ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 24-25 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
णाणप्पमाणमादा ण हवदि जस्सेह तस्स सो आदा । (24)
हीणो वा अहिओ वा णाणादो हवदि धुवमेव ॥25॥
हीणो जदि सो आदा तण्णाणमचेदणं ण जाणादि । (25)
अहिओ वा णाणादो णाणेण विणा कहं णादि ॥26॥
अर्थ:
[इह] इस जगत में [यस्य] जिसके मत में [आत्मा] आत्मा [ज्ञानप्रमाणं] ज्ञानप्रमाण [न भवति] नहीं है, [तस्य] उसके मत में [सः आत्मा] वह आत्मा [ध्रुवम् एव] अवश्य [ज्ञानात् हीन: वा] ज्ञान से हीन [अधिक: वा भवति] अथवा अधिक होना चाहिये ॥२४॥
[यदि] यदि [सः आत्मा] वह आत्मा [हीन:] ज्ञान से हीन हो [तत्] तो वह [ज्ञानं] ज्ञान [अचेतनं] अचेतन होने से [न जानाति] नहीं जानेगा, [ज्ञानात् अधिक: वा] और यदि [आत्मा] ज्ञान से अधिक हो तो [वह आत्मा] [ज्ञानेन विना] ज्ञान के बिना [कथं जानाति] कैसे जानेगा? ॥२५॥
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथात्मनो ज्ञानप्रमाणत्वानभ्युपगमे द्वौ पक्षावुपन्यस्य दूषयति -
यदि खल्वयमात्मा हीनो ज्ञानादित्यभ्युपगम्यते, तदात्मनोऽतिरिच्यमानं ज्ञानं स्वाश्रयभूत-चेतनद्रव्यसमवायाभावादचेतनं भवद्रूपादिगुणकल्पतामापन्नं न जानाति । यदि पुनर्ज्ञानादधिक इति पक्ष: कक्षीक्रियते तदावश्यं ज्ञानादतिरिक्तत्वात् पृथग्भूतो भवन् घटपटादिस्थानीयतामापन्नो ज्ञानमन्तरेण न जानाति । ततो ज्ञानप्रमाण एवायमात्माभ्यपगन्तव्य: ॥२४-२५ ॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
अब आत्मा को ज्ञान प्रमाण न मानने में दो पक्ष उपस्थित करके दोष बतलाते हैं :-
यदि यह स्वीकार किया जाये कि यह आत्मा ज्ञान से हीन है तो आत्मा से आगे बढ़ जाने-वाला ज्ञान (आत्मा के क्षेत्रसे आगे बढ़कर उससे बाहर व्याप्त होने-वाला ज्ञान) अपने आश्रय-भूत चेतन-द्रव्य का समवाय (सम्बन्ध) न रहने से अचेतन होता हुआ रूपादि गुण जैसा होने से नहीं जानेगा; और यदि ऐसा पक्ष स्वीकार किया जाये कि यह आत्मा ज्ञान से अधिक है तो अवश्य (आत्मा) ज्ञान से आगे बढ़ जाने से (ज्ञान के क्षेत्र से बाहर व्यास होने से) ज्ञान से पृथक् होता हुआ घट-पटादि जैसा होने से ज्ञान के बिना नहीं जानेगा । इसलिये यह आत्मा ज्ञान-प्रमाण ही मानना योग्य है ।