"><p class="HindiText">[[File:JSKHtmlSample_clip_image010_0011.gif ]]</p></td> | ||
<td width="69" valign="top"><p class="HindiText"> | <td width="69" valign="top"><p class="HindiText">[[File:JSKHtmlSample_clip_image012_0022.gif ]]</p></td> | ||
<td width="73" valign="top"><p class="HindiText"> | <td width="73" valign="top"><p class="HindiText">[[File:JSKHtmlSample_clip_image014_0009.gif ]]</p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
Line 592: | Line 599: | ||
<td width="69" valign="top"><p class="HindiText">60</p></td> | <td width="69" valign="top"><p class="HindiText">60</p></td> | ||
<td width="83" valign="top"><p class="HindiText">79936</p></td> | <td width="83" valign="top"><p class="HindiText">79936</p></td> | ||
<td width="66" valign="top"><p class="HindiText"> | <td width="66" valign="top"><p class="HindiText">[[File:JSKHtmlSample_clip_image004_0014.gif ]]</p></td> | ||
<td width="69" valign="top"><p class="HindiText"> | <td width="69" valign="top"><p class="HindiText">[[File:JSKHtmlSample_clip_image008_0015.gif ]]</p></td> | ||
<td width="73" valign="top"><p class="HindiText"> | <td width="73" valign="top"><p class="HindiText">[[File:JSKHtmlSample_clip_image016_0007.gif ]]</p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
Line 604: | Line 611: | ||
<td width="83" valign="top"><p class="HindiText">×</p></td> | <td width="83" valign="top"><p class="HindiText">×</p></td> | ||
<td width="66" valign="top"><p class="HindiText">4 </p></td> | <td width="66" valign="top"><p class="HindiText">4 </p></td> | ||
<td width="69" valign="top"><p class="HindiText"> | <td width="69" valign="top"><p class="HindiText">[[File:JSKHtmlSample_clip_image018_0006.gif ]]</p></td> | ||
<td width="73" valign="top"><p class="HindiText"> | <td width="73" valign="top"><p class="HindiText">[[File:JSKHtmlSample_clip_image020_0003.gif ]]</p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
Line 621: | Line 628: | ||
<ol> | <ol> | ||
<ol start="10"> | <ol start="10"> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="5.10" id="5.10"> बिलों में परस्पर अंतराल</strong><br /> | ||
</span> | </span> | ||
<ol start="1"> | <ol start="1"> | ||
<li class="HindiText"><strong name="5.10.1" id="5.10.1"> तिर्यक् अंतराल</strong><br /> | <li class="HindiText"><strong name="5.10.1" id="5.10.1"> तिर्यक् अंतराल</strong><br /> | ||
( तिलोयपण्णत्ति/2/100 ); ( हरिवंशपुराण/4/354 ); ( त्रिलोकसार/175-176 )। </li> | <span class="GRef">( तिलोयपण्णत्ति/2/100)</span>; <span class="GRef">(हरिवंशपुराण/4/354)</span>; <span class="GRef">(त्रिलोकसार/175-176)</span>। </li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
Line 647: | Line 654: | ||
<td width="55" valign="top"><p class="HindiText">1</p></td> | <td width="55" valign="top"><p class="HindiText">1</p></td> | ||
<td width="324" valign="top"><p class="HindiText">संख्यात योजनवाले प्रकीर्णक</p></td> | <td width="324" valign="top"><p class="HindiText">संख्यात योजनवाले प्रकीर्णक</p></td> | ||
<td width="126" valign="top"><p class="HindiText">1 | <td width="126" valign="top"><p class="HindiText">1[[File:JSKHtmlSample_clip_image002_0052.gif ]] योजन </p></td> | ||
<td width="133" valign="top"><p class="HindiText">3 योजन </p></td> | <td width="133" valign="top"><p class="HindiText">3 योजन </p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
Line 662: | Line 669: | ||
<li class="HindiText"><strong name="5.10.2" id="5.10.2"> स्वस्थान ऊर्ध्व अंतराल</strong><br /> | <li class="HindiText"><strong name="5.10.2" id="5.10.2"> स्वस्थान ऊर्ध्व अंतराल</strong><br /> | ||
(प्रत्येक पृथिवी के स्व-स्व पटलों के मध्य बिलों का अंतराल)।<br /> | (प्रत्येक पृथिवी के स्व-स्व पटलों के मध्य बिलों का अंतराल)।<br /> | ||
( तिलोयपण्णत्ति/2/167-194 ); ( हरिवंशपुराण/4/225-248 ); ( त्रिलोकसार/172 )। </li> | <span class="GRef">(तिलोयपण्णत्ति/2/167-194)</span>; <span class="GRef">(हरिवंशपुराण/4/225-248)</span>; <span class="GRef">(त्रिलोकसार/172)</span>। </li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</ol> | </ol> | ||
Line 681: | Line 688: | ||
<td width="49" valign="top"><p class="HindiText">1</p></td> | <td width="49" valign="top"><p class="HindiText">1</p></td> | ||
<td width="120" valign="top"><p class="HindiText">रत्नप्रभा</p></td> | <td width="120" valign="top"><p class="HindiText">रत्नप्रभा</p></td> | ||
<td width="150" valign="top"><p class="HindiText">6499 यो.2 | <td width="150" valign="top"><p class="HindiText">6499 यो.2[[File:JSKHtmlSample_clip_image002_0053.gif ]] को </p></td> | ||
<td width="186" valign="top"><p class="HindiText">6499 यो.2 | <td width="186" valign="top"><p class="HindiText">6499 यो.2[[File:JSKHtmlSample_clip_image004_0015.gif ]] को </p></td> | ||
<td width="174" valign="top"><p class="HindiText">6499 यो. 1 | <td width="174" valign="top"><p class="HindiText">6499 यो. 1[[File:JSKHtmlSample_clip_image006_0015.gif ]] को </p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
Line 703: | Line 710: | ||
<td width="120" valign="top"><p class="HindiText">पंकप्रभा</p></td> | <td width="120" valign="top"><p class="HindiText">पंकप्रभा</p></td> | ||
<td width="150" valign="top"><p class="HindiText">3665 यो.7500ध.</p></td> | <td width="150" valign="top"><p class="HindiText">3665 यो.7500ध.</p></td> | ||
<td width="186" valign="top"><p class="HindiText">3665 यो.5555 | <td width="186" valign="top"><p class="HindiText">3665 यो.5555[[File:JSKHtmlSample_clip_image008_0016.gif ]]ध.</p></td> | ||
<td width="174" valign="top"><p class="HindiText">3664 यो.7722 | <td width="174" valign="top"><p class="HindiText">3664 यो.7722[[File:JSKHtmlSample_clip_image010_0012.gif ]]ध.</p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
Line 726: | Line 733: | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="150" valign="top"><p class="HindiText">3999 यो 2 | <td width="150" valign="top"><p class="HindiText">3999 यो 2[[File:JSKHtmlSample_clip_image004_0016.gif ]] को </p></td> | ||
<td width="186" valign="top"><p class="HindiText">3999 यो | <td width="186" valign="top"><p class="HindiText">3999 यो [[File:JSKHtmlSample_clip_image012_0023.gif ]] को </p></td> | ||
<td width="174" valign="top"><p class="HindiText">×</p></td> | <td width="174" valign="top"><p class="HindiText">×</p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
Line 735: | Line 742: | ||
<ol start="3"> | <ol start="3"> | ||
<li class="HindiText"><strong name="5.10.3" id="5.10.3"> परस्थान ऊर्ध्व अंतराल</strong> <br /> | <li class="HindiText"><strong name="5.10.3" id="5.10.3"> परस्थान ऊर्ध्व अंतराल</strong> <br /> | ||
(ऊपर की पृथिवी के अंतिम पटल व नीचे की पृथिवी के प्रथम पटल के बिलों के मध्य अंतराल), ( राजवार्तिक/3/1/8/160/28 ); ( तिलोयपण्णत्ति/2/ | (ऊपर की पृथिवी के अंतिम पटल व नीचे की पृथिवी के प्रथम पटल के बिलों के मध्य अंतराल), <span class="GRef">(राजवार्तिक/3/1/8/160/28)</span>; <span class="GRef">(तिलोयपण्णत्ति/2/ गाथा संख्या)</span>; <span class="GRef">(त्रिलोकसार/173-174)</span>।</li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</ol> | </ol> | ||
Line 753: | Line 760: | ||
<td width="120" valign="top"><p class="HindiText">रत्नप्रभा-शर्करा</p></td> | <td width="120" valign="top"><p class="HindiText">रत्नप्रभा-शर्करा</p></td> | ||
<td width="174" valign="top"><p class="HindiText">20,9000यो.कम 1 राजू</p></td> | <td width="174" valign="top"><p class="HindiText">20,9000यो.कम 1 राजू</p></td> | ||
<td width="156" rowspan="7" valign="top"><p class="HindiText">इंद्रकोंवत् ( तिलोयपण्णत्ति/2/187-188 )</p></td> | <td width="156" rowspan="7" valign="top"><p class="HindiText">इंद्रकोंवत् <span class="GRef">(तिलोयपण्णत्ति/2/187-188)</span></p></td> | ||
<td width="144" rowspan="7" valign="top"><p class="HindiText">इंद्रकोंवत् ( तिलोयपण्णत्ति/2/194 )</p></td> | <td width="144" rowspan="7" valign="top"><p class="HindiText">इंद्रकोंवत् <span class="GRef">( तिलोयपण्णत्ति/2/194)</span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
Line 796: | Line 803: | ||
<ol start="11"> | <ol start="11"> | ||
<li class="HindiText"><strong name="5.11" id="5.11"> सातों पृथिवियों में पटलों के नाम व उनमें स्थित बिलों का परिचय</strong> <br /> | <li class="HindiText"><strong name="5.11" id="5.11"> सातों पृथिवियों में पटलों के नाम व उनमें स्थित बिलों का परिचय</strong> <br /> | ||
देखें [[ नरक#5 | नरक - 5]] | देखें [[ नरक#5.8.3 | नरक - 5.8.3]] सातों पृथिवियाँ लगभग एक राजू के अंतराल से नीचे नीचे स्थित हैं।<br /> | ||
देखें [[ नरक#5 | नरक - 5]] | देखें [[ नरक#5.3 | नरक - 5.3]] प्रत्येक पृथिवी नरक प्रस्तर या पटल है, जो एक-एक हजार योजन अंतराल से ऊपर-नीचे स्थित है।<br /> | ||
राजवार्तिक/3/2/2/162/11 तत्र त्रयोदश नरकप्रस्तारा: त्रयोदशैव इंद्रकनरकाणि सीमंतकनिरय...। =तहाँ (रत्नप्रभा पृथिवी के अब्बहुल भाग में तेरह प्रस्तर हैं और तेरह ही नरक हैं, जिनके नाम सीमंतक निरय आदि हैं।) अर्थात् पटलों के भी वही नाम हैं जो कि इंद्रकों के हैं। इन्हीं पटलों व इंद्रकों के नाम विस्तार आदि का विशेष परिचय आगे कोष्ठकों में दिया गया है।<br /> | <span class="GRef">राजवार्तिक/3/2/2/162/11</span> तत्र त्रयोदश नरकप्रस्तारा: त्रयोदशैव इंद्रकनरकाणि सीमंतकनिरय...। =तहाँ (रत्नप्रभा पृथिवी के अब्बहुल भाग में तेरह प्रस्तर हैं और तेरह ही नरक हैं, जिनके नाम सीमंतक निरय आदि हैं।) अर्थात् पटलों के भी वही नाम हैं जो कि इंद्रकों के हैं। इन्हीं पटलों व इंद्रकों के नाम विस्तार आदि का विशेष परिचय आगे कोष्ठकों में दिया गया है।<br /> | ||
कोष्ठक नं.1-4–( तिलोयपण्णत्ति/2/4/45 ); ( राजवार्तिक/3/2/2/162/11 ); ( हरिवंशपुराण/4/76-85 ); ( त्रिलोकसार/154-159 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/146-155 )।<br /> | कोष्ठक नं.1-4–<span class="GRef">(तिलोयपण्णत्ति/2/4/45)</span>; <span class="GRef">(राजवार्तिक/3/2/2/162/11)</span>; <span class="GRef">(हरिवंशपुराण/4/76-85)</span>; <span class="GRef">( त्रिलोकसार/154-159)</span>; <span class="GRef">(जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/146-155)</span>।<br /> | ||
कोष्ठक नं.5-8––( तिलोयपण्णत्ति/2/38,55-58 ); ( हरिवंशपुराण/4/86-150 ); ( त्रिलोकसार/163-165 )।<br /> | कोष्ठक नं.5-8––<span class="GRef">(तिलोयपण्णत्ति/2/38,55-58)</span>; <span class="GRef">(हरिवंशपुराण/4/86-150)</span>; <span class="GRef">( त्रिलोकसार/163-165)</span>।<br /> | ||
कोष्ठक नं.9––( तिलोयपण्णत्ति/2/108-156 ); ( हरिवंशपुराण/4/171-217 ), ( त्रिलोकसार/169 )।</li> | कोष्ठक नं.9––<span class="GRef">(तिलोयपण्णत्ति/2/108-156)</span>; <span class="GRef">(हरिवंशपुराण/4/171-217)</span>, <span class="GRef">(त्रिलोकसार/169)</span>।</li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</ol> | </ol> | ||
Line 878: | Line 885: | ||
<td width="79" valign="top"><p class="HindiText">47</p></td> | <td width="79" valign="top"><p class="HindiText">47</p></td> | ||
<td width="61" valign="top"><p class="HindiText">380</p></td> | <td width="61" valign="top"><p class="HindiText">380</p></td> | ||
<td width="120" valign="top"><p class="HindiText">4408333 | <td width="120" valign="top"><p class="HindiText">4408333[[File:JSKHtmlSample_clip_image002_0054.gif ]]</p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
Line 890: | Line 897: | ||
<td width="79" valign="top"><p class="HindiText">46</p></td> | <td width="79" valign="top"><p class="HindiText">46</p></td> | ||
<td width="61" valign="top"><p class="HindiText">372</p></td> | <td width="61" valign="top"><p class="HindiText">372</p></td> | ||
<td width="120" valign="top"><p class="HindiText">4316666 | <td width="120" valign="top"><p class="HindiText">4316666[[File:JSKHtmlSample_clip_image004_0017.gif ]]</p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
Line 914: | Line 921: | ||
<td width="79" valign="top"><p class="HindiText">44</p></td> | <td width="79" valign="top"><p class="HindiText">44</p></td> | ||
<td width="61" valign="top"><p class="HindiText">356</p></td> | <td width="61" valign="top"><p class="HindiText">356</p></td> | ||
<td width="120" valign="top"><p class="HindiText">4133333 | <td width="120" valign="top"><p class="HindiText">4133333[[File:JSKHtmlSample_clip_image002_0055.gif ]]</p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
Line 926: | Line 933: | ||
<td width="79" valign="top"><p class="HindiText">43</p></td> | <td width="79" valign="top"><p class="HindiText">43</p></td> | ||
<td width="61" valign="top"><p class="HindiText">348</p></td> | <td width="61" valign="top"><p class="HindiText">348</p></td> | ||
<td width="120" valign="top"><p class="HindiText">4041666 | <td width="120" valign="top"><p class="HindiText">4041666[[File:JSKHtmlSample_clip_image004_0018.gif ]]</p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
Line 950: | Line 957: | ||
<td width="79" valign="top"><p class="HindiText">41</p></td> | <td width="79" valign="top"><p class="HindiText">41</p></td> | ||
<td width="61" valign="top"><p class="HindiText">332</p></td> | <td width="61" valign="top"><p class="HindiText">332</p></td> | ||
<td width="120" valign="top"><p class="HindiText">3858333 | <td width="120" valign="top"><p class="HindiText">3858333[[File:JSKHtmlSample_clip_image002_0056.gif ]]</p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
Line 962: | Line 969: | ||
<td width="79" valign="top"><p class="HindiText">40</p></td> | <td width="79" valign="top"><p class="HindiText">40</p></td> | ||
<td width="61" valign="top"><p class="HindiText">324</p></td> | <td width="61" valign="top"><p class="HindiText">324</p></td> | ||
<td width="120" valign="top"><p class="HindiText">3766666 | <td width="120" valign="top"><p class="HindiText">3766666[[File:JSKHtmlSample_clip_image004_0019.gif ]]</p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
Line 986: | Line 993: | ||
<td width="79" valign="top"><p class="HindiText">38</p></td> | <td width="79" valign="top"><p class="HindiText">38</p></td> | ||
<td width="61" valign="top"><p class="HindiText">308</p></td> | <td width="61" valign="top"><p class="HindiText">308</p></td> | ||
<td width="120" valign="top"><p class="HindiText">3583333 | <td width="120" valign="top"><p class="HindiText">3583333[[File:JSKHtmlSample_clip_image002_0057.gif ]]</p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
Line 998: | Line 1,005: | ||
<td width="79" valign="top"><p class="HindiText">37</p></td> | <td width="79" valign="top"><p class="HindiText">37</p></td> | ||
<td width="61" valign="top"><p class="HindiText">300</p></td> | <td width="61" valign="top"><p class="HindiText">300</p></td> | ||
<td width="120" valign="top"><p class="HindiText">3491666 | <td width="120" valign="top"><p class="HindiText">3491666[[File:JSKHtmlSample_clip_image004_0020.gif ]]</p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
Line 1,033: | Line 1,040: | ||
<td width="78" valign="top"><p class="HindiText">35</p></td> | <td width="78" valign="top"><p class="HindiText">35</p></td> | ||
<td width="62" valign="top"><p class="HindiText">284</p></td> | <td width="62" valign="top"><p class="HindiText">284</p></td> | ||
<td width="119" valign="top"><p class="HindiText">3308333 | <td width="119" valign="top"><p class="HindiText">3308333[[File:JSKHtmlSample_clip_image002_0058.gif ]]</p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
Line 1,045: | Line 1,052: | ||
<td width="78" valign="top"><p class="HindiText">34</p></td> | <td width="78" valign="top"><p class="HindiText">34</p></td> | ||
<td width="62" valign="top"><p class="HindiText">276</p></td> | <td width="62" valign="top"><p class="HindiText">276</p></td> | ||
<td width="119" valign="top"><p class="HindiText">3216666 | <td width="119" valign="top"><p class="HindiText">3216666[[File:JSKHtmlSample_clip_image004_0021.gif ]]</p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
Line 1,069: | Line 1,076: | ||
<td width="78" valign="top"><p class="HindiText">32</p></td> | <td width="78" valign="top"><p class="HindiText">32</p></td> | ||
<td width="62" valign="top"><p class="HindiText">260</p></td> | <td width="62" valign="top"><p class="HindiText">260</p></td> | ||
<td width="119" valign="top"><p class="HindiText">3033333 | <td width="119" valign="top"><p class="HindiText">3033333[[File:JSKHtmlSample_clip_image002_0059.gif ]]</p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
Line 1,081: | Line 1,088: | ||
<td width="78" valign="top"><p class="HindiText">31</p></td> | <td width="78" valign="top"><p class="HindiText">31</p></td> | ||
<td width="62" valign="top"><p class="HindiText">252</p></td> | <td width="62" valign="top"><p class="HindiText">252</p></td> | ||
<td width="119" valign="top"><p class="HindiText">2941666 | <td width="119" valign="top"><p class="HindiText">2941666[[File:JSKHtmlSample_clip_image004_0022.gif ]]</p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
Line 1,105: | Line 1,112: | ||
<td width="78" valign="top"><p class="HindiText">29</p></td> | <td width="78" valign="top"><p class="HindiText">29</p></td> | ||
<td width="62" valign="top"><p class="HindiText">236</p></td> | <td width="62" valign="top"><p class="HindiText">236</p></td> | ||
<td width="119" valign="top"><p class="HindiText">2758333 | <td width="119" valign="top"><p class="HindiText">2758333[[File:JSKHtmlSample_clip_image002_0060.gif ]]</p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
Line 1,117: | Line 1,124: | ||
<td width="78" valign="top"><p class="HindiText">28</p></td> | <td width="78" valign="top"><p class="HindiText">28</p></td> | ||
<td width="62" valign="top"><p class="HindiText">228</p></td> | <td width="62" valign="top"><p class="HindiText">228</p></td> | ||
<td width="119" valign="top"><p class="HindiText">2666666 | <td width="119" valign="top"><p class="HindiText">2666666[[File:JSKHtmlSample_clip_image004_0023.gif ]]</p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
Line 1,141: | Line 1,148: | ||
<td width="78" valign="top"><p class="HindiText">26</p></td> | <td width="78" valign="top"><p class="HindiText">26</p></td> | ||
<td width="62" valign="top"><p class="HindiText">212</p></td> | <td width="62" valign="top"><p class="HindiText">212</p></td> | ||
<td width="119" valign="top"><p class="HindiText">2483333 | <td width="119" valign="top"><p class="HindiText">2483333[[File:JSKHtmlSample_clip_image002_0061.gif ]]</p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
Line 1,153: | Line 1,160: | ||
<td width="78" valign="top"><p class="HindiText">25</p></td> | <td width="78" valign="top"><p class="HindiText">25</p></td> | ||
<td width="62" valign="top"><p class="HindiText">204</p></td> | <td width="62" valign="top"><p class="HindiText">204</p></td> | ||
<td width="119" valign="top"><p class="HindiText">2391666 | <td width="119" valign="top"><p class="HindiText">2391666[[File:JSKHtmlSample_clip_image004_0024.gif ]]</p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
</table> | |||
<table border="1" cellspacing="0" cellpadding="0" width="757"> | |||
<tr> | <tr> | ||
<td width="28" valign="top"><p class="HindiText">3</p></td> | <td width="28" valign="top"><p class="HindiText">3</p></td> | ||
Line 1,167: | Line 1,176: | ||
<td width="119" valign="top"><p> </p></td> | <td width="119" valign="top"><p> </p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="28" valign="top"><p class="HindiText">1</p></td> | <td width="28" valign="top"><p class="HindiText">1</p></td> | ||
Line 1,191: | Line 1,199: | ||
<td width="78" valign="top"><p class="HindiText">23</p></td> | <td width="78" valign="top"><p class="HindiText">23</p></td> | ||
<td width="62" valign="top"><p class="HindiText">188</p></td> | <td width="62" valign="top"><p class="HindiText">188</p></td> | ||
<td width="119" valign="top"><p class="HindiText">2208333 | <td width="119" valign="top"><p class="HindiText">2208333[[File:JSKHtmlSample_clip_image002_0062.gif ]]</p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
Line 1,203: | Line 1,211: | ||
<td width="78" valign="top"><p class="HindiText">22</p></td> | <td width="78" valign="top"><p class="HindiText">22</p></td> | ||
<td width="62" valign="top"><p class="HindiText">180</p></td> | <td width="62" valign="top"><p class="HindiText">180</p></td> | ||
<td width="119" valign="top"><p class="HindiText">2116666 | <td width="119" valign="top"><p class="HindiText">2116666[[File:JSKHtmlSample_clip_image002_0063.gif ]]</p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
Line 1,227: | Line 1,235: | ||
<td width="78" valign="top"><p class="HindiText">20</p></td> | <td width="78" valign="top"><p class="HindiText">20</p></td> | ||
<td width="62" valign="top"><p class="HindiText">164</p></td> | <td width="62" valign="top"><p class="HindiText">164</p></td> | ||
<td width="119" valign="top"><p class="HindiText">1933333 | <td width="119" valign="top"><p class="HindiText">1933333[[File:JSKHtmlSample_clip_image002_0064.gif ]]</p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
Line 1,239: | Line 1,247: | ||
<td width="78" valign="top"><p class="HindiText">19</p></td> | <td width="78" valign="top"><p class="HindiText">19</p></td> | ||
<td width="62" valign="top"><p class="HindiText">156</p></td> | <td width="62" valign="top"><p class="HindiText">156</p></td> | ||
<td width="119" valign="top"><p class="HindiText">1841666 | <td width="119" valign="top"><p class="HindiText">1841666[[File:JSKHtmlSample_clip_image004_0025.gif ]]</p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
Line 1,263: | Line 1,271: | ||
<td width="78" valign="top"><p class="HindiText">17</p></td> | <td width="78" valign="top"><p class="HindiText">17</p></td> | ||
<td width="62" valign="top"><p class="HindiText">140</p></td> | <td width="62" valign="top"><p class="HindiText">140</p></td> | ||
<td width="119" valign="top"><p class="HindiText">1658333 | <td width="119" valign="top"><p class="HindiText">1658333[[File:JSKHtmlSample_clip_image002_0065.gif ]]</p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
Line 1,275: | Line 1,283: | ||
<td width="78" valign="top"><p class="HindiText">16</p></td> | <td width="78" valign="top"><p class="HindiText">16</p></td> | ||
<td width="62" valign="top"><p class="HindiText">132</p></td> | <td width="62" valign="top"><p class="HindiText">132</p></td> | ||
<td width="119" valign="top"><p class="HindiText">1566666 | <td width="119" valign="top"><p class="HindiText">1566666[[File:JSKHtmlSample_clip_image004_0026.gif ]]</p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
</table> | |||
<table border="1" cellspacing="0" cellpadding="0" width="757"> | |||
<tr> | <tr> | ||
<td width="28" valign="top"><p class="HindiText">4</p></td> | <td width="28" valign="top"><p class="HindiText">4</p></td> | ||
Line 1,311: | Line 1,321: | ||
<td width="78" valign="top"><p class="HindiText">14</p></td> | <td width="78" valign="top"><p class="HindiText">14</p></td> | ||
<td width="62" valign="top"><p class="HindiText">116</p></td> | <td width="62" valign="top"><p class="HindiText">116</p></td> | ||
<td width="119" valign="top"><p class="HindiText">1383333 | <td width="119" valign="top"><p class="HindiText">1383333[[File:JSKHtmlSample_clip_image002_0066.gif ]]</p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
Line 1,323: | Line 1,333: | ||
<td width="78" valign="top"><p class="HindiText">13</p></td> | <td width="78" valign="top"><p class="HindiText">13</p></td> | ||
<td width="62" valign="top"><p class="HindiText">108</p></td> | <td width="62" valign="top"><p class="HindiText">108</p></td> | ||
<td width="119" valign="top"><p class="HindiText">1291666 | <td width="119" valign="top"><p class="HindiText">1291666[[File:JSKHtmlSample_clip_image004_0027.gif ]]</p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="27" valign="top"><p class="HindiText">4</p></td> | <td width="27" valign="top"><p class="HindiText">4</p></td> | ||
Line 1,349: | Line 1,357: | ||
<td width="76" valign="top"><p class="HindiText">11</p></td> | <td width="76" valign="top"><p class="HindiText">11</p></td> | ||
<td width="62" valign="top"><p class="HindiText">92</p></td> | <td width="62" valign="top"><p class="HindiText">92</p></td> | ||
<td width="120" valign="top"><p class="HindiText">1108333 | <td width="120" valign="top"><p class="HindiText">1108333[[File:JSKHtmlSample_clip_image002_0067.gif ]]</p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
Line 1,361: | Line 1,369: | ||
<td width="76" valign="top"><p class="HindiText">10</p></td> | <td width="76" valign="top"><p class="HindiText">10</p></td> | ||
<td width="62" valign="top"><p class="HindiText">84</p></td> | <td width="62" valign="top"><p class="HindiText">84</p></td> | ||
<td width="120" valign="top"><p class="HindiText">1016666 | <td width="120" valign="top"><p class="HindiText">1016666[[File:JSKHtmlSample_clip_image004_0028.gif ]]</p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
Line 1,375: | Line 1,383: | ||
<td width="120" valign="top"><p class="HindiText">925000</p></td> | <td width="120" valign="top"><p class="HindiText">925000</p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
</table> | |||
<table border="1" cellspacing="0" cellpadding="0" width="757"> | |||
<tr> | <tr> | ||
<td width="27" valign="top"><p class="HindiText">5</p></td> | <td width="27" valign="top"><p class="HindiText">5</p></td> | ||
Line 1,397: | Line 1,407: | ||
<td width="76" valign="top"><p class="HindiText">8</p></td> | <td width="76" valign="top"><p class="HindiText">8</p></td> | ||
<td width="62" valign="top"><p class="HindiText">68</p></td> | <td width="62" valign="top"><p class="HindiText">68</p></td> | ||
<td width="120" valign="top"><p class="HindiText">833333 | <td width="120" valign="top"><p class="HindiText">833333[[File:JSKHtmlSample_clip_image002_0068.gif ]]</p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
Line 1,409: | Line 1,419: | ||
<td width="76" valign="top"><p class="HindiText">7</p></td> | <td width="76" valign="top"><p class="HindiText">7</p></td> | ||
<td width="62" valign="top"><p class="HindiText">60</p></td> | <td width="62" valign="top"><p class="HindiText">60</p></td> | ||
<td width="120" valign="top"><p class="HindiText">741666 | <td width="120" valign="top"><p class="HindiText">741666[[File:JSKHtmlSample_clip_image004_0029.gif ]]</p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
Line 1,433: | Line 1,443: | ||
<td width="76" valign="top"><p class="HindiText">5</p></td> | <td width="76" valign="top"><p class="HindiText">5</p></td> | ||
<td width="62" valign="top"><p class="HindiText">44</p></td> | <td width="62" valign="top"><p class="HindiText">44</p></td> | ||
<td width="120" valign="top"><p class="HindiText">558333 | <td width="120" valign="top"><p class="HindiText">558333[[File:JSKHtmlSample_clip_image002_0069.gif ]]</p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
Line 1,445: | Line 1,455: | ||
<td width="76" valign="top"><p class="HindiText">4</p></td> | <td width="76" valign="top"><p class="HindiText">4</p></td> | ||
<td width="62" valign="top"><p class="HindiText">36</p></td> | <td width="62" valign="top"><p class="HindiText">36</p></td> | ||
<td width="120" valign="top"><p class="HindiText">466666 | <td width="120" valign="top"><p class="HindiText">466666[[File:JSKHtmlSample_clip_image004_0030.gif ]]</p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
</table> | |||
<table border="1" cellspacing="0" cellpadding="0" width="757"> | |||
<tr> | <tr> | ||
<td width="27" valign="top"><p class="HindiText">6</p></td> | <td width="27" valign="top"><p class="HindiText">6</p></td> | ||
Line 1,481: | Line 1,493: | ||
<td width="76" valign="top"><p class="HindiText">2</p></td> | <td width="76" valign="top"><p class="HindiText">2</p></td> | ||
<td width="62" valign="top"><p class="HindiText">20</p></td> | <td width="62" valign="top"><p class="HindiText">20</p></td> | ||
<td width="120" valign="top"><p class="HindiText">283333 | <td width="120" valign="top"><p class="HindiText">283333[[File:JSKHtmlSample_clip_image002_0070.gif ]]</p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
</table> | </table> | ||
Line 1,495: | Line 1,507: | ||
<td width="78" valign="top"><p class="HindiText">1</p></td> | <td width="78" valign="top"><p class="HindiText">1</p></td> | ||
<td width="62" valign="top"><p class="HindiText">12</p></td> | <td width="62" valign="top"><p class="HindiText">12</p></td> | ||
<td width="119" valign="top"><p class="HindiText">191666 | <td width="119" valign="top"><p class="HindiText">191666[[File:JSKHtmlSample_clip_image002_0071.gif ]]</p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
</table> | |||
<table border="1" cellspacing="0" cellpadding="0" width="757"> | |||
<tr> | <tr> | ||
<td width="26" valign="top"><p class="HindiText">7</p></td> | <td width="26" valign="top"><p class="HindiText">7</p></td> | ||
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== पुराणकोष से == | == पुराणकोष से == | ||
<p> चार गतियों में एक गति । यहाँ | <p class="HindiText"> चार गतियों में एक गति । यहाँ निमिष मात्र के लिए भी सुख नहीं मिलता । ये सात है,, उनके क्रमश: नाम ये हैं― रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमप्रभा और महातमप्रभा । ये तीनों वात-वलयों पूर अधिष्ठित तथा क्रम से नीच-नीचे स्थित है । इनके क्रमश: रूढ़ नाम हैं― धर्मा, वंशा, मेघा, अंजना, अरिष्टा, मघवी और माघवी । पहली पृथिवी में नारकी जीव जन्मकाल में सात योजन सवा तीन कोस ऊपर आकाश में उछलकर पुन: नीचे गिरते हैं । अन्य छ: पृथिवियों में उछलने का प्रमाण क्रम से उत्तरोत्तर दूना होता जाता है । उत्पन्न होते समय यहाँ जीवों का मुँह नीचे रहा है । अंतर्मुहूर्त में ही दुर्गंधित, घृणित, बुरी आकृति वाले शरीर की रचना पूर्ण हो जाती है । शरीर-रचना पूर्ण होते ही भूमि में गड़े हुए तोड़ा हथियारों पर ऊपर से नारकी जीव गिरते हैं और संतप्त भूमि पर भाड़ में डले तिलों के समान पहले तो उछलते हैं और फिर वहाँ जा गिरते हैं । तीसरी पृथिवी तक असुरकुमार देव नारकियों को परस्पर लड़ाते हैं । नारकी स्वयं भी पूर्व वैरवश लड़ते हैं । खंड-खंड होने पर भी पारे के समान यहाँ नारकियों के शरीर के टुकड़ों का पुन: समूह बन जाता है । वे एक दूसरे के द्वारा दिये हुए शारीरिक एवं मानसिक दु:ख सहते रहते हैं । खारा, गरम, तीक्ष्ण वैतरणी नदी का जल पीते हैं और दुर्गंध युक्त मिट्टी का आहार करते हैं । यहाँ गीध वज्रमय चोंच से और सुना कुत्ते नाखूनों से नारकियों के शरीर भेदते हैं । उन्हें कोल्हू में पेला जाता है कड़ाही में पकाया जाता है, ताँबा आदि धातुएँ पिलायी जाती है, पूर्व जन्म में रहे मास-भक्षियों को उनका मास काटकर उन्हें ही खिलाया जाता है और तपे हुए गर्म लौह गोले उन्हें निगलवाये जाते हैं । पूर्व जन्म में व्यभिचारी रहे जीवों को अग्नि से तप्त पुतलियों का आलिंगन कराया जाता है । यहाँ कटीले सेमर के वृक्षों पर ऊपर-नीचे की ओर घसीटा जाता है और अग्नि-शय्या पर बुलाया जाता है । गर्मी से संतप्त होने पर छाया की कामना से वन में पहुँचते ही असिपत्रों से उनके शरीर विदीर्ण हो जाते हैं । पर्वत से नीचे की ओर मुँह कर पटका जाता है और घावों पर खारा पानी सींचा जाता है । तीसरी पृथिवी तक असुरकुमार देव मेढा बनाकर परस्पर लड़ाते हैं और उन्हें लौहे के आसनों पर बैठाते हैं । आदि की चार भूमियों मे उष्ण वेदना, पाँचवी पृथिवी में उष्ण और शीत दोनों तथा छठी और सातवीं भूमि में शीत वेदना होती है । सातों पृथिवियों में क्रमश: तीस लाख, पच्चीस लाख, पंद्रह लाख, दस लाख, तीन लाख, पाँच कम एक लाख और पाँच बिल है । इन नरकों में क्रम से एक सागर, तीन सागर, सात सागर, दस सागर, सत्रह सागर, बाईस सागर और तैंतीस सागर उत्कृष्ट आयु है । पहली पृथिवी में नारकियों के शरीर की ऊंचाई सात धनुष तीन हाथ छ: अंगुल प्रमाण तथा द्वितीयादि पृथिवियों में क्रम-क्रम से दूनी होती गयी है । नारकी विकलांग, हुंडक संस्थान, नपुंसक, दुर्गंधित, काले, कठोर स्पर्श वाले, दुर्भग और कठोर स्वर वाले होते हैं । इनके शरीर में कड़वी तूंबी और कांजीर के समान रस उत्पन्न होता है । एक नारकी एक समय में एक ही आकार बना सकता है । आकार भी विकृत, घृणा का स्थान और कुरूप ही बना सकता है । इन्हें विभंगावधिज्ञान होता है । यहाँ हिंसक, मृषावादी, चोर, परस्त्रीरत, मद्यपायी, मिथ्यादृष्टि, क्रूर, रौद्रध्यानी, निर्दयी, वह्वारंभी, धर्मद्रोही, अधर्मपरिपोषक, साधुनिंदक, साधुओं पर अकारण क्रोधी, अतिशय पापी, मधु-मांसभक्षी, हिंसकपशुपोषी, मधुमांसभक्षियों के प्रशंसक, क्रूर जलचर-थलचर, सर्प, सरीसृप, पापिनी स्त्रियां और क्रूर पक्षी जन्म लेते हैं । असैनी पंचेंद्रिय जीव प्रथम पृथिवी तक, सरीसृप-दूसरी पृथिवी तक, पक्षी तीसरी पृथ्वी तक, सर्प चौथी पृथिवी तक, सिंह पाँचवी पृथिवी तक, स्त्रियाँ छठी पृथिवी तक और पापी मनुष्य तथा मच्छ सातवीं पृथिवी तक जाते हैं । <span class="GRef"> महापुराण 10.22-65, 9 0-103, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_2#162|पद्मपुराण - 2.162]],[[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_2#166|पद्मपुराण - 2.166]], 6.306-311, 14.22-23, 123.5-12, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_4#43|हरिवंशपुराण - 4.43-46]],[[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_4#355|हरिवंशपुराण - 4.355]]-366, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 17.65-72 </span></p> | ||
<p id="2">(2) रावण का एक योद्धा । <span class="GRef"> पद्मपुराण 66.25 </span></p> | <p id="2" class="HindiText">(2) रावण का एक योद्धा । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_66#25|पद्मपुराण - 66.25]] </span></p> | ||
<p id="3">(3) धर्मा पृथिवी क तेरह इंद्र के बिलों में दूसरा इंद्रक दिल । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 4.76 </span>देखें [[ धर्मा ]]</p> | <p id="3" class="HindiText">(3) धर्मा पृथिवी क तेरह इंद्र के बिलों में दूसरा इंद्रक दिल । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_4#76|हरिवंशपुराण - 4.76]] </span>देखें [[ धर्मा ]]</p> | ||
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Latest revision as of 15:11, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
प्रचुर रूप से पाप कर्मों के फलस्वरूप अनेकों प्रकार के असह्य दु:खों को भोगने वाले जीव विशेष नारकी कहलाते हैं। उनकी गति को नरकगति कहते हैं, और उनके रहने का स्थान नरक कहलाता है, जो शीत, उष्ण, दुर्गंधि आदि असंख्य दु:खों की तीव्रता का केंद्र होता है। वहाँ पर जीव बिलों अर्थात् सुरंगों में उत्पन्न होते व रहते हैं और परस्पर में एक दूसरे को मारने-काटने आदि के द्वारा दु:ख भोगते रहते हैं।
- नरकगति सामान्य निर्देश
- नरक सामान्य का लक्षण।
- नरकगति या नारकी का लक्षण।
- नारकियों के भेद (निक्षेपों की अपेक्षा)।
- नारकी के भेदों के लक्षण।
- नरकगति में गति, इंद्रिय आदि 14 मार्गणाओं के स्वामित्व संबंधी 20 प्ररूपणाएँ। –देखें सत् ।
- नरकगति संबंधी सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव व अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ। –देखें वह वह नाम ।
- नरकायु के बंधयोग्य परिणाम।–देखें आयु - 3।
- नरकगति में कर्मप्रकृतियों के बंध, उदय, सत्त्व-विषयक प्ररूपणाएँ।–देखें वह वह नाम ।
- नरकगति में जन्म मरण विषयक गति अगति प्ररूपणाएँ।–देखें जन्म - 6।
- सभी मार्गणाओं में आय के अनुसार व्यय होने का नियम।–देखें मार्गणा ।
- नरक सामान्य का लक्षण।
- नरकगति के दु:खों का निर्देश
- नारकियों के शरीर की विशेषताएँ
- जन्मने व पर्याप्त होने संबंधी विशेषता।
- शरीर की अशुभ आकृति।
- वैक्रियक भी वह मांस आदि युक्त होता है।
- इनके मूँछ-दाढ़ी नहीं होती।
- इनके शरीर में निगोद राशि नहीं होती।
- छिन्न भिन्न होने पर वह स्वत: पुन: पुन: मिल जाता है।
- आयु पूर्ण होने पर वह काफूरवत् उड़ जाता है।
- नरके में प्राप्त आयुध पशु आदि नारकियों के ही शरीर की विक्रिया हैं।
- नारकियों को पृथक् विक्रया नहीं होती।–देखें वैक्रियिक- 1।
- जन्मने व पर्याप्त होने संबंधी विशेषता।
- वहाँ जल अग्नि आदि जीवों का भी अस्तित्व है।–देखें काय - 2.5।
- नारकियों में संभव भाव व गुणस्थान आदि
- वहाँ संभव वेद, लेश्या आदि।–देखें वह वह नाम ।
- 2-3. नरकगति में सम्यक्त्वों व गुणस्थानों का स्वामित्व।
- मिथ्यादृष्टि से अन्य गुणस्थान वहाँ कैसे संभव है।
- वहाँ सासादन की संभावना कैसे है ?
- मरकर पुन: जी जाने वाले उनकी अपर्याप्तावस्था में भी सासादन व मिश्र कैसे नहीं मानते ?
- वहाँ सम्यग्दर्शन कैसे संभव है ?
- अशुभ लेश्या में भी सम्यक्त्व कैसे उत्पन्न होता है।–देखें लेश्या - 4।
- सम्यक्त्वादिकों सहित जन्म मरण संबंधी नियम।–देखें जन्म - 6।
- सासादन, मिश्र व सम्यग्दृष्टि मरकर नरक में उत्पन्न नहीं होते। इसमें हेतु।
- ऊपर के गुणस्थान यहाँ क्यों नहीं होते।
- नरकलोक निर्देश
- रत्नप्रभा पृथिवी खरपंक भाग आदि रूप विभाग।–देखें रत्नप्रभा ।
- पटलों व बिलों का सामान्य परिचय।
- बिलों में स्थित जन्मभूमियों का परिचय।
- नरक भूमियों में मिट्टी, आहार व शरीर आदि की दुर्गंधियों का निर्देश।
- नरक बिलों में अंधकार व भयंकरता।
- नरकों में शीत उष्णता का निर्देश।
- नरक पृथिवियों में बादर अप् तेज व वनस्पतिकायिकों का अस्तित्व।–देखें काय - 2.5।
- सातों पृथिवियों का सामान्य अवस्थान।–देखें लोक - 2।
- सातों पृथिवियों की मोटाई व बिलों आदि का प्रमाण।
- सातों पृथिवियों के बिलों का विस्तार।
- बिलों में परस्पर अंतराल।
- पटलों के नाम व तहाँ स्थित बिलों का परिचय।
- नरक लोक के नक्शे।–देखें लोक - 7।
- नरकगति सामान्य का लक्षण
- नरक सामान्य का लक्षण
राजवार्तिक/2/50/2-3/156/13 शीतोष्णासद्वेद्योदयापादितवेदनया नरान् कायंतीति शब्दायंत इति नारका:। अथवा पापकृत: प्राणिन आत्यंतिकं दु:खं नृणंति नयंतीति नारकाणि। औणादिक: कर्तर्यक:। =जो नरों को शीत, उष्ण आदि वेदनाओं से शब्दाकुलित कर दे वह नरक है। अथवा पापी जीवों को आत्यंतिक दु:खों को प्राप्त कराने वाले नरक हैं।
धवला 14/5,6,641/495/8 णिरयसेडिबद्धाणि णिरयाणि णाम। =नरक के श्रेणीबद्ध बिल नरक कहलाते हैं। - नरकगति या नारकी का लक्षण
तिलोयपण्णत्ति/1/60 ण रमंति जदो णिच्चं दव्वे खेत्ते य काल भावे य। अण्णोण्णेहि य णिच्चं तम्हा ते णारया भणिया।60। =यत; तत्स्थानवर्ती द्रव्य में, क्षेत्र में, काल में, और भाव में जो जीव रमते नहीं हैं, तथा परस्पर में भी जो कभी भी प्रीति को प्राप्त नहीं होते हैं, अतएव वे नारक या नारकी कहे जाते हैं। (धवला 1/1,1,24/ गाथा 128/202) (गोम्मटसार जीवकांड/147/369)।
राजवार्तिक/2/50/3/156/17 नरकेषु भवा नारका:। =नरकों में जन्म लेने वाले जीव नारक हैं। (गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/147/369/18)।
धवला 1/1,1,24/201/6 हिंसादिष्वसदनुष्ठानेषु व्यापृता: निरतास्तेषां गतिर्निरतगति:। अथवा नरान् प्राणिन: कायति पातयति खलीकरोति इति नरक: कर्म, तस्य नरकस्यापत्यानि नारकास्तेषां गतिर्नारकगति:। अथवा यस्या उदय: सकलाशुभकर्मणामुदयस्य सहकारिकारणं भवति सा नरकगति:। अथवा द्रव्यक्षेत्रकालभावेष्वन्योन्येषु च विरता: नरता:, तेषां गति: नरतगति:। =- जो हिंसादि असमीचीन कार्यों में व्यापृत हैं उन्हें निरत कहते हैं और उनकी गति को निरतगति कहते हैं।
- अथवा जो नर अर्थात् प्राणियों को काता है अर्थात् गिराता है, पीसता है, उसे नरक कहते हैं। नरक यह एक कर्म है। इससे जिनकी उत्पत्ति होती है उनको नारक कहते हैं, और उनकी गति को नारकगति कहते हैं।
- अथवा जिस गति का उदय संपूर्ण अशुभ कर्मों के उदय का सहकारी कारण है उसे नरकगति कहते हैं।
- अथवा जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में तथा परस्पर में रत नहीं हैं, अर्थात् प्रीति नहीं रखते हैं, उन्हें नरत कहते हैं और उनकी गति को नरतगति कहते हैं। (गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/147/369/19)।
धवला 13/5,5,140/392/2 न रमंत इति नारका:। =जो रमते नहीं हैं वे नारक कहलाते हैं।
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/147/369/16 यस्मात्कारणात् ये जीवा: नरकगतिसंबंध्यंनपानादिद्रव्ये, तद्भूतलरूपक्षेत्रे, समयादिस्वायुरवसानकाले चित्पर्यायरूपभावे भवांतरवैरोद्भवतज्जनितक्रोधादिभ्योऽंयोंयै: सह नूतनपुरातननारका: परस्परं च न रमंते तस्मात्कारणात् ते जीवा नरता इति भणिता:। नरता एव नारता:। ...अथवा निर्गतोऽय: पुण्यं एभ्य: ते निरया: तेषां गति: निरयगति: इति व्युत्पत्तिभिरपि नारकगतिलक्षणं कथितं।
=क्योंकि जो जीव नरक संबंधी अन्नपान आदि द्रव्य में, तहाँ की पृथिवी रूप क्षेत्र में, तिस गति संबंधी प्रथम समय से लगाकर अपना आयु पर्यंत काल में तथा जीवों के चैतन्य रूप भावों में कभी भी रति नहीं मानते। 5. और पूर्व के अन्य भवों संबंधी वैर के कारण इस भव में उपजे क्रोधादिक के द्वारा नये व पुराने नारकी कभी भी परस्पर में नहीं रमते, इसलिए उनको कभी भी प्रीति नहीं होने से वे ‘नरत’ कहलाते हैं। नरत को ही नारत जानना। तिनकी गति को नारतगति जानना। 6. अथवा ‘निर्गत’ कहिये गया है ‘अय:’ कहिये पुण्यकर्म जिनसे ऐसे जो निरय, तिनकी गति सो निरय गति जानना। इस प्रकार निरुक्ति द्वारा नारकगति का लक्षण कहा।
- नरक सामान्य का लक्षण
- नारकियों के भेद
पंचास्तिकाय/118 णेरइया पुढविभेयगदा। = रत्नप्रभा आदि सात पृथिवियों के भेद से नारकी भी सात प्रकार के हैं। (नियमसार/16)।
धवला 7/2,1,4/29/13 अधवा णामट्ठवणदव्वभावभेएण णेरइया चउव्विहा होंति। =अथवा नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव के भेद से नारकी चार प्रकार के होते हैं। (विशेष देखें निक्षेप - 1)।
- नारकी के भेदों के लक्षण
देखें नय - III.1.8 (नैगम नय आदि सात नयों की अपेक्षा नारकी कहने की विवक्षा)।
धवला 7/2,1,4/30/4 कम्मणेरइओ णाम णिरयगदिसहगदकम्मदव्वसमूहो। पासपंजरजंतादीणि णोकम्मदव्वाणि णेरइयभावकारणाणि णोकम्मदव्वणेरहओ णाम। =नरक गति के साथ आये हुए कर्म द्रव्य समूह को कर्मनारकी कहते हैं। पाश, पंजर, यंत्र आदि नोकर्म द्रव्य जो नारक भाव की उत्पत्ति में कारणभूत होते हैं, नोकर्म द्रव्य नारकी हैं। (शेष देखें निक्षेप )।
- नरक में दु:खों के सामान्य भेद
तत्त्वार्थसूत्र/3/4-5 परस्परोदीरितदु:खा:।4। संक्लिष्टासुरोदीरितदु:खाश्च प्राक् चतुर्थ्या:।5। =वे परस्पर उत्पन्न किये गये दु:ख वाले होते हैं।4। और चौथी भूमि से पहले तक अर्थात् पहिले दूसरे व तीसरे नरक में संक्लिष्ट असुरों के द्वारा उत्पन्न किये दु:ख वाले होते हैं।5।
त्रिलोकसार/197 खेत्तजणिदं असादं सारीरं माणसं च असुरकयं। भुंजंति जहावसरं भवट्ठिदी चरिमसमयो त्ति।197।=क्षेत्र जनित, शारीरिक, मानसिक और असुरकृत ऐसी चार प्रकार की असाता यथा अवसर अपनी पर्याय के अंत समय पर्यंत भोगता है। (कार्तिकेयानुप्रेक्षा/35)।
- शारीरिक दु:ख निर्देश
- नरक में उत्पन्न होकर उछलने संबंधी दु:ख
तिलोयपण्णत्ति/2/314-315 भीदीए कंपमाणो चलिदुं दुक्खेण पट्ठिओ संतो। छत्तीसाउहमज्झे पडिदूणं तत्थ उप्पलइ।314। उच्छेहजोयणाणिं सत्त धणू छस्सहस्सपंचसया। उप्पलइ पढमखेत्ते दुगुणं दुगुणं कमेण सेसेसु।315।=वह नारकी जीव (पर्याप्ति पूर्ण करते ही) भय से काँपता हुआ बड़े कष्ट से चलने के लिए प्रस्तुत होकर, छत्तीस आयुधों के मध्य में गिरकर वहाँ से उछलता है।314। प्रथम पृथिवी में सात योजन 6500 धनुष प्रमाण ऊपर उछलता है। इससे आगे शेष छ: पृथिवियों में उछलने का प्रमाण क्रम से उत्तरोत्तर दूना दूना है।315। (हरिवंशपुराण/4/355-361) ( महापुराण/10/35-37) ( त्रिलोकसार/181-182) (ज्ञानार्णव/36/18-19)।
- परस्पर कृत दु:ख निर्देश
तिलोयपण्णत्ति/2/316-342 का भावार्थ–उसको वहाँ उछलता देखकर पहले नारकी उसकी ओर दौड़ते हैं।316। शस्त्रों, भयंकर पशुओं व वृक्ष नदियों आदि का रूप धरकर (देखें नरक - 3)।317। उसे मारते हैं व खाते हैं।322। हज़ारों यंत्रों में पेलते हैं।323। साकलों से बँधते हैं व अग्नि में फेंकते हैं।324। करोंत से चोरते हैं व भालों से बींधते हैं।325। पकते तेल में फेंकते हैं।326। शीतल जल समझकर यदि वह वेतरणी नदी में प्रवेश करता है तो भी वे उसे छेदते हैं।327-328। कछुओं आदि का रूप धरकर उसे भक्षण करते हैं।329। जब आश्रय ढूँढ़ने के लिए बिलों में प्रवेश करता है तो वहाँ अग्नि की ज्वालाओं का सामना करना पड़ता है।330। शीतल छाया के भ्रम से असिपत्र वन में जाते हैं।331। वहाँ उन वृक्षों के तलवार के समान पत्तों से अथवा अन्य शस्त्रास्त्रों से छेदे जाते हैं।332-333। गृद्ध आदि पक्षी बनकर नारकी उसे चूँट-चूँट कर खाते हैं।334-335। अंगोपांग चूर्ण कर उसमें क्षार जल डालते हैं।336। फिर खंड-खंड करके चूल्हों में डालते हैं।337। तप्त लोहे की पुतलियों से आलिंगन कराते हैं।338। उसी के मांस को काटकर उसी के मुख में देते हैं।339। गलाया हुआ लोहा व ताँबा उसे पिलाते हैं।340। पर फिर भी वे मरण को प्राप्त नहीं होते हैं (देखें नरक - 3)।341। अनेक प्रकार के शस्त्रों आदि रूप से परिणत होकर वे नारकी एक दूसरे को इस प्रकार दुख देते हैं।342। (भगवती आराधना/1565-1580), (सर्वार्थसिद्धि/2/5/209/7), (राजवार्तिक/3/5/8/31), (हरिवंशपुराण/4/363-365), (महापुराण/10/38-63), (त्रिलोकसार/183-190), (जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/157-177), (कार्तिकेयानुप्रेक्षा/36-39), (ज्ञानार्णव/36/61-76), ( वसुनंदी श्रावकाचार/166-169)।
सर्वार्थसिद्धि/3/4/208/3 नारका: भवप्रत्ययेनावधिना ...दूरादेव दु:खहेतूनवगम्योत्पन्नदु:खा: प्रत्यासत्तौ परस्परालोकनाच्च प्रज्वलितकोपाग्नय: पूर्वभवानुस्मरणाच्चातिती व्रानुबद्धवैराश्च श्वशृगालादिवत्स्वाभिघाते प्रवर्तमान: स्वविक्रियाकृत...आयुधै: स्वकरचरणदशनैश्च छेदनभेदनतक्षणदंशनादिभि: परस्परस्यातितीव्रं दु:खमुत्पादयंति। =नारकियों के भवप्रत्यय अवधिज्ञान होता है। उसके कारण दूर से ही दु:ख के कारणों को जानकर उनको दु:ख उत्पन्न हो जाता है और समीप में आने पर एक दूसरे को देखने से उनकी कोपाग्नि भभक उठती है। तथा पूर्वभव का स्मरण होने से उनकी वैर की गाँठ और दृढ़तर हो जाती है, जिससे वे कुत्ता और गीदड़ के समान एक दूसरे का घात करने के लिए प्रवृत्त होते हैं। वे अपनी विक्रिया से अस्त्र शस्त्र बना कर (देखें नरक - 3) उनसे तथा अपने हाथ पाँव और दाँतों से छेदना, भेदना, छीलना और काटना आदि के द्वारा परस्पर अति तीव्र दु:ख को उत्पन्न करते हैं। (राजवार्तिक/3/4/1/165/4), (महापुराण/10/40,103)
- आहार संबंधी दु:ख निर्देश
तिलोयपण्णत्ति/2/343-346 का भावार्थ–अत्यंत तीखी व कड़वी थोड़ी सी मिट्टी को चिरकाल में खाते हैं।343। अत्यंत दुर्गंधवाला व ग्लानि युक्त आहार करते हैं।344-346।
देखें - सातों पृथिवियों में मिट्टी की दुर्गंधी का प्रमाण
हरिवंशपुराण/4/366 का भावार्थ–अत्यंत तीक्ष्ण खारा व गरम वैतरणी नदी का जल पीते हैं और दुर्गंध युक्त मिट्टी का आहार करते हैं।
त्रिलोकसार/192 सादिकुहिदातिगंधं सणिमणं मट्टियं विभुंजंति। घम्मभवा वंसादिसु असंखगुणिदासहं तत्तो।192। =कुत्ते आदि जीवों की विष्टा से भी अधिक दुर्गंधित मिट्टी का भोजन करते हैं। और वह भी उनको अत्यंत अल्प मिलती है, जबकि उनकी भूख बहुत अधिक होती है।
- भूख-प्यास संबंधी दु:ख निर्देश
ज्ञानार्णव/36/77-78 बुभुक्षा जायतेऽत्यर्थं नरके तत्र देहिनाम् । यां न शामयितुं शक्त: पुद्गलप्रचयोऽखिल:।77। तृष्णा भवति या तेषु वाडवाग्निरिवोल्वणा। न सा शाम्यति नि:शेषपीतैरप्यंबुराशिभि:।78। =नरक में नारकी जीवों को भूख ऐसी लगती है, कि समस्त पुद्गलों का समूह भी उसको शमन करने में समर्थ नहीं।77। तथा वहाँ पर तृष्णा बड़वाग्नि के समान इतनी उत्कट होती है कि समस्त समुद्रों का जल भी पी लें तो नहीं मिटती।78।
- रोगों संबंधी दु:ख निर्देश
ज्ञानार्णव/36/20 दु:सहा निष्प्रतीकारा ये रोगा: संति केचन। साकल्येनैव गात्रेषु नारकाणां भवंति ते।20। =दुस्सह तथा निष्प्रतिकार जितने भी रोग इस संसार में हैं वे सबके सब नारकियों के शरीर में रोमरोम में होते हैं।
- नरक में उत्पन्न होकर उछलने संबंधी दु:ख
- शीत व उष्ण संबंधी दु:ख निर्देश
देखें - नारक पृथिवी में अत्यंत शीत व उष्ण होती हैं।
- क्षेत्रकृत दु:ख निर्देश
देखें - नरक की मिट्टी तथा नारकियों के शरीर अत्यंत दुर्गंधी युक्त होते हैं | वहाँ के बिल अत्यंत अंधकार पूर्ण तथा शीत या उष्ण होते हैं।
- असुर देवोंकृत दु:ख निर्देश
तिलोयपण्णत्ति/2/348-350 सिकतानन.../...।348।...वेतरणिपहुदि असुरसुरा। गंतूण बालुकंतं णारइयाणं पकोपंति।349। इह खेत्ते जह मणुवा पेच्छंते मेसमहिसजुद्धादिं। तह णिरये असुरसुरा णारयकलहं पतुट्ठमणा।350। =सिकतानन...वैतरणी आदिक असुरकुमार जाति के देव तीसरी बालुकाप्रभा पृथिवी तक जाकर नारकियों को क्रोधित कराते हैं। 348-349। इस क्षेत्र में जिस प्रकार मनुष्य, मेंढे और भैंसे आदि के युद्ध को देखते हैं, उसी प्रकार असुरकुमार जाति के देव नारकियों के युद्ध को देखते हैं और मन में संतुष्ट होते हैं। (महापुराण/10/64)
सर्वार्थसिद्धि/3/5/209/7 सुतप्तायोरसपायननिष्टप्तायस्तंभालिंगन...निष्पीडनादिभिर्नारकाणां दु:खमुत्पादयंति। =खूब तपाया हुआ लोहे का रस पिलाना, अत्यंत तपाये गये लोहस्तंभ का आलिंगन कराना, ...यंत्र में पेलना आदि के द्वारा नारकियों को परस्पर दु:ख उत्पन्न कराते हैं। (विशेष देखें [[ पहिले परस्परकृत दु:ख ) (भगवती आराधना/1568-1570), (राजवार्तिक/3/5/8/361/31), (जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/168-169)
महापुराण/10/41 चोदयंत्यसुराश्चैनां यूयं युध्यध्वमित्यरम् । संस्मार्य पूर्ववैराणि प्राक्चतुर्थ्या: सुदारुणा: ।41।=पहले की तीन पृथिवियों तक अतिशय भयंकर असुरकुमार जाति के देव जाकर वहाँ के नारकियों को उनके पूर्वभव वैर का स्मरण कराकर परस्पर में लड़ने के लिए प्रेरणा करते रहते हैं। (वसुनंदी श्रावकाचार/170)
देखें असुर - 3 (अंबरीष आदि कुछ ही प्रकार के असुर देव नरकों में जाते हैं, सब नहीं)
- मानसिक दु:ख निर्देश
महापुराण/10/67-86 का भावार्थ–अहो ! अग्नि के फुलिंगों के समान यह वायु, तप्त धूलिका वर्षा।67-68। विष सरीखा असिपत्र वन।69। जबरदस्ती आलिंगन करने वाली ये लोहे की गरम पुतलियाँ।70। हमको परस्पर में लड़ाने वाले ये दुष्ट यमराजतुल्य असुर देव।71। हमारा भक्षण करने के लिए यह सामने से आ रहे जो भयंकर पशु।72। तीक्ष्ण शस्त्रों से युक्त ये भयानक नारकी।73-75। यह संताप जनक करुण क्रंदन की आवाज़।76। शृगालों की हृदयविदारक ध्वनियाँ।77। असिपत्रवन में गिरने वाले पत्तों को कठोर शब्द।78। काँटों वाले सेमर वृक्ष।79। भयानक वैतरणी नदी।80। अग्नि की ज्वालाओं युक्त ये विलें।81। कितने दु:स्सह व भयंकर हैं। प्राण भी आयु पूर्ण हुए बिना छूटते नहीं।82। अरे-अरे ! अब हम कहाँ जावें।83। इन दु:खों से हम कब तिरेंगे।84। इस प्रकार प्रतिक्षण चिंतवन करते रहने से उन्हें दु:सह मानसिक संताप उत्पन्न होता है, तथा हर समय उन्हें मरने का संशय बना रहता है।85।
ज्ञानार्णव/36/27-60 का भावार्थ–हाय हाय ! पापकर्म के उदय से हम इस ( उपरोक्तवत् ) भयानक नरक में पड़े हैं।27। ऐसा विचारते हुए वज्राग्नि के समान संतापकारी पश्चात्ताप करते हैं।28। हाय हाय ! हमने सत्पुरुषों व वीतरागी साधुओं के कल्याणकारी उपदेशों का तिरस्कार किया है।29-33। मिथ्यात्व व अविद्या के कारण विषयांध होकर मैंने पाँचों पाप किये।34-37। पूर्वभवों में मैंने जिनको सताया है वे यहाँ मुझको सिंह के समान मारने को उद्यत है।38-40। मनुष्य भव में मैंने हिताहित का विचार न किया, अब यहाँ क्या कर सकता हूँ।41-44। अब किसकी शरण में जाऊँ।45। यह दु:ख अब मैं कैसे सहूँगा।46। जिनके लिए मैंने पाप कार्य किये वे कुटुंबीजन अब क्यों आकर मेरी सहायता नहीं करते।47-51। इस संसार में धर्म के अतिरिक्त अन्य कोई सहायक नहीं।52-59। इस प्रकार निरंतर अपने पूर्वकृत पापों आदि का सोच करता रहता है।60।
- नारकियों के शरीर की विशेषताएँ
- जन्मने व पर्याप्त होने संबंधी
तिलोयपण्णत्ति/2/313 पावेण णिरयबिले जादूणं ता मुहुत्तगं मेत्ते। छप्पज्जत्ती पाविय आकस्मियभयजुदो होदि।313। =नारकी जीव पाप से नरक बिल में उत्पन्न होकर और एक मुहूर्त मात्र में छह पर्याप्तियों को प्राप्त कर आकस्मिक भय से युक्त होता है। (महापुराण/10/34)
महापुराण/10/33 तत्र वीभत्सुनि स्थाने जाले मधुकृतामिव। तेऽधोमुखा प्रजायंते पापिनामुन्नतिं कुत:।33। =उन पृथिवियों में वे जीव मधु-मक्खियों के छत्ते के समान लटकते हुए घृणित स्थानों में नीचे की ओर मुख करके पैदा होते हैं।
- शरीर की अशुभ प्रकृति
सर्वार्थसिद्धि/3/3/207/4 देहाश्च तेषामशुभनामकर्मोदयादत्यंताशुभतरा विकृताकृतयो हुंडसंस्थाना दुर्दर्शना:। =नारकियों के शरीर अशुभ नामकर्म के उदय से होने के कारण उत्तरोत्तर (आगे-आगे की पृथिवियों में) अशुभ हैं। उनकी विकृत आकृति है, हुंडक संस्थान है, और देखने में बुरे लगते हैं। (राजवार्तिक/3/3/4/164/12), (हरिवंशपुराण/4/368), (महापुराण/10/34,95), (विशेष देखें उदय - 6.3)
- वैक्रियक भी वह मांसादि युक्त होता है
राजवार्तिक/3/3/4/164/14 यथेह श्लेष्ममूत्रपुरीषमलरुधिरवसामेद: पूयवमनपूतिमांसकेशास्थिचर्माद्यशुभमौदारिकगतं ततोऽप्यतीवाशुभत्वं नारकाणां वैक्रियकशरीरत्वेऽपि। =जिस प्रकार के श्लेष्म, मूत्र, पुरीष, मल, रुधिर, वसा, मेद, पीप, वमन, पूति, मांस, केश, अस्थि, चर्म अशुभ सामग्री युक्त औदारिक शरीर होता है, उससे भी अतीव अशुभ इस सामग्री युक्त नारकियों का वैक्रियक भी शरीर होता है। अर्थात् वैक्रियक होते हुए भी उनका शरीर उपरोक्त वीभत्स सामग्री युक्त होता है।
- इनके मूँछ दाढ़ी नहीं होती
बोधपाहुड़/ टीका/32 में उद्धृत-देवा वि य नेरइया हलहर चक्की य तह य तित्थयरा। सव्वे केसव रामा कामा निक्कुंचिया होंति।1।–सभी देव, नारकी, हलधर, चक्रवर्ती तथा तीर्थंकर, प्रतिनारायण, नारायण व कामदेव ये सब बिना मूँछ दाढ़ी वाले होते हैं।
- इनके शरीर में निगोद राशि नहीं होती
धवला 14/5,6,91/81/8 पुढवि-आउ-तेज-वाउक्काइया देव-णेरइया आहारसरीरा पमत्तसंजदा सजोगिअजोगिकेवलिणो च पत्तेयसरीरा वुच्चंति; एदेसिं णिगोदजीवेहिं सह संबंधाभावादो।=पृथिवीकायिक, जलकायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, देव, नारकी, आहारकशरीर, प्रमत्तसंयत, सयोगकेवली और अयोगकेवली ये जीव प्रत्येक शरीर वाले होते हैं; क्योंकि, इनका निगोद जीवों के साथ संबंध नहीं होता।
- छिन्न-भिन्न होने पर वह स्वत: पुन: पुन: मिल जाता है
तिलोयपण्णत्ति/2/341 करवालपहरभिण्णं कूवजलं जह पुणो वि संघडदि। तह णारयाण अंगं छिज्जंतं विविहसत्थेहिं।341। =जिस प्रकार तलवार के प्रहार से भिन्न हुआ कुएँ का जल फिर से भी मिल जाता है, इसी प्रकार अनेकानेक शस्त्रों से छेदा गया नारकियों का शरीर भी फिर से मिल जाता है।; ( हरिवंशपुराण/4/364 ); ( महापुराण/10/39); ( त्रिलोकसार/194) ( ज्ञानार्णव/36/80)।
- आयु पूर्ण होने पर वह काफूरवत् उड़ जाता है
तिलोयपण्णत्ति/2/353 कदलीघादेण विणा णारयगत्ताणि आउअवसाणे। मारुदपहदब्भाइ व णिस्सेसाणिं विलीयंते।353। =नारकियों के शरीर कदलीघात के बिना (देखें मरण - 4) आयु के अंत में वायु से ताड़ित मेघों के समान नि:शेष विलीन हो जाते हैं। (त्रिलोकसार/196)।
- नरक में प्राप्त आयुध पशु आदि नारकियों के ही शरीर की विक्रिया है
तिलोयपण्णत्ति/2/318-321 चक्कसरसूलतोमरमोग्गरकरवत्तकोंतसूईणं। मुसलासिप्पहुदीणं वणणगदावाणलादीणं ।318। वयवग्घतरच्छसिगालसाणमज्जालसीहपहुदीणं। अण्णोण्णं चसदा ते णियणियदेहं विगुव्वंति।319। गहिरबिलधूममारुदअइतत्तकहल्लिजंतचुल्लीणं। कंडणिपीसणिदव्वीण रूवमण्णे विकुव्वंति।320। सूवरवणग्गिसोणिदकिमिसरिदहकूववाइपहुदीणं। पुहुपुहुरूवविहीणा णियणियदेहं पकुव्वंति।321। =वे नारकी जीव चक्र, वाण, शूली, तोमर, मुद्गर, करोंत, भाला, सूई, मूसल, और तलवार इत्यादिक शस्त्रास्त्र; वन एवं पर्वत की आग; तथा भेड़िया, व्याघ्र, तरक्ष, शृगाल, कुत्ता, बिलाव, और सिंह, इन पशुओं के अनुरूप परस्पर में सदैव अपने-अपने शरीर की विक्रिया किया करते हैं।318-319। अन्य नारकी जीव गहरा बिल, धुआँ, वायु, अत्यंत तपा हुआ खप्पर, यंत्र, चूल्हा, कंडनी, (एक प्रकार का कूटने का उपकरण), चक्की और दर्वी (बर्छी), इनके आकाररूप अपने-अपने शरीर की विक्रिया करते हैं।320। उपर्युक्त नारकी शूकर, दावानल, तथा शोणित और कीड़ों से युक्त सरित्, द्रह, कूप, और वापी आदिरूप पृथक्-पृथक् रूप से रहित अपने-अपने शरीर की विक्रिया किया करते हैं। (तात्पर्य यह कि नारकियों के अपृथक् विक्रिया होती है। देवों के समान उनके पृथक् विक्रिया नहीं होती।321। (सर्वार्थसिद्धि/3/4/208/6); (राजवार्तिक/3/4/165/4); (हरिवंशपुराण/4/363); (ज्ञानार्णव/36/67); (वसुनंदी श्रावकाचार/166); (और भी देखें [[ अगला शीर्षक )।
- छह पृथिवियों में आयुधों रूप विक्रिया होती है और सातवीं में कीड़ों रूप
राजवार्तिक/2/47/4/152/11 नारकाणां त्रिशूलचक्रासिमुद्गरपरशुभिंडिपालाद्यनेकायुधैकत्वविक्रिवा–आ षष्ठया:। सप्तम्यां महागोकीटकप्रमाणलोहितकुंथुरूपैकत्वविक्रिया। =छठे नरक तक के नारकियों के त्रिशूल, चक्र, तलवार, मुद्गर, परशु, भिंडिपाल आदि अनेक आयुधरूप एकत्व विक्रिया होती है (देखें वैक्रियिक - 1)। सातवें नरक में गाय बराबर कीड़े लोहू, चींटी आदि रूप से एकत्व विक्रिया होती है।
- जन्मने व पर्याप्त होने संबंधी
- नारकियों में संभव भाव व गुणस्थान आदि
- सदा अशुभ परिणामों से युक्त रहते हैं
तत्त्वार्थसूत्र/3/3 नारका नित्याशुभतरलेश्यापरिणामदेहवेदनाविक्रिया:। =नारकी निरंतर अशुभतर लेश्या, परिणाम, देह, वेदना व विक्रिया वाले हैं। (विशेष देखें लेश्या - 4)।
- नरकगति में सम्यक्त्वों का स्वामित्व
षट्खण्डागम 1/1,1/सूत्र 151-155/399-401 णेरइया अत्थि मिच्छाइट्ठी सासण-सम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी असंजदसम्माइट्ठि त्ति।151। एवं जाव सत्तसु पुढवीसु।152। णेरइया असंजदसम्माइट्ठि-ट्ठाणे अत्थि खइयसम्माइट्ठी वेदगसम्माइट्ठी उवसमसम्माइट्ठी चेदि।153। एवं पढमाए पुढवीए णेरइआ।154। विदियादि जाव सत्तमाए पुढवीए णेरइया असंजदसम्माइट्ठिट्ठाणे खइयसम्माइट्ठी णत्थि, अवसेसा अत्थि।155। =नारकी जीव मिथ्यादृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती होते हैं।151। इस प्रकार सातों पृथिवियों में प्रारंभ के चार गुणस्थान होते हैं।152। नारकी जीव असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में क्षायिक सम्यग्दृष्टि, वेदक सम्यग्दृष्टि और उपशम सम्यग्दृष्टि होते हैं।153। इसी प्रकार प्रथम पृथिवी में नारकी जीव होते हैं।154। दूसरी पृथिवी से लेकर सातवीं पृथिवी तक नारकी जीव असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में क्षायिक सम्यग्दृष्टि नहीं होते हैं। शेष दो सम्यग्दर्शनों से युक्त होते हैं।155।
- नरकगति में गुणस्थानों का स्वामित्व
षट्खण्डागम1/1,1/सूत्र.25/204 णेरइया चउट्ठाणेसु अत्थि मिच्छाइंट्ठी सासणसम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी असंजदसम्माइट्ठित्ति।25। षट्खण्डागम1/1,1/सूत्र 79-83/319-323 णेरइया मिच्छाइट्ठिअसंजदसम्माइट्ठिट्ठाणे सिया पज्जत्ता सिया अपज्जत्ता।71। सासणसम्माइट्ठिसम्मामिच्छाइट्ठिट्ठाणे णियमा पज्जत्ता।80। एवं पढमाए पुढवीए णेरइया।81। विदियादि जाव सत्तमाए पुढवीए णेरइया मिच्छाइट्ठिट्ठाणे सिया पज्जत्ता सिया अपज्जत्ता।82। सासणसम्माइट्ठि-सम्मामिच्छाइट्ठि-असंजदसम्माइट्ठिट्ठाणे णियमा पज्जत्ता।83। =मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि इन चार गुणस्थानों में नारकी होते हैं।25। नारकी जीव मिथ्यादृष्टि और असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में पर्याप्तक होते हैं और अपर्याप्तक भी होते हैं।79। नारकी जीव सासादन सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानों में नियम से पर्याप्तक ही होते हैं।80। इसी प्रकार प्रथम पृथिवी में नारकी होते हैं।81। दूसरी पृथिवी से लेकर सातवीं पृथिवी तक रहने वाले नारकी मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में पर्याप्तक भी होते हैं और अपर्याप्तक भी होते हैं।82। पर वे (2-7 पृथिवी के नारकी) सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में नियम से पर्याप्तक होते हैं।83।
- मिथ्यादृष्टि से अन्य गुणस्थान वहाँ कैसे संभव है
धवला 1/1,1,25/205/3 अस्तु मिथ्यादृष्टिगुणे तेषां सत्त्वं मिथ्यादृष्टिषु तत्रोत्पत्तिनिमित्तमिथ्यात्वस्य सत्त्वात् । नेतरेषु तेषां सत्त्वं तत्रोत्पत्तिनिमित्तस्य मिथ्यात्वस्यासत्त्वादिति चेन्न, आयुषो बंधमंतरेण मिथ्यात्वाविरतिकषायाणां तत्रोत्पादनसामर्थ्याभावात् । न च बद्धस्यायुष: सम्यक्त्वान्निरन्वयविनाश: आर्षविरोधात् । न हि बद्धायुष: सम्यक्त्वं संयममिव न प्रतिपद्यंते सूत्रविरोधात् । =प्रश्न–मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में नारकियों का सत्त्व रहा आवे, क्योंकि, वहाँ पर (अर्थात् मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में) नारकियों में उत्पत्ति का निमित्त कारण मिथ्यादर्शन पाया जाता है। किंतु दूसरे गुणस्थान में नारकियों का सत्त्व नहीं पाया जाना चाहिए; क्योंकि, अन्य गुणस्थान सहित नारकियों में उत्पत्ति का निमित्त कारण मिथ्यात्व नहीं पाया जाता है। (अर्थात् मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में ही नरकायु का बंध संभव है, अन्य गुणस्थानों में नहीं) ? उत्तर–ऐसा नहीं है; क्योंकि, नरकायु के बंध बिना मिथ्यादर्शन, अविरत और कषाय की नरक में उत्पन्न कराने की सामर्थ्य नहीं है। (अर्थात् नरकायु ही नरक में उत्पत्ति का कारण है, मिथ्या, अविरति व कषाय नहीं)। और पहले बँधी हुई आयु का पीछे से उत्पन्न हुए सम्यग्दर्शन द्वारा निरन्वय नाश भी नहीं होता है; क्योंकि, ऐसा मान लेने पर आर्ष से विरोध आता है। जिन्होंने नरकायु का बंध कर लिया है, ऐसे जीव जिस प्रकार संयम को प्राप्त नहीं हो सकते हैं, उसी प्रकार सम्यक्त्व को भी प्राप्त नहीं होते, यह बात भी नहीं है; क्योंकि, ऐसा मान लेने पर भी सूत्र से विरोध आता है (देखें आयु - 6.7)।
- वहाँ सासादन की संभावना कैसे है
धवला 1/1,1,25/205/8 सम्यग्दृष्टीनां बद्धायुषां तत्रोत्पत्तिरस्तीति संति तत्रासंयतसम्यग्दृष्टय:, न सासादनगुणवतां तत्रोत्पत्तिस्तद्गुणस्य तत्रोत्पत्त्या सह विरोधात् । तहिं कथं तद्वतां तत्र सत्त्वमिति चेन्न, पर्याप्तनरकगत्या सहापर्याप्तया इव तस्य विरोधाभावात् । किमित्यपर्याप्तया विरोधश्चेत्स्वभावोऽयं, न हि स्वभावा: परपर्यनुयोगार्हा:। ...कथं पुनस्तयोस्तत्र सत्त्वमिति चेन्न, परिणामप्रत्ययेन तदुत्पत्तिसिद्धे:। =जिन जीवों ने पहले नरकायु का बंध किया है और जिन्हें पीछे से सम्यग्दर्शन उत्पन्न हुआ है, ऐसे बद्धायुष्क सम्यग्दृष्टियों की नरक में उत्पत्ति है, इसलिए नरक में असंयत सम्यग्दृष्टि भले ही पाये जावें, परंतु सासादन गुणस्थान वालों की मरकर नरक में उत्पत्ति नहीं हो सकती (देखें जन्म - 4.1) क्योंकि सासादन गुणस्थान का नरक में उत्पत्ति के साथ विरोध है। प्रश्न–तो फिर, सासादन गुणस्थान वालों का नरक में सद्भाव कैसे पाया जा सकता है ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, जिस प्रकार नरकगति में अपर्याप्त अवस्था के साथ सासादन गुणस्थान का विरोध है उसी प्रकार पर्याप्तावस्था सहित नरकगति के साथ सासादन गुणस्थान का विरोध नहीं है। प्रश्न–अपर्याप्त अवस्था के साथ उसका विरोध क्यों है ? उत्तर–यह नारकियों का स्वभाव है और स्वभाव दूसरों के प्रश्न के योग्य नहीं होते हैं। (अन्य गतियों में इसका अपर्याप्त काल के साथ विरोध नहीं है, परंतु मिश्र गुणस्थान का तो सभी गतियों में अपर्याप्त काल के साथ विरोध है।) (धवला 1/1,1,80/320/8)। प्रश्न–तो फिर सासादन और मिश्र इन दोनों गुणस्थानों का नरक गति सत्त्व कैसे संभव है? उत्तर–नहीं, क्योंकि, परिणामों के निमित्त से नरक गति की पर्याप्त अवस्था में उनकी उत्पत्ति बन जाती है।
- मर-मरकर पुन:-पुन: जो उठने वाले नारकियों की अपर्याप्तावस्था में भी सासादन व मिश्र मान लेने चाहिए ?
धवला 1/1,1,80/321/1 नारकाणामग्निसंबंधाद्भस्मसाद्भावमुपगतानां पुनर्भस्मनि समुत्पद्यमानानामपर्याप्ताद्धायां गुणद्वयस्य सत्त्वाविरोधान्नियमेन पर्याप्ता इति न घटत इति चेन्न, तेषां मरणाभावात् । भावे वा न ते तत्रोत्पद्यंते।...आयुषोऽवसाने म्रियमाणानामेष नियमश्चेन्न, तेषामपमृत्योरसत्त्वात् । भस्मसाद्भावमुपगतानां तेषां कथं पुनर्मरणमिति चेन्न, देहविकारस्यायुर्विच्छित्त्यनिमित्तत्वात् ।=प्रश्न–अग्नि के संबंध से भस्मीभाव को प्राप्त होने वाले नारकियों के अपर्याप्त काल में इन दो गुणस्थानों के होने में कोई विरोध नहीं आता है, इसलिए, इन गुणस्थानों में नारकी नियम से पर्याप्त होते हैं, यह नियम नहीं बनता है? उत्तर–नहीं, क्योंकि, अग्नि आदि निमित्तों से नारकियों का मरण नहीं होता है (देखें नरक - 3.6)। यदि नारकियों का मरण हो जावे तो पुन: वे वहीं पर उत्पन्न नहीं होते हैं (देखें जन्म - 6.6)। प्रश्न–आयु के अंत में मरने वालों के लिए ही यह सूत्रोक्त (नारकी मरकर नरक व देवगति में नहीं जाता, मनुष्य या तिर्यंचगति में जाता है) नियम लागू होना चाहिए? उत्तर–नहीं, क्योंकि नारकी जीवों के अपमृत्यु का सद्भाव नहीं पाया जाता (देखें मरण - 4) अर्थात् नारकियों का आयु के अंत में ही मरण होता है, बीच में नहीं। प्रश्न–यदि उनकी अपमृत्यु नहीं होती तो जिनका शरीर भस्मीभाव को प्राप्त हो गया है, ऐसे नारकियों का, (आयु के अंत में) पुनर्मरण कैसे बनेगा ? उत्तर–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, देह का विकार आयु कर्म के विनाश का निमित्त नहीं है। (विशेष देखें मरण - 2)।
- वहाँ सम्यग्दर्शन कैसे संभव है
धवला 1/1,1,25/206/7 तर्हि सम्यग्दृष्टयोऽपि तथैव संतीति चेन्न, इष्टत्वात् । सासादनस्येव सम्यग्दृष्टेरपि तत्रोत्पत्तिर्मा भूदिति चेन्न, प्रथमपृथिव्युत्पत्ति प्रति निषेधाभावात् । प्रथमपृथिव्यामिव द्वितीयादिषु पृथिवीषु सम्यग्दृष्टय: किंनोत्पद्यंत इति चेन्न, सम्यक्त्वस्य तत्रतन्यापर्याप्ताद्धया सह विरोधात् ।=प्रश्न–तो फिर सम्यग्दृष्टि भी उसी प्रकार होते हैं ऐसा मानना चाहिए। अर्थात् सासादन की भाँति सम्यग्दर्शन की भी वहाँ उत्पत्ति मानना चाहिए ? उत्तर–नहीं; क्योंकि, यह बात तो हमें इष्ट ही है, अर्थात् सातों पृथिवियों की पर्याप्त अवस्था में सम्यग्दृष्टियों का सद्भाव माना गया है। प्रश्न–जिस प्रकार सासादन सम्यग्दृष्टि नरक में उत्पन्न नहीं होते हैं, उसी प्रकार सम्यग्दृष्टियों की भी मरकर वहाँ उत्पत्ति नहीं होनी चाहिए? उत्तर–सम्यग्दृष्टि मरकर प्रथम पृथिवी में उत्पन्न होते हैं, इसका आगम में निषेध नहीं है। प्रश्न–जिस प्रकार प्रथम पृथिवी में सम्यग्दृष्टि उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार द्वितीयादि पृथिवियों में भी सम्यग्दृष्टि क्यों उत्पन्न नहीं होते हैं ? उत्तर–नहीं; क्योंकि, द्वितीयादि पृथिवियों की अपर्याप्तावस्था के साथ सम्यग्दर्शन का विरोध है।
- सासादन, मिश्र व सम्यग्दृष्टि मरकर नरक में उत्पन्न नहीं होते। इसका हेतु
धवला 1/1,1,83/323/9 भवतु नाम सम्यग्मिथ्यादृष्टेस्तत्रानुत्पत्ति:। सम्यग्मिथ्यात्वपरिणाममधिष्ठितस्य मरणाभावात् ।...किंत्वेतंन युज्यते शेषगुणस्थानप्राणिनस्तत्र नोत्पद्यंत इति। न तावत् सासादनस्तत्रोत्पद्यते तस्य नरकायुषो बंधाभावात् । नापि बद्धनरकायुष्क: सासादनं प्रतिपद्य नारकेषूत्पद्यते तस्य तस्मिन् गुणे मरणाभावात् । नासंयतसम्यग्दृष्टयोऽपि तत्रोत्पद्यंते तत्रोत्पत्तिर्निमित्ताभावात् । न तावत्कर्मस्कंधबहुत्वं तस्य तत्रोत्पत्ते: कारणं क्षपितकर्मांशानामपि जीवानां तत्रोत्पत्तिदर्शनात् । नापि कर्मस्कंधाणुत्वं तत्रोत्पत्ते: कारणं गुणितकर्मांशानामपि तत्रोत्पत्तिदर्शनात् । नापि नरकगतिकर्मण: सत्त्वं तस्य तत्रोत्पत्ते: करणं तत्सत्त्वं प्रत्यविशेषत: सकलपंचेंद्रियाणामपि नरकप्राप्तिप्रसंगात् । नित्यनिगोदानामपि विद्यमानत्रसकर्मणां त्रसेषूत्पत्तिप्रसंगात् । नाशुभलेश्यानां सत्त्वं तत्रोत्पत्ते: कारणं मरणावस्थायामसंयतसम्यग्दृष्टे: षट् सु पृथिविषूत्पत्तिनिमित्ताशुभलेश्याभावात् । न नरकायुष: सत्त्वं तस्य तत्रोत्पत्ते: कारणं सम्यग्दर्शनासिना छिन्नषट्पृथिव्यायुष्कत्वात् । न च तच्छेदोऽसिद्ध: आर्षात्तत्सिद्धयुपलंभात् । तत: स्थितमेतत् न सम्यग्दृष्टि: षट्मु पृथिवीषूत्पद्यत इति। =प्रश्न–समयग्मिथ्यादृष्टि जीव की मरकर शेष छह पृथिवियों में भी उत्पत्ति नहीं होती है, क्योंकि सम्यग्मिथ्यात्वरूप परिणाम को प्राप्त हुए जीव का मरण नहीं होता है (देखें मरण - 3)। किंतु शेष (सासादन व असंयत सम्यग्दृष्टि) गुणस्थान वाले प्राणी (भी) मरकर वहाँ पर उत्पन्न नहीं होते, यह कहना नहीं बनता ? उत्तर–1. सासादन गुणस्थान वाले तो नरक में उत्पन्न ही नहीं होते हैं; क्योंकि, सासादन गुणस्थान वालों के नरकायु का बंध ही नहीं होता है (देखें प्रकृति बंध - 7)। 2. जिसने पहले नरकायु का बंध कर लिया है ऐसे जीव भी सासादन गुणस्थान को प्राप्त होकर नारकियों में उत्पन्न नहीं होते हैं। क्योंकि नरकायु का बंध करने वाले जीव का सासादन गुणस्थान में मरण ही नहीं होता है। 3. असंयत सम्यग्दृष्टि जीव भी द्वितीयादि पृथिवियों में उत्पन्न नहीं होते हैं; क्योंकि, सम्यग्दृष्टियों के शेष छह पृथिवियों में उत्पन्न होने के निमित्त नहीं पाये जाते हैं। 4. कर्मस्कंधों की बहुलता को उसके लिए वहाँ उत्पन्न होने का निमित्त नहीं कहा जा सकता; क्योंकि, क्षपित कर्मांशिकों की भी नरक में उत्पत्ति देखी जाती है। 5. कर्मस्कंधों की अल्पता भी उसके लिए वहाँ उत्पन्न होने का निमित्त नहीं है, क्योंकि, गुणित कर्मांशिकों की भी वहाँ उत्पत्ति देखी जाती है। 6. नरक गति नामकर्म का सत्त्व भी उसके लिए वहाँ उत्पत्ति का निमित्त नहीं है; क्योंकि नरक गति के सत्त्व के प्रति कोई विशेषता न होने से सभी पंचेंद्रिय जीवों की नरक गति की प्राप्ति का प्रसंग आ जायेगा। तथा नित्य निगोदिया जीवों के भी त्रसकर्म की सत्ता रहने के कारण उनकी त्रसों में उत्पत्ति होने लगेगी। 7. अशुभ लेश्या का सत्त्व भी उसके लिए वहाँ उत्पन्न होने का निमित्त नहीं कहा जा सकता; क्योंकि, मरण समय असंयत सम्यग्दृष्टि जीव के नीचे की छह पृथिवियों में उत्पत्ति की कारण रूप अशुभ लेश्याएँ नहीं पायी जातीं। 8. नरकायु का सत्त्व भी उसके लिए वहाँ उत्पत्ति का कारण नहीं है; क्योंकि, सम्यग्दर्शन रूपी खंग से नीचे की छह पृथिवी संबंधी आयु काट दी जाती है। और वह आयु का कटना असिद्ध भी नहीं है; क्योंकि, आगम से इसकी पुष्टि होती है। इसलिए यह सिद्ध हुआ कि नीचे की छह पृथिवियों में सम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न नहीं होता।
- ऊपर के गुणस्थान यहाँ क्यों नहीं होते
तिलोयपण्णत्ति/2/274-275 ताण य पच्चक्खाणवरणोदयसहिदसव्वजीवाणं। हिंसाणंदजुदाणं णाणाविहसंकिलेसपउराणं।274। देसविरदादिउवरिमदसगुणठाणाण हेदुभूदाओ। जाओ विसोधियाओ कइया वि ण ताओ जायंति।275। =अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से सहित, हिंसा में आनंद मानने वाले और नाना प्रकार के प्रचुर दु:खों से संयुक्त उन सब नारकी जीवों के देशविरत आदिक उपरितन दश गुणस्थानों के हेतुभूत जो विशुद्ध परिणाम हैं, वे कदाचित् भी नहीं होते हैं।274-275।
धवला 1/1,1,25/207/3 नोपरिमगुणानां तत्र संभवस्तेषां संयमासंयमसंयमपर्यायेण सह विरोधात् ।=इन चार गुणस्थानों (1-4 तक) के अतिरिक्त ऊपर के गुणस्थानों का नरक में सद्भाव नहीं है; क्योंकि, संयमासंयम, और संयम पर्याय के साथ नरकगति में उत्पत्ति होने का विरोध है।
- सदा अशुभ परिणामों से युक्त रहते हैं
- नरक लोक निर्देश
- नरक की सात पृथिवियों के नाम निर्देश
तत्त्वार्थसूत्र/3/1 रत्नशर्कराबालुकापंकधूमतमोमहातम:प्रभाभूमयो घनांबुवाताकाशप्रतिष्ठा: सप्ताधोऽध:।1। =रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तम:प्रभा, और महातम:प्रभा, ये सात भूमियाँ घनांबुवात अर्थात् घनोदधि वात और आकाश के सहारे स्थित हैं तथा क्रम से नीचे हैं। (तिलोयपण्णत्ति/1/152 ); (हरिवंशपुराण/4/43-45); (महापुराण/10/31); (त्रिलोकसार/144); (जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/113)।
तिलोयपण्णत्ति/1/153 घम्मावंसामेघाअंजणरिट्ठाणउब्भमघवीओ। माघविया इय ताणं पुढवीणं गोत्तणाभाणि।153। =इन पृथिवियों के अपर रूढि नाम क्रम से घर्मा, वंशा, मेघा, अंजना, अरिष्टा, मघवी और माघवी भी हैं।46। ( हरिवंशपुराण/4/46); ( महापुराण/10/32); (जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/111-112); (त्रिलोकसार/145)।
- अधोलोक सामान्य परिचय
तिलोयपण्णत्ति/2/9,21,24-25 खरपंकप्पबहुलाभागा रयणप्पहाए पुढवीए।9। सत्त चियभूमीओ णवदिसभाएण घणोवहि विलग्गा। अट्ठमभूमी दसदिसभागेसु घणोवहि छिवदि।24। पुव्वापरदिब्भाए वेत्तासणसंणिहाओ संठाओ। उत्तर दक्खिणदीहा अणादिणिहणा य पुढवीओ।25। तिलोयपण्णत्ति/1/164 सेढीए सत्तंसो हेट्ठिम लोयस्स होदि मुहवासो। भूमीवासो सेढीमेत्ताअवसाण उच्छेहो।164। =अधोलोक में सबसे पहले रत्नप्रभा पृथिवी है, उसके तीन भाग हैं–खरभाग, पंकभाग और अप्पबहुलभाग। (रत्नप्रभा के नीचे क्रम से शर्कराप्रभा आदि छ: पृथिवियाँ हैं।)।9। सातों पृथिवियों में ऊर्ध्वदिशा को छोड़ शेष नौ दिशाओं में घनोदधि वातवलय से लगी हुई हैं, परंतु आठवीं पृथिवी दशों-दिशाओं में ही घनोदधि वातवलय को छूती है।24। उपर्युक्त पृथिवियाँ पूर्व और पश्चिम दिशा के अंतराल में वेत्रासन के सदृश आकारवाली हैं। तथा उत्तर और दक्षिण में समान रूप से दीर्घ एवं अनादि निधन है।25। (राजवार्तिक/3/1/14/161/16); (हरिवंशपुराण/4/6,48); (त्रिलोकसार/144,146); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/106,115)। अधोलोक के मुख का विस्तार जगश्रेणी का सातवाँ भाग (1 राजू), भूमि का विस्तार जगश्रेणी प्रमाण (7 राजू) और अधोलोक के अंत तक ऊँचाई भी जग श्रेणी प्रमाण (7 राजू) ही है।164। (हरिवंशपुराण/4/9), (जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/108)
धवला 4/1,3,1/9/3 मंदरमूलादो हेट्ठा अधोलोगो। धवला 4/1,3,3/42/2 चत्तारि-तिण्णि-रज्जुबाहल्लजगपदरपमाणा अधउड्ढलोगा।=मंदराचल के मूल से नीचे का क्षेत्र अधोलोक है। चार राजू मोटा और जगत्प्रतरप्रयाण लंबा चौड़ा अधोलोक है।
- पटलों व बिलों का सामान्य परिचय
तिलोयपण्णत्ति/2/28,36 सत्तमखिदिबहुमज्झे बिलाणि सेसेसु अप्पबहुलं तं। उवरिं हेट्ठे जोयणसहस्समुज्झिय हवंति पडलकमे।28। इंदयसेढी बद्धा पइण्णया य हवंति तिवियप्पा। ते सव्वे णिरयबिला दारुण दुक्खाणं संजणणा।36। =सातवीं पृथिवी के तो ठीक मध्य भाग में ही नारकियों के बिल हैं। परंतु ऊपर अब्बहुलभाग पर्यंत शेष छह पृथिवियों में नीचे व ऊपर एक-एक हजार योजन छोड़कर पटलों के क्रम से नारकियों के बिल हैं।28। वे नारकियों के बिल, इंद्रक, श्रेणी बद्ध और प्रकीर्णक के भेद से तीन प्रकार के हैं। ये सब ही बिल नारकियों को भयानक दु:ख दिया करते हैं।36। ( राजवार्तिक/3/2/2/162/10), ( हरिवंशपुराण/4/71-72), ( त्रिलोकसार/150), ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/142)।
धवला 14/5,6,641/495/8 णिरयसेडिबाद्धणि णिरयाणि णाम। सेडिबद्धाणं मज्झिमणिरयावासा णिरइंदयाणि णाम। तत्थतणपइण्णया णिरयपत्थडाणि णाम। =नरक के श्रेणीबद्ध नरक कहलाते हैं, श्रेणीबद्धों के मध्य में जो नरकवास हैं वे नरकेंद्रक कहलाते हैं। तथा वहाँ के प्रकीर्णक नरक प्रस्तर कहलाते हैं।
तिलोयपण्णत्ति/2/95,104 संखेज्जमिंदयाणं रुं दं सेढिगदाण जोयणया। तं होदि असंखेज्जं पइण्णयाणुभयमिस्सं च।95। संखेज्जवासजुत्ते णिरय-विले होंति णारया जीवा। संखेज्जा णियमेणं इदरम्मि तहा असंखेज्जा।104। =इंद्रक बिलों का विस्तार संख्यात योजन, श्रेणीबद्ध बिलों का असंख्यात योजन और प्रकीर्णक बिलों का विस्तार उभयमिश्र हैं, अर्थात् कुछ का संख्यात और कुछ का असंख्यात योजन है।95। संख्यात योजनवाले नरक बिलों में नियम से संख्यात नारकी जीव तथा असंख्यात योजन विस्तार वाले बिलों में असंख्यात ही नारकी जीव होते हैं।104। (राजवार्तिक/3/2/2/163/11); ( हरिवंशपुराण/4/169-170); (त्रिलोकसार/167-168)।
त्रिलोकसार/177 वज्जघणभित्तिभागा वट्टतिचउरंसबहुविहायारा। णिरया सयावि भरिया सव्विदियदुक्खदाईहिं। =वज्र सदृश भीत से युक्त और गोल, तिकोने अथवा चौकोर आदि विविध आकार वाले, वे नरक बिल, सब इंद्रियों को दु:खदायक, ऐसी सामग्री से पूर्ण हैं।
- बिलों में स्थित जन्मभूमियों का परिचय
तिलोयपण्णत्ति/2/302-312 का सारार्थ–- इंद्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक बिलों के ऊपर अनेक प्रकार की तलवारों से युक्त, अर्धवृत्त और अधोमुख वाली जन्मभूमियाँ हैं। वे जन्मभूमियाँ धर्मा (प्रथम) को आदि लेकर तीसरी पृथिवी तक उष्ट्रिका, कोथली, कुंभी, मुद्गलिका, मुद्गर, मृदंग, और नालि के सदृश हैं।302-303। चतुर्थ व पंचम पृथिवी में जन्मभूमियों का आकार गाय, हाथी, घोड़ा, भस्त्रा, अब्जपुट, अंबरोष और द्रोणी जैसा है।304। छठी और सातवीं पृथिवी की जन्मभूमियाँ झालर (वाद्यविशेष), भल्लक (पात्रविशेष), पात्री, केयूर, मसूर, शानक, किलिंज (तृण की बनी बड़ी टोकरी), ध्वज, द्वीपी, चक्रवाक, शृगाल, अज, खर, करभ, संदोलक (झूला), और रीछ के सदृश हैं। ये जन्मभूमियाँ दुष्प्रेक्ष्य एवं महाभयानक हैं।305-306। उपर्युक्त नारकियों की जन्मभूमियाँ अंत में करोंत के सदृश, चारों तरफ़ से गोल, मज्जवमयी (?) और भंयकर हैं।307। ( राजवार्तिक/3/2/2/163/19 ); ( हरिवंशपुराण/4/347-349 ); ( त्रिलोकसार/180 )।
- उपर्युक्त जन्मभूमियों का विस्तार जघन्य रूप से 5 कोस, उत्कृष्ट रूप से 400 कोस, और मध्यम रूप से 10-15 कोस है।309। जन्मभूमियों की ऊँचाई अपने-अपने विस्तार की अपेक्षा पाँच गुणी है।310।( हरिवंशपुराण/4/351 )। (और भी देखें नीचे हरिवंशपुराण व त्रिलोकसार )।
- ये जन्मभूमियाँ 7,3,2,1 और 5 कोणवाली हैं।310। जन्मभूमियों में 1,2,3,5 और 7 द्वार-कोण और इतने ही दरवाजे होते हैं। इस प्रकार की व्यवस्था केवल श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक बिलों में ही है।311। इंद्रक बिलों में ये जन्मभूमियाँ तीन द्वार और तीन कोनों से युक्त हैं। (हरिवंशपुराण/4/352)
हरिवंशपुराण/4/350 एकद्वित्रिकगव्यूतियोजनव्याससंगता: शतयोजनविस्तीर्णास्तेषूत्कृष्टास्तु वर्णिता:।350। = वे जन्मस्थान एक कोश, दो कोश, तीन कोश और एक योजन विस्तार से सहित हैं। उनमें जो उत्कृष्ट स्थान हैं, वे सौ योजन तक चौड़े कहे गये हैं।350।
त्रिलोकसार/180 इगिवितिकोसो वासो जोयणमिव जोयणं सयं जेट्ठं। उट्ठादीणं बहलं सगवित्थारेहिं पंचगुणं।180।=एक कोश, दो कोश, तीन कोश, एक योजन, दो योजन, तीन योजन और 100 योजन, इतना घर्मांदि सात पृथिवियों में स्थित उष्ट्रादि आकार वाले उपपाद स्थानों की क्रम से चौड़ाई का प्रमाण है।180। और बाहल्य अपने विस्तार से पाँच गुणा है।
- नरक भूमियों में दुर्गंधि निर्देश
- बिलों में दुर्गंधि
तिलोयपण्णत्ति/2/34 अजगजमहिसतुरंगमखरोट्ठमर्ज्जारअहिणरादीणं। कुधिदाणं गंधेहिं णिरयबिला ते अणंतगुणा।34। =बकरी, हाथी, भैंस, घोड़ा, गधा, ऊँट, बिल्ली, सर्प और मनुष्यादिक के सड़े हुए शरीरों के गंध की अपेक्षा वे नारकियों के बिल अनंतगुणी दुर्गंध से युक्त होते हैं।34। ( तिलोयपण्णत्ति/2/308 ); ( त्रिलोकसार/178 )।
- आहार या मिट्टी की दुर्गंधि
तिलोयपण्णत्ति/2/344-346 अजगजमहिसतुरंगमखरोट्ठमर्ज्जारमेसपहुदीणं। कुथिताणं गंधादो अणंतगंधो हुवेदि आहारो।344। घम्माए आहारो कोसस्सब्भंतरम्मि ठिदजीवे। इह मारदि गंधेणं सेसे कोसद्धवडि्ढया सत्ति।346। =नरकों में बकरी, हाथी, भैंस, घोड़ा, गधा, ऊँट, बिल्ली और मैढ़े आदि के सड़े हुए शरीर की गंध से अनंतगुणी दुर्गंध वाली (मिट्टी का) आहार होता है।344। धर्मा पृथिवी में जो आहार (मिट्टी) है, उसकी गंध से यहाँ पर एक कोस के भीतर स्थित जीव मर सकते हैं। इसके आगे शेष द्वितीयादि पृथिवियों में इसकी घातक शक्ति, आधा-आधा कोस और भी बढ़ती गयी है।346। (हरिवंशपुराण/4/342); (त्रिलोकसार/192-193)।
- नारकियों के शरीर की दुर्गंधि
महापुराण/10/100 श्वमार्जारखरोष्ट्रादिकुणपानां समाहृतौ। यद्वैगंध्यं तदप्येषां देहगंधस्य नोपमा।100।=कुत्ता, बिलाव, गधा, ऊँट, आदि जीवों के मृत कलेवरों को इकट्ठा करने से जो दुर्गंध उत्पन्न होती है, वह भी इन नारकियों के शरीर की दुर्गंध की बराबरी नहीं कर सकती।100।
- बिलों में दुर्गंधि
- नरक बिलों में अंधकार व भयंकरता
तिलोयपण्णत्ति/2/ गाथा संख्या कक्खकवच्छुरोदो खइरिगालातितिक्खसूईए। कुंजरचिक्कारादो णिरयाबिला दारुणा तमसहावा।35। होरा तिमिरजुत्ता।102। दुक्खणिज्जामहाघोरा।306। णारयजम्मणभूमीओ भीमा य।307। णिच्चंधयारबहुला कत्थुरिहंतो अणंतगुणो।312।=स्वभावत: अंधकार से परिपूर्ण ये नारकियों के बिल कक्षक (क्रकच), कृपाण, छुरिका, खदिर (खैर) की आग, अति तीक्ष्ण सूई और हाथियों की चिक्कार से अत्यंत भयानक हैं।35। ये सब बिल अहोरात्र अंधकार से व्याप्त हैं।102। उक्त सभी जन्मभूमियाँ दुष्प्रेक्ष एवं महा भयानक हैं और भयंकर हैं।306-307। ये सभी जन्मभूमियाँ नित्य ही कस्तूरी से अनंतगुणित काले अंधकार से व्याप्त हैं।312।
त्रिलोकसार/186-187,191 वेदालगिरि भीमा जंतसुयक्कडगुहा य पडिमाओ। लोहणिहग्गिकणड्ढा परसूछुरिगासिपत्तवणं।186। कूडासामलिरुक्खा वइदरणिणदीउ खारजलपुण्णा। पुहरुहिरा दुगंधा हदा य किमिकोडिकुलकलिदा।187। विच्छियसहस्सवेयणसमधियदुक्खं धरित्तिफासादो।191। =वेताल सदृश आकृति वाले महा भयानक तो वहाँ पर्वत हैं और सैकड़ों दु:खदायक यंत्रों से उत्कट ऐसी गुफाएँ हैं। प्रतिमाएँ अर्थात् स्त्री की आकृतियाँ व पुतलियाँ अग्निकणिका से संयुक्त लोहमयी हैं। असिपत्र वन है, सो फरसी, छुरी, खड्ग इत्यादि शस्त्र समान यंत्रों कर युक्त है।186। वहाँ झूठे (मायामयी) शाल्मली वृक्ष हैं जो महादु:खदायक हैं। वेतरणी नामा नदी है सो खारा जलकर संपूर्ण भरी है। घिनावने रुधिर वाले महा दुर्गंधित द्रह हैं जो कोड़ों, कृमिकुल से व्याप्त हैं।187। हज़ारों बिच्छू काटने से जैसी यहाँ वेदना होती है उससे भी अधिक वेदना वहाँ की भूमि के स्पर्श मात्र से होती है।191। - नरकों में शीत-उष्णता का निर्देश
- पृथिवियों में शीत-उष्ण विभाग
तिलोयपण्णत्ति/2/29-31 पढमादिबितिचउक्के पंचमपुढवाए तिचउक्कभागंतं। अदिउण्हा णिरयबिला तट्ठियजीवाण तिव्वदाधकरा।29। पंचमिखिदिए तुरिमे भागे छट्टीय सत्तमे महिए। अदिसीदा णिरयबिला तट्ठिदजीवाण घोरसीदयरा।30। वासीदिं लक्खाणं उण्हबिला पंचवीसिदिसहस्सा। पणहत्तारिं सहस्सा अदिसीदबिलाणि इगिलक्खं।31। =पहली पृथिवी से लेकर पाँचवीं पृथिवी के तीन चौथाई भाग में स्थित नारकियों के बिल, अत्यंत उष्ण होने से वहाँ रहने वाले जीवों को तीव्र गर्मी की पीड़ा पँहुचाने वाले हैं।29। पाँचवीं पृथिवी के अवशिष्ट चतुर्थ भाग में तथा छठीं, सातवीं पृथिवी में स्थित नारकियों के बिल, अत्यंत शीत होने से वहाँ रहने वाले जीवों को भयानक शीत की वेदना करने वाले हैं।30। नारकियों के उपर्युक्त चौरासी लाख बिलों में से बयासी लाख पच्चीस हजार बिल उष्ण और एक लाख पचहत्तर हजार बिल अत्यंत शीत हैं।31। (धवला 7/2,7,78/ गाथा 1/405), (हरिवंशपुराण/4/346), ( महापुराण/10/90), (त्रिलोकसार/152), (ज्ञानार्णव/36/11)। - नरकों में शीत-उष्ण की तीव्रता
तिलोयपण्णत्ति/2/32-33 मेरुसमलोहपिंडं सीदं उण्हे बिलम्मि पक्खित्तं। ण लहदि तलप्पदेसं विलीयदे मयणखंडं व।32। मेरुसमलोहपिंडं उण्हं सीदे बिलम्मि पक्खित्तं। ण लहदि तलप्पदेसं विलीयदे लवणखंडं व।33। =यदि उष्ण बिल में मेरु के बराबर लोहे का शीतल पिंड डाल दिया जाये, तो वह तलप्रदेश तक न पँहुचकर बीच में ही मैन (मोम) के टुकड़े के समान पिघलकर नष्ट हो जायेगा।32। इसी प्रकार यदि मेरु पर्वत के बराबर लोहे का उष्ण पिंड शीत बिल में डाल दिया जाय तो वह भी तलप्रदेश तक नहीं पँहुचकर बीच में ही नमक के टुकड़े के समान विलीन हो जायेगा।33। (भगवती आराधना/1563-1564), (ज्ञानार्णव/36/12-13)।
- पृथिवियों में शीत-उष्ण विभाग
- सातों पृथिवियों की मोटाई व बिलों का प्रमाण
प्रत्येक कोष्ठक के अंकानुक्रम से प्रमाण– नं.1-2 (देखें नरक - 5.1)।
नं.3–(तिलोयपण्णत्ति/2/9,22), ( राजवार्तिक/3/1/8/160/19), (हरिवंशपुराण/4/48,57-58), (त्रिलोकसार/146,147), (जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/114,121-122)। नं.4–(तिलोयपण्णत्ति/2/37), (राजवार्तिक/3/2/2/162/11), (हरिवंशपुराण/4/75), (त्रिलोकसार/153), (जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/145)।
नं.5,6––(तिलोयपण्णत्ति/2/77-79,82), (राजवार्तिक/3/2/2/162/25), (हरिवंशपुराण/4/104,117,128,137,144,149,150), (त्रिलोकसार/163-166)। नं.7–( तिलोयपण्णत्ति/2/26-27), (राजवार्तिक/3/2/2/162/5), (हरिवंशपुराण/4/73-74), (महापुराण/10/91), ( त्रिलोकसार/151), ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/143-144)।
नं.
नाम 1
अपर नाम 2
मोटाई 3
बिलों का प्रमाण
4 इंद्रक
श्रेणीबद्ध 5
प्रकीर्णक 6
कुल बिल 7
योजन
1,80,0001
रत्नप्रभा
धर्मा
13
4420
2995567
30 लाख
खरभाग
16,000
पंक भाग
84,000
अब्बहुल
80,000
2
शर्करा
वंशा
32,000
11
2684
2479305
25 लाख
3
बालुका
मेघा
28,000
9
1476
1498515
15 लाख
4
पंक प्र.
अंजना
24,000
7
700
999293
10 लाख
5
धूम प्र.
अरिष्टा
20,000
5
260
299735
3 लाख
6
तम प्र.
मघवी
16,000
3
60
99932
99995
7
महातम
माघवी
8,000
1
4
×
5
49
9604
8390347
84 लाख
- सातों पृथिवियों के बिलों का विस्तार
देखें नरक - 5.4 (सर्व इंद्रक बिल संख्यात योजन विस्तार वाले हैं। सर्व श्रेणीबद्ध असंख्यात योजन विस्तार वाले हैं। प्रकीर्णक बिल संख्यात योजन विस्तार वाले भी हैं और असंख्यात योजन विस्तार वाले भी।
कोष्ठक नं.1=(देखें ऊपर कोष्ठक नं - 7)। कोष्ठक नं.2-5–(तिलोयपण्णत्ति/2/96-99,103), (राजवार्तिक/3/2/2/163/13), ( हरिवंशपुराण/4/161-170), (त्रिलोकसार/167-168)।
कोष्ठक नं.6-8–(तिलोयपण्णत्ति/2/157 ), (राजवार्तिक/3/2/2/163/15), (हरिवंशपुराण/4/218-224), ( त्रिलोकसार/170-171)।
पृथिवियों का नं.कुल बिल
विस्तार की अपेक्षा बिलों का विभाग
बिलों का बाहुल्य या गहराई
संख्यात योजन
असंख्यात योजन
इंद्रक
प्रकीर्णक
श्रेणीबद्ध
प्रकीर्णक
इंद्रक
श्रेणीबद्ध
प्रकीर्णक
1
2
3
4
5
6
7
8
कोस
कोस
कोस
1
30 लाख
13
599987
4420
2395580
1
4/3
7/3
2
25 लाख
11
499989
2684
1997316
2
3
15 लाख
9
299991
1476
1198524
2
4
10 लाख
7
199993
700
799300
5
3 लाख
5
59995
260
239740
3
4
7
6
99995
3
19996
60
79936
7
5
1
×
4
×
4
84 लाख
49
1679951
9604
6710396
- बिलों में परस्पर अंतराल
- तिर्यक् अंतराल
( तिलोयपण्णत्ति/2/100); (हरिवंशपुराण/4/354); (त्रिलोकसार/175-176)।
- तिर्यक् अंतराल
नं.बिल निर्देश
जघन्य
उत्कृष्ट
योजन
योजन
1
संख्यात योजनवाले प्रकीर्णक
3 योजन
2
असंख्यात योजनवाले श्रेणीबद्ध व प्र.
7000 यो.
असं.यो.
- स्वस्थान ऊर्ध्व अंतराल
(प्रत्येक पृथिवी के स्व-स्व पटलों के मध्य बिलों का अंतराल)।
(तिलोयपण्णत्ति/2/167-194); (हरिवंशपुराण/4/225-248); (त्रिलोकसार/172)।
नं.
पृथिवी का नाम
स्वस्थान अंतराल
इंद्रकों का
श्रेणीबद्धों का
प्रकीर्णकों का
1
रत्नप्रभा
6499 यो.2File:JSKHtmlSample clip image002 0053.gif को
6499 यो.2File:JSKHtmlSample clip image004 0015.gif को
6499 यो. 1File:JSKHtmlSample clip image006 0015.gif को
2
शर्कराप्रभा
2999 यो.4700ध.
2999 यो.3600ध.
2999 यो. 3000ध.
3
बालुकाप्रभा
3249 यो.3500ध.
3249 यो.2000ध.
3248 यो. 5500ध.
4
पंकप्रभा
3665 यो.7500ध.
3665 यो.5555File:JSKHtmlSample clip image008 0016.gifध.
3664 यो.7722File:JSKHtmlSample clip image010 0012.gifध.
5
धूमप्रभा
4449 यो.500ध.
4498 यो.6000ध.
4497 यो.6500ध.
6
तम:प्रभा
6998 यो.5500ध.
6998 यो.2000ध.
6996 यो.7500ध.
7
महातम:प्रभा
बिलों के ऊपर तले पृथिवीतल की मोटाई
3999 यो 2File:JSKHtmlSample clip image004 0016.gif को
3999 यो File:JSKHtmlSample clip image012 0023.gif को
×
- परस्थान ऊर्ध्व अंतराल
(ऊपर की पृथिवी के अंतिम पटल व नीचे की पृथिवी के प्रथम पटल के बिलों के मध्य अंतराल), (राजवार्तिक/3/1/8/160/28); (तिलोयपण्णत्ति/2/ गाथा संख्या); (त्रिलोकसार/173-174)।
नं.
तिलोयपण्णत्ति/ गा.
ऊपर नीचे की पृथिवियों के नाम
इंद्रक
श्रेणीबद्ध
प्रकीर्णक
1
168
रत्नप्रभा-शर्करा
20,9000यो.कम 1 राजू
इंद्रकोंवत् (तिलोयपण्णत्ति/2/187-188)
इंद्रकोंवत् ( तिलोयपण्णत्ति/2/194)
2
170
शर्करा-बालुका
26000 यो.कम 1 राजू
3
172
बालुका-पंक
22000 यो.कम 1 राजू
4
174
पंक-धूम
18000 यो.कम 1 राजू
5
176
धूम-तम
14000 यो.कम 1 राजू
6
178
तम-महातम
3000 यो.कम 1 राजू
7
×
महातम-
×
- सातों पृथिवियों में पटलों के नाम व उनमें स्थित बिलों का परिचय
देखें नरक - 5.8.3 सातों पृथिवियाँ लगभग एक राजू के अंतराल से नीचे नीचे स्थित हैं।
देखें नरक - 5.3 प्रत्येक पृथिवी नरक प्रस्तर या पटल है, जो एक-एक हजार योजन अंतराल से ऊपर-नीचे स्थित है।
राजवार्तिक/3/2/2/162/11 तत्र त्रयोदश नरकप्रस्तारा: त्रयोदशैव इंद्रकनरकाणि सीमंतकनिरय...। =तहाँ (रत्नप्रभा पृथिवी के अब्बहुल भाग में तेरह प्रस्तर हैं और तेरह ही नरक हैं, जिनके नाम सीमंतक निरय आदि हैं।) अर्थात् पटलों के भी वही नाम हैं जो कि इंद्रकों के हैं। इन्हीं पटलों व इंद्रकों के नाम विस्तार आदि का विशेष परिचय आगे कोष्ठकों में दिया गया है।
कोष्ठक नं.1-4–(तिलोयपण्णत्ति/2/4/45); (राजवार्तिक/3/2/2/162/11); (हरिवंशपुराण/4/76-85); ( त्रिलोकसार/154-159); (जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/146-155)।
कोष्ठक नं.5-8––(तिलोयपण्णत्ति/2/38,55-58); (हरिवंशपुराण/4/86-150); ( त्रिलोकसार/163-165)।
कोष्ठक नं.9––(तिलोयपण्णत्ति/2/108-156); (हरिवंशपुराण/4/171-217), (त्रिलोकसार/169)।
नं.
प्रत्येक पृथिवी के पटलों या इंद्रकों के नाम
प्रत्येक पटल में इंद्रक
प्रत्येक पटल की दिशा व विदिशा में श्रेणीबद्ध बिल
प्रत्येक इंद्रक का विस्तार
तिलोयपण्णत्ति
राजवार्तिक
हरिवंशपुराण
त्रिलोकसार
दिशा
विदिशा
कुल योग
1
2
3
4
5
6
7
8
9
योजन
1
रत्नप्रभा पृथिवी
13
4420
1
सीमंतक
सीमंतक
सीमंतक
सीमंतक
1
49
48
388
45 लाख
2
निरय
निरय
नारक
निरय
1
48
47
380
3
रौरुक
रौरुक
रौरुक
रौरव
1
47
46
372
4
भ्रांत
भ्रांत
भ्रांत
भ्रांत
1
46
45
364
4225000
5
उद्भ्रांत
उद्भ्रांत
उद्भ्रांत
उद्भ्रांत
1
45
44
356
6
संभ्रांत
संभ्रांत
संभ्रांत
संभ्रांत
1
44
43
348
7
असंभ्रांत
असंभ्रांत
असंभ्रांत
असंभ्रांत
1
43
42
340
3950000
8
विभ्रांत
विभ्रांत
विभ्रांत
विभ्रांत
1
42
41
332
9
तप्त
तप्त
त्रस्त
त्रस्त
1
41
40
324
10
त्रसित
त्रस्त
त्रसित
त्रसित
1
40
39
316
3675000
11
वक्रांत
व्युत्क्रांत
वक्रांत
वक्रांत
1
39
38
308
12
अवक्रांत
अवक्रांत
अवक्रांत
अवक्रांत
1
38
37
300
13
विक्रांत
विक्रांत
विक्रांत
विक्रांत
1
37
36
292
3400000
2
शर्करा प्रभा
11
2684
1
स्तनक
स्तनक
तरक
तरक
1
36
35
284
2
तनक
संस्तनक
स्तनक
स्तनक
1
35
34
276
3
मनक
वनक
मनक
वनक
1
34
33
268
3125000
4
वनक
मनक
वनक
मनक
1
33
32
260
5
घात
घाट
घाट
खडा
1
32
31
252
6
संघात
संघाट
संघाट
खडिका
1
31
30
244
2850000
7
जिह्वा
जिह्व
जिह्वा
जिह्वा
1
30
29
236
8
जिह्वक
उज्जिह्वि
जिह्वक
जिह्विक
1
29
28
228
9
लोल
कालोल
लोल
लौकिक
1
28
27
220
2575000
10
लोलक
लोलुक
लोलुप
लोलवत्स
1
27
26
212
11
स्तन-लोलुक
स्तन-लोलुक
स्तन-लोलुक
स्तन-लोलुक
1
26
25
204
3
बालुका प्रभा
9
1476
1
तप्त
तप्त
तप्त
तप्त
1
25
24
196
2300000
2
शीत
त्रस्त
तपित
तपित
1
24
23
188
3
तपन
तपन
तपन
तपन
1
23
22
180
4
तापन
आतपन
तापन
तापन
1
22
21
172
2025000
5
निदाघ
निदाघ
निदाघ
निदाघ
1
21
20
164
6
प्रज्वलित
प्रज्वलित
प्रज्वलित
प्रज्वलित
1
20
19
156
7
उज्जवलित
उज्जवलित
उज्जवलित
उज्जवलित
1
19
18
148
1750000
8
संज्वलित
संज्वलित
संज्वलित
संज्वलित
1
18
17
140
9
संप्रज्वलित
संप्रज्वलित
संप्रज्वलित
संप्रज्वलित
1
17
16
132
4
पंकप्रभा―
7
700
1
आर
आर
आर
आरा
1
16
15
124
1475000
2
मार
मार
तार
मारा
1
15
14
116
3
तार
तार
मार
तारा
1
14
13
108
4
तत्त्व
वर्चस्क
वर्चस्क
चर्चा
1
13
12
100
1200000
5
तमक
वैमनस्क
तमक
तमकी
1
12
11
92
6
वाद
खड
खड
घाटा
1
11
10
84
7
खडखड
अखड
खडखड
घटा
1
10
9
76
925000
5
धूमप्रभा―
5
260
1
तमक
तमो
तम
तमका
1
9
8
68
2
भ्रमक
भ्रम
भ्रम
भ्रमका
1
8
7
60
3
झषक
झष
झष
झषका
1
7
6
52
650000
4
बाविल
अंध
अंत
अंधेंद्रा
1
6
5
44
5
तिमिश्र
तमिस्र
तमिस्र
तिमिश्रका
1
5
4
36
6
तम:प्रभा
3
60
1
हिम
हिम
हिम
हिम
1
4
3
28
375000
2
वर्दल
वर्दल
वर्दल
वार्दृल
1
3
2
20
3
लल्लक
लल्लक
लल्लक
लल्लक
1
2
1
12
7
महातम:प्रभा
1
4
1
अवधिस्थान
अप्रतिष्ठान
अप्रतिष्ठित
अवधिस्थान
1
1
×
4
100,000
पुराणकोष से
चार गतियों में एक गति । यहाँ निमिष मात्र के लिए भी सुख नहीं मिलता । ये सात है,, उनके क्रमश: नाम ये हैं― रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमप्रभा और महातमप्रभा । ये तीनों वात-वलयों पूर अधिष्ठित तथा क्रम से नीच-नीचे स्थित है । इनके क्रमश: रूढ़ नाम हैं― धर्मा, वंशा, मेघा, अंजना, अरिष्टा, मघवी और माघवी । पहली पृथिवी में नारकी जीव जन्मकाल में सात योजन सवा तीन कोस ऊपर आकाश में उछलकर पुन: नीचे गिरते हैं । अन्य छ: पृथिवियों में उछलने का प्रमाण क्रम से उत्तरोत्तर दूना होता जाता है । उत्पन्न होते समय यहाँ जीवों का मुँह नीचे रहा है । अंतर्मुहूर्त में ही दुर्गंधित, घृणित, बुरी आकृति वाले शरीर की रचना पूर्ण हो जाती है । शरीर-रचना पूर्ण होते ही भूमि में गड़े हुए तोड़ा हथियारों पर ऊपर से नारकी जीव गिरते हैं और संतप्त भूमि पर भाड़ में डले तिलों के समान पहले तो उछलते हैं और फिर वहाँ जा गिरते हैं । तीसरी पृथिवी तक असुरकुमार देव नारकियों को परस्पर लड़ाते हैं । नारकी स्वयं भी पूर्व वैरवश लड़ते हैं । खंड-खंड होने पर भी पारे के समान यहाँ नारकियों के शरीर के टुकड़ों का पुन: समूह बन जाता है । वे एक दूसरे के द्वारा दिये हुए शारीरिक एवं मानसिक दु:ख सहते रहते हैं । खारा, गरम, तीक्ष्ण वैतरणी नदी का जल पीते हैं और दुर्गंध युक्त मिट्टी का आहार करते हैं । यहाँ गीध वज्रमय चोंच से और सुना कुत्ते नाखूनों से नारकियों के शरीर भेदते हैं । उन्हें कोल्हू में पेला जाता है कड़ाही में पकाया जाता है, ताँबा आदि धातुएँ पिलायी जाती है, पूर्व जन्म में रहे मास-भक्षियों को उनका मास काटकर उन्हें ही खिलाया जाता है और तपे हुए गर्म लौह गोले उन्हें निगलवाये जाते हैं । पूर्व जन्म में व्यभिचारी रहे जीवों को अग्नि से तप्त पुतलियों का आलिंगन कराया जाता है । यहाँ कटीले सेमर के वृक्षों पर ऊपर-नीचे की ओर घसीटा जाता है और अग्नि-शय्या पर बुलाया जाता है । गर्मी से संतप्त होने पर छाया की कामना से वन में पहुँचते ही असिपत्रों से उनके शरीर विदीर्ण हो जाते हैं । पर्वत से नीचे की ओर मुँह कर पटका जाता है और घावों पर खारा पानी सींचा जाता है । तीसरी पृथिवी तक असुरकुमार देव मेढा बनाकर परस्पर लड़ाते हैं और उन्हें लौहे के आसनों पर बैठाते हैं । आदि की चार भूमियों मे उष्ण वेदना, पाँचवी पृथिवी में उष्ण और शीत दोनों तथा छठी और सातवीं भूमि में शीत वेदना होती है । सातों पृथिवियों में क्रमश: तीस लाख, पच्चीस लाख, पंद्रह लाख, दस लाख, तीन लाख, पाँच कम एक लाख और पाँच बिल है । इन नरकों में क्रम से एक सागर, तीन सागर, सात सागर, दस सागर, सत्रह सागर, बाईस सागर और तैंतीस सागर उत्कृष्ट आयु है । पहली पृथिवी में नारकियों के शरीर की ऊंचाई सात धनुष तीन हाथ छ: अंगुल प्रमाण तथा द्वितीयादि पृथिवियों में क्रम-क्रम से दूनी होती गयी है । नारकी विकलांग, हुंडक संस्थान, नपुंसक, दुर्गंधित, काले, कठोर स्पर्श वाले, दुर्भग और कठोर स्वर वाले होते हैं । इनके शरीर में कड़वी तूंबी और कांजीर के समान रस उत्पन्न होता है । एक नारकी एक समय में एक ही आकार बना सकता है । आकार भी विकृत, घृणा का स्थान और कुरूप ही बना सकता है । इन्हें विभंगावधिज्ञान होता है । यहाँ हिंसक, मृषावादी, चोर, परस्त्रीरत, मद्यपायी, मिथ्यादृष्टि, क्रूर, रौद्रध्यानी, निर्दयी, वह्वारंभी, धर्मद्रोही, अधर्मपरिपोषक, साधुनिंदक, साधुओं पर अकारण क्रोधी, अतिशय पापी, मधु-मांसभक्षी, हिंसकपशुपोषी, मधुमांसभक्षियों के प्रशंसक, क्रूर जलचर-थलचर, सर्प, सरीसृप, पापिनी स्त्रियां और क्रूर पक्षी जन्म लेते हैं । असैनी पंचेंद्रिय जीव प्रथम पृथिवी तक, सरीसृप-दूसरी पृथिवी तक, पक्षी तीसरी पृथ्वी तक, सर्प चौथी पृथिवी तक, सिंह पाँचवी पृथिवी तक, स्त्रियाँ छठी पृथिवी तक और पापी मनुष्य तथा मच्छ सातवीं पृथिवी तक जाते हैं । महापुराण 10.22-65, 9 0-103, पद्मपुराण - 2.162,पद्मपुराण - 2.166, 6.306-311, 14.22-23, 123.5-12, हरिवंशपुराण - 4.43-46,हरिवंशपुराण - 4.355-366, वीरवर्द्धमान चरित्र 17.65-72
(2) रावण का एक योद्धा । पद्मपुराण - 66.25
(3) धर्मा पृथिवी क तेरह इंद्र के बिलों में दूसरा इंद्रक दिल । हरिवंशपुराण - 4.76 देखें धर्मा
- नरक की सात पृथिवियों के नाम निर्देश