वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 89
From जैनकोष
‘‘णिंदवंचणदूरो परीसहउवसग्गदुक्खसहमाणो।
सुह झाणज्झयणरदो गय संगो होइ मुणिराओ।।89।।’’
योगियों की निंदावंचन दूरता―मुनिराज योगी कैसे होते हैं उनका परिचय चल रहा है, इस गाथा में कह रहे हैं कि योगीजन मुनिराज निंदा और ठगाई से दूर रहते हैं। वे दूसरों की निंदा से दूर हैं कोई क्रोध, मान आदिक कषाय आये बिना निंदा नहीं की जाती दूसरों की और निंदा से प्रयोजन क्या है? और निंदा से लौकिक आपत्तियाँ भी बहुत आती हैं और योगी पुरुषों को अवकाश ही कहाँ है कि वे किसी की निंदा करके अपना समय गुजारें। उनका तो प्रतिक्षण अपने सहज परमात्मतत्त्व की आराधना में समय गुजरता है योगी पुरुष निंदा वचन से दूर रहते हैं और ठगाई से दूर रहते हैं। ठगना केवल धन से ही नहीं होता। कितनी ही तरह की किसी को ठगना नहीं। ठगई होती है। जनता पर कपट से अपना बड़प्पन थोपना, यह भी दूसरों को ठगना है। गुण न होते हुए भी ऐसी युक्तियाँ निकालना ऐसा ढंग निकालना कि जिसमें लोग कह उठें कि ऐसा प्रताप है बड़ा कौशल है, धन्य है यह, तो यह सब इसमें बड़ी माया गूंथी जाती है। और जनता को एक भ्रम में डाला जाता है। जो श्रद्धानी नहीं, संयम का अनुरागी नहीं वह पुरुष या स्त्री जो भी एक धर्म का रूप रखकर और आगम से बहिर्भूत आचरण रखकर जनता पर थोपे यह भी एक वंचना है। योगी पुरुष संतपुरुष वंचना से दूर रहते हैं। योगियों की परीषहोपसर्गदुःख सहमानता―ये योगी परीषह उपसर्ग के बड़े-बड़े दुःखों को समता से सहन करने वाले होते हैं। दूसरों का कोई उपद्रव कर दे वह है उपसर्ग स्वयं ही अपने आप सह रहे हैं वह है परीषह। किसी भी प्रकार कोई कष्ट आये उसको समता से सह लेते हैं। योगी पुरुष अधीर नहीं होता मन में कोई वेदना आये और उससे पीड़ित होकर दूसरों को कोई दुर्वचन बोलना ऐसी वृत्ति योगियों में नहीं होती क्योंकि अपना दुःख सह लेना उन्हें पसंद है। पर अपनी प्रवृत्ति से दूसरों को दुःख हो यह बात योगियों को इष्ट नहीं है। यदि किसी के द्वारा कोई कष्ट पहुंचता है उसे हम यदि सह लें दूसरे के प्रति सद्भावना करके हम अपना दुःख तो मिटा लेंगे, पर मेरी प्रवृत्ति से दूसरे को कष्ट हो जाय तो उसको दूर करना मेरे आधीन नहीं है। योगीपुरुष परीषह उपसर्ग के दुःखों को समता से सह लेते हैं। योगी पुरुषों की शुभध्यानाध्ययनरतता―ये योगी उत्तम ध्यान और अध्ययन में लीन रहते हैं योगियों का कार्य हैं ध्यान और अध्ययन। ध्यान और अध्ययन, ज्ञान और ध्यान इनमें रह कर फिर मानो न अधिक टिक सके तो भी नाना प्रकार के तप किया करते हैं। तप का दर्जा तीसरा है। ध्यान का दर्जा दूसरा है और ज्ञान का दर्जा पहला है। इस ज्ञान के मायने है ज्ञाता रहना, उसमें कोई विकार न जगना। जब ज्ञातापन न रहे तो ध्यान करें। तत्त्व का ध्यान, दोनों ही न रहें तो तपश्चरण करें और इससे नीचे ऊपर जाय तो योगी नहीं। योगीजन शुभ ध्यान और अध्ययन में रत रहा करते हैं। मुनिराज संगरहित होते हैं। उनके पास अंतरंग बहिरंग परिग्रह भी नहीं होते। वे तो अपने अविकार सहज स्वरूप को ही ग्रहण करते हैं अन्य तत्वों को ग्रहण नहीं करते। ऐसे ये योगी संत ये अपना तो उपकार कर ही रहे हैं पर उनके दर्शन से उनके सहवास से, उनके वचनामृत से दूसरे लोग भी अपना उपकार करते हैं।