पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 143 - समय-व्याख्या: Difference between revisions
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Latest revision as of 13:26, 30 June 2023
जो संवरेण जुत्तो अप्पट्ठपसाहगो हि अप्पाणं । (143)
मुणिदूण झादि णियदं णाणं सो संधुणोदि कम्मरयं ॥153॥
अर्थ:
आत्मार्थ का प्रसाधक, संवर से युक्त जो (जीव) वास्तव में आत्मा को जानकर नियत ज्ञान का ध्यान करता है, वह कर्मरज की निर्जरा करता है ।
समय-व्याख्या:
मुख्यनिर्जराकारणोपन्यासोऽयम् ।
यो हि संवरेण शुभाशुभपरिणामपरमनिरोधेन युक्त : परिज्ञातवस्तुस्वरूपः पर-प्रयोजनेभ्यो व्यावृत्तबुद्धिः केवलं स्वप्रयोजनसाधनोद्यतमनाः आत्मानं स्वोपलम्भेनोपलभ्य गुणगुणिनोर्वस्तुत्वेनाभेदात्तदेव ज्ञानं स्वं स्वेनाविचलितमनास्सञ्चेतयते स खलु नितान्तनिस्स्नेहः प्रहीणस्नेहाभ्यङ्गपरिष्वङ्गशुद्धस्फटिकस्तम्भवत् पूर्वोपात्तं कर्मरजः संधुनोति । एतेन निर्जरामुख्यत्वे हेतुत्वं ध्यानस्य द्योतितमिति ॥१४३॥
समय-व्याख्या हिंदी :
यह, निर्जरा के मुख्य कारण का कथन है ।
संवर से अर्थात् शुभाशुभ परिणाम के परम निरोध से युक्त ऐसा जो जीव, वस्तु स्वरूप को (हेय-उपादेय तत्त्व को) बराबर जानता हुआ पर-प्रयोजन से जिसकी बुद्धि १व्यावृत्त हुई है और केवल स्व-प्रयोजन साधने में जिसका २मन ३उद्यत हुआ है, ऐसा वर्तता हुआ, आत्मा को स्वोपलब्धि से उपलब्ध करके (अपने को स्वानुभव द्वारा अनुभव करके), गुण-गुणी का वस्तु-रूप से अभेद होने के कारण उसी ४ज्ञान को, स्व को स्व द्वारा अविचल-परिणति वाला होकर संचेतता है, वह जीव वास्तव में अत्यंत ५निःस्नेह वर्तता हुआ, जिसको ६स्नेह के लेप का संग प्रक्षीण हुआ है, ऐसे शुद्ध स्फ़टिक के स्तंभ की भाँति, पूर्वोपार्जित कर्म-रज को खिरा देती है ।
इससे (इस गाथा से) ऐसा दर्शाया कि निर्जरा का मुख्य हेतु ७ध्यान है ॥१४३॥
१व्यावृत्त होना= निर्वर्तना, निवृत्त होना, विमुख होना ।
२मन=मति, बुद्धि, भाव, परिणाम ।
३उद्यत होना= तत्पर होना, लगना, उद्यमवंत होना, मुडना, ढलना ।
४गुणी और गुण में वस्तु-अपेक्षा से अभेद है इसलिये आत्मा कहो या ज्ञान कहो- दोनों एक ही हैं। ऊपर जिसका 'आत्मा' शब्द से कथन किया था उसी का यहाँ 'ज्ञान' शब्द से कथन किया है । उस ज्ञान में-निजात्मा में-निजात्मा द्वारा निश्चल परिणति करके उसका संचेतन-संवेदन-अनुभवन करना सो ध्यान है ।
५निःस्नेह= स्नेहरहित, मोहरागद्वेष रहित ।
६स्नेह= तेल, चिकना पदार्थ, स्निग्धता, चिकनापन ।
७यह ध्यान शुद्धभाव रूप है