नव नारायण निर्देश
From जैनकोष
नव नारायण निर्देश
१. पूर्व भव परिचय
नव नारायण -- पूर्व भव परिचय | ||||||
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क्रम | १. नाम | २. द्वितीय पूर्व भव | ३. प्रथम पूर्व भव | |||
१. ति.प./४/१४१२,५१८ २. त्रि.सा./८२५ ३. प.पु./२०/२२७ टिप्पणी ४. ह.पु./६०/२८८-२८९ ५. म.पु./सर्ग/श्लो. |
१. प.पु./२०/२०६-२१७ २. म.पु./पूर्ववत् नीचे वाले नाम प.पु. में से दिये गये हैं। म.पु. के नामों में कुछ अन्तर है। |
१. प.पु./२०/२१८-२२० २. म.पु./पूर्ववत् |
||||
नाम | नाम | नगर | दीक्षा गुरु | स्वर्ग | ||
१ | ५७/८३-८५ | त्रिपृष्ठ | विश्वनन्दी | हस्तिनापुर | सम्भूत | महाशुक्र |
२ | ५८/८४ | द्विपृष्ठ | पर्वत | अयोध्या | सुभद्र | प्राणत |
३ | ५९/८५-८६ | स्वयंभू | धनमित्र | श्रावस्ती | वसुदर्शन | लान्तव |
४ | ६०/६६,५० | पुरुषोत्तम | सागरदत्त | कौशाम्बी | श्रेयांस | सहस्रार |
५ | ६१/७१,८५ | पुरुषसिंह | विकट | पोदनपुर | सुभूति | ब्रह्म (२ माहेन्द्र) |
६ | ६५/१७४-१७६ | पुरुषपंडरीक | प्रियमित्र | शैलनगर | वसुभूति | माहेन्द्र (२ सौधर्म) |
७ | ६६/१०६-१०७ | दत्त (२,५ पुरुषदत्त) |
मानसचेष्टित | सिंहपुर | घोषसेन | सौधर्म |
८ | ६७/१५० | नारायण (३,५ लक्ष्मण) |
पुनर्वसु | कौशाम्बी | पराम्भोधि | सनत्कुमार |
९ | ७०/३८८ | कृष्ण | गंगदेव | हस्तिनापुर | द्रुमसेन | महाशुक्र |
२. वर्तमान भव के नगर व माता पिता (प.पु./२०/२२१-२२८), (म.पु./पूर्व शीर्षवत्)
क्र. |
४. नगर |
५. पिता |
६. माता |
७. पटरानी |
८. तीर्थ |
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प.पु. |
म.पु. |
म.पु. |
प.पु. |
प.पु. व म.पु. |
प.पु. व म.पु. |
||
१ |
पोदनपुर |
पोदनपुर |
प्रजापति |
प्रजापति |
मृगावती |
सुप्रभा |
देखें - तीर्थंकर |
२ |
द्वापुरी |
द्वारावती |
ब्रह्म |
ब्रह्मभूति |
माधवी (ऊषा) |
रूपिणी |
|
३ |
हस्तिनापुर |
द्वारावती |
भद्र |
रौद्रनाद |
पृथिवी |
प्रभवा |
|
४ |
हस्तिनापुर |
द्वारावती |
सोमप्रभ |
सोम |
सीता |
मनोहरा |
|
५ |
चक्रपुर |
खगपुर |
सिंहसेन |
प्रख्यात |
अम्बिका |
सुनेत्रा |
|
६ |
कुशाग्रपुर |
चक्रपुर |
वरसेन |
शिवाकर |
लक्ष्मी |
विमलसुन्दरी |
|
७ |
मिथिला |
बनारस |
अग्निशिख |
सममूर्धाग्निनाद |
कोशिनी |
आनन्दवती |
|
८ |
अयोध्या |
बनारस (पीछेअयोध्या) ६७/१६४ |
दशरथ |
दशरथ |
कैकेयी |
प्रभावती |
|
९ |
मथुरा |
मथुरा |
वसुदेव |
वसुदेव |
देवकी |
रुक्मिणी |
३ वर्तमान शरीर परिचय
क्रम |
म.पु./सर्ग/ श्लो. |
९. शरीर |
१०. उत्सेध |
११. आयु |
||||
ति.प./४/१३७१ म.पु./पूर्ववत् |
१. ति.प./४/१४१८; २. त्रि.सा./८२९ ३. ह.पु./६०/३१०-३१२; ४. म.पु./पूर्ववत् |
१.ति.प./४/१४२१-१४२२ २. त्रि.सा./८३० ३. ह.पु./६०/५१७-५३३ ४. म.पु./पूर्ववत् |
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वर्ण |
संस्थान |
संहनन |
सामान्य |
प्रमाण सं. |
विशेष |
|||
१ |
५७/८९-९० |
ति.प.― स्वर्णवत् / म.पु.―नील व कृष्ण |
ति.प.―समचतुरस्र संस्थान |
ति.प.―वज्रऋषभ नाराच संहनन |
८० धनुष |
|
|
८४ लाख वर्ष |
२ |
५८/८९ |
७० धनुष |
|
|
७२ लाख वर्ष |
|||
३ |
५९/- |
६० धनुष |
|
|
६० लाख वर्ष |
|||
४ |
६०/६८-६९ |
५० धनुष |
३ |
५५ धनुष |
३० लाख वर्ष |
|||
५ |
६१/७१ |
४५ धनुष |
३ |
४० धनुष |
१० लाख वर्ष |
|||
६ |
६५/१७७-१७८ |
२९ धनुष |
३,४ |
२६ धनुष |
६५००० वर्ष ४(५६०००) वर्ष |
|||
७ |
६६/१०८ |
२२ धनुष |
|
|
३२००० वर्ष |
|||
८ |
६७/१५१-१५४ |
१६ धनुष |
४ |
१२ धनुष |
१२००० वर्ष |
|||
९ |
७१/१२३ |
१० धनुष |
|
|
१००० वर्ष |
४. कुमार काल आदि परिचय
क्रम |
म.पु./सर्ग/ श्लो. |
१२. कुमार काल |
१३.मण्डलीक काल |
१४. विजय काल |
१५. राज्य काल |
१६. निर्गमन |
|
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१. ति.प./४/१४२४-१४३३ २. ह.पु./६०/५१७-५३३ |
१. ति.प./४/१४२५-१४३६ २. ह.पु./६०/५१७-५३३ |
ति.प./४/१४३८ त्रि.सा./८३२ |
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|
सामान्य वर्ष |
विशेष ह.पु. |
|
सामान्य वर्ष |
विशेष ह.पु. |
||||||
१ |
५७/८९-९० |
२५००० वर्ष |
२५००० |
× |
१००० वर्ष |
८३४९००० |
८३७४००० |
सप्तम नरक |
म.पु./की अपेक्षा सभी सप्तम नरक में गये हैं। |
||
२ |
५८/८९ |
२५००० वर्ष |
२५००० |
|
१०० वर्ष |
७१४९९०० |
|
षष्ठ नरक |
|||
३ |
५९/- |
१२५०० वर्ष |
१२५०० |
|
९० वर्ष |
५९७४९१० |
|
षष्ठ नरक |
|||
४ |
६०/६८-६९ |
७०० वर्ष |
१३०० |
|
८० वर्ष |
२९९७९२० |
|
षष्ठ नरक |
|||
५ |
६१/७१ |
३०० वर्ष |
१२५० |
१२५ |
७० वर्ष |
९९८३८० |
९९९५०५ |
षष्ठ नरक |
|||
६ |
६५/१७७-१७८ |
२५० वर्ष |
२५० |
|
६० वर्ष |
६४४४० |
|
षष्ठ नरक |
|||
७ |
६६/१०८ |
२०० वर्ष |
५० |
|
५० वर्ष |
३१७०० |
|
पंचम नरक |
|||
८ |
६७/१५१-१५४ |
१०० वर्ष |
३०० |
× |
४० वर्ष |
११५६० |
११८६० |
चतुर्थ नरक |
|||
९ |
७१/१२३ |
१६ वर्ष |
५६ |
|
८ वर्ष |
९२० |
|
तृतीय नरक |
५. नारायणों का वैभव
म.पु./६८/६६६,६७५-६७७ पृथिवीसुन्दरीमुख्या: केशवस्य मनोरमा:। द्विगुणाष्टसहस्राणि देव्य: सत्योऽभवन् श्रिय:।६६६। चक्रं सुदर्शनाख्यानं कौमुदीत्युदिता गदा। असि: सौनन्दकोऽमोघमुखी शक्तिं शरासनम् ।६७५। शाङ्ग पञ्चमुख: पाञ्चजन्य: शङ्खो महाध्वनि:। कौस्तुभं स्वप्रभाभारभासमानं महामणि:।६७६। रत्नान्येतानि सप्तैव केशवस्य पृथक्-पृथक् । सदा यक्षसहस्रेण रक्षितान्यमितद्युते:।६७७। = नारायण के (लक्ष्मण के) पृथिवीसुन्दरी को आदि लेकर लक्ष्मी के समान मनोहर सोलह हज़ार पतिव्रता रानियाँ थीं।६६६। इसी प्रकार सुदर्शन नाम का चक्र, कौमुदी नामकी गदा, सौनन्द नाम का खड्ग, अमोघमुखी शक्ति, शाङ्र्ग नाम का धनुष, महाध्वनि करने वाला पाँच मुख का पाञ्चजन्य नाम का शंख और अपनी कान्ति के भार से शोभायमान कौस्तुभ नाम का महामणि ये सात रत्न अपरिमित कान्ति को धारण करने वाले नारायण (लक्ष्मण) के थे और सदा एक-एक हज़ार यक्ष देव उनकी पृथक्-पृथक् रक्षा करते थे।६७५-६७७। (ति.प./४/१४३४); (त्रि.सा./८२५); (म.पु./५७/९०-९४); (म.पु./७१/१२४-१२८)।
६. नारायण की दिग्विजय
म.पु./६८/६४३-६५५ लंका को जीतकर लक्ष्मण ने कोटिशिला उठायी और वहाँ स्थित सुनन्द नाम के देव को वश किया।६४३-६४६। तत्पश्चात् गंगा के किनारे-किनारे जाकर गंगा द्वार के निकट सागर में स्थित मागधदेव को केवल बाण फेंक कर वश किया।६४७-६५०। तदनन्तर समुद्र के किनारे-किनारे जाकर जम्बूद्वीप के दक्षिण वैजयन्त द्वार के निकट समुद्र में स्थित ‘वरतनु देव’ को वश किया।६५१-६५२। तदनन्तर पश्चिम की ओर प्रयाण करते हुए सिन्धु नदी के द्वार के निकटवर्ती समुद्र में स्थित प्रभास नामक देव को वश किया।६५३-६५४। तत्पश्चात् सिन्धु नदी के पश्चिम तटवर्ती म्लेच्छ राजाओं को जीता।६५५। इसके पश्चात पूर्व दिशा की ओर चले। मार्ग में विजयार्ध की दक्षिण श्रेणी के ५० विद्याधर राजाओं को वश किया। फिर गंगा तट के पूर्ववर्ती म्लेच्छ राजाओं को जीता।६५६-६५७। इस प्रकार उसने १६००० पट बन्ध राजाओं को तथा ११० विद्याधरों को जीतकर तीन खण्डों का आधिपत्य प्राप्त किया। यह दिग्विजय ४२ वर्ष में पूरी हुई।६५८।
म.पु./६८/७२४-७२५ का भावार्थ – वह दक्षिण दिशा के अर्धभरत क्षेत्र के समस्त तीन खण्डों के स्वामी थे।
७. नारायण सम्बन्धी नियम
ति.प./४/१४३६ अणिदाणगदा सव्वे बलदेवा केसवा णिदाणगदा। उड्ढंगामी सव्वे बलदेवा केसवा अधोगामी।१४३६। = ...सब नारायण (केशव) निदान से सहित होते हैं और अधोगामी अर्थात् नरक में जाने वाले होते हैं।१४३६। (ह.पु./६०/२९३)
ध.६/१,१-९,२४३/५०१/१ तस्स मिच्छत्ताविणाभाविणिदाणपुरंगमत्तादो। = वासुदेव (नारायण) की उत्पत्ति में उससे पूर्व मिथ्यात्व के अविनाभावी निदान का होना अवश्यभावी है। (प.पु./२०/२१४)
प.पु./२/२१४ संभवन्ति बलानुजा:।२१४। = ये सभी नारायण बलभद्र के छोटे भाई होते हैं।
त्रि.सा./८३३...किण्हे तित्थयरे सोवि सिज्झेदि।८३३। = (अन्तिम नारायण) कृष्ण आगे सिद्ध होंगे।
देखें - शलाका पुरुष / १ दो नारायणों का परस्पर में कभी मिलाप नहीं होता। एक क्षेत्र में एक काल में एक ही प्रतिनारायण होता है। उनके शरीर मूँछ, दाढ़ी से रहित तथा स्वर्ण वर्ण व उत्कृष्ट संहनन व संस्थान से युक्त होते हैं।
प.प्र./टी./१/४२/४२/५ पूर्वभवे कोऽपि जीवो भेदाभेदरत्नत्रयाराधनं कृत्वा विशिष्टं पुण्यबन्धं च कृत्वा पश्चादज्ञानभावेन निदानबन्धं करोति, तदनन्तरं स्वर्गं गत्वा पुनर्मनुष्यो भूत्वा त्रिखण्डाधिपतिर्वासुदेवो भवति। = अपने पूर्व भव में कोई जीव भेदाभेद रत्नत्रय की आराधना करके विशिष्ट पुण्य का बन्ध करता है। पश्चात् अज्ञान भाव से निदान बन्ध करता है। तदनन्तर स्वर्ग में जाकर पुन: मनुष्य होकर तीन खण्ड का अधिपति वासुदेव होता है।