योगसार - निर्जरा-अधिकार गाथा 301
From जैनकोष
विद्वानों के लिये ग्रंथकार का दिशानिर्देश -
(मन्दाक्रान्ता)
अध्येतव्यं स्तिमितमनसा ध्येयमाराधनीयं
पृच्छ्यं श्रव्यं भवति विदुषाभ्यस्यमावर्जनीयम् । वेद्यं गद्यं किमपि तदिह प्रार्थनीयं विनेयं दृश्यं स्पृश्यं प्रभवति यत: सर्वदात्मस्थिरत्वम् ।।३०१।।
अन्वय :- इह विदुषा तद् किमपि स्तिमितमनसा अध्येतव्यं ध्येयं आराधनीयं पृच्छ्यं श्रव्यं अभ्यस्यं आवर्जनीयं वेद्यं गद्यं प्रार्थनीयं विनेयं दृश्यं स्पृश्यं भवति यत: सर्वदा आत्मस्थिरत्वं प्रभवति ।
सरलार्थ :- इस लोक में विद्वानों के लिये वह कोई भी पदार्थ स्थिर चित्त से अध्ययन के योग्य, ध्यान के योग्य, आराधन के योग्य, पूछने के योग्य, सुनने के योग्य, अभ्यास के योग्य, संग्रहण के योग्य, जानने के योग्य, कहने के योग्य, प्रार्थना के योग्य, प्राप्त करने के योग्य, देखने के योग्य और स्पर्श के योग्य होता है, जिसके अध्ययनादि से आत्मस्वरूप की स्थिरता सदा वृद्धि को प्राप्त होती है ।