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जैन शब्दों का अर्थ जानने के लिए किसी भी शब्द को नीचे दिए गए स्थान पर हिंदी में लिखें एवं सर्च करें

आस्रव

From जैनकोष

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सिद्धांतकोष से

  1. आस्रव के भेद व लक्षण
    1. आस्रव सामान्यका लक्षण
    2. आस्रव भेद प्रभेद
    3. द्रव्यास्रवका लक्षण
    4. भावास्रवका लक्षण
    5. सांपरायिक आस्रव का लक्षण
    6. शुभ अशुभ मानसिक वाचनिक व कायिक आस्रवों के लक्षण

  2. आस्रव निर्देश
    1. अगृहीत पुद्गलों का आस्रव कम होता है और गृहीत का अधिक
    2. आस्रव में तरतमता का कारण
    3. योगद्वार को आस्रव कहने का कारण
    4. विस्रसोपचय ही कर्म रूप से परिणत होते हैं, फिर भी कर्मो का आना क्यों कहते हो
    5. आस्रवसे निवृत्त होनेका उपाय
    6. आस्रव व बन्धमें अंतर
    7. आस्रव व बन्ध दोनों युगपत् होते हैं
    8. अन्य संबंधित विषय

    जीव के द्वारा प्रतिक्षण मन से, वचन से या काय से जो कुछ भी शुभ या अशुभ प्रवृत्ति होती है उसे जीव का भावास्रव कहते हैं। उसके निमित्त से कोई विशेष प्रकार की जड़-पुद्गल वर्गणाएँ आकर्षित होकर उसके प्रदेशों में प्रवेश करती हैं सो द्रव्यास्रव है। सर्व साधारण जनों को तो कषाय वश होनेके कारण यह आस्रव आगामी बंध का कारण पड़ता है, इसलिए सांपरायिक कहलाता है, परंतु वीतरागी जनों को वह इच्छा से निरपेक्ष कर्मवश होती है इसलिए आगामी बंध का कारण नहीं होता। और आने के अनंतर क्षण में ही झड़ जाने से ईर्यापथ नाम पाता है।

    I. आस्रव के भेद व लक्षण

    1. आस्रव सामान्यका लक्षण

    तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 6/1-2

    कायवाङ्मनःकर्मयोगः ॥1॥ स आस्रवः ॥2॥

    = काय, वचन, व मन की क्रिया योग है ॥1॥ वही आस्रव है ॥2॥

    राजवार्तिक अध्याय 1/4/9,16/26

    आस्रवत्यनेन आस्रवणमात्रं वा आस्रवः ॥9॥ पुण्यपापगमद्वारलक्षण आस्रवः ॥16॥...आस्रव इवास्रवः। क उपमार्थः। यथा महोदधे सलिलमापगामुखैरहरहरापूर्यते तथा मिथ्यादर्शनादिद्वारानुप्रविष्टैः कर्मभिरनिशमात्मा समापूर्यत इति।

    = जिसके कर्म आवे सो आस्रव है, यह करण साधन से लक्षण है। आस्रवण मात्र अर्थात् कर्मो का आना मात्र आस्रव है, यह भावसाधन द्वारा लक्षण है ॥9॥ पुण्य-पाप रूप कर्मों के आगमन के द्वार को आस्रव कहते हैं। जैसे नदियों के द्वारा समुद्र प्रतिदिन जल से भर जाता है, वैसे ही मिथ्यादर्शनादि स्रोतों से आत्मा में कर्म आते हैं

    (राजवार्तिक अध्याय 6/2/4,5/506)

    2. आस्रव भेद प्रभेद

    ( नयचक्र बृहद्/ मूल.आस्रव 152)

    द्रव्य भाव ( तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 6/4), ( सर्वार्थसिद्धि अध्याय 6/4/320/8)

    ईर्यापथ सांपरायिक

    दृष्टि नं.

    1. इंद्रिय, कषाय, अव्रत और 25 क्रिया रूप भेद

    ( तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 6/5), ( तत्त्वार्थसार अधिकार 4/8)

    2. मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग

    ( बारसाणुवेक्खा गाथा 47), ( समयसार / मूल या टीका गाथा 164), ( गोम्मट्टसार कर्मकांड / मूल गाथा 786)

    3. मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग

    ( द्रव्यसंग्रह/ बृहद् मूल 30), ( अनगार धर्मामृत अधिकार 2/37)

    4. शुभ और अशुभ

    (राजवार्तिक अध्याय 1/14/39/25)

    मन वचन काय

    3. द्रव्यास्रवका लक्षण

    नयचक्रवृहद् गाथा 153

    लद्धूण तं णिमित्तं जोगं जं पुग्गले पदेसत्थं परणमदि कम्मभावं तं पि हु दव्वासवं बीजं ॥153॥

    = अपने-अपने निमित्त रूप योग को प्राप्त करके आत्म प्रदेशों मे स्थित पुद्गल कर्म भाव रूप से परिणमित हो जाते हैं, उसे द्रव्यास्रव कहते हैं ॥153॥

    द्रव्यसंग्रह/मूल 31

    णाणावरणादीणं जोग्गं जं पुग्गलं समासवदि। दव्वासवो स णेओ अणेयभेओ जिणक्खादो ॥31॥

    = ज्ञानावरणादि कर्मों के योग्य जो पुद्गल आता है उसको द्रव्यास्रव जानना चाहिए। वह अनेक भेदों वाला है, ऐसा जिनेंद्र देव ने कहा है ॥31॥

    4. भावास्रवका लक्षण

    भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 38/134/10

    आस्रवत्यनेनेत्यास्रवः। आस्रवत्यागच्छति जायते कर्मत्वपर्यायपुद्गलानां कारणभूतेनात्मपरिणामेन स परिणाम आस्रवः।

    = आत्मा के जिस परिणाम से पुद्गल द्रव्य कर्म बन कर आत्मा में आता है उस परिणाम को (भावास्रव) आस्रव कहते हैं।

    ( द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 29)

    द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 28

    निरास्रवस्वसंवित्तिलक्षणशुभाशुभपरिणामेन शुभाशुभकर्मागमनमास्रवः।

    = आस्रव रहित निजात्मानुभव से विलक्षण जो शुभ अशुभ परिणाम है, उससे जो शुभ अशुभ कर्म का आगमन है सो आस्रव है।

    5. सांपरायिक आस्रव का लक्षण

    तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 6/4

    सकषायाकषाययोः सांपरायिकेर्यापथयोः ॥4॥

    = कषाय सहित व कषाय रहित आत्मा का योग क्रम से सांपरायिक और ईर्यापथ कर्म के आस्रव रूप हैं।

    सर्वार्थसिद्धि अध्याय 6/4/321/1

    संपरायः संसारः। तत्प्रयोजनं कर्म सांपरायिकम्।

    = संपराय संसार का पर्यायवाची है। जो कर्म संसार का प्रयोजक है वह सांपरायिक है।

    राजवार्तिक अध्याय 6/4/4-7/508

    कर्मभिः समंतादात्मनः पराभवोऽभिभवः संपरायः इत्युच्यते ॥4॥ तत्प्रयोजनं कर्म सांपरायिकमित्युच्यते यथा ऐंद्रमहिकमिति ॥5॥ ...मिथ्यादृष्ट्यादीनां सूक्ष्मसाम्परायान्तानां कषायोदयपिच्छिलपरिणामानां योगवशादानीतं कर्म भावेनोपश्लिष्य माणं आर्द्रचर्माश्रित रेणुवत् स्थितिमापद्यमानं साम्परायिकमित्युच्यते।

    = कर्मों के द्वारा चारों ओर से स्वरूप का अभिभव होना साम्पराय है ॥4॥...इस साम्पराय के लिए जो आस्रव होता है वह सांपरायिक आस्रव है ॥5॥...मिथ्यादृष्टि से लेकर सूक्ष्म साम्पराय दशवें गुणस्थान तक कषाय का चेप रहने से योग के द्वारा आये हुए कर्म गीले चमड़े पर धूल की तरह चिपक जाते हैं। अर्थात् उनमें स्थिति बंध हो जाता है। वही साम्पारयिकास्रव है।

    • ईर्यापथ आस्रवका लक्षण - देखें ईर्यापथ ।

    6. शुभ अशुभ मानसिक वाचनिक व कायिक आस्रवों के लक्षण

    राजवार्तिक अध्याय 1/7/14/39/25

    तत्र कायिको हिंसाऽनृतस्तेयाब्रह्मादिषु प्रवृत्तिनिवृत्तिसंज्ञः। वाचिकः पुरुषाक्रोशपिशुनपरोपघातादिषु वचस्सु प्रवृत्तिनिवृत्तिसंज्ञः। मानसो मिथ्याश्रुत्यभिघातेर्ष्यासूयादिषु मनसः प्रवृत्तिनिवृत्तिसंज्ञः।

    = हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील, आदि में प्रवृत्ति अशुभ कायास्रव है। तथा निवृत्ति शुभ कायास्रव है। कठोर गाली चुगली आदि रूप से परबाधक वचनों की प्रवृत्ति वाचनिक अशुभास्रव है और इनसे निवृत्ति वाचनिक शुभास्रव है। मिथ्याश्रुति ईर्षा मात्सर्य षड्यंत्र आदि रूप से मन की प्रवृत्ति मानस अशुभास्रव है और निवृत्ति मानस शुभास्रव है।

    II आस्रव निर्देश

    1. अगृहीत पुद्गलों का आस्रव कम होता है और गृहीत का अधिक

    धवला पुस्तक 4/1,5,4/331/4

    जे णोकम्मपज्जएणं परिणमिय अकम्मभावं गंतूण तेण अकम्मभावेण जे थोवकालमच्छिया ते बहुवारमागच्छंति, अविणट्ठ चउव्विहपाओग्गादो। जे पुण अप्पिदपोग्गलपरियट्टब्भंतरे ण गहिदा ते चिरेण आगच्छंति, अकम्मभावं गंतूण तत्थ चिरकालवट्ठाणेण विणट्ठचउव्विहपाओग्गत्तादो।

    = जो पुद्गल नोकर्म पर्याय से परिणमित होकर पुनः अकर्म भाव को प्राप्त हो, उस अकर्म भाव से अल्पकाल तक रहते हैं, वे पुद्गल तो बहुत बार आते हैं, क्योंकि उनकी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव रूप चार प्रकार की योग्यता नष्ट नहीं होती है। किंतु जो पुद्गल विवक्षित पुद्गल परिवर्तन के भीतर नहीं ग्रहण किये गये हैं, वे चिरकाल के बाद आते हैं। क्योंकि, अकर्म भाव को प्राप्त होकर उस अवस्था में चिरकाल तक रहने से द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव रूप संस्कार का विनाश हो जाता है।

    2. आस्रव में तरतमता का कारण

    तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 6/6

    तीव्रमन्दज्ञाताज्ञातभावाधिकरणवीर्यविशेषेभ्यस्तद्विशेषः।

    = तीव्रभाव, मंदभाव, ज्ञातभाव, अज्ञातभाव, अधिकरण और वीर्य विशेष के भेद से उसकी अर्थात् आस्रव की विशेषता होती है।

    3. योगद्वार को आस्रव कहने का कारण

    सर्वार्थसिद्धि अध्याय 6/2/319/5

    यथा सरस्सलिलावाहिद्वारं तदास्रवकारणत्वात् आस्रव इत्याख्यायते तथा योगप्रणालिक्या आत्मनः कर्म आस्रवतीति योग आस्रव इति व्यपदेशमर्हति ।

    = जिस प्रकार तालाब में जल लाने का दरवाजा जल के आने का कारण होने से आस्रव कहलाता है उसी प्रकार आत्मा से बँधने के लिए कर्म योगरूपी नाली के द्वारा आते हैं इसलिए योग आस्रव संज्ञा को प्राप्त होता है।

    4. विस्रसोपचय ही कर्म रूप से परिणत होते हैं, फिर भी कर्मो का आना क्यों कहते हो

    भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 38/134/11

    ननु कर्मपुद्गलानां नान्यतः आगमनमस्ति यमाकाशप्रदेशमाश्रित आत्मा तत्रैवावस्थिताः पुद्गलाः अनन्तप्रदेशिनः कर्मपर्यायं भजन्ते।..तत् किमुच्यते आगच्छतीति। न दोषः। आगच्छंति ढौकन्ते ज्ञानावरणादिपर्यायामित्येवं ग्रहीतव्यं।

    = प्रश्न - कर्मों का अन्य स्थान से आगमन नहीं होता है, जिस आकाश प्रदेश में आत्मा है उसी आकाश प्रदेश में अनन्तप्रदेशी पुद्गल द्रव्य भी है, और वह कर्म स्वरूप बन जाता है। इसलिए “पुद्गल द्रव्य आत्मा में आते हैं आप ऐसा क्यों कहते हो। उत्तर - यह कोई दोष नहीं है। यहाँ “पुद्गल द्रव्य आता है इसका अभिप्राय “ज्ञानावरणादि पर्याय को प्राप्त होता है ऐसा समझना। देशांतर से आकर पुद्गल कर्मावस्था को धारण करते हों ऐसा अभिप्राय नहीं है।

    5. आस्रवसे निवृत्त होनेका उपाय

    मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 241

    मिच्छत्ताविरदीहिंय कसायजोगेहिं जं च आसवदि। दंसणविरमणणिम्मह णिरोधेहिं तु णासवदि ॥241॥

    = मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योगों से जो कर्म आते हैं वे कर्म सम्यग्दर्शन विरति, क्षमादिभाव और योग निरोध से नहीं आने पाते-रुक जाते हैं।

    समयसार / मूल या टीका गाथा 73-74

    अहमिक्को खलु सुद्धो णिम्मओ णाणदंसणसमग्गो। तह्मि ठिओ तच्चित्तो सव्वे एए खयं णेमि ॥73॥ जीवणिबद्धा एए अधुव अणिच्चा तदा असरणा य। दुक्खा दुखफलात्ति य णादूण णिवत्तए तेहिं ॥74॥

    समयसार / आत्मख्याति गाथा 74

    यथा यथा विज्ञानस्वभावो भवतीति। तावद्विज्ञानघनस्वभावो भवति यावत्सम्यगास्रवेभ्यो निवर्त्तते।...इति ज्ञानास्रवनिवृत्त्योः समकालत्वं।

    = प्रश्न - आस्रवों से किस प्रकार निवृत्ति होती है। उत्तर - ज्ञानी विचारता है कि मैं निश्चय से पृथक् हूँ, शुद्ध हूँ, ममता रहित हूँ, ज्ञान दर्शन से पूर्ण हूँ, ऐसे स्वभाव में स्थित उसी चैतन्य अनुभव में लीन हुआ मैं इन क्रोधादि समस्त आस्रवों को क्षय कर देता हूँ ॥73॥ ये आस्रव जीव के साथ निबद्ध हैं; अध्रुव हैं, और अनित्य हैं, तथा अशरण हैं, दुःखरूप हैं, और जिनका फल दुःख ही है ऐसा जानकर ज्ञानी पुरुष उनसे निवृत्ति करता है ॥74॥ जैसा-जैसा आस्रवों से निवृत्त होता जाता है, वैसा-वैसा विज्ञानघन स्वभाव होता जाता है। उतना विज्ञान घनस्वभाव होता है, जितना आस्रवों से सम्यक् निवृत्ति हुआ है। इस प्रकार ज्ञान और आस्रव की निवृत्ति के समकालता है।

    भाषाकार - प्रश्न - `आत्मा विज्ञानघन स्वभाव होता जाता है' अर्थात् क्या? उत्तर- आत्मा ज्ञान में स्थिर होता जाता है।

    6. आस्रव व बन्धमें अंतर

    द्रव्यसंग्रह/टीका 33/94

    आस्रवे बंधे च मिथ्यात्वाविरत्यादि कारणानि समानानि को विशेषः। इति चैतः नैव; प्रथमक्षणे कर्मस्कन्धानामागमनमास्रवः, आगमनान्तरं द्वितीयक्षणादौ जीवप्रदेशेष्ववस्थानं बन्ध इति भैदः।

    = प्रश्न - आस्रव बन्ध होने के मिथ्यात्व, अविरति आदि कारण समान हैं इसलिए आस्रव व बन्ध में क्या भेद है। उत्तर - यह शंका ठीक नहीं, क्योंकि प्रथम क्षण में जो कर्म स्कन्धों का आगमन हैं, वह तो आस्रव है और कर्मस्कन्धों के आगमन के पीछे द्वितीय क्षण में जो उन कर्म स्कन्धों का जीव प्रदेशों में स्थित होना सो बन्ध है। यह भेद आस्रव और बन्ध में है।

    7. आस्रव व बन्ध दोनों युगपत् होते हैं

    तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 8/2

    “सकषायत्वाज्जीवः कर्मणा योग्यान्पुद्गलानादत्ते स बन्धः।

    = कषाय सहित होने से जीव कर्म के योग्य जो पुद्गलों का ग्रहण करता है वह आस्रव है। (और भी देखें सांपरायिक आस्रव का लक्षण ) ।

    8. अन्य संबंधित विषय

    • आठ कर्मों के आस्रव योग्य परिणाम - देखें /ज्ञानावरण दर्शनावरण 2.4 , वेदनीय 3 , दर्शनमोहनीय_निर्देश 2.9, नामकर्म , आयु 3 , गोत्रकर्म , अंतराय

    • पुण्य-पाप का आस्रव तत्त्व में अंतर्भाव - देखें तत्त्व - 2

    • कषाय अव्रत व क्रिया रूप आस्रवों में अंतर - देखें क्रिया 3.4

    • व्यवहार व निश्चय धर्म में आस्रव व संवर संबंधी चर्चा - देखें संवर - 2

    • ज्ञानी-अज्ञानी के आस्रव तत्व के कर्तृत्व में अंतर - देखें मिथ्यादृष्टि



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    पुराणकोष से

    मन, वचन और काय की क्रिया । इसे योग कहते हैं । इसके दो भेद हैं― शुभास्रव (पुण्यास्रव) और अशुभास्रव (पारास्रव) । सांपरायिक और ईर्यापथ । इन दोनों में सकषाय जीवों के सांपरायिक और कषाय रहित के ईर्यापथ आस्रव होता है । पांच इंद्रियाँ, चार कषाय हिंसा आदि पाँच अव्रत और पच्चीस क्रियाएँ सांपरायिक आस्रव के द्वार हैं । जीव एक सौ आठ क्रियाओं से आस्रव करता है । वे क्रियाएँ हैं― संरंभ, समारंभ और आरंभ । ये तीनों कृत, कारित और अनुमोदन, मन, वचन, काय तथा क्रोध, मान, माया, लोभ कषायों से होती हैं । परस्पर गुणा करने से इनके एक सौ आठ भेद हो जाते हैं । ऐसे परिणाम जीवकृत होने से जीवाधिकरण आस्रव नाम से जाने जाते हैं । दो प्रकार की निवर्तना, चार प्रकार का निक्षेप, दो प्रकार का संयोग और तीन प्रकार का निसर्ग ये अजीवाधिकरण आस्रव के भेद है । सरागियों को दुष्कर्मों की अपेक्षा पुण्यास्रव उपादेय होता है और मुमुक्षु को वह हेय है । अयत्न जनित पापास्रव समस्त दुःखों के कारण हैं, निंद्य और सर्वथा हेय हैं । हरिवंशपुराण 58.57-90 वीरवर्द्धमान चरित्र 17.50-51


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