वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1618
From जैनकोष
यज्जन्मज्वरघातकं त्रिभुवनाधीशैर्यदभ्यचितम्,यत्स्याद्वादमहाध्वजं नयशताकीर्णं च यत्पट्यते।
उत्पादस्थितिभंगलांछनयुता यस्मिन् पदार्था स्थितास्-तच्छ्रीवीरमुखारविंदगदितं दद्याच्छ्रुतं व: शिवम्।।1618।।
श्रुतज्ञान का महत्त्व बता रहे हैं कि यह श्रुतज्ञान जन्मरूपी ज्वर का विनाश करने वाला है। तो जन्म मरण परंपरा का विनाश होने के लिए हम आप सबका यदि कोई सच्चा सहारा है तो श्रुतज्ञान का है। हम इसी ज्ञान के द्वारा अपने मन को विशुद्ध बनाते हैं तथा तत्त्व का परिज्ञान होता है, भेदविज्ञान प्राप्त करते हैं और हेयतत्त्वों को छोड़कर उपादेय तत्त्व में हमारी लगन लगे, इसकी प्रेरणा हमें श्रुतज्ञान से मिलती है। और अंतरंग से विचारें तो श्रुतज्ञान के सिवाय हम आपका कोई सहारा नहीं है जो हमें दु:खों से छुटा सके। बाहर में हम बहुत से खोटे विचारों से बचते हैं और अच्छे तत्त्व में लगने के लिए हमें उसके साधनों से प्रेरणा मिलती है लेकिन फिर भी श्रुतज्ञान नहीं है तो हम अपना कल्याण नहीं कर सकते हैं। सभी परिस्थितियों में हमें ज्ञान से सहारा मिलता है। ज्ञान, मति, बुद्धि यदि सही रहती है तो व्यवहार में, व्यापार में, अन्य-अन्य सब प्रकार के व्यावहारिक कार्यों में हम सफलता भी कर लेते हैं। तो समझिये कि हम सफलता पा सकें, इसके लिए कोई सहारा है तो श्रुतज्ञान का है। यदि यह ज्ञान परिपूर्ण हो जैसा कि तीर्थंकर के ज्ञान से चला आया है, जिसका प्रवाह अनादि से है, कभी बीच में विच्छिन्न भी हुआ तो वैसा का ही वैसा श्रुतज्ञान अनेक तीर्थंकरों ने अपनी दिव्यध्वनि में कहा है। तीर्थंकरों की वाणी मेंवस्तुस्वरूप का वर्णन है। और वस्तु का जो स्वरूप है सो है ही, वह बदला नहीं जाता, अतएव अनंत तीर्थंकरों की दिव्यध्वनि की पद्धति एक ही प्रकार की हुई। इसलिए श्रुतज्ञान की परंपरा अनादि से चली आयी है। इस श्रुतज्ञान का हमें बड़ा सहारा है। इस श्रुतज्ञान के सहारे से भेदविज्ञान को पाकर हम जब अपने में यह भावानाभ्यास करते हैं कि समस्त परपदार्थों से निराला केवल ज्ञानस्वरूपमात्र हूँ, देह से रहित हूँ, ऐसा अपने आपको परखा है और ऐसा ही अनुभव किया हे तो इसके प्रसाद में देहरहित अवस्था बनती है, और यदि हम देह को अपनायेंगे, देह में ममत्व परिणाम रखेंगे तो देह मिलते रहने की परंपरा चलती रहेगी। तो जन्ममरण से छुटकारा प्राप्त कराने का एकमात्र सहारा श्रुतज्ञान है। ज्ञान सही रहे तो सर्व वैभव है, ज्ञान बिगड़ जाय तो फिर कुछ नहीं रहा। जैसे व्यवहार में किसी का ज्ञान बिगड़ जाय याने पागल हो जाय, दिमाग खराब हो जाय तो वह लखपति भी हो तो उसके लिए वह सारा वैभव बेकार है। वह तो गरीब का ही गरीब है, ऐसे ही समझिये कि हम आपका ज्ञान यदि सही है अर्थात् वस्तु का जो स्वरूप है उस स्वरूप को परखने वाला है, हम अपने उपयोग को इस तरह जमाये हुए हैं कि शरीर भिन्न है, और इस शरीर का भान छोडकर अपने आपका ज्ञानानुभव करते हैं ऐसा ज्ञान सही बनता है तो नियम से जन्मज्वर मिट जायगा, इसमें तो संदेह है ही नहीं। ऐसा अनुभव करने के लिए जो ध्यान पद्धतियाँबतायी गई हैं और उनमें जो विधि कही गई है उनमें बड़ा मर्म ज्ञात होता है, प्रयोग करके देख लीजिए।
ध्यान में एक पद्मासन मुख्य बताया है। उस आसन में प्रत्येक अंग जुदे-जुदे रहते हैं। इसके मायने यह हैं कि हम यदि शरीर को हाथों से यों छुवे हुए रहेंगे तो वह ध्यान में बाधा देने वाली मुद्रा है। कोई अंग किसी अंग को छूता हुआ न रखें, ऐसी स्थिति में देह का भान भूल जाना सुगम है। इसका सीधा मतलब यों निकालें कि इंद्रिय का व्यापार हम जब तक रखते हैं तब तक हमें अपने विशुद्ध स्वरूप का अनुभव नहीं बनता। जैसे आँखें खोलकर बाहर में देखते हैं तो कुछ न कुछ उपयोग पर को लपेट करके रहता है तो इसी प्रकार यह एक स्पर्शन इंद्रिय है, हम हाथ से जानकर कोई दूसरा अंग छूकर रहेंगे तो वह स्पर्शन इंद्रिय का व्यापार है। तो पद्मासन की एक ऐसी स्थिति है जिसमें स्पर्शन इंद्रिय का व्यापार नहीं रहता। ऐसी ही कायोत्सर्ग की बात है। और उस आसन में दोनोंमें एक सीधा वक्षस्थल करके रहना होता है। जैसे जो श्वास नली है वह सीधी रहने के कारण श्वास का आना-जाना बिना कष्ट के रहता है, वह स्थिति भी हमारे चित्त को ध्यान को विशुद्ध बनाने में एक बाह्य साधन है। श्वास को धीरे-धीरे खींचते और धीरे-धीरे छोड़ते रहते हैं, ये जो तीन पद्धतियाँहै ये कायोत्सर्ग और पद्मासन में विशेष साधक होती हैं। तो ऐसे आसन में स्थिर होकर देह का भी ख्याल छोडकर अपने आपमें ज्ञानमात्र अपनी प्रतीति जो चलती है उस अनुभव के प्रसाद से जन्मज्वर दूर हो जाता है। संसा रमें सार अन्य कुछ काम नहीं है। एक हमारे जन्म-मरण की परंपरा मिटे यही सारभूत काम है। परपदार्थों से स्नेह करने में, उनमें ममत्व करने में तो अपनी बरबादी ही है। अपना लक्ष्य तो यह होना चाहिए कि हम अपने आपका जैसा सहजस्वरूप है उस प्रकार से अपने को निरखें, यहाँ कोई किसी का सम्हालने वाला नहीं है। यहाँ किनमें हम अपनी रुचि करें, किनमें अपना आकर्षण बनायें, यहाँ किनको प्रसन्न करने की बात सोचें? यहाँ कुछ भी कोशिश करना बेकार की चीज है। क्योंकि इन किसी भी कार्यों में कुछ सार है ही नहीं। यहाँ सभी केवल अपनी-अपनी ही मदद कर सकते हैं। अपनी आत्मरक्षा तो ज्ञान के प्रभाव से बनती है। सर्वप्रथम आलंबन हम आपका श्रुतज्ञान है। इस श्रुतज्ञान के उपकार का, इस श्रुतज्ञान की महत्ता का हम कहाँतक वर्णन करें? हमारा एक मात्र सहारा यह श्रुतज्ञान है। यह श्रुतज्ञान तीन भुवन के ईशों से पूजित है। जिसकी ओरहमारी एक उत्सुकता रहती है उसी की तो हम पूजा कर रहे हैं। थाली में कोई चीज रखकर आरती उतारने का नाम पूजा नहीं है। जो कुछ चित्त में समाया हुआ हो, जिसकी ओरअधिक आकर्षण बना रहता हो, समझो उसी की हम पूजा कर रहे हैं। तो तीन लोक के इंद्र और सभी आत्मानार्थी इस श्रुतज्ञान की ओरआकर्षित हैं, तत्त्वज्ञान की ओरआकर्षित हैं।
हम आपका भला तत्त्वज्ञान कर सकता है अन्य कोई नहीं। फिर ये जो पूर्वोत्तर भेष बनते हैं प्रतीति बनती है ऊँचे ब्रह्मचारी, क्षुल्लक, ऐलक आदिक ये सब इस आधार पर बनते हैं कि तत्त्वज्ञान में बाधा न आ सके, इसके लिए छानबीन करके बताया है। दिव्यध्वनि की परंपरा में यह बताया गया है कि इस तरह परिग्रहों से निवृत्त हों, भेष-भेष नहीं है। परिग्रह से निवृत्त होने में जो बात रह गयी उसे भेष कहने लगे। मुनि-भेष भेष नहीं, किंतु जब आरंभ का परिग्रह का त्याग कर दिया, आकुलतावों के साधनों का त्याग कर दिया, नाना प्रकार के विकल्पों का साधन जानकर इन सब परिग्रहों का जब त्याग कर दिया तो अब जो रूप रह गया सो रह गया, उसी को मुनि का भेष कहते हैं। कोई कहे कि मुझे मुनिदीक्षा दो तो उसके चित्त में यह बात रहनी चाहिए कि मैं समस्त आरंभ परिग्रहों से निवृत्त होकर ज्ञान की उपासना कर रहा हूँ इसलिए मुझे आप दीक्षा दीजिए। कोई भेष का ध्यान रखकर चाहे कि मैं यह दीक्षा लूँ तो उसने दीक्षा का मर्म नहीं जाना। मैं ज्ञानस्वरूप की उपासना में आना चाहता हूँ, अन्य समस्त आरंभ परिग्रहों का त्याग करता हूँ, ऐसी अंतरंग में भावना हो तो यह है उसकी दीक्षा। तो यह सब तत्त्वज्ञान के प्रसाद से प्राप्त होता है। और तत्त्वज्ञान की रक्षा के लिए यह व्रत अंगीकार किया गया है। समस्त व्रतों का नियम प्रयोजन यह है कि हम अपने सहज स्वरूप की उपासना में सफलता प्राप्त करें। यही सबका लक्ष्य है। यदि यह लक्ष्य न रहा तो केवल पर दृष्टि ही रही। भली प्रकार से समितियों का पालन भी किया जा रहा हो पर स्वदृष्टि बिना वहाँ मुनित्व कहाँ आया? उन संयमों का प्रयोजन यह है कि हम सहज ज्ञान की उपासना में निर्वाध उत्तीर्णता प्राप्त करें। जब लक्ष्य ही भ्रष्ट हो जाता तो व्रत नियमों में भी चित्त नहीं लगता और परस्पर में बैर विरोध हो जाता, एक दूसरे की निंदा करने लगते। ये सब ऐब एक तत्त्वज्ञान की महिमा और लक्ष्य न होने के कारण आ जाते हैं।तो जितने आत्मार्थी हैं, बड़े-बड़े पुरुष हैं वे किस ओरआकर्षित हैं? तत्त्वज्ञान की ओर। इसलिए यह श्रुतज्ञान बड़े-बड़े इंद्रों के द्वारा पूजित है। जो स्याद्वाद रूपी बड़ी ध्वजा वाला है। मानो एक श्रुतज्ञान की सेना निकली, श्रुतज्ञान का जुलूस निकला, अर्थात् जितना ज्ञान, जितनी विद्याएँ, जितनी कलाएँहैं उन सब कलावों का प्रागट्य जहाँहो रहा हो तो ऐसे उस महान समारोह में ध्वजा तो है स्याद्वाद। जैसे आजकल के लोग ध्वजा की पूजा करते हैं, झंडा ऊँचा रहे हमारा, इसकी शान न जाने पावे, चाहे जान भले ही जावे आदि। तो जितना तत्त्वज्ञान है, विद्याएँ हैं, कलायें हैं, वर्णन हैं वे सब इस स्याद्वाद का पुट रखकर अपना विकास पाते हैं। जहाँस्याद्वाद का पुट नहीं वह ज्ञान सम्यक्ज्ञान नहीं है।
भैया ! इतनी धीरता रखना चाहिए कि कोई भी वर्णन हो, जिस नय का वर्णन चल रहा है, वहाँ की पद्धति तो यह है कि और नयों का ख्याल भी न करें और उस नय का जो विषय बनता है खूब निचोड़ के साथ उसका खूब प्रकटता के साथ वर्णन करें तब तो उस दृष्टि का वर्णन हो सकता है। औरों के भय से एकदम निश्चय का वर्णन न करें, बीच-बीच में व्यवहार को लपेटने जावें तो निश्चय का विषय रहस्य बैठ नहीं सकता। अब हम जिस विषय को देख रहे हैं तब तो हमें उस-उस की ही महिमा का गुण गाना है। तब धीरता इतनी रखना चाहिए कि कुछ लंबा भी प्रकरण हो जाय किसी नय का तो यह देखें कि इसके पूर्व इसके बाद कहीं भी इससे भिन्न प्रतिपक्षी व्यवहार का भी कहीं जिक्र किया है या नहीं। बड़े-बड़े ग्रंथ समयसार सरीखे में आचार्यदेव यह नहीं कर सके कि कोई एक अधिकार लेवें तो एक नय का जिसका लक्ष्य रखा उसको ही यह निभा सके, बल्कि कहीं-कहीं तो एक ही गाथा में निश्चय और व्यवहार की बात आ जाती है। दोनों नयों का एक साथ इस गाथा में वर्णन चल रहा है। तो स्याद्वाद इसकी महान ध्वजा है और वर्णन की एक पद्धति है कि जहाँ जिस नय की मुख्यता रखना हो उस नय की बात बाद में बोली जाती है। पहिले तो गौण बात कह देनी चाहिए, यह बात आपको आचार्यों की कृति में मिलेगी। जैसे एक जगह बताया है कि जैसे समुद्र की लहर वाली अवस्था और बिना लहर की अवस्था इन दोनों अवस्थावों में निमित्त हवा का चलना है। और हवा नहीं चलती है तो भी समुद्र अपने आपके स्वरूप में ही अपना परिणमन करता है और अपना अनुभव करता है। बात दोनों कहीं गई हैं लेकिन गौण बात को पहिले रखा है, मुख्य बात को उसके बाद रखा है। यह भी एक खासी पद्धति समयसार के अंदर जगह-जगह मिलेगी तो स्याद्वाद की महान ध्वजा यह श्रुतज्ञान है और यह श्रुतज्ञान सैकड़ों नयों से आकीर्ण है। नय कितने हैं? जितने वचन हैं, जितने आशय हैं उतने नय हैं। 7 नय है, 4 नय हैं, 3 नय हैं, 2 नय हैं यह तो जाति की अपेक्षा और उसका संक्षेप करके बताया गया है। नयों का कोई पार नहीं पा सकता है। जितने वचन हैं उतने ही नय हैं। तो सैकड़ों नयों से यह श्रुतज्ञान आकीर्ण है, व्याप्त है। इसमें उत्पाद व्यय ध्रौव्य से युक्त पदार्थ रहते हैं ऐसा वर्द्धमान स्वामी के मुखकमल से विनिसृत ज्ञान है।
हम सब श्रोतावों को आचार्यदेव कह रहे हैं कि हम सब श्रोतावों को कल्याणरूप हो। आशा करो तो तत्त्वचिंतन की। किसी की ओर शरण गहने की दृष्टि बनाने से कुछ लाभ न मिलेगा। इस थोड़े से 10-20-50 वर्ष के जीवन के लिए यदि कुछ ढंग बना रखा है वैभव, समागम, इज्जत, पोजीशन, ठाठबाट कुछ अगर बना रखा है तो उससे क्या पूरा पड़ने का? ये सब कुछ ही क्षण बाद मिट जाने वाले हैं। और जब तक हैं भी साथ में तब तक भी ये अशांति के ही कारण बन रहे हैं, हमारे हित के हेतु नहीं बनते। तो इनकी हम क्या आशा करें? इनसे हम क्या पा सकेंगे? हम कुछ पा सकते हैं तो एक अपने ज्ञान से पा सकते हैं, अन्य उपायों से हमें कुछ लाभ नहीं मिल सकता। और यह उपाय गुप्त है, गुप्त साधन से बनता है, इसे गुप्त होकर ही बनाया जा सकता है। इसे किसी को बताने की बात नहीं है। स्वाध्याय में भी जो धर्मोपदेश नाम का भेद बताया गया है उस धर्मोपदेश के स्वाध्याय करने वाले अर्थात् धर्मोपदेष्ठा यदि अपने आपको तत्त्वज्ञान सिखाने के लिए, अपने आपके उस सहज स्वभाव की दृष्टि बनाने के लिए इस मुख्यता में उसका अगर उपदेश प्रवर्तन चलता है तो वह उसका स्वाध्याय श्रुतज्ञान का आलंबन है और धर्मोपदेश का स्वाध्याय का भेद रखने में संतों ने कितनी खूबी दिखाया है कि एक आधार होता है―अपने आप बैठे ही बैठे उस तत्त्वज्ञान की बात को कब उपयोग में रखें यह करना जब कठिन हो जाता हे तो यह एक पद्धति बहुत सुगम है कि अपने आपकी दृष्टि कुछ बताने के लिए कि हम साधर्मी बंधुवों को, आत्मार्थी संत पुरुषों को उसकी बात कहने लग जायें। तो वह एक रास्ता है जिस रास्ते से उठकर हम एक तत्त्वचर्चा और एक तत्त्वज्ञान के वातावरण में पहुँच जाते हैं। वहाँ कर्तव्य यह है कि जो कुछ मुख से कहते हैं, कह रहे हैं तब तक कह रहे हैं लेकिन कहते हुए भी अपने आपमें उसे खोजने लगें। अपने आपको हम समझा रहे हैं इसलिए भी हम दृष्टि अपनी रखें तो वह हमारे लिए लाभदायक चीज बने।
यह श्रुतज्ञान हम सबको कल्याणरूप हो, हम सबको मंगल करे। पाप दूर होंगे तो इस तत्त्वज्ञान के आलंबन से होंगे। इतना श्रेय प्रकट होगा, प्रसन्नता प्रकट होगी, निर्मलता बनेगी तो इस तत्त्वज्ञान के सहारे बनेगी। मैं शुद्ध चैतन्यस्वरूप हूँ, जिसे कोई पहिचानने वाला ही नहीं। और अगर कोई पहिचान लेवे मेरे उस शुद्ध चैतन्यस्वरूप को तो पहिचानने वाले की निगाह में मेरा तेरा रहता ही नहीं। इस चैतन्यस्वरूप को कौन जाने? अगर उस चैतन्यस्वरूप को जाने तो वह चित्स्वरूप है और मेरे तेरे आधारों से दूर है और वह अपने आपकी ही भावनारूप है। तो वह तो खुद का परिचयी बन गया, दूसरे का क्या परिचयी बना? लोग मुझे जानते नहीं, लोग मेरी पुकार सुनते नहीं क्योंकि मेरा जो स्वरूप है उसका कोई नाम ही नहीं। तो जो व्यवहार से परे है ऐसा विशुद्ध चैतन्यमात्र मैं हूँ, ऐसी दृष्टि बने तो यही है तत्त्वज्ञान का उपयोग। और यही है समस्त श्रुतज्ञान का सारभूत तत्त्व। सब कुछ श्रुतज्ञान किया, 11 अंग 9 पूर्व तक का ज्ञान किया और यह अनुभूति प्रकट नहीं हुई। अपने ज्ञानानंद स्वरूप का एक अनुभव ही नहीं बना, निर्विकल्प स्थिति नहीं बन सकी। सर्व कुछ परतत्त्वों को भूलकर एक अपने आपमें कुछ साधारण न रह सके, सामान्य न रह सके तो श्रुतज्ञान क्या जाना? तो ऐसा अपने आपका अनुभव जगना यह तत्त्वज्ञान, यह श्रुतज्ञान हम सबका कल्याण करे। आचार्यदेव के शब्दों में तुम सबका कल्याण करे। आचार्यदेव इस प्रकरण में ऐसी भावना भा रहे हैं। यह तत्त्वज्ञान असली तीर्थ है जो हम सबको तार सकता है। और इसके बिना हम बाहर में तीर्थ-तीर्थ करते हैं मगर तीर्थ मिलता नहीं है। अपने परमार्थ तीर्थ का पता हो तो हम तीर्थों से अपने विशुद्ध तीर्थ में लगने का लाभ पा सकते हैं, प्रेरणा मिल सकती है। हम अपने आपके तीर्थ का आलंबन लें इसके लिए प्रेरणा मिलती है। अपने तीर्थ में जो स्थिर हो सकता है वह तो तिर जाता है और जो अपने तीर्थ में स्थिर नहीं हो सकता है वह तिर नहीं सकता। और वह तीर्थ हमें श्रुतज्ञान के आलंबन से ही प्राप्त होता है अतएव इस श्रुतज्ञान की महिमा के उपकार का कोई वर्णन नहीं कर सकता। आज्ञाविचय धर्मध्यानी सम्यग्दृष्टि पुरुष इन सब तत्त्वों का ज्ञान करता हुआ वह जिनेंद्र भगवान को नहीं भूलता, क्योंकि उनकी आज्ञा से, उनके बताये हुए श्रुतज्ञान के आलंबन से ही उन्होंने कल्याण प्राप्त किया।