योगसार - निर्जरा-अधिकार गाथा 298
From जैनकोष
आत्मशुद्धि के लिये ज्ञानाराधना -
धर्मेण वासितो जीवो धर्मे पापे न वर्तते ।
पापेन वासितो नूनं पापे धर्मे न सर्वदा ।।२९८।।
ज्ञानेन वासितो ज्ञाने नाज्ञानेsसौ कदाचन ।
यतस्ततो मति: कार्या ज्ञाने शुद्धिं विधित्सुभि: ।।२९९।।
अन्वय :- धर्मेण वासित: जीव: नूनं धर्मे वर्तते न पापे , पापेन वासित: (जीव:) सर्वदा पापे (वर्तते) न धर्मे । यत: ज्ञानेन वासित: (जीव:) ज्ञाने (वर्तते) असौ कदाचन अज्ञाने न; तत: शुद्धिं विधित्सुभि: ज्ञाने मति: कार्या ।
सरलार्थ :- धर्म अर्थात् पुण्य से संस्कारित हुआ जीव निश्चय से पुण्य में सदा प्रवर्तता है, पाप में नहीं । पाप से संस्कारित हुआ जीव निश्चय से सदा पाप में प्रवृत्त होता है, पुण्य में नहीं । ज्ञान से संस्कारित हुआ जीव सदा ज्ञान में प्रवृत्त होता है, अज्ञान अर्थात् पुण्य-पाप में कदाचित् नहीं । इसलिए शुद्धि/वीतरागता/निर्जरा की इच्छा रखनेवाले को ज्ञान की उपासना/आराधना में बुद्धि लगाना चाहिए ।